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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 5/ मन्त्र 4
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यस्य॑ सं॒स्थे न वृ॒ण्वते॒ हरी॑ स॒मत्सु॒ शत्र॑वः। तस्मा॒ इन्द्रा॑य गायत॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । स॒म्ऽस्थे । न । वृ॒ण्वते॑ । हरी॒ इति॑ । स॒मत्ऽसु॑ । शत्र॑वः । तस्मै॑ । इन्द्रा॑य । गा॒य॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य संस्थे न वृण्वते हरी समत्सु शत्रवः। तस्मा इन्द्राय गायत॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य। सम्ऽस्थे। न। वृण्वते। हरी इति। समत्ऽसु। शत्रवः। तस्मै। इन्द्राय। गायत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 4
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 9; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनरीश्वरसूर्यौ गातव्यावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यस्य हरी संस्थे वर्त्तेते, यस्य सहायेन शत्रवः समत्सु न वृण्वते, सम्यग् बलं न सेवन्ते, तस्मा इन्द्राय तमिन्द्रं नित्यं गायत॥४॥

    पदार्थः

    (यस्य) परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य वा (संस्थे) सम्यक् तिष्ठन्ति यस्मिंस्तस्मिन् जगति। घञर्थे कविधानम्। (अष्टा०३.३.५८) इति वार्तिकेनाधिकरणे कः प्रत्ययः। (न) निषेधार्थे (वृण्वते) सम्भजन्ते (हरी) हरणशीलौ बलपराक्रमौ प्रकाशाकर्षणाख्यौ च। हरी इन्द्रस्येत्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। (निघं०१.१५) (समत्सु) युद्धेषु। समत्स्विति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (शत्रवः) अमित्राः (तस्मै) एतद्गुणविशिष्टम् (इन्द्राय) परमेश्वरं सूर्य्यं वा। अत्रोभयत्रापि सुपां सु० अनेनामः स्थाने ङे। (गायत) गुणस्तवनश्रवणाभ्यां विजानीत॥४॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। न यावन्मनुष्याः परमेश्वरेष्टा बलवन्तश्च भवन्ति, नैव तावद् दुष्टानां शत्रूणां नैर्बल्यङ्कर्तुं शक्तिर्जायत इति॥४॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर ने अपने आप और सूर्य्यलोक का गुणसहित चौथे मन्त्र से प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग (यस्य) जिस परमेश्वर वा सूर्य्य के (हरी) पदार्थों को प्राप्त करानेवाले बल और पराक्रम तथा प्रकाश और आकर्षण (संस्थे) इस संसार में वर्त्तमान हैं, जिनके सहाय से (समत्सु) युद्धों में (शत्रवः) वैरी लोग (न वृण्वते) अच्छी प्रकार बल नहीं कर सकते, (तस्मै) उस (इन्द्राय) परमेश्वर वा सूर्य्यलोक को (गायत) उनके गुणों की प्रशंसा कह और सुन के यथावत् जानलो॥४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जब तक मनुष्य लोग परमेश्वर को अपने इष्ट देव समझनेवाले और बलवान् अर्थात् पुरुषार्थी नहीं होते, तब तक उनको दुष्ट शत्रुओं की निर्बलता करने को सामर्थ्य भी नहीं होता॥४॥

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    विषय

    अध्यात्म - संग्राम में विजय का उपाय 

    पदार्थ

    १. जब हम प्रभु का स्मरण करते हैं और प्रभु हमारे हृदयों में स्थित होते हैं तब काम - क्रोधादि हमपर आक्रमण नहीं करते । मन्त्र में कहते हैं कि (यस्य) - जिसके (संस्थे) - हृदय - देश में स्थित होने पर (शत्रवः) - काम - क्रोधादि शत्रु (समत्सु) - अध्यात्म-संग्रामों में (हरी) - ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों को (न) - नहीं (वृण्वते) - आक्रमण के लिए चुनते  , अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियों पर क्रोधादि आक्रमण नहीं करते (तस्मा इन्द्राय) - उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए गायत - मिलकर गान करो । 
    २. प्रभु का गायन जहाँ भी होता है वहाँ काम - क्रोधादि का प्रवेश नहीं होता । प्रभु - स्मरण कामादि रोगों का सर्वोत्तम औषध है । यह शरीर में से व्याधियों को दूर करता है तो मन को आंधियों से बचाता है । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का गायन करने से अध्यात्म - संग्राम में कामादि शत्रु हमारी इन्द्रियों पर आक्रमण नहीं कर पाते एवं प्रभु - स्मरण ही अध्यात्म - संग्राम में हमें विजयी बनाता है । 

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    विषय

    ईश्वर ने अपने आप और सूर्य्यलोक का गुणसहित चौथे मन्त्र से प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यस्य हरी संस्थे वर्त्तेते, यस्य सहायेन शत्रवः समत्सु न वृण्वते, सम्यग् बलं न सेवन्ते, तस्मा इन्द्राय तमिन्द्रं नित्यं गायत॥४॥

    पदार्थ

    हे (मनुष्या)=मनुष्यों! (यूयम्)=तुम सब, (यस्य) परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य वा= जिस परमेश्वर या सूर्य के, (हरी) हरणशीलौ बलपराक्रमौ प्रकाशाकर्षार्णाख्यौ च=पदार्थों को प्राप्त कराने वाले बल, पराक्रम, प्रकाश और आकर्षण से, (संस्थे) इस संसार में वर्तमान हैं, (वर्त्तेते)=हैं, (यस्य)=जिसके, (सहायेन)= सहायता से, (शत्रवः)= शत्रु जन, (समत्सु) युद्धेषु= युद्धों में (शत्रवः) अमित्राः=वैरी लोग, (तस्मै) एतद्गुणविशिष्टम्=उस विशिष्ट गुण वाले में , (न)= नहीं, (वृण्वते) सम्भजन्ते=अच्छी प्रकार बल लगाना, (सम्यक्)=ठीक से, (बलम्)=बल, (न)=नहीं, (सेवन्ते)=सेवा करते हैं, (तस्मै)=उस, (इन्द्राय)=परमेश्वर के लिये, (तम्)=उस, (इन्द्रम्)=इन्द्र का, (नित्य)=नित्य, (गायत)=पूजन करो।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जब तक मनुष्य लोग परमेश्वर को अपने इष्ट देव समझनेवाले और बलवान् अर्थात् पुरुषार्थी नहीं होते, तब तक उनको दुष्ट शत्रुओं की निर्बलता करने को सामर्थ्य भी नहीं होता॥४॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (मनुष्या) मनुष्यों! (यूयम्) तुम सब (यस्य) जिस परमेश्वर या सूर्य के  (हरी) पदार्थों को प्राप्त कराने वाले बल, पराक्रम, प्रकाश और आकर्षण, (यस्य सहायेन) जिसकी सहायता से इस संसार में (वर्त्तेते) वर्तमान हैं, जिसकी सहायता से (शत्रवः) शत्रु जन, (समत्सु)  युद्धों में (वृण्वते) अच्छी प्रकार बल (न) नहीं लगाते हैं, (तस्मै) उस (इन्द्राय) परमेश्वर  का  (नित्य) नित्य (गायत) पूजन करो।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (यस्य) परमेश्वरस्य सूर्य्यलोकस्य वा (संस्थे) सम्यक् तिष्ठन्ति यस्मिंस्तस्मिन् जगति। घञर्थे कविधानम्। (अष्टा०३.३.५८) इति वार्तिकेनाधिकरणे कः प्रत्ययः। (न) निषेधार्थे (वृण्वते) सम्भजन्ते (हरी) हरणशीलौ बलपराक्रमौ प्रकाशाकर्षणाख्यौ च। हरी इन्द्रस्येत्यादिष्टोपयोजननामसु पठितम्। (निघं०१.१५) (समत्सु) युद्धेषु। समत्स्विति संग्रामनामसु पठितम्। (निघं०२.१७) (शत्रवः) अमित्राः (तस्मै) एतद्गुणविशिष्टम् (इन्द्राय) परमेश्वरं सूर्य्यं वा। अत्रोभयत्रापि सुपां सु० अनेनामः स्थाने ङे। (गायत) गुणस्तवनश्रवणाभ्यां विजानीत॥४॥
    विषयः- पुनरीश्वरसूर्यौ गातव्यावित्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे मनुष्या ! यूयं यस्य हरी संस्थे वर्त्तेते, यस्य सहायेन शत्रवः समत्सु न वृण्वते, सम्यग् बलं न सेवन्ते, तस्मा इन्द्राय तमिन्द्रं नित्यं गायत॥४॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)-अत्र श्लेषालङ्कारः। न यावन्मनुष्याः परमेश्वरेष्टा बलवन्तश्च भवन्ति, नैव तावद् दुष्टानां शत्रूणां नैर्बल्यङ्कर्तुं शक्तिर्जायत इति॥४॥

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    विषय

    ईश्वर का वर्णन, राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    राजा के पक्ष में—युद्धों में ( यस्य हरी ) जिसके अश्वों को ( शत्रवः ) शत्रुगण ( संस्थे ) रथ में लगे देखकर ( समत्सु ) संग्रामों में ( न वृण्वते ) डट नहीं सकते अर्थात् भयभीत होकर भागते हैं, ( तस्मै ) उस ( इन्द्राय ) ऐश्वर्यवान् राजा के ( गायत ) गुणगान करो । परमेश्वर पक्ष में—जिस परमेश्वर के ( संस्थे ) उत्तम रीति से स्थित होने योग्य जगत् में (हरी) सूर्य के प्रकाश और आकर्षण के समान बल पराक्रम हैं। संग्रामों में शत्रु जिसके सहाय से बल नहीं पकड़ते उस ईश्वर की स्तुति करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    यात श्लेषालंकार आहे. जोपर्यंत माणसे परमेश्वराला आपला इष्टदेव समजत नाहीत व बलवान अर्थात पुरुषार्थी बनत नाहीत तोपर्यंत त्यांच्यात दुष्ट शत्रूंना निर्बल करण्याचे सामर्थ्यही नसते. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Sing in honour of that Indra in the field of whose power and force no enemies can have the courage to stand in opposition and sustain themselves.

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    Subject of the mantra

    God has elucidated his own virtues of as well as that of sun–region in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyā)=Men, (yūyam)=you all, (yasya) =of which God or sun, (harī)=with whose help they are present in this universe, (varttete)=are, (yasya-sahāyena)=with whose help, (śatravaḥ)=enemies, Yuddheshu=in battles, (na)=not, (vṛṇvate)=to use force properly, (tasmai)=for him, (sevante)=serves, (indrāya)=for God, (nitya)=daily, (gāyata)=worship.

    English Translation (K.K.V.)

    O human beings! The power, might, effulgence and charm of the God or the Sun, with whose help you are present in this world. Worship that God regularly, with the help of which enemies do not exert their strength in battles.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    In this mantra, there is paronomasia as a figurative. Unless human beings consider the God as their presiding deity and are strong, that is, they are not engaged in vigorous efforts, they do not have ability to weaken the evil enemies.

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    Translation

    Let us sing to the glory of that supreme Self with intense devotion, whose adversaries, with all their strength, are unable to face the horses harnessed in his car, (i.e. unable to face the vigour of his opposition).

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) O men, glorify and know the nature of that God Whose Power and force are working in this Universe and with Whose help, wicked enemies cannot withstand us-the righteous heroes in the battles. (2) Praise or describe the properties of the sun whose light and attraction are operating in the Universe and whom none can resist.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (हरी] हरणशीलौ) बलपराक्रमौ प्रकाशाकर्षणाख्यौ च ( समत्सु ) युद्धेषु समत्स्विति संग्रामनाम ( निघं० २.१७ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    So long as men are not devoted to the Almighty God and do not become mighty themselves, they do not get the power of weakening un-righteous enemies.

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    सुरक्षा के नियम – Safety Code

    Word Meaning

    भौतिक पदार्थों और उन की प्रक्रियाओं के सम्भावित दुष्परिणामों के रोकथाम के लिए सुरक्षा के साधनों का प्रचार करो. Explore and provide information & knowledge about the harmful properties of the physical objects and processes.

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