ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रस्कण्वः काण्वः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृत्पथ्याबृहती
स्वरः - मध्यमः
अ॒यं वां॒ मधु॑मत्तमः सु॒तः सोम॑ ऋतावृधा । तम॑श्विना पिबतं ति॒रोअ॑ह्न्यं ध॒त्तं रत्ना॑नि दा॒शुषे॑ ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । वा॒म् । मधु॑मत्ऽतमः । सु॒तः । सोमः॑ । ऋ॒त॒ऽवृ॒धा॒ । तम् । अ॒श्वि॒ना॒ । पि॒ब॒त॒म् । ति॒रःऽअ॑ह्न्यम् । ध॒त्तम् । रत्ना॑नि । दा॒शुषे॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं वां मधुमत्तमः सुतः सोम ऋतावृधा । तमश्विना पिबतं तिरोअह्न्यं धत्तं रत्नानि दाशुषे ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । वाम् । मधुमत्तमः । सुतः । सोमः । ऋतवृधा । तम् । अश्विना । पिबतम् । तिरःअह्न्यम् । धत्तम् । रत्नानि । दाशुषे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
(अयम्) वक्ष्यमाण एताभ्यां साधितः (वाम्) युवाभ्यां (मधुमत्तमः) प्रशस्ता मधुरादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् सोऽतिशयितः (सुतः) निष्पादितः (सोमः) वैद्यकशिल्पक्रियया संसाधित ओषधीरसः (ऋतावृधा) यावृतेन जलेन यथार्थतया शिल्पक्रियया वा वर्धेते तौ (तम्) रसम् (अश्विना) सूर्य्यपवनाविव (पिबतम्) (तिरोअह्न्यम्) तिरश्च तदहश्च तिरोहस्तस्मिन् भवम् (धत्तम्) (रत्नानि) रमणीयानि सुवर्णादीनि यानानि वा (दाशुषे) विद्यादिदानकर्त्रे विदुषे ॥१॥
अन्वयः
तत्राऽश्विभ्यां किं साधनीयमित्युपदिश्यते।
पदार्थः
हे ऋतावृधाऽश्विना सूर्य्यपवनवद्वर्त्तमानौ सभासेनेशौ वां योऽयं मधुमत्तमः सोमोऽस्माभिः सुतस्तं तिरो अह्न्यं सं युवां पिबतं दाशुषे रत्नानि धत्तम् ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। सभाध्यक्षादयः सदौषधीसारान् संसेव्य बलवन्तो भूत्वा प्रजाश्रियो वर्धयेयुः ॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब इसके आगे चौथे अध्याय के भाष्य का आरम्भ है। उसके पहिले मंत्र में अश्वि से क्या सिद्ध करना चाहिये इस विषय का उपदेश अगले मंत्र में किया है।
पदार्थ
हे (ऋतावृधा) जल वा यथार्थ शिल्प क्रिया करके बढ़ाने वाले ! (अश्विना) सूर्य्य वायु के तुल्य सभा और सेना के ईश ! (वाम्) जो (अयम्) यह (मधुमत्तमः) अत्यन्त मधुरादि गुण युक्त (सोमः) यान व्यापार वा वैद्यक शिल्प क्रिया से हम ने (सुतः) सिद्ध किया है (तम्) उस (तिरोअह्न्यम्) तिरस्कृत दिन में उत्पन्न हुए रस को तुम लोग (पिबतम्) पीओ और विद्यादान करनेवाले विद्वान् के लिये (रत्नानि) सुवर्णादि वा सवारी आदि को (धत्तम्) धारण करो ॥१॥
भावार्थ
सभा के मालिक आदि लोग सदा ओषधियों के रसों की सेवा से अच्छे प्रकार बलवान् होकर प्रजा की शोभाओं को बढ़ावें ॥१॥
विषय
मधुमत्तम सोम
पदार्थ
१. हे (अश्विना) = प्राणापानो ! (अयम्) = यह (वाम्) = आपका - आपके ही द्वारा जिसका रक्षण होता है, वह (मधुमत्तमः) = अत्यन्त माधुर्यवाला (सोमः) = सोम - वीर्यशक्ति (सुतः) = उत्पन्न हुई है । २. (तम्) = उस सोम को (ऋतावृधा) = सोम के रक्षण के द्वारा ऋत का वर्धन करनेवाले अश्विदेवो ! (पिबतम्) = इस प्रकार शरीर में ही पीने - व्याप्त करने का प्रयत्न करो कि (तिरः अह्न्यम्) = यह इस प्रकार रुधिर में तिरोहित हो जाए जैसे तिलों में तेल अथवा दही में घृत [अह व्याप्तौ] । यह सोम सारे रुधिर में व्याप्त हुआ - हुआ हो । ३. हे अश्विदेवो ! आप (दाशुषे) = आपके प्रति अपना अर्पण करनेवाले पुरुष के लिए (रत्नानि धत्तम्) = रत्नों का धारण कीजिए । वस्तुतः प्राणसाधना में तत्पर पुरुष ही सोम का रक्षण कर पाता है । यह सोम उसके जीवन के लिए मधुमत्तम होता है और सब रमणीय शक्तियों का पोषण करनेवाला होता है । इस प्रकार प्राणापान दाश्वान् के प्रति रत्नों का धारण करानेवाले होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - जीवन को रमणीय व मधुर बनाने के लिए प्राणसाधना द्वारा सोम का रक्षण आवश्यक है ।
विषय
आचार्य उपदेशक, सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षों और राजा और पुरोहितों तथा विद्वान् स्त्री पुरुषों के कर्तव्यों का वर्णन ।
भावार्थ
हे (ऋताबृधौ) सत्य व्यवहार से बढ़नेवाले, सत्य के कारण यशस्वी (वां) तुम दोनों का (अयं सोमः) यह शिष्य (सुतः) पुत्र के समान है। एवं हे (अश्विना) आचार्य और उपदेशको! सभाध्यक्ष सेनाध्यक्षो! तथा राजा और पुरोहितो! (अयं सोमः) यह राष्ट्र और राष्ट्रपति (सुतः) अभिषेक किया गया है। वह पुत्र, शिष्य और राष्ट्रपति (मधुमत्तमः) उत्तम ओषधि रस के समान ज्ञानवान्, मधुरभाषी, अतिबलकारी हो। (तं) उसको (पिबतम्) स्वीकार करो, एक रस कर लो। और (दाशुषे) दानशील पुरुष के लिए (रत्नानि) रमण करने योग्य उत्तम रत्नादि पदार्थ (धत्तम्) प्रदान करो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रस्कण्वः काण्व ऋषिः ॥ अश्विनौ देवते ॥ छन्दः—१, ५ निचृत्पथ्या बृहती। ३, ७ पथ्या बृहती । ६ विराट् पथ्या बृहती । २, ६, ८ निचृत्सतः पंक्तिः । ४, १० सतः पंक्तिः ॥
विषय
पहले मंत्र में अश्वि (सूर्य और पवन) से क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मंत्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे ऋतावृधा अश्विना सूर्य्य पवनवद् वर्त्तमानौ सभासेनेशौ वां यः अयं मधुमत्तमः सोमः अस्माभिः सुतःतं तिरः अह्न्यं सं युवां पिबतं दाशुषे रत्नानि धत्तम् ॥१॥
पदार्थ
हे (ऋतावृधा) यावृतेन जलेन यथार्थतया शिल्पक्रियया वा वर्धेते तौ= ढके हुए जल से ठीक-ठीक रूप से शिल्प क्रिया को बढ़ाने वाले ! (अश्विना) सूर्य्यपवनाविव=सूर्य और पवन के समान, (वर्त्तमानौ)=उपलब्ध, (सभासेनेशौ)=सभा और सेना के स्वामी, (वाम्) युवाभ्याम्=तुम दोनों के द्वारा, (यः)=जो, (अयम्) वक्ष्यमाण एताभ्यां साधितः=कहे गये ये, (मधुमत्तमः) प्रशस्ता मधुरादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् सोऽतिशयितः= अतिशय प्रशंसित मधुर गुण आदि वाले, (सोमः) वैद्यकशिल्पक्रियया संसाधित ओषधीरसः= वैद्यक और शिल्प क्रिया द्वारा संसाधित किये हुए ओषधियों के रस, (अस्माभिः)=हमारे द्वारा, (सुतः) निष्पादितः=तैयार किये गये, (तम्) रसम्=रस, (तिरोअह्न्यम्) तिरश्च तदहश्च तिरोहस्तस्मिन् भवम्=दिन के छिपने पर, (अह्न्यम्)= दैनिक अवधि के, (सम्)=साथ, (युवाम्)=तुम दोनों, (पिबतम्)=पीओ, (दाशुषे) विद्यादिदानकर्त्रे विदुषे =विद्या आदि दान करनेवाले विद्वानों में, (रत्नानि) रमणीयानि सुवर्णादीनि यानानि वा=सुन्दर सुवर्ण आदि और यान आदि को, (धत्तम्)= धारण करो ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालंकार है। सभा के स्वामी आदि लोग सदा ओषधियों के रसों की सेवा से अच्छे प्रकार बलवान होकर प्रजा की शोभाओं को बढ़ावें ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (ऋतावृधा) ढके हुए जल से ठीक-ठीक रूप से शिल्प क्रिया को बढ़ाने वाले, (अश्विना) सूर्य और पवन के समान (वर्त्तमानौ) उपलब्ध (सभासेनेशौ) सभा और सेना के स्वामियों ! (वाम्) तुम दोनों के द्वारा, (यः) जो (अयम्) कहे गये ये (मधुमत्तमः) अतिशय प्रशंसित मधुर गुण आदि वाले (सोमः) वैद्यक और शिल्प क्रिया द्वारा संसाधित किये हुए, ओषधियों के रस (अस्माभिः) हमारे द्वारा (सुतः) तैयार किये गये हैं। (तम्) उन रसों को (तिरोअह्न्यम्) दिन के छिपने पर (अह्न्यम्) दैनिक अवधि के (सम्) साथ (युवाम्) तुम दोनों (पिबतम्) पीओ। (दाशुषे) विद्या आदि दान करनेवाले विद्वानों में (रत्नानि) सुन्दर सुवर्ण आदि और यान आदि को (धत्तम्) धारण करो अर्थात् उन्हें दीजिये ॥१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अयम्) वक्ष्यमाण एताभ्यां साधितः (वाम्) युवाभ्यां (मधुमत्तमः) प्रशस्ता मधुरादयो गुणा विद्यन्ते यस्मिन् सोऽतिशयितः (सुतः) निष्पादितः (सोमः) वैद्यकशिल्पक्रियया संसाधित ओषधीरसः (ऋतावृधा) यावृतेन जलेन यथार्थतया शिल्पक्रियया वा वर्धेते तौ (तम्) रसम् (अश्विना) सूर्य्यपवनाविव (पिबतम्) (तिरोअह्न्यम्) तिरश्च तदहश्च तिरोहस्तस्मिन् भवम् (धत्तम्) (रत्नानि) रमणीयानि सुवर्णादीनि यानानि वा (दाशुषे) विद्यादिदानकर्त्रे विदुषे ॥१॥ विषयः- तत्राऽश्विभ्यां किं साधनीयमित्युपदिश्यते। अन्वयः- हे ऋतावृधाऽश्विना सूर्य्यपवनवद्वर्त्तमानौ सभासेनेशौ वां योऽयं मधुमत्तमः सोमोऽस्माभिः सुतस्तं तिरो अह्न्यं सं युवां पिबतं दाशुषे रत्नानि धत्तम् ॥१॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालंकारः। सभाध्यक्षादयः सदौषधीसारान् संसेव्य बलवन्तो भूत्वा प्रजाश्रियो वर्धयेयुः ॥१॥
मराठी (1)
विषय
येथे राजा व प्रजा यांच्या धर्माचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥
भावार्थ
सभेचे स्वामी इत्यादींनी सदैव औषधाचा रस सेवन करावा व चांगल्या प्रकारे बलवान बनून प्रजेची शोभा वाढवावी. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Ashvins, brilliant powers like the sun and moon, promoters of light and truth, science and industry, this is the sweetest soma distilled for you so far till yesterday. Taste it and enjoy it and bring the jewels for the generous man of yajnic charity.
Subject of the mantra
In the first mantra, what should be accomplished with the aśvi (Sun and Air) , this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (ṛtāvṛdhā) Those who enhance craft action properly with covered water, (aśvinā)=like Sun and air, (varttamānau)=present, (sabhāseneśau) =lord of assembly and army, (vām) =by both of you, (yaḥ) =those,(ayam)=these said, (madhumattamaḥ) = having extremely admirable qualities, (somaḥ)=herbal extracts, (asmābhiḥ) =by us, (sutaḥ)=have been prepared, (tam) =to those extracts, (tiroahnyam)=at the end of the day, (ahnyam) =with daily routine, (sam) =with, (yuvām) =both of you, (pibatam) =drink, (dāśuṣe)=among the scholars who donate knowledge etc., (ratnāni)= beautiful gold etc. and vehicles etc., (dhattam) contain, means give them.
English Translation (K.K.V.)
O chairman of the assembly and chief of the army, present like the Sun and the air, who enhance vehicle activities precisely from the covered waters! These highly praised mellow qualities etc. processed by medical and craft activities, herbal extracts have been prepared by us, as said by both of you. Both of you drink those juices as daily routine at the end of the day. Possess beautiful gold etc. and vehicle etc. among the scholars who donate knowledge et cetera, means give them.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. May the lords of the Assembly, etc. always enhance the beauty of the people by becoming strong by serving the juices of herbal extracts.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should be accomplished by the Aşhvinau is taught in the first mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
1. O President of the Assembly and commander of the Army who are benevolent like the sun and the air and who grow with and are propagators of truth, please drink this sweet Soma (essence of various nourishing herbs) which we have prepared for you in day time according to the Medical Science and bestow upon the learned persons who are liberal donors of knowledge, beautiful gold or chariots etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
( अश्विना) सूर्यपवनाविव सभासेनेशौ = The President of the Assembly and the Commander of the Army who are benevolent like the sun and the air.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The President of the Assembly and other officers of the State should take the essence of the herbs and being mighty should increase the prosperity of their subjects.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Rakesh Poddar
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal