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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - उपरिष्टाद्विराड् बृहती स्वरः - मध्यमः

    अग्ने॒ विव॑स्वदु॒षस॑श्चि॒त्रं राधो॑ अमर्त्य । आ दा॒शुषे॑ जातवेदो वहा॒ त्वम॒द्या दे॒वाँ उ॑ष॒र्बुधः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । विव॑स्वत् । उ॒षसः॑ । चि॒त्रम् । राधः॑ । अ॒म॒र्त्य॒ । आ । दा॒शुषे॑ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । व॒ह॒ । त्वम् । अ॒द्य । दे॒वाम् । उ॒षः॒ऽबुधः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने विवस्वदुषसश्चित्रं राधो अमर्त्य । आ दाशुषे जातवेदो वहा त्वमद्या देवाँ उषर्बुधः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । विवस्वत् । उषसः । चित्रम् । राधः । अमर्त्य । आ । दाशुषे । जातवेदः । वह । त्वम् । अद्य । देवाम् । उषःबुधः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (अग्ने) विद्वन् (विवस्वत्) यथा स्वप्रकाशस्वरूपः सूर्य्यः (उषसः) प्रातःकालात् (चित्रम्) अद्भुतं विवस्वत्प्रकाशकम् (राधः) धनम् (अमर्त्य) स्वस्वरूपेण मरणधर्मरहित साधारण मनुष्यस्वभावविलक्षण (आ) अभितः (दाशुषे) दात्रे पुरुषार्थिने मनुष्याय (जातवेदः) यो जातान् सर्वान्वेत्ति जातान्विन्दति वा तत्सम्बुद्धौ। अत्राह यास्कमुनिः। जातवेदाः कस्माज्जातानि वेद जातानि वैनं विदुर्जाते जाते विद्यतइति वा जातवित्तो वां जातधनो वा जातविद्यो वा जात#प्रज्ञो वा यत्तज्जातः पशूनविन्दतेति तज्जातवेदसो जातवेदस्त्वमिति ब्राह्मणम्। निरु० ७।१९। (वह) प्राप्नुहि। अत्र द्व्यचोतस्तिङ इति दीर्घः। (देवान्) उत्तमान् विदुषो दिव्यगुणान्वा (उषर्बुधः) यउषसि स्वयं बुध्यन्ते सुप्तान्बोधयन्ति तान् ॥१॥ #[वैदिक यन्त्रालय मुद्रित तृतीय संस्करणे तु ‘जातप्रज्ञानः’ इति पाठो वर्तते। सं०]

    अन्वयः

    अथाऽग्निशब्दसम्बन्धेन देवकामना कार्य्येत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे अमर्त्य जातवेदोऽग्ने ! विद्वन्यतस्त्वमद्य दाशुषे उषसश्चित्रं विवस्वद्राधो ददासि स उषर्बुधो देवाँश्चावह ॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैरीश्वराज्ञापालनाय स्वपुरुषार्थेन परमेश्वरमनलसानुत्तमान्विविदुषश्चाश्रित्य चक्रवर्त्तिराज्यविद्याश्रीः प्राप्तव्या सर्वविद्याविदो विद्वांसः परमोत्तमगुणाढ्यं यच्छ्रेष्ठं कर्म स्वीकर्त्तुमिष्टं तन्नित्यं कुर्य्युः। यद्दुष्टं कर्म्म तत्कदाचिन्नैव कुर्य्युरिति ॥१॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब चवालीसवें सूक्त का आरंभ है। उसके पहिले मंत्र में अग्नि शब्द के सम्बन्ध से विद्वानों की कामना करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (विवस्वत्) स्वप्रकाशस्वरूप वा विद्याप्रकाशयुक्त (अमर्त्य) मरण धर्म से रहित वा साधारण मनुष्य स्वभाव से विलक्षण (जातवेदः) उत्पन्न हुए पदार्थों को जानने वा प्राप्त होनेवाले (अग्ने) जगदीश्वर वा विद्वान् ! जिससे आप (अद्य) आज (दाशुषे) पुरुषार्थी मनुष्य के लिये (उषसः) प्रातःकाल से (चित्रम्) अद्भुत (विवस्वत्) सूर्य्य के समान प्रकाश करनेवाले (राधः) धन को देते हो वह आप (उषर्बुधः) प्रातःकाल में जागनेवाले विद्वानों को (आवह) अच्छे प्रकार प्राप्त कीजिये ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को परमेश्वर की आज्ञा पालन के लिये अपने पुरुषार्थ से परमेश्वर वा आलस्य रहित उत्तम विद्वानों का आश्रय लेकर चक्रवर्त्ति राज्य, विद्या और राजलक्ष्मी का स्वीकार करना चाहिये सब विद्याओं के जाननेवाले विद्वान् लोग जो उत्तम गुण और श्रेष्ठ अपने करने योग्य कर्म हैं उसीको नित्य करें और जो दुष्ट कर्म हैं उसको कभी न करें ॥१॥

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    विषय

    ज्ञानरूप धन व सत्संग

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - अग्रणी (अमर्त्यः) - कभी भी मृत्यु को न प्राप्त होनेवाले (जातवेदः) - सर्वज्ञ व सर्वधन प्रभो ! आप (उषसः) - उषः काल के (विवस्वत्) - अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले (चित्रम्) - अद्भुत व चेतना देनेवाले (रायः) - धन को (दाशुषे) - दाश्वान्, त्यागशील पुरुष के लिए (आवह) - सर्वथा प्राप्त कराइए । उषः काल का धन 'प्रकाश' है । यह अज्ञान को दूर करता है, चेतना को देनेवाला है । इस धन को प्राप्त करके हम भी आगे बढ़ते हैं [अग्नि], विषयों में नहीं फैंसते [अमर्त्य] और ज्ञान का प्रसार करनेवाले बनते हैं [जातवेद] । 
    २. यहाँ ज्ञानधन को उषः काल का धन कहा गया है । इसका अभिप्राय यही है कि इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए हमें उषः काल में अवश्य जागना चाहिए । यह ज्ञानधन 'दाश्वान्' को प्राप्त होता है, अर्थात् इसकी प्राप्ति के लिए दान व त्याग आवश्यक है । लोभ से आक्रान्त अराति को यह ज्ञान प्राप्त नहीं होता । 
    ३. हे प्रभो ! आप (अद्य) - आज (उषर्बुधः) - उषः काल में जागनेवाले (देवान्( - दिव्यगुण - सम्पन्न पुरुषों को (आवह) - हमारे समीप प्राप्त कराइए, अर्थात् हमारा सम्पर्क ऐसे पुरुषों से ही हो । सम्पर्क व सङ्ग से ही तो हमारा जीवन बनता है । अच्छे सङ्ग से अच्छा, बुरे से बुरा । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें ज्ञानधन प्राप्त हो । उसकी प्राप्ति के लिए हमें प्रातः जागरणशील ज्ञानियों का सत्सङ्ग प्राप्त हो । 
     

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    विषय

    अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन्! हे (अमर्त्य) जरामरण से रहित! हे (जातवेदः) समस्त पदार्थों के जाननेहारे, प्रत्येक पदार्थ में व्यापक! ऐश्वर्यवन्! विद्यावन्! समस्त जीवों के स्वामिन्! तू (दाशुषे) अपने को समर्पण कर देनेवाले साधक को (उषसः) उषाकाल में से उत्पन्न होने वाले, (विवस्वत्) सूर्य के समान प्रकाशवाले, (चित्रम्) अद्भुत, (राधः) ऐश्वर्य के समान (उषसः) पापों के जला देनेवाली विशोका प्रज्ञा के उदय कालों में (विवस्वत् = वि-वसु-वत्) विशेष प्राणों के सामर्थ्यों से युक्त, (चित्रम्) चेतना या चितिशक्ति से युक्त, (राधः) साधना का बल (आवह) प्राप्त करा। (त्वम्) तू (अद्य) आज भी (उषर्बुधः) प्रातःकाल ब्राह्ममुहूत्ते में जागनेवाले एवं उस विशोका प्रज्ञा के द्वारा विशेष ज्ञान सम्पन्न होनेवाले, (देवान्) विद्वान् ज्ञाननिष्ठ पुरुषों को भी (आवह) अपने में धारण कर। इसी प्रकार हे राजन्! प्रतापी सभाध्यक्ष! तू (उषसः) पापी लोगों के संतापकारी अपने उदयों या उत्थानों से ही प्रजा को अद्भुत ऐश्वर्य प्रदान कर और विद्वान् विजयी पुरुषों को धारण कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विरा‌ड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अब चवालीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहले मंत्र मंं अग्नि शब्द के सम्बन्ध से विद्वानों की कामना करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अमर्त्य जातवेदःअग्ने ! विद्वन् यतः त्वम् अद्य दाशुषे उषसः चित्रं विवस्वत् राधः ददासि स उषर्बुधः देवान् च आ वह ॥१॥

    पदार्थ

    हे (अमर्त्य) अपने स्वरूपेण मरणधर्मरहित साधारण मनुष्यस्वभावविलक्षण= स्वस्वरूप से मरणधर्म से रहित साधारण मनुष्य के स्वभाव की अवस्था से, (जातवेदः) यो जातान् सर्वान्वेत्ति जातान्विन्दति वा तत्सम्बुद्धौ=जो उत्पन्न होते ही सभी को जानता है, ऐसे (अग्ने) विद्वन् = विद्वान्! (यतः)=क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (अद्य)=आज, (दाशुषे) दात्रे पुरुषार्थिने मनुष्याय= पुरुषार्थी मनुष्य का, (उषसः) प्रातःकालात्=उषा काल, (चित्रम्) अद्भुतं विवस्वत्प्रकाशकम्= अद्भुत, (विवस्वत्) यथा स्वप्रकाशस्वरूपः सूर्य्यः=जैसे अपने प्रकाशस्वरूप में सूर्य, (राधः) धनम्=धन, (ददासि) =तुम्हें प्रदान करता है, (सः)=वह, (उषर्बुधः) यउषसि स्वयं बुध्यन्ते सुप्तान्बोधयन्ति तान्=जो उषायें स्वयम् ही जाग जाती हैं और सोये हुओं को जगाती हैं, (देवान्) उत्तमान् विदुषो दिव्यगुणान्वा=उत्तम विद्वानों और दिव्य गुणों के द्वारा, (च)=भी, (आ) अभितः=हर ओर से, (वह) प्राप्नुहि= प्राप्त कीजिये ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    मनुष्यों के द्वारा परमेश्वर की आज्ञा पालन के लिये अपने पुरुषार्थ से परमेश्वर की और आलस्य रहित होकर उत्तम विद्वानों का आश्रय लेकर चक्रवर्त्ति राज्य, विद्या और राजलक्ष्मी को प्राप्त करना चाहिये। सब विद्याओं के जाननेवाले विद्वान् लोग जो उत्तम गुण और श्रेष्ठ कर्म हैं, उन्हें स्वीकार करने के लिये इष्ट मानते हुए नित्य करें। जो दुष्ट कर्म है, उसको कभी न करें ॥१॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणियाँ- शास्त्रों में लक्ष्मी भाग्य, समृद्धि, धन आदि को कहा गया है। राजा की समृद्धि को राजलक्ष्मी कहा गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अमर्त्य) अपने स्वरूप से मरणधर्म से रहित, साधारण मनुष्य के स्वभाव की अवस्था से (जातवेदः) जो उत्पन्न होते ही सभी को जानता है, ऐसे (अग्ने) विद्वान्! (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (अद्य) आज के समय अभी, (दाशुषे) पुरुषार्थी मनुष्य का (उषसः) उषा काल (चित्रम्) अद्भुत होता है. (विवस्वत्) जैसे सूर्य अपने प्रकाशस्वरूप में [तुम्हें] (राधः) धन (ददासि) प्रदान करता है। (सः) वह (उषर्बुधः) जो उषायें स्वयम् ही जाग जाती हैं और सोये हुओं को जगाती हैं। (देवान्) उत्तम विद्वानों और दिव्य गुणों के द्वारा (च) भी (आ) हर ओर से (वह) [उन्हें] प्राप्त कीजिये ॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत) -(अग्ने) विद्वन् (विवस्वत्) यथा स्वप्रकाशस्वरूपः सूर्य्यः (उषसः) प्रातःकालात् (चित्रम्) अद्भुतं विवस्वत्प्रकाशकम् (राधः) धनम् (अमर्त्य) स्वस्वरूपेण मरणधर्मरहित साधारण मनुष्यस्वभावविलक्षण (आ) अभितः (दाशुषे) दात्रे पुरुषार्थिने मनुष्याय (जातवेदः) यो जातान् सर्वान्वेत्ति जातान्विन्दति वा तत्सम्बुद्धौ। अत्राह यास्कमुनिः। जातवेदाः कस्माज्जातानि वेद जातानि वैनं विदुर्जाते जाते विद्यतइति वा जातवित्तो वां जातधनो वा जातविद्यो वा जात#प्रज्ञो वा यत्तज्जातः पशूनविन्दतेति तज्जातवेदसो जातवेदस्त्वमिति ब्राह्मणम्। निरु० ७।१९। (वह) प्राप्नुहि। अत्र द्व्यचोतस्तिङ इति दीर्घः। (देवान्) उत्तमान् विदुषो दिव्यगुणान्वा (उषर्बुधः) यउषसि स्वयं बुध्यन्ते सुप्तान्बोधयन्ति तान् ॥१॥ #[वैदिक यन्त्रालय मुद्रित तृतीय संस्करणे तु ‘जातप्रज्ञानः’ इति पाठो वर्तते। सं०] विषयः- अथाऽग्निशब्दसम्बन्धेन देवकामना कार्य्येत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे अमर्त्य जातवेदोऽग्ने ! विद्वन्यतस्त्वमद्य दाशुषे उषसश्चित्रं विवस्वद्राधो ददासि स उषर्बुधो देवाँश्चावह ॥१॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैरीश्वराज्ञापालनाय स्वपुरुषार्थेन परमेश्वरमनलसानुत्तमान्विविदुषश्चाश्रित्य चक्रवर्त्तिराज्यविद्याश्रीः प्राप्तव्या सर्वविद्याविदो विद्वांसः परमोत्तमगुणाढ्यं यच्छ्रेष्ठं कर्म स्वीकर्त्तुमिष्टं तन्नित्यं कुर्य्युः। यद्दुष्टं कर्म्म तत्कदाचिन्नैव कुर्य्युरिति ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात धर्माची प्राप्ती, उत्तम दूत, सर्व विद्यांचे श्रवण, उत्तम श्रीची प्राप्ती, श्रेष्ठ संग, स्तुती व सत्कार, पदार्थ विद्या, सभाध्यक्ष दूत व यज्ञाचे अनुष्ठान, मित्र इत्यादींचे ग्रहण, परस्पर संमतीने सर्व कार्याची सिद्धी, उत्तम व्यवहारांची स्थिती, परस्पर विद्या धर्म राजसभांचे श्रवण करून अनुष्ठान करण्याबाबत सांगितलेले आहे. यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    माणसांनी परमेश्वराची आज्ञा पालन करण्यासाठी आपल्या पुरुषार्थाने परमेश्वर व उत्तम विद्वानांचा आश्रय घेऊन चक्रवर्ती राज्य, विद्या व राज्यलक्ष्मीचा स्वीकार केला पाहिजे. सर्व विद्या जाणणाऱ्या विद्वान लोकांनी उत्तम गुण व श्रेष्ठकर्म नित्य करावे. दुष्ट कर्म कधीही करू नये. ॥ १ ॥

    टिप्पणी

    या सूक्तात सायणाचार्य, विल्सन, मोक्षमूलर इत्यादींनी युजो बृहती अयुजो बृहती छन्दः सांगितलेले आहेत. ते मिथ्या आहेत. याच प्रकारे त्यांचे छन्दांचे ज्ञान सर्वत्र जाणावे.

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, lord of life, blazing as the sun, immortal, omniscient of things bom, for the man of charity who has surrendered himself to you, you bring today wonderful wealth of the dawn, and let the yogis and blessings of nature awake at the dawn.

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    Subject of the mantra

    Now is the beginning of the forty-fourth hymn. In its first mantra, scholars should wish in relation to the word Agni, this topic has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (amartya)=by its nature devoid of mortal nature, by the state of the nature of an ordinary man (jātavedaḥ) The one who knows everyone as soon as he is born, such (Agne)=scholar! (yataḥ)=because, (tvam)=you, (adya)=today now, (dāśuṣe)=of man of effort, (uṣasaḥ)=down, (citram)=is amazing, (vivasvat)=as like the sun in its lightened form, [tumheṃ]=to you, (rādhaḥ)=wealth, (dadāsi)=provides, (saḥ)=those, (uṣarbudhaḥ)=the dawns that wake up on their own and wake up the sleeping ones, (devān)=by great scholars and divine qualities, (ca)=also, (ā) =from all sides, (vaha)=obtain, [unheṃ]=to them.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar who knows all as soon as he is born, in aspect of the nature of an ordinary man, free from the nature of death! Because now, the dawn time of a man uses to be wonderful. Just like the sun in its lightened form gives you wealth. The dawns those wake up on their own and wake up the sleeping ones. Obtain them from all sides as well by excellent scholars and divine qualities.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- In order to obey the Supreme Lord through human beings, one should attain the Chakravarti kingdom, knowledge and Rajalakshmi by taking the shelter of the best scholars and without laziness by his efforts. To accept the best qualities and best deeds, the learned people who possess all the knowledge, do it daily, considering them as good. Never do a bad deed.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Fortune, prosperity, wealth etc. have been told in the scriptures as Lakshmi. The prosperity of the king is called Rajalakshmi.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) Spiritual Interpretation-- O Immortal, Omnipresent and Omniscient God, grant unto us to-day (every day) the wonderful wealth of enlightenment. Bring to Thy devotees divine virtues created by spiritual wisdom. Mayst Thou dispel gloom of ignorance by appearing in our hearts, just as darkness of night recedes at the advent of Dawn. (2) In the case of enlightened persons:- O highly educated person shining like the fire immortal (by nature as the soul never dies) and extra-ordinary, thou givest wealth (of wisdom and knowledge) to an industrious man of charitable disposition, as the sun gives light in the morning. Bring to us divine virtues and enlightened persons who get up early in the morning and make others also wake up at that time.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जातवेदः) परमात्मपक्षे जाते २ विद्यते जातानि वेद वेति निरुक्तानुसारम् ( निरु० ७.१९ ) सर्वव्यापक सर्वज्ञ वा, विद्वत्पक्षे जातवेत्त: ( अमर्त्य ) स्वस्वरूपेण मरणधर्मरहितसाधारणमनुष्यस्वभावविलक्षण | = Immortal (by nature as soul) or extra-ordinary. ( दाशुषे ) दात्रे पुरुषाथिने मनुष्याय = For a liberal industrious person. ( उषर्बुध : ) ये उषसि स्वयं बुध्यन्ते सुप्तान् बोधयन्ति च तान् । = To them who get up early in the morning and wake others up.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should exert themselves and achieve all prosperity for obeying the command of God and by taking shelter in Him and noble learned persons. Learned persons well-versed in all sciences, should always do a noble meritorious act. They should never do an ignoble, wicked deed.

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