ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 44/ मन्त्र 8
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्सतःपङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
स॒वि॒तार॑मु॒षस॑म॒श्विना॒ भग॑म॒ग्निं व्यु॑ष्टिषु॒ क्षपः॑ । कण्वा॑सस्त्वा सु॒तसो॑मास इन्धते हव्य॒वाहं॑ स्वध्वर ॥
स्वर सहित पद पाठस॒वि॒तार॑म् । उ॒षस॑म् । अ॒श्विना॑ । भग॑म् । अ॒ग्निम् । विऽउ॑ष्टिषु । क्षपः॑ । कण्वा॑सः । त्वा॒ । सु॒तऽसो॑मासः । इ॒न्ध॒ते॒ । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । सु॒ऽअ॒ध्व॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सवितारमुषसमश्विना भगमग्निं व्युष्टिषु क्षपः । कण्वासस्त्वा सुतसोमास इन्धते हव्यवाहं स्वध्वर ॥
स्वर रहित पद पाठसवितारम् । उषसम् । अश्विना । भगम् । अग्निम् । विउष्टिषु । क्षपः । कण्वासः । त्वा । सुतसोमासः । इन्धते । हव्यवाहम् । सुअध्वर॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 44; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(सवितारम्) सूर्य्यप्रकाशम् (उषसम्) प्रातःकालम् (अश्विना) वायुजले (भगम्) ऐश्वर्य्यम् (अग्निं) विद्युतम् (व्युष्टिषु) कामनासु (क्षपः) रात्रीः (कण्वासः) मेधाविनः (त्वा) त्वाम् (सुतसोमासः) सुताः सम्पादिता उत्तमाः पदार्था यैस्ते (इन्धते) दीप्यन्ते (हव्यवाहम्) यो हव्यानि वहति प्राप्नोति तम् (स्वध्वर) शोभना अध्वरा यस्य तत्सम्बुद्धौ ॥८॥
अन्वयः
पुनस्तं कीदृशं जानीयुः केन सह च किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे स्वध्वर विद्वन् ! ये सुतसोमाः कण्वासो व्युष्टिषु सवितारमुषसमश्विनौ भगमग्निं क्षपो हव्यवाहं त्वां च समिन्धते ताँस्त्वमपि दीप्यस्व ॥८॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वासु क्रियास्वहोरात्रे सवित्रादीन्पदार्थान् संप्रयोज्य वायुवृष्टिशुद्धिकराणि शिल्पादीनि सर्वाणि कार्य्याणि संपादनीयानि केनापि विद्वत्सङ्गेन विनैतेषां गुणज्ञानाभावात् क्रियासिद्धिं कर्त्तुं नैव शक्यत इति ॥८॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वह कैसा और किसके सहाय से किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (स्वध्वर) उत्तम यज्ञ वाले विद्वान् ! जो (सुतसोमाः) उत्तम पदार्थों को सिद्ध करते (कण्वासः) मेधावी विद्वान् लोग (व्युष्टिषु) कामनाओं में (सवितारम्) सूर्य्य प्रकाश (उषसम्) प्रातःकाल (अश्विना) वायुजल (क्षपः) रात्रि और (हव्यवाहम्) होम करने योग्य द्रव्यों को प्राप्त करानेवाले (त्वा) आपको (समिन्धते) अच्छे प्रकार प्रकाशित करते हैं, वह आप भी उनको प्रकाशित कीजिये ॥८॥
भावार्थ
मनुष्यों को उचित है कि सब क्रियाओं में दिन-रात प्रयत्न से सूर्य्य आदि पदार्थों को संयुक्त कर वायु वृष्टि की शुद्धि करनेवाले शिल्परूप यज्ञ को प्रकाश करके कार्य्यों को सिद्ध और विद्वानों के संग से इनके गुण जानें ॥८॥
विषय
कण्व व सुतसोम
पदार्थ
१. (व्युष्टिषु) - उषः कालों में और (क्षपः) - रात्रि को, अर्थात् दिन तथा रात्रि के प्रारम्भ में (कण्वासः) - मेधावी पुरुष (सवितारम्) - सबको कर्मों में प्रेरणा देनेवाले सूर्य को (इन्धते) - अपने में दीप्त करते हैं । सूर्य का ध्यान करके सूर्य से 'सतत क्रियाशीलता' की दीक्षा लेते हैं और इस निरन्तर कर्म - संलग्नता के द्वारा वासनाओं से बचकर सूर्य की भाँति ही चमकते हैं,
२. (उषसम्) - ये उषा को अपने में समिद्ध करते हैं और जैसे उषा [उष दाहे] अन्धकार का दहन करती है, उसी प्रकार ये अपने अज्ञानान्धकार का दहन करने के लिए यत्नशील होते हैं ।
३. (अश्विना) - ये प्राणापान की साधना करते हैं । इस प्राणसाधना से ये शरीर व मन को स्वस्थ व निर्मल बनाते हैं । यह प्राणसाधना इनके मस्तिष्क को भी दीप्त करनेवाली होती है ।
४. (भगम्) - मेधावी पुरुष 'भग' को अपने में दीप्त करता है । यह 'भग' ऐश्वर्य की देवता है । सांसारिक यात्रा के लिए आवश्यक ऐश्वर्य को जुटाना भी प्रभु - प्राप्ति के लिए एक साधन है । तुलसीदास ने 'भूखे भजन न होई' इन शब्दों में इस सत्य को व्यक्त किया है ।
५. (अग्निम्) - ये अग्नि को अपने में दीप्त करते हैं । अग्नि से प्रकाश व आगे बढ़ने की दीक्षा लेते हैं ।
६. हे (स्वध्वर) - सब उत्तम, हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों को सिद्ध करनेवाले प्रभो ! (सुतसोमासः) - अपने में सोम का सम्पादन करनेवाले, वीर्यशक्ति को शरीर में ही उत्पन्न व सुरक्षित करनेवाले व्यक्ति (हव्यवाहम्) - सब पदार्थों को प्राप्त करानेवाले (त्वा) - आपको (इन्धते) - अपने हृदयों में दीप्त करते हैं । प्रभु - प्राप्ति व प्रभु - दर्शन का उपाय 'कण्व व सुतसोम' बनना है । हम कण्व मेधावी बनें, अपने में सोमशक्ति की रक्षा करें तभी हम प्रभुदर्शन कर सकेंगे । प्रभुदर्शन के लिए, उस महान् देव के स्वागत के लिए हम 'सविता, उषा, अश्विनौ, भग व अग्निदेव' को अपने जीवन में लाएँ । यह देवों को जीवन में लाना ही प्रभु के स्वागत की तैयारी है ।
भावार्थ
भावार्थ - हम अपने जीवनों में 'सविता, उषा, अश्विनौ, भग व अग्नि' आदि देवों को प्रातः - सायं पूजन करते हुए मेधावी व सशक्त बनकर प्रभु के स्वागत की तैयारी करते हैं ।
विषय
अग्नि, परमेश्वर, राजा, सभाध्यक्ष और विद्वान् का समान रूप से वर्णन
भावार्थ
हे (स्वध्वर) उत्तम अहिंसनीय, प्रबलतम! उषाकाल के समान शत्रुरूप अन्धकार के नाशक! (कण्वासः) मेधावी, बुद्धिमान्, शत्रु-हन्ता और (सुतसोमासः) उत्तम ऐश्वर्ययुक्त पदार्थों को उत्पन्न करनेवाले, अथवा सोम अर्थात् राजा के पद पर अभिषेक करनेवाले पुरुष (हव्यवाहं) देने और स्वीकार करने योग्य पदार्थों को धारण करने वाले (त्वा) तुझको, (सवितारम्) सूर्य के समान तेजस्वी (अश्विना) सूर्य चन्द्र से युक्त दिन रात्रि के समान प्रकाशक शत्रुसंतापक और प्रजा को शान्तिदायक (भगं) ऐश्वर्यवान् (अग्निम्) अग्नि के समान तेजस्वी रूप में (इन्धते) प्रदीप्त करते हैं, तुझे अधिक शक्तिशाली, प्रभाववान् और तेजस्वी करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्व ऋषिः ॥ देवता—१—१४ अग्निः ॥ छन्दः—१, ५ उपरिष्टाद्विराडबृहती । ३ निचृदुपरिष्टाद्बृहती । ७, ११ निचुत्पथ्याबृहती । १२ भुरिग्बृहती । १३ पथ्याबृहती च । २,४, ६, ८, १४ विराट् सतः पंक्तिः । १० विराड्विस्तारपांक्तिः । ६ आर्ची त्रिष्टुप् ॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर वह अग्नि कैसा और किसकी सहायता से किसको प्राप्त होता है, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे स्वध्वर विद्वन् ! ये सुतसोमासः कण्वासः व्युष्टिषु सवितारम् उषसम् अश्विनौ भगम् अग्निं क्षपः हव्यवाहं त्वां च सम् इन्धते तान् त्वं अपि दीप्यस्व ॥८॥
पदार्थ
हे (स्वध्वर) शोभना अध्वरा यस्य तत्सम्बुद्धौ=उत्तम उत्तम हिंसारहित यज्ञ करनेवाले, (विद्वन्)=विद्वान् ! (ये)=जो, (सुतसोमासः) सुताः सम्पादिता उत्तमाः पदार्था यैस्ते=जो उत्तम पदार्थ बनाये गये हैं, (कण्वासः) मेधाविनः=बुद्धिमानों की, (व्युष्टिषु) कामनासु=कामनाओं में, (सवितारम्) सूर्य्यप्रकाशम्=सूर्य के समान तेजस्वी, (उषसम्) प्रातःकालम्=उषा काल, (अश्विना) वायुजले= वायु और जल में, (भगम्) ऐश्वर्य्यम्=ऐश्वर्य्य, (अग्निं) विद्युतम्=विद्युत्, (क्षपः) रात्रीः= रात्रि, (हव्यवाहम्) यो हव्यानि वहति प्राप्नोति तम्=जो हव्यों को प्राप्त करता है, (त्वाम्)=तुमको, (च)=भी, (सम्)=सम्यक् रूप से, (इन्धते) दीप्यन्ते= प्रज्वलित करते हैं। (तान्)=उन अग्नियों को, (त्वम्)=तुम, (अपि)=भी, (दीप्यस्व)= प्रज्वलित करो ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा सब क्रियाओं में दिन रात सूर्य्य आदि पदार्थों को अच्छी तरह से प्रयोग करते हुए, वायु वृष्टि की शुद्धि, शिल्प आदि समस्त कार्यों का सम्पादन करना चाहिए। किसी भी विद्वान् के संगके विना इनके गुण के ज्ञान के न होने से क्रिया की सिद्धि नहीं की जा सकती है। ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (स्वध्वर) हिंसारहित उत्तम यज्ञ करनेवाले (विद्वन्) विद्वान् ! (ये) जो (सुतसोमासः) निर्मित उत्तम पदार्थ में (कण्वासः) बुद्धिमानों की (व्युष्टिषु) कामनाओं में (सवितारम्) सूर्य के समान तेजस्वी (उषसम्) उषा काल में (अश्विना) वायु, जल, (भगम्) ऐश्वर्य्य, (अग्निं) विद्युत् और (क्षपः) रात्रि में (हव्यवाहम्) जो हव्यों को प्राप्त करते हैं, [उस अग्नि] (त्वाम्) तुमको (च) भी (सम्) सम्यक् रूप से (इन्धते) प्रज्वलित करते हैं। (तान्) उन अग्नियों को (त्वम्) तुम (अपि) भी (दीप्यस्व) प्रज्वलित करो ॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृत)- (सवितारम्) सूर्य्यप्रकाशम् (उषसम्) प्रातःकालम् (अश्विना) वायुजले (भगम्) ऐश्वर्य्यम् (अग्निं) विद्युतम् (व्युष्टिषु) कामनासु (क्षपः) रात्रीः (कण्वासः) मेधाविनः (त्वा) त्वाम् (सुतसोमासः) सुताः सम्पादिता उत्तमाः पदार्था यैस्ते (इन्धते) दीप्यन्ते (हव्यवाहम्) यो हव्यानि वहति प्राप्नोति तम् (स्वध्वर) शोभना अध्वरा यस्य तत्सम्बुद्धौ ॥८॥ विषयः- पुनस्तं कीदृशं जानीयुः केन सह च किं प्राप्नोतीत्युपदिश्यते। अन्वयः- हे स्वध्वर विद्वन् ! ये सुतसोमासो कण्वासो व्युष्टिषु सवितारमुषसमश्विनौ भगमग्निं क्षपो हव्यवाहं त्वां च समिन्धते ताँस्त्वमपि दीप्यस्व ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सर्वासु क्रियास्वहोरात्रे सवित्रादीन्पदार्थान् संप्रयोज्य वायुवृष्टिशुद्धिकराणि शिल्पादीनि सर्वाणि कार्य्याणि संपादनीयानि केनापि विद्वत्सङ्गेन विनैतेषां गुणज्ञानाभावात् क्रियासिद्धिं कर्त्तुं नैव शक्यत इति ॥८॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसांनी सर्व क्रियेमध्ये दिवसरात्र प्रयत्नपूर्वक सूर्य इत्यादी पदार्थांना संयुक्त करून वायू वृष्टीची शुद्धी करणाऱ्या शिल्परूपी यज्ञाला प्रकाशित करावे व कार्य सिद्ध करावे आणि विद्वानांच्या संगतीने त्यांचे गुण जाणावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni, lord of light, high-priest of great yajnas, wise scholars, and those who have distilled the soma essence of life in their visions of light and life’s joy, invoke, study and develop the powers and blessings of Savita, inspiring light of the sun, the dawn, the Ashvins, water and air, Bhaga, universal vitality and majesty of divine nature, Agni, energy of heat, light and electricity, the nights and showers of peace, and yajna which is the harbinger of all the blessings of life and its wealth.
Subject of the mantra
Then what is that Agni (fire) and with whose help, who gets it, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (svadhvara)=performing good sacrifice without violence! (ye)=those, (sutasomāsaḥ)= in the best made stuff, (kaṇvāsaḥ)=of the wise, (vyuṣṭiṣu)=in desres, (savitāram)=bright like the Sun, (uṣasam)=in the dawn, (aśvinā) vāyu, jala, (bhagam) aiśvaryya, (agniṃ) light and, aura (kṣapaḥ)=during night, (havyavāham) =those who get oblation, [usa agni]=that fire, (tvām) =to you, (ca)=also, (sam)=duly, (indhate)=ignite, (tān) =to those fires, (tvam)=you, (api)=also, (dīpyasva)=ignite.
English Translation (K.K.V.)
O scholar who performs the best sacrifice without violence! The fire which, in the desires of the wise in the best of creations, is as bright as the Sun in the dawn, which receives air, water, opulence, light, and the oblations at night, that fire ignites you too. light those fires as well.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Day and night in all activities by human beings, Sun etc. should be used properly; purification of wind, rain, crafts etc. should be done. Without the company of any scholar, without the knowledge of their qualities, the action cannot be accomplished.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned person, the performer of noble and nonviolent deeds, highly intelligent persons who have produced many articles properly using the light of the sun, moving air and water, wealth, electricity and lights for fulfilment of their desires invite you who are bringer of most acceptable substance and performer of the Yajnas. You should also help and encourage them.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( कण्वाः) मेधाविनः (निघ० ३.१५) Highly intelligent persons. (क्षपः) रात्रीः क्षपा इति रात्रिनाम ( निघ० १.७ ) ।
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should properly use the light of the sun, electricity, and water etc. in all works and accomplish acts that purify the air and the rain and develop industries. None can accomplish all these things without the association of the learned persons as he can not know the attributes of these things without acquiring knowledge from them.
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