Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 45 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 45/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः देवता - अग्निर्देवाः छन्दः - भुरिगुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    त्वम॑ग्ने॒ वसूँ॑रि॒ह रु॒द्राँ आ॑दि॒त्याँ उ॒त । यजा॑ स्वध्व॒रं जनं॒ मनु॑जातं घृत॒प्रुष॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । अ॒ग्ने॒ । वसू॑न् । इ॒ह । रु॒द्रान् । आ॒दि॒त्यान् । उ॒त । यज॑ । सु॒ऽअ॒ध्व॒रम् । जन॑म् । मनु॑ऽजातम् । घृ॒त॒ऽप्रुष॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमग्ने वसूँरिह रुद्राँ आदित्याँ उत । यजा स्वध्वरं जनं मनुजातं घृतप्रुषम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम् । अग्ने । वसून् । इह । रुद्रान् । आदित्यान् । उत । यज । सुअध्वरम् । जनम् । मनुजातम् । घृतप्रुषम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 45; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 31; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    (त्वम्) (अग्ने) विद्युद्वद्वर्त्तमान विद्वन् (वसून्) कृतचतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्य्यान् पण्डितान् (इह) अत्र दीर्घादटिसमानपादे। अ० ८।३।९। अनेन रुः पूर्वस्थानुनासिकश्च। (रुद्रान्) आचरितचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्य्यान् महाबलान् विदुषः (आदित्यान्) समाचरिताऽष्टचत्वारिंशत्संवत्सरब्रह्मचर्य्याऽखण्डितव्र- तान् महाविदुषः। अत्रापि पूर्वसूत्रेणैव रुत्वाऽनुनासिकत्वे। भोभगोअघो अपूर्वस्य योऽशि। अ० ८।३।१७। इति यत्वम्। लोपः शाकल्यस्य। अ० ८।३।१९। इति यकारलोपः (उत) अपि (यज) संगच्छस्व अत्र द्यचोऽतस्तिङ् इति दीर्घः। (स्वध्वरम्) शोभना पालनीया अध्वरा यस्य तम् (जनम्) पुरुषार्थिनम् (मनुजातम्) यो मनोर्मननशीलान्मनुष्या दुत्पन्नस्तम् (घृतप्रुषम्) यो यज्ञसिद्धेन घृतेन प्रष्णाति स्निह्यति तम् ॥१॥

    अन्वयः

    तत्रादौ विद्युद्विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते।

    पदार्थः

    हे अग्ने ! त्वमिह वसून् रुद्रानादित्यानुतापि घृतप्रुषम्मनुजातं स्वध्वरं जनं सततं यज ॥१॥

    भावार्थः

    स्वस्वपुत्रान् न्यमान्न्यूनं पंचविंशतिवर्षमितेनाऽधिकादधिकेनाऽष्टचत्वारिंशद्वर्षमते नैवं न्यूनान्न्यूनेन षोडशवर्षेणाधिकादधिकेन चतुर्विशतिवर्षमितेन च ब्रह्मचर्य्येण स्वस्वकन्याश्च पूर्णविद्याः सुशिक्षिताश्च संपाद्य स्वयंवराख्यविधानेनैतैर्विवाहः कर्त्तव्यो यतः सर्वे सदा सुखिनः स्युः ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    अब पैंतालीसवें सूक्त का आरम्भ हैं। उसके पहिले मंत्र में बिजुली के दृष्टान्त से विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) बिजुली के समान वर्त्तमान विद्वान ! आप (इह) इस संसार में (वसून्) जो चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य से विद्या को प्राप्त हुए पण्डित (रुद्रान्) जिन्होंने चवालीस वर्ष ब्रह्मचर्य किया हो उन महाबली विद्वान् और (आदित्यान्) जिन्हों ने अड़तालीस वर्ष पर्य्यन्त ब्रह्मचर्य्य किया हो उन महाविद्वान् लोगों को (उत) और भी (घृतप्रुषम्) यज्ञ से सिद्ध हुए घृत से सेचन करनेवाले (मनुजातम्) मननशील मनुष्य से उत्पन्न हुए (स्वध्वरम्) उत्तम यज्ञ को सिद्ध करनेहारे (जनम्) पुरुषार्थी मनुष्य को (यज) समागम कराया करें ॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि अपने पुत्रों को कम से कम चौबीस और अधिक से अधिक अड़तालीस वर्ष तक और कन्याओं को कम से कम सोलह और अधिक से अधिक चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य करावें। जिससे संपूर्ण विद्या और सुशिक्षा को पाकर वे परस्पर परीक्षा और अतिप्रीति से विवाह करें जिससे सब सुखी रहें ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    किनका सङ्ग

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) - परमात्मन् ! (त्वम्) - आप (इह) - इस जीवन में (यज) - हमारे साथ सङ्गत कर उन लोगों को जोकि [क] (वसून्) - वसु हैं - प्रथम कोटि के ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए अपने निवास को उत्तम बनाते हैं, स्वस्थ शरीरवाले होते हैं, [ख] (रुद्रान्) - जो मध्यम कोटि के ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए प्रभु - स्तवनपूर्वक कर्मों में सदा प्रवृत्त रहते हैं [रोरूयमाणो द्रवति] और इस प्रकार काम, क्रोध, लोभादि वासनाओं को विनष्ट करते हुए रुलानेवाले होते हैं [रोदयन्ति] (उत) - और [ग] (आदित्यान्) - जो उत्तम कोटि के ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए सब ज्ञानों व उत्तमताओं को अपने में ग्रहण करनेवाले होते हैं [आदानात् आदित्यः] । 
    २. हे प्रभो ! हमारे साथ उन मनुष्यों को सङ्गत कीजिए जोकि [क] (स्वध्वरम्) - उत्तम अहिंसात्मक कर्मों को करनेवाले हैं, [ख] (जनम्) - अपनी शक्तियों का विकास करनेवाले हैं, [ग] (मनुजातम्) - [मनुषु जातः, मनुमेव अनुभवितुं जातः], ज्ञान के उत्पादन के लिए जिनका जन्म हुआ है, अर्थात् जो सदा ज्ञानप्राप्ति में प्रवृत्त हैं और जो [घ] (घृतप्रुषम्) - [मुष् स्नेहनसेचनपूरणेषु, घृतेन पुष्णाति, घृ क्षरणदीसयोः] मन की निर्मलता तथा ज्ञान की दीप्ति से सबको स्निग्ध, सिक्त व पूरित करनेवाले हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - 'वसु, रुद्र, आदित्य, स्वध्वर, जन, मनुजात व घृतप्रुट्' लोगों के सम्पर्क में आकर हम भी इन जैसे ही बनने के लिए सयत्न हों । 
     

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रमुख विद्वान् और अग्रणी नायक सेनापति के कर्तव्य । (

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानवन् विद्वन्! (त्वम्) तू (इह) इस संसार में वा राष्ट्र में (वसुन्) बसने वाले, २४ वर्ष के ब्रह्मचारी, (रुद्रान्) प्राणों के संयमी, ४४ वर्ष के ब्रह्मचारी (उत) और (आदित्यान्) ४८ वर्ष के तेजस्वी विद्वानों को अथवा (वसून् रुद्रान् आदित्यान्) ब्राह्मणों, क्षत्रियों और व्यापारी वैश्य गणों को (यज) एकत्र कर। और हे राजन् तू (सु अध्वरः) उत्तम यज्ञशील, अहिंसक और (मनुजातं) ज्ञानवान् मननशील, आचार्य आदि की शिक्षा प्राप्त करके शास्त्रनिष्णात, या विद्वान् हुए, (घृतप्रुषम्) जलादि से अन्नादि पोषक पदार्थों के सेवन करने वाले तेजस्वी, तथा (घृतप्रुषम्) विधिपूर्वक जलों और ज्ञानों द्वारा स्नात हुए, स्नातक विद्वान् (जनं) पुरुष को भी (यज) ऐश्वर्यं प्रदान कर तथा उनका सत्संग कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ १—१० अग्निर्देवा देवताः ॥ छन्दः—१ भुरिगुष्णिक् । ५ उष्णिक् । २, ३, ७, ८ अनुष्टुप् । ४ निचृदनुष्टुप् । ६, ९,१० विराडनुष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अब पैंतालीसवें सूक्त का आरम्भ हैं। उसके पहले मंत्र में बिजली के दृष्टान्त से विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे अग्ने ! त्वम् इह वसून् रुद्रान् आदित्यान् उत अपि घृतप्रुषम् मनुजातं स्वध्वरं जनं सततं यज ॥१॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्युद्वद्वर्त्तमान विद्वन्=विद्युत् के समान विद्यमान विद्वान् ! (त्वम्)=तुम, (इह)= इस संसार में, (वसून्) कृतचतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्य्यान् पण्डितान्=चवालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले पण्डितों को, (रुद्रान्) आचरितचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्य्यान् महाबलान् विदुषः = चवालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करके महा बलशाली हुए विद्वानों को, (आदित्यान्) समाचरिताऽष्टचत्वारिंशत्संवत्सरब्रह्मचर्य्याऽखण्डितव्र- तान् महाविदुषः= अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का अखण्डित व्रत का आचरण करके बहुत महाविद्वान् बने हुओं को, (उत) अपि=भी, (घृतप्रुषम्) यो यज्ञसिद्धेन घृतेन प्रष्णाति स्निह्यति तम्=यज्ञ सिद्ध करने के कार्य में घी से स्नान करके शुद्ध और गीला हुए, (मनुजातम्) यो मनोर्मननशीलान्मनुष्यादुत्पन्नस्तम्=मन से मनन करने के स्वभाववाले मनुष्य से उत्पन्न उस, (स्वध्वरम्) शोभना पालनीया अध्वरा यस्य तम्= उत्तम रक्षा करने योग्य हिंसारहित यज्ञवाले, (जनम्) पुरुषार्थिनम्=पुरुषार्थी मनुष्य के साथ, (सततम्)=निरन्तर, (यज) संगच्छस्व=तुम लोग परस्पर संगत होकर समाज के रूप में मिल जाओ ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    लोगों को अपने पुत्रों को कम से कम पच्चीस वर्ष और अधिक से अधिक अड़तालीस वर्ष तक और कन्याओं को कम से कम सोलह वर्ष और अधिक से अधिक चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य से अपनी कन्या को भी संपूर्ण विद्या और सुशिक्षा देकर स्वयंबर नाम के विधान से इनका विवाह करना चाहिए, जिससे सब सुखी होवें ॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (अग्ने) विद्युत् के समान विद्यमान विद्वान् ! (त्वम्) तुम (इह) इस संसार में (वसून्) चौबीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करनेवाले पण्डितों, (रुद्रान्) महा बलशाली हुए विद्वानों, [और] (आदित्यान्)अड़तालीस वर्ष तक अखण्डित व्रत का आचरण करके महाविद्वान् बने हुओं को (उत) भी (घृतप्रुषम्) जो यज्ञ सिद्ध करने के कार्य में घी से स्नान करके शुद्ध और गीला हुए हैं, (मनुजातम्) मन से मनन करने के स्वभाववाले मनुष्य से उत्पन्न उस, (स्वध्वरम्) उत्तम रक्षा करने योग्य हिंसारहित यज्ञवाले (जनम्) पुरुषार्थी मनुष्य के साथ (सततम्) निरन्तर (यज) तुम लोग परस्पर संगत करते हुए समाज के रूप में मिल जाओ ॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृत)- (त्वम्) (अग्ने) विद्युद्वद्वर्त्तमान विद्वन् (वसून्) कृतचतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्य्यान् पण्डितान् (इह) अत्र दीर्घादटिसमानपादे। अ० ८।३।९। अनेन रुः पूर्वस्थानुनासिकश्च। (रुद्रान्) आचरितचतुश्चत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्य्यान् महाबलान् विदुषः (आदित्यान्) समाचरिताऽष्टचत्वारिंशत्संवत्सरब्रह्मचर्य्याऽखण्डितव्र- तान् महाविदुषः। अत्रापि पूर्वसूत्रेणैव रुत्वाऽनुनासिकत्वे। भोभगोअघो अपूर्वस्य योऽशि। अ० ८।३।१७। इति यत्वम्। लोपः शाकल्यस्य। अ० ८।३।१९। इति यकारलोपः (उत) अपि (यज) संगच्छस्व अत्र द्यचोऽतस्तिङ् इति दीर्घः। (स्वध्वरम्) शोभना पालनीया अध्वरा यस्य तम् (जनम्) पुरुषार्थिनम् (मनुजातम्) यो मनोर्मननशीलान्मनुष्या दुत्पन्नस्तम् (घृतप्रुषम्) यो यज्ञसिद्धेन घृतेन प्रष्णाति स्निह्यति तम् ॥१॥ विषयः- तत्रादौ विद्युद्विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते। अन्वयः- हे अग्ने ! त्वमिह वसून् रुद्रानादित्यानुतापि घृतप्रुषम्मनुजातं स्वध्वरं जनं सततं यज ॥१॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- स्वस्वपुत्रान् न्यमान्न्यूनं पंचविंशतिवर्षमितेनाऽधिकादधिकेनाऽष्टचत्वारिंशद्वर्षमते नैवं न्यूनान्न्यूनेन षोडशवर्षेणाधिकादधिकेन चतुर्विशतिवर्षमितेन च ब्रह्मचर्य्येण स्वस्वकन्याश्च पूर्णविद्याः सुशिक्षिताश्च संपाद्य स्वयंवराख्यविधानेनैतैर्विवाहः कर्त्तव्यो यतः सर्वे सदा सुखिनः स्युः ॥१॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात वसू, रुद्र व आदित्यांची गती व प्रमाण इत्यादींचे कथन केलेले आहे. यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वीच्या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    माणसांनी आपल्या पुत्रांना कमीत कमी चोवीस वर्षे व जास्तीत जास्त अठ्ठेचाळीस वर्षांपर्यंत व कन्यांना कमीत कमी सोळा व जास्तीत जास्त चोवीस वर्षांपर्यंत ब्रह्मचर्य पालन करण्यास लावावे. ज्यामुळे संपूर्ण विद्या व सुशिक्षा प्राप्त करून परस्पर परीक्षा करून अति प्रेमाने स्वयंवर विवाह करून सुखी व्हावे. ॥ १ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and knowledge, sagely scholar of wisdom and piety, bring together into this yajna of love and non-violence the people, children of reflective humanity, who sprinkle the vedi with holy water and offer ghee into the fire. Bring together the celibate scholars of twenty four, thirty six and forty eight years discipline and perform yajna in honour of the Vasus, eight abodes of life in nature, Rudras, eleven vitalities of life, and Adityas, twelve phases of the yearly round of the sun.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Subject of the mantra

    Now the forty-fifth hymn begins. In its first mantra, the virtues of a scholar have been preached with the example of lightning.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (agne)=Scholar existing like electricity, (tvam)=you, (iha)=in this world, (vasūn)=to pandits who observed celibacy for forty-four years, (rudrān)=to great scholars, [aura]=and, (ādityān)=to those who have become great scholars by observing unbroken vow for forty eight years, (uta)=also, (ghṛtapruṣam)=those who have become pure and wet by bathing with ghee in the act of accomplishing yajna, (manujātam)=born of a man with the nature of thinking in his mind, (svadhvaram)=best protectable non-violence yajna, (janam)=with man of efforts, (satatam)=perpetually, (yaja)= you get together as a society with compatibility.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar existing like electricity! In this world, you have observed celibacy for forty-four years; have become great scholars by observing unbroken vows for forty eight years; who have become pure and wet by bathing with ghee in the act of performing yajna; may you unite in the form of a society by continuously associating with that person born from a person with the nature of thinking from the mind, who is able to protect the best and who does yajna without violence.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    People should keep their sons celibate for at least twenty-five years and maximum forty-eight years and daughters for at least sixteen years and maximum twenty-four years, after giving complete and good education to their daughters, marry them according to the method called Swayambar (self-selection of spouse by groom or bride), so that everyone becomes happy.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top