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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 12
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    यद्दे॒वानां॑ मित्रमहः पु॒रोहि॒तोऽन्त॑रो॒ यासि॑ दू॒त्य॑म् । सिन्धो॑रिव॒ प्रस्व॑नितास ऊ॒र्मयो॒ऽग्नेर्भ्रा॑जन्ते अ॒र्चयः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । दे॒वाना॑म् । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । पु॒रःऽहितः । अन्त॑रः । यासि॑ । दू॒त्य॑म् । सिन्धोः॑ऽइव । प्रऽस्व॑नितासः । ऊ॒र्मयः॑ । अ॒ग्नेः । भ्रा॒ज॒न्ते॒ । अ॒र्चयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्देवानां मित्रमहः पुरोहितोऽन्तरो यासि दूत्यम् । सिन्धोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेर्भ्राजन्ते अर्चयः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । देवानाम् । मित्रमहः । पुरःहितः । अन्तरः । यासि । दूत्यम् । सिन्धोःइव । प्रस्वनितासः । ऊर्मयः । अग्नेः । भ्राजन्ते । अर्चयः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 12
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    (यत्) यः (देवानाम्) विदुषाम् (मित्रमहः) यो मित्राणां महः पूज्यः (पुरोहितः) पुर एनं दधति पुरोऽयं दधाति सः (अन्तरः) मध्यस्थः सन् (यासि) गच्छसि (दूत्यम्) दूतस्य भागं कर्म वा (सिंधोरिव) यथा समुद्रस्य (प्रस्वनितासः) प्रकृष्टतया शब्दायमानाः (ऊर्मयः) वीचयः (अग्नेः) विद्युतो भौतिकस्य वा (भ्राजन्ते) प्रकाशन्ते (अर्चयः) दीप्तयः ॥१२॥

    अन्वयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते।

    पदार्थः

    हे मित्रमहो विद्वन् ! यस्त्वं सिंधोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेरर्चयो भ्राजंते पुरोहितोऽन्तरस्सन्देवानां दूत्यं यासि सोऽस्माभिः सत्कर्त्तव्यः कथं न स्याः ॥१२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः ! यूयं यथा परमेश्वरः सर्वेषां मनुष्याणां मित्रः पूज्यः पुरोहितोन्तर्य्यामी सन् दूतवदन्तरात्मनि सत्यमसत्यं कर्म जानाति। एवं यस्येश्वरस्यानंता दीप्तयश्चरन्ति स एव जगदीश्वरः सर्वस्य धाता रचकः पालको न्यायकारी महाराजः सर्वैरुपास्योऽस्ति तथोत्तमो दूतः सत्करणीयो भवति ॥१२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (मित्रमहः) मित्रों में बड़े पूजनीय विद्वान् ! आप मध्यस्थ होकर (दूत्यम्) दूत कर्म को (यासि) प्राप्त करते हो जिस (अग्नेः) आत्मा की (सिन्धोरिव) समुद्र के सदृश (प्रस्वनितासः) शब्द करती हुई (ऊर्मयः) लहरियाँ (अग्नेः) अग्नि के (अर्चयः) दीप्तियां (भ्राजन्ते) प्रकाशित होती हैं। (पुरोहितः) पुरोहित तथा (अन्तरः) मध्यस्थ होते हुए (देवानाम्) विद्वानों के (दूत्यम्) दूत के स्वभाव को (यासि) प्राप्त होते हो सो आप हम लोगों को सत्कार के योग्य क्यों न हों ॥१२॥

    भावार्थ

    इस मंत्र में उपमालंकार है। हे मनुष्यो ! तुम जैसे परमेश्वर सबका मित्र पूजनीय पुरोहित अन्तर्यामी होकर दूत के समान सत्य असत्य कर्मों का प्रकाश करता है जैसे ईश्वर की अनन्त दीप्ति विचरती हैं जो ईश्वर सबका धाता, रचने वा पालन करने वा न्यायकारी महाराज सबको उपासने योग्य है, वैसे उत्तम दूत भी राजपुरुषों को माननीय होता है ॥१२॥

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    विषय

    दीप्त व शान्त ज्ञान

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! (मित्रमहः) - स्नेहयुक्त तेजस्वितावाले [महस् - तेजः], (पुरोहितः) - सबके सामने आदर्शरूप से स्थित (अन्तरः) - हृदय में स्थित हुए - हुए आप (यत्) - जब (देवानां दूत्यं यासि) - देवों के दूतकर्म को प्राप्त करते हैं, अर्थात् जब प्रभु ज्ञान का सन्देश प्राप्त कराते हैं तब (सिन्धोः) - समुद्र की (प्रस्वनितासः ऊर्मयः इव) - गर्जती हुई लहरों की भाँति (अग्नेः) - इस प्रगतिशील जीव की (अर्चयः) - ज्ञानदीप्तियाँ (भ्राजन्ते) - चमक उठती हैं । 
    २. प्रभु तेजस्वी हैं परन्तु उनका तेज स्नेह से युक्त है, अतः वह तेज कभी सन्तापक नहीं होता । 
    ३. वे प्रभु सभी के पुरोहित हैं - सभी के सामने आदर्शरूप से स्थित हैं । हमें अपने पिता प्रभु का ही तो अनुरूप पुत्र बनना है । 
    ४. ये प्रभु हमारे हृदयों में स्थित हैं, हृदयस्थ होकर हमें ज्ञान दे रहे हैं । 
    ५. इस प्रकार जब हमें प्रभु के ज्ञान का यह सन्देश प्राप्त होता है तब हमारी ज्ञान की दीप्तियाँ इस प्रकार चमकती हैं मानो समुद्र की गर्जती हुई लहरें हों । इस उपमा का सौन्दर्य इस बात में है कि ज्ञान अग्नि के समान देदीप्यमान है तो जल के समान शान्ति देनेवाला भी है । लहरों की उच्चता ज्ञान की उच्चता का संकेत कर रही है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु से प्राप्त होनेवाला ज्ञान हमें दीप्त व शान्त बनानेवाला है । 
     

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    विषय

    सिन्धु के दृष्टान्त से वर्णन

    भावार्थ

    हे (मित्रमहः) मित्र अर्थात् सूर्य के समान महान् तेज और सामर्थ्य वाले! तथा (मित्रमहः) मित्रों, स्नेह करने वाले सुहृदों में से सबसे अधिक पूजनीय परमेश्वर! तू (देवानां) समस्त सूर्य, पृथिवी आदि लोकों और विद्वानों के बीच (यत्) ही (पुरः हितः) सबके साक्षी रूप से विद्यमान सर्वोच्च पद पर स्थापित, (अन्तरः) सबके अन्तःकरणों में व्यापक, अन्तर्यामी, होकर (दूत्यम् यासि) सर्वोपास्य पद को प्राप्त है। (सिन्धोः) महान् सागर के (प्र-स्वनितासः) भारी गर्जना करने ब्राले (ऊर्मयः) तरंग जिस प्रकार उमड़ते हैं और (अग्नेः) आग की (अर्चयः) ज्वालाएं जिस प्रकार (भ्राजन्ते) भड़का करती हैं उसी प्रकार (सिन्धोः) सर्वत्र व्यापक, एवं सबको अपने भीतर बांधने वाले या सबको चलाने हारे, शक्ति और ज्ञान के अगाध सागर तेरे में से ही ये सब तरंगें उमड़तीं और प्रकाशस्वरूप तेरी ही समस्त ये ज्योतिज्वालाएं चमक रही हैं। दूत और विद्वान् के पक्ष में—हे (मित्रमहः) मित्र राजा के समान पूज्य! (अन्तरः सन् पुरोहितः दूत्यं यासि) मित्र और शत्रुरूप दोनों के बीच तू साक्षी रूप होकर दूतकर्म के लिये जा। (ते प्रस्वनितासः सिन्धोः ऊर्मयः इव अग्नेः अर्वय इव भ्राजन्ते) तेरे गर्जना पूर्ण वचन सिन्धु की तरंगों और अग्नि की ज्वालाओं के समान उमड़ें, उठें और चमकें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विरा‌ड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर वह विद्वान् कैसा है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मित्रमहः विद्वन् ! यः त्वं सिंधोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयः अग्नेःअर्चयः भ्राजंते पुरोहितः अन्तरः सन् देवानां दूत्यं यासि सः अस्माभिः सत्कर्त्तव्यः कथं न स्याः ॥१२॥

    पदार्थ

    हे (मित्रमहः) यो मित्राणां महः पूज्यः=मित्रों में महान पूजनीय, (विद्वन्)= विद्वान् ! (यः)=जो, (त्वम्)=तुम, (सिंधोरिव) यथा समुद्रस्य=समुद्र जैसे, (प्रस्वनितासः) प्रकृष्टतया शब्दायमानाः=प्रकृष्ट रूप से शब्द करते हुए, (ऊर्मयः) वीचयः=लहरदार तरंगें, (अग्नेः) विद्युतो भौतिकस्य वा= विद्युत या भौतिक अग्नि की, (अर्चयः) दीप्तयः= दीप्तियां, (भ्राजन्ते) प्रकाशन्ते= प्रकाशित होती है, (पुरोहितः) पुर एनं दधति पुरोऽयं दधाति सः=पहले धारण और पहले देनेवालों के, (अन्तरः) मध्यस्थः सन्=मध्य में स्थित होते हुए, (देवानाम्) विदुषाम्=विद्वानों के, (दूत्यम्) दूतस्य भागं कर्म वा=दूत कर्म को, (यासि) गच्छसि=प्राप्त करते हो, (सः)=वह, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (सत्कर्त्तव्यः)= सत्कर्त्तव्य, (कथम्)=कैसे, (न)=न, (स्याः)=होवें ॥१२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    हे मनुष्यो ! जैसे परमेश्वर सब मनुष्यों का मित्र, पूजनीय, पुरोहित, अन्तर्यामी होकर दूत के समान अन्तर आत्मा में सत्य और असत्य कर्मों को जानता है। इसी प्रकार से इस ईश्वर की अनन्त दीप्ति विचरती हैं। वह ईश्वर ही सबका धारण करनेवाला, रचनेवाला, पालन करनेवाला और न्यायकारी महाराज है और सबके द्वारा उपासने किये जाने योग्य है, वैसे ही उत्तम दूत सत्कार किये जाने योग्य होता है ॥१२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मित्रमहः) मित्रों में महान् पूजनीय (विद्वन्) विद्वान् ! (यः) जो (त्वम्) तुम, (प्रस्वनितासः) प्रकृष्ट रूप से शब्द करते हुए (सिंधोरिव) समुद्र जैसे (ऊर्मयः) लहरदार तरंगो से (अग्नेः) विद्युत या भौतिक अग्नि की (अर्चयः) दीप्तियां (भ्राजन्ते) प्रकाशित होती है, [ऐसे ही] (पुरोहितः) पहले धारण किये हुए और पहले देनेवालों के (अन्तरः) मध्य में स्थित होते हुए (देवानाम्) विद्वानों के (दूत्यम्) दूत कर्म को (यासि) प्राप्त करते हो। (सः) वह (सत्कर्त्तव्यः) सत्कर्त्तव्य (अस्माभिः) हमारे द्वारा (कथम्) कैसे (न) न (स्याः) होवें ॥१२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (यत्) यः (देवानाम्) विदुषाम् (मित्रमहः) यो मित्राणां महः पूज्यः (पुरोहितः) पुर एनं दधति पुरोऽयं दधाति सः (अन्तरः) मध्यस्थः सन् (यासि) गच्छसि (दूत्यम्) दूतस्य भागं कर्म वा (सिंधोरिव) यथा समुद्रस्य (प्रस्वनितासः) प्रकृष्टतया शब्दायमानाः (ऊर्मयः) वीचयः (अग्नेः) विद्युतो भौतिकस्य वा (भ्राजन्ते) प्रकाशन्ते (अर्चयः) दीप्तयः ॥१२॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे मित्रमहो विद्वन् ! यस्त्वं सिंधोरिव प्रस्वनितास ऊर्मयोऽग्नेरर्चयो भ्राजंते पुरोहितोऽन्तरस्सन्देवानां दूत्यं यासि सोऽस्माभिः सत्कर्त्तव्यः कथं न स्याः ॥१२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्याः ! यूयं यथा परमेश्वरः सर्वेषां मनुष्याणां मित्रः पूज्यः पुरोहितोन्तर्य्यामी सन् दूतवदन्तरात्मनि सत्यमसत्यं कर्म जानाति। एवं यस्येश्वरस्यानंता दीप्तयश्चरन्ति स एव जगदीश्वरः सर्वस्य धाता रचकः पालको न्यायकारी महाराजः सर्वैरुपास्योऽस्ति तथोत्तमो दूतः सत्करणीयो भवति ॥१२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो तुम्ही (हे जाणा) जसा परमेश्वर सर्वांचा मित्र, पूजनीय, पुरोहित, अंतर्यामी असून दूताप्रमाणे सत्य-असत्य कर्म जाणतो. ज्या ईश्वराची दीप्ती सर्वत्र विचरण करते तो ईश्वर सर्वांचा धाता, निर्माणकर्ता किंवा पालनकर्ता अथवा न्यायकारी राजा असून सर्वांनी उपासना करावी असा आहे. तसे उत्तम दूतही राजपुरुषाकडून मान्यता पावलेला असतो. ॥ १२ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Lord of light, you are the greatest friend of the brilliant men of knowledge and vision, morning call of the high-priest in the mind, leading light of the voice divine, and the invitation to live by the yajna fire. And the flames of fire blaze like the rolling waves of the sea (at the dawn).

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    Subject of the mantra

    Then how is that scholar, this subject has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (mitramahaḥ)=most respected among friends, (vidvan)=scholar, (yaḥ)=which, (tvam)=you, (prasvanitāsaḥ) =excellently makin words, (siṃdhoriva) =like an ocean, (ūrmayaḥ)=with rippling waves, (agneḥ)=of electrical or physical fire, (arcayaḥ)=blazes, (bhrājante)=illuminates, [aise hī]=in the same way, (purohitaḥ)=of the first possessors and the first givers, (antaraḥ)=being centrally located, (devānām) =of the scholar’s, (dūtyam)=to messenger’s deeds, (yāsi) =you obtain, (saḥ)=that, (satkarttavyaḥ) truthful karm, (asmābhiḥ) =by us, (katham)=how, (na)=not, (syāḥ)=must be.

    English Translation (K.K.V.)

    O most revered among friends scholar! O you who, uttering the sound of eloquent waves like the ocean, emit the brightness of electric or physical fire, being situated in the midst of the first possessors and the first givers, you attain the mission of the messenger of the learned. How can that truthful deed must not be done by us.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans! Just as God is the friend of all human beings, reverend, priest, and knows the true and false deeds in the inner soul like an angel. In the same way, the infinite radiance of this God pervades around. That God is the one who sustains, creates, maintains and judges all and is worthy of being worshiped by all, in the same way a good messenger is worthy of being respected.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Agni is taught in the 12th Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O learned person adored by your friends, like the resounding" billows of the ocean and roaring flames of the fire, your lusters of knowledge shine forth when you act as ministering priest or as an ambassador.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( मित्रमहः ) यो मित्राणां महः पूज्य: ( मह-पूजायाम् ) = To be adored by friends. ( पुरोहित ) पुर एनं दधाति, पुरो यं दधाति सः = High priest.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, God is the Adorable Friend of all, well-wisher High Priest of all men and their innermost Spirit, knows like a messenger the good or bad acts of all souls, whose unlimited lusters shine forth all around the world. Such a God is the Creator, Sustainer and Nourisher of the universe and its Sovereign Dispenser of Justice. He must be worshipped by all. In the same manner, a noble ambassador or messenger should also be respected by all.

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