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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    जुष्टो॒ हि दू॒तो असि॑ हव्य॒वाह॒नोऽग्ने॑ र॒थीर॑ध्व॒राणा॑म् । स॒जूर॒श्विभ्या॑मु॒षसा॑ सु॒वीर्य॑म॒स्मे धे॑हि॒ श्रवो॑ बृ॒हत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जुष्टः॑ । हि । दू॒तः । असि॑ । ह॒व्य॒ऽवाहनः । अग्ने॑ । र॒थीः । अ॒ध्व॒राणा॑म् । स॒ऽजूः । अ॒श्विऽभ्या॑म् । उ॒षसा॑ । सु॒ऽवीर्य॑म् । अ॒स्मे इति॑ । धे॒हि॒ । श्रवः॑ । बृ॒हत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जुष्टो हि दूतो असि हव्यवाहनोऽग्ने रथीरध्वराणाम् । सजूरश्विभ्यामुषसा सुवीर्यमस्मे धेहि श्रवो बृहत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जुष्टः । हि । दूतः । असि । हव्यवाहनः । अग्ने । रथीः । अध्वराणाम् । सजूः । अश्विभ्याम् । उषसा । सुवीर्यम् । अस्मे इति । धेहि । श्रवः । बृहत्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 2
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (जुष्टः) प्रीतः सेवितः (हि) खलु (दूतः) शत्रूणामुपतापयिताऽतिप्रतापगुणयुक्तो वा (असि) (हव्यवाहनः) यो हव्यानि ग्राह्यदातव्यानि हुतानि द्रव्याणि यानानि वा वहति प्राप्नोति सः (अग्ने) राजविद्याविचक्षण (रथीः) प्रशस्ता रथा यस्य सन्ति सः। अत्र छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। अ० ५।२।१०९। अनेन# रथशब्दान्मत्वर्थ ईप्रत्ययः। (अध्वराणाम्) अहिंसनीयानां यज्ञानां मध्ये (सजूः) यः समानान् जुषते। अत्र जुष धातोः क्विप् समानस्य सादेशश्च (अश्विभ्याम्) वायुजलाभ्याम् (उषसाः) प्रातःकालेन युक्तया क्रियया (सुवीर्य्यम्) सुष्ठुवीर्य्याणि यस्य सः (अस्मे) अस्मासु। अत्र सुपां सुलुग् इति सप्तम्याः स्थाने शे आदेशः। (धेहि) धर (श्रवः) सर्वविद्याश्रवणनिमित्तमन्नम् (बृहत्) महत्तमम् ॥२॥ #[वार्त्तिकेन। सं०।]

    अन्वयः

    पुनर्विद्वत्संगगुणा उपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    हे अग्ने विद्वन् ! यतस्त्वं जुष्टो दूतः सन्नध्वराणां रथीर्हव्यवाहनः सजूरसि तस्मादस्मे अश्विभ्यामुषसा सिद्धं बृहत्सुवीर्य्यं श्रवो धेहि ॥२॥

    भावार्थः

    नहि कश्चिद्विदुषां सङ्गेन विना सर्वविद्यां प्राप्य शत्रुविजयमुत्तमं पराक्रमं चक्रवर्त्यादिश्रियं च प्राप्तुं शक्नोति। नहि खल्वग्नेर्जलादियोगेन विनोत्तमव्यवहारसिद्धिं च प्राप्तुमर्हतीति ॥२॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर विद्वानों के सङ्ग के गुणों का उपदेश अगले मंत्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) पावक के समान राजविद्या के जाननेवाले विद्वान् ! (हि) जिस कारण आप (जुष्टः) प्रसन्न प्रकृति और (दूतः) शत्रुओं को ताप करानेवाले होकर (अध्वराणाम्) अहिंसनीय यज्ञों को सिद्ध करते (रथीः) प्रशंसनीय रथयुक्त (हव्यवाहनः) देने लेने योग्य वस्तुओं को प्राप्त होने (सजूः) अपने तुल्यों के सेवन करनेवाले (असि) हो इससे (अस्मे) हम लोगों में (अश्विभ्याम्) वायु जल (उषसा) प्रातःकाल में सिद्ध हुई क्रिया से सिद्ध किये हुए (बृहत्) बड़े (सुवीर्य्यम्) उत्तम पराक्रम कारक (श्रवः) सब विद्या के श्रवण का निमित्त अन्न को (धेहि) धारण कीजिये ॥२॥

    भावार्थ

    कोई मनुष्य विद्वानों के सङ्ग के विना विद्या को प्राप्त, शत्रु को जीतके उत्तम पराक्रम चक्रवर्त्ति राज्य लक्ष्मी के प्राप्त होने को समर्थ नहीं हो सकता और अग्नि जल आदि के योग के विना उत्तम व्यवहार की सिद्धि भी नहीं कर सकता ॥२॥

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    विषय

    बृहत् श्रव

    पदार्थ

    १. हे प्रभो ! आप (जुष्टः) - प्रीतिपूर्वक सेवित व उपासित हुए - हुए (हि) - निश्चय से (दूतः असि) - वेदरूप ज्ञान - सन्देश के प्राप्त करानेवाले हैं । हम जब प्रभु का उपासन करते हैं तब प्रभु हमें ज्ञान देते हैं । 
    २. हे प्रभो ! आप (हव्यवाहनः) - सब उत्तम पदार्थों को देनेवाले हैं । 
    ३. हे (अग्ने) - अग्नणी प्रभो ! आप (अध्वराणां रथीः) - सब हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों के सञ्चालक हैं । प्रभुभक्तों के जीवनों के माध्यम से सब यज्ञात्मक कर्मों को प्रभु ही कर रहे होते हैं । 
    ४. हे प्रभो ! (अश्विभ्याम्) - प्राणापानो व (उषसा, सजूः) - उषः काल के साथ (अस्मे) - हमारे लिए (सुवीर्यम्) - उत्तम वीर्य को (धे) - स्थापित कीजिए । शक्ति को प्राप्त करके ही तो हम यज्ञात्मक कर्मों को कर पाएँगे । 
    ५. इस शक्ति की प्राप्ति के लिए (बृहत्) - वृद्धि के कारणभूत (श्रवः) - अन्न को हममें धारण कीजिए [श्रवः, अन्ननाम, नि०] । 
    ६. वस्तुतः यह 'बृहत् श्रव' हममें सुवीर्य को उत्पन्न करेगा । इस वीर्य को सुरक्षित करने के लिए प्राणसाधना व उषः जागरण सहायक हैं । सुवीर्य बनकर हम यज्ञों में प्रवृत्त होते हैं । यज्ञशील पुरुष हव्य का ही सेवन करता है । यह 'हव्य - सेवन' ही प्रभु का उपासन हो जाता है और उपासित प्रभु ज्ञान का सन्देश प्राप्त कराते हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें चाहिए कि [क] वृद्धि के कारणभूत अन्न का ही सेवन करें । [ख] सुवीर्य को प्राप्त करें । [ग] प्राणसाधना व प्रातः जागरण द्वारा वीर्य की रक्षा करें । [घ] यज्ञशील हों । [ङ] हव्य का ही सेवन करें । [च] प्रभु का उपासन करें । [छ] उसके ज्ञान - सन्देश को सुनें । 
     

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    विषय

    अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन्! ज्ञानवन्! विद्वन्! जिस प्रकार अग्नि अपने बीच में पड़े आहुति के पदार्थों को सूक्ष्म रूप से अति गुणकारी करके दूर देश तक पहुंचाता है उसी प्रकार तू भी (हव्य-वाहनः) ले जाने और ले आने योग्य वृत्तान्तों और संदेशों को सूक्ष्म रूप से प्रजा के हित के लिए ले जानेहारा है। इसीलिए तू (जुष्टः) सबका प्रीतिपात्र और (दूतः) दूत एवं शत्रुओं का तापक होने से भी ‘दूत’ (असि) होने योग्य है। तू (अध्वराणाम्) कभी शस्त्रादि से भी न मारने योग्य अवध्य पुरुषों में से (रथीः) रथवान् नायक के समान सर्वप्रमुख है। तू (अश्विभ्याम्) दिन रात्रि और (उपसा सजूः) प्रातः उषा काल इनसे युक्त होकर अग्नि जिस प्रकार उत्तम बलकारी अन्न प्रदान करता है उसी प्रकार हे विद्वन्! तू भी (अश्विभ्याम्) राजा और प्रजावर्ग दोनों या दो अश्वारोही और (उषसा) तेजस्वी उषा के समान विद्या और प्रभाव से (सजूः) युक्त होकर (अस्मे) हमें (सुवीर्यम्) उत्तम वीर्य बल से युक्त (बृहत्) बड़े भारी राष्ट्र और (श्रवः) विख्यात यश को (धेहि) प्रदान कर । ‘अग्नि’—यज्ञ के बीच नायक होने से ‘रथी’ है। वह परिपाक करके वीर्यप्रद अन्न देता है। परमेश्वर पक्ष में—उपास्य होने से ‘दूत’ है। स्तुति योग्य होने से हव्यवाहन है। रसस्वरूप होने से अविनाशी जीवों के बीच रथी है। वह प्राण, अपान और प्रजा के उदय से बड़ा ज्ञान प्रदान करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विरा‌ड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर विद्वानों के सङ्ग के गुणों का उपदेश इस मंत्र में किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने विद्वन् ! यतः त्वं जुष्टः दूतः सन् अध्वराणां रथीः हव्यवाहनः सजूः असि तस्मात् अस्मे अश्विभ्याम् उषसा सिद्धं बृहत् सुवीर्य्यं श्रवः धेहि ॥२॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) राजविद्याविचक्षण= राजविद्या में दक्ष, (विद्वन्)=विद्वान् ! (यतः)=क्योंकि, (त्वम्)=तुम, (जुष्टः) प्रीतः सेवितः= प्रीति से सेवन किये हुए, (दूतः) शत्रूणामुपतापयिताऽतिप्रतापगुणयुक्तो वा= शत्रुओं के द्वारा और अति वैभव के गुण से युक्त, (सन्)=होते हुए, (अध्वराणाम्) अहिंसनीयानां यज्ञानां मध्ये= हिंसा रहित यज्ञों में, (रथीः) प्रशस्ता रथा यस्य सन्ति सः=जिसके प्रशंसनीय रथ हैं, वह (हव्यवाहनः) यो हव्यानि ग्राह्यदातव्यानि हुतानि द्रव्याणि यानानि वा वहति प्राप्नोति सः=जो हवियों को ग्रहण करता और देता है या वह जिसे आहुति में द्रव्य दिये जाते हैं दी जाती हैं या जो यानों को चलाता और पहुँचाता है, (सजूः) यः समानान् जुषते=जो यज्ञ करके सन्तुष्ट करता, (असि)=भवेत् =हो, (तस्मात्)=इसलिये, (अस्मे) अस्मासु=हम में, (अश्विभ्याम्) वायुजलाभ्याम्= वायु और जलों से, (उषसा)= उषा काल से, (सिद्धम्)= सिद्ध करें, (बृहत्) महत्तमम्=महानतम, (सुवीर्य्यम्)= उत्तम तेजवाले, (श्रवः) सर्वविद्याश्रवणनिमित्तमन्नम्= समस्त विद्याओं के श्रवण के निमित्त अन्न आदि उत्तम पदार्थ, (धेहि) धर= प्रदान कीजिये ॥२॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    कोई मनुष्य विद्वानों के सङ्ग के विना समस्त विद्याओं को प्राप्त करके, शत्रु को जीत करके, उत्तम पराक्रम चक्रवर्त्ति राज्य लक्ष्मी आदि को प्राप्त करने में को समर्थ नहीं हो सकता है। अग्नि जल आदि के योग के विना उत्तम व्यवहार की सिद्धि भी प्राप्त करने के योग्य नहीं हो सकता है ॥२॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) राजविद्या में दक्ष (विद्वन्) विद्वान् ! (यतः) क्योंकि (त्वम्) तुम (जुष्टः) प्रीति से सेवन किये हुए, (दूतः) शत्रुओं के द्वारा और अति वैभव के गुण से युक्त (सन्) होते हुए (अध्वराणाम्) हिंसा रहित यज्ञों में (रथीः) जिसके प्रशंसनीय रथ हैं, वह (हव्यवाहनः) जो हवियों को ग्रहण करता और देता है या वह जिसे आहुति में द्रव्य दिये जाते हैं या जो यानों को चलाता और पहुँचाता है, (सजूः) जो यज्ञ करके सन्तुष्ट करता (असि) हो। (तस्मात्) इसलिये (अस्मे) हम में (अश्विभ्याम्) वायु और जलों से (उषसा) उषा काल से (सिद्धम्) सिद्ध करें। (बृहत्) महानतम, (सुवीर्य्यम्) उत्तम तेजवाले, (श्रवः) [और] समस्त विद्याओं के श्रवण के निमित्त अन्न आदि उत्तम पदार्थ (धेहि) प्रदान कीजिये ॥२॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (जुष्टः) प्रीतः सेवितः (हि) खलु (दूतः) शत्रूणामुपतापयिताऽतिप्रतापगुणयुक्तो वा (असि) (हव्यवाहनः) यो हव्यानि ग्राह्यदातव्यानि हुतानि द्रव्याणि यानानि वा वहति प्राप्नोति सः (अग्ने) राजविद्याविचक्षण (रथीः) प्रशस्ता रथा यस्य सन्ति सः। अत्र छन्दसीवनिपौ च वक्तव्यौ। अ० ५।२।१०९। अनेन# रथशब्दान्मत्वर्थ ईप्रत्ययः। (अध्वराणाम्) अहिंसनीयानां यज्ञानां मध्ये (सजूः) यः समानान् जुषते। अत्र जुष धातोः क्विप् समानस्य सादेशश्च (अश्विभ्याम्) वायुजलाभ्याम् (उषसाः) प्रातःकालेन युक्तया क्रियया (सुवीर्य्यम्) सुष्ठुवीर्य्याणि यस्य सः (अस्मे) अस्मासु। अत्र सुपां सुलुग् इति सप्तम्याः स्थाने शे आदेशः। (धेहि) धर (श्रवः) सर्वविद्याश्रवणनिमित्तमन्नम् (बृहत्) महत्तमम् ॥२॥ #[वार्त्तिकेन। सं०।] विषयः- पुनर्विद्वत्संगगुणा उपदिश्यन्ते। अन्वयः- हे अग्ने विद्वन् ! यतस्त्वं जुष्टो दूतः सन्नध्वराणां रथीर्हव्यवाहनः सजूरसि तस्मादस्मे अश्विभ्यामुषसा सिद्धं बृहत्सुवीर्य्यं श्रवो धेहि ॥२॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- नहि कश्चिद्विदुषां सङ्गेन विना सर्वविद्यां प्राप्य शत्रुविजयमुत्तमं पराक्रमं चक्रवर्त्यादिश्रियं च प्राप्तुं शक्नोति। नहि खल्वग्नेर्जलादियोगेन विनोत्तमव्यवहारसिद्धिं च प्राप्तुमर्हतीति ॥२॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कोणताही माणूस विद्वानांच्या संगतीशिवाय विद्या प्राप्ती होण्यास समर्थ बनू शकत नाही. तसेच शत्रूला जिंकून उत्तम पराक्रम, चक्रवर्ती राज्यलक्ष्मीही प्राप्त करू शकत नाही व अग्नी, जल इत्यादीशिवाय उत्तम व्यवहाराची सिद्धीही करू शकत नाही. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Agni, ruling lord of light and the world, invoked and lighted, you are the blazing catalyst and carrier of yajnic materials offered and fragrances received. You are the leading chariot hero of the world’s yajnic acts of love and creation. Friend of the Ashvins, sun and moon, water and air, working with the complementary powers of nature, friend and companion of ours too, bring us noble strength and valour, bless us with universal honour and fame.

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    Subject of the mantra

    Then the virtues of the company of scholars have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=skilled in statesmanship, (vidvan)=scholar ! (yataḥ)=because, (tvam)=you, (juṣṭaḥ)= worshiped with love, (dūtaḥ)=possessed by enemies and possessed of the quality of great opulence, (san)=being, (adhvarāṇām in yajnams having no violence involved, (rathīḥ)=he who has praiseworthy chariots, (havyavāhanaḥ)=one who accepts and gives offerings, or one to whom offerings are given, or one who drives and transports vehicles, (sajūḥ)=one who satisfies by sacrifice, (asi)=are, (tasmāt)=there for, (asme)=in us, (aśvibhyām)=with air and water, (uṣasā)=from the down, (siddham)=accomplish, (bṛhat)=greatest, (suvīryyam) =having excellent brilliance, (śravaḥ)=food etc. best for the hearing of all the knowledge, [aura]=and, (dhehi)=provide.

    English Translation (K.K.V.)

    O skilled in statesmanship scholar! Because you are worshiped by love, in sacrifices free from violence by enemies and possessed of the quality of super splendor, the one whose chariot is praiseworthy, the one who accepts and gives the offerings in yajnams or the one to whom the substances are given in the yajnams or the one who drives and transports the vehicles, which satisfies by performing yajnams. That's why prove us from the time of dawn with air and water. Provide the best food etc. for the sake of the greatest, the best bright, and for the listening of all the knowledge.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Without the association of learned men, no one is able to acquire all the knowledge, to conquer the enemy and cannot obtain the shelter of the supreme prowess of Chakravarti kingdom. Without the combination of fire, water, etc., one cannot be able to attain the accomplishment of good behavior as well.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person well-versed in Political Science, thou art well-loved messenger, destroyer of the wicked and mighty, charioteer of the noble non-violent deeds, impeller of the substances or vehicles to be taken and given. Grant us heroic strength and food that makes us virile and full of knowledge along with the air and water and the act done at the dawn.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अग्ने) राजविद्याविचक्षण = Well versed in Political science. ( अश्विभ्याम् ) वायुजलाभ्याम् = With the combination of the air and water. ( श्रवः ) सर्वविद्याश्रवणनिमित्तम् अन्नम् = Food which by giving proper strength enables us to acquire knowledge of various sciences.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    None can conquer his enemies, get strength and prosperity without the association of the learned and acquisition of knowledge from them. None can accomplish worldly dealings without the combination and proper methodical use of the fire, air and water.

    Translator's Notes

    As for the first Mantra, there is a spiritual interpretation, as pointed out by Rishi Dayananda (himself) following is the spiritual meaning of the above Mantra- O God, thou art well-loved messenger, Destroyer of the wicked, Sustainer of the world and Charioteer of the noble nonviolent deed, accordant with the sun and the moon and the dawn or Prana, Apana and the Dawn of the Divine Illumination, grant us heroic strength and lofty fame.

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