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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    त्वं सु॒तस्य॑ पी॒तये॑ स॒द्यो वृ॒द्धो अ॑जायथाः। इन्द्र॒ ज्यैष्ठ्या॑य सुक्रतो॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । सु॒तस्य॑ । पी॒तये॑ । स॒द्यः । वृ॒द्धः । अ॒जा॒य॒थाः॒ । इन्द्र॑ । ज्यैष्ठ्या॑य । सु॒क्र॒तो॒ इति॑ सुऽक्रतो ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं सुतस्य पीतये सद्यो वृद्धो अजायथाः। इन्द्र ज्यैष्ठ्याय सुक्रतो॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। सुतस्य। पीतये। सद्यः। वृद्धः। अजायथाः। इन्द्र। ज्यैष्ठ्याय। सुक्रतो इति सुऽक्रतो॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    किं कृत्वा जीवः पूर्वोक्तोपयोगग्रहणे समर्थो भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    हे इन्द्र सुक्रतो विद्वन् मनुष्य ! त्वं सद्यः सुतस्य पीतये ज्यैष्ठ्याय वृद्धो अजायथाः ॥६॥

    पदार्थः

    (त्वम्) जीवः (सुतस्य) उत्पन्नस्यास्य जगत्पदार्थसमूहस्य सकाशाद्रसस्य (पीतये) पानाय ग्रहणाय वा (सद्यः) शीघ्रम् (वृद्धः) ज्ञानादिसर्वगुणग्रहणेन सर्वोपकारकरणे च श्रेष्ठः (अजायथाः) प्रादुर्भूतो भव (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्य्ययुक्त विद्वन् ! इन्द्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.४) अनेन गन्ता प्रापको विद्वान् जीवो गृह्यते। (ज्यैष्ठ्याय) अत्युत्तमकर्मणामनुष्ठानाय (सुक्रतो) श्रेष्ठकर्मबुद्धियुक्त मनुष्य ! ॥६॥

    भावार्थः

    जीवायेश्वरोपदिशति-हे मनुष्य ! यावत्त्वं न विद्यावृद्धो भूत्वा सम्यक् पुरुषार्थं परोपकारं च करोषि, नैव तावन्मनुष्यभावं सर्वोत्तमसुखं च प्राप्स्यसि, तस्मात्त्वं धार्मिको भूत्वा पुरुषार्थी भव ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    ईश्वर ने, जीव जिस करके पूर्वोक्त उपयोग के ग्रहण करने को समर्थ होते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है-

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्ययुक्त (सुक्रतो) श्रेष्ठ कर्म करने और उत्तम बुद्धिवाले विद्वान् मनुष्य ! (त्वम्) तू (सद्यः) शीघ्र (सुतस्य) संसारी पदार्थों के रस के (पीतये) पान वा ग्रहण और (ज्यैष्ठ्याय) अत्युत्तम कर्मों के अनुष्ठान करने के लिये (वृद्धः) विद्या आदि शुभ गुणों के ज्ञान के ग्रहण और सब के उपकार करने में श्रेष्ठ (अजायथाः) हो ॥६॥

    भावार्थ

    ईश्वर जीव के लिये उपदेश करता है कि-हे मनुष्य ! तू जबतक विद्या में वृद्ध होकर अच्छी प्रकार परोपकार न करेगा, तब तक तुझको मनुष्यपन और सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति कभी न होगी, इससे तू परोपकार करनेवाला सदा हो ॥६॥

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    विषय

    वृद्धि व ज्येष्ठता 

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र की भावना को ही पुष्ट करते हुए कहते हैं - हे (सुक्रतो) - उत्तम कर्म संकल्प व ज्ञानवाले जीव ! (त्वम्) - तू (सुतस्य) - इस उत्पन्न सोम की (पीतये) - रक्षा के लिए हो  , अर्थात् सोम की रक्षा का तू दृढ़ निश्चय कर । 
    २. इससे तू (सद्यः) - शीघ्र ही (वृद्धः) सब शक्तियों के दृष्टिकोण से बढ़ा हुआ (अजायथाः) होगा । तेरे शरीर  , मन व बुद्धि सभी विकसित शक्तियोंवाले होंगे । शरीर बलवान् व निरोग बनेगा  , मन पवित्र व निश्चल होगा तथा बुद्धि सूक्ष्म व दीप्त होगी । 
    ३. हे (इन्द्रः) इन्द्रियों का अधिष्ठातृत्व करनेवाले और अतएव तीनों कालों में - बाल्य  , यौवन व स्थविरभाव में सोम का पान करनेवाले [शरीर में वीर्य की रक्षा करनेवाले] जीव ! तू (ज्यैष्ठ्याय) - ज्येष्ठता के लिए होगा  , अर्थात् ब्राह्मण बनकर ज्ञान से ज्येष्ठ बनेगा  , क्षत्रिय बनकर बल से बढ़ा हुआ सोम होगा और वैश्य के रूप में धन - धान्य से समृद्धि को प्राप्त करेगा । सब प्रकार की ज्येष्ठता का मूल यह सोम ही है  , अतः इसका तू पान व रक्षण करनेवाला बन । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - सोम की शरीर में ही रक्षा हमारी वृद्धि व ज्येष्ठता का मूल है । 

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    विषय

    ईश्वर ने जीव जिस करके पूर्वोक्त उपयोग के ग्रहण करने को समर्थ होते हैं, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र सुक्रतो विद्वन् मनुष्य ! त्वं सद्यः सुतस्य पीतये ज्यैष्ठ्याय वृद्धो अजायथाः ॥६॥

    पदार्थ

    (इन्द्र)  विद्यादिपरमैश्वरर्ययुक्त= विद्या आदि से परमैश्वर युक्त, (सुक्रतो) श्रेष्ठकर्मबुद्धियुक्त मनुष्य = श्रेष्ठ कर्म और उत्तम बुद्धि वाले, (विद्वन्)=विद्वान्, (मनुष्य)=मनुष्य ! (त्वम्) तुम, (सद्यः)=आज ही, (सुतस्य) उत्पन्नास्य जगत्पदार्थसमूहस्य सकाशांद्रसस्य= उत्पन्न संसारी पदार्थों के रस के (पीतये) पापानाय ग्रहणाय वा = पान या ग्रहण के लिए, (ज्यैष्ठड्ढाय) अत्युत्तमकर्मणामनुष्ठानाय= अत्युत्तम कर्मों के अनुष्ठान करने के लिये,  (वृद्धः) ज्ञानादिसर्वगुणग्रहणेन सर्वोपकारकरणे च = विद्या आदि शुभ गुणों के ज्ञान के ग्रहण करने और सबके उपकार करने में श्रेष्ठ, (अजायथा)=हो जाओे॥६॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    ईश्वर जीव के लिये उपदेश करता है कि-हे मनुष्य ! तू जबतक विद्या में वृद्ध होकर अच्छी प्रकार परोपकार न करेगा, तब तक तुझको मनुष्यपन और सर्वोत्तम सुख की प्राप्ति कभी न होगी, इसलिये तू धार्मिक होकर पुरुषार्थ करनेवाला सदा हो ॥६॥ 

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे  (इन्द्र)  विद्या आदि से परमैश्वर युक्त, (सुक्रतो) श्रेष्ठ कर्म और उत्तम बुद्धि वाले (विद्वन्) विद्वान्  (मनुष्य) मनुष्य ! (त्वम्) तुम (सद्यः) आज ही (सुतस्य) उत्पन्न संसारी पदार्थों के रस के (पीतये) पान या ग्रहण के लिए  (ज्यैष्ठड्ढाय) अत्युत्तम कर्मों के अनुष्ठान करने के लिये  (वृद्धः) विद्या आदि शुभ गुणों के ज्ञान के ग्रहण करने और सबके उपकार करने में श्रेष्ठ (अजायथा)  हो जाओे ॥६॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) जीवः (सुतस्य) उत्पन्नस्यास्य जगत्पदार्थसमूहस्य सकाशाद्रसस्य (पीतये) पानाय ग्रहणाय वा (सद्यः) शीघ्रम् (वृद्धः) ज्ञानादिसर्वगुणग्रहणेन सर्वोपकारकरणे च श्रेष्ठः (अजायथाः) प्रादुर्भूतो भव (इन्द्र) विद्यादिपरमैश्वर्य्ययुक्त विद्वन् ! इन्द्र इति पदनामसु पठितम्। (निघं०५.४) अनेन गन्ता प्रापको विद्वान् जीवो गृह्यते। (ज्यैष्ठ्याय) अत्युत्तमकर्मणामनुष्ठानाय (सुक्रतो) श्रेष्ठकर्मबुद्धियुक्त मनुष्य ! ॥६॥
    विषयः- किं कृत्वा जीवः पूर्वोक्तोपयोगग्रहणे समर्थो भवतीत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- हे इन्द्र सुक्रतो विद्वन् मनुष्य ! त्वं सद्यः सुतस्य पीतये ज्यैष्ठ्याय वृद्धो अजायथाः ॥६॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- जीवायेश्वरोपदिशति-हे मनुष्य ! यावत्त्वं न विद्यावृद्धो भूत्वा सम्यक् पुरुषार्थं परोपकारं च करोषि, नैव तावन्मनुष्यभावं सर्वोत्तमसुखं च प्राप्स्यसि, तस्मात्त्वं धार्मिको भूत्वा पुरुषार्थी भव ॥६॥

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    विषय

    ईश्वर का वर्णन, राजा के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः हे ( सुक्रतो ) उत्तम कर्म और प्रज्ञा वाले ! ( त्वं ) तू ( सुतस्य पीतये ) उत्तम ओषधि रस के समान जगत् के उत्पन्न ऐश्वर्य या अधिकार पद के भोग, पान या प्राप्त करने के लिये और ( ज्यैष्ट्याय ) सबसे उत्तमपद को प्राप्त करने के लिये ( सद्यः ) शीघ्र ही सब दिन ( वृद्धः ) सबसे बड़ा, सर्वश्रेष्ठ ( अजायथाः ) होकर रह । परमेश्वर के पक्ष में—हे परमेश्वर ! हे शुद्ध प्रज्ञावन् ! इस उत्पन्न संसार को अपने में ले लेने और सबसे महान् होने के कारण तू ही सदा सबसे बड़ा है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १–१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर जीवांना उपदेश करतो की - हे माणसा! तू जोपर्यंत विद्येने पूर्ण विकसित होऊन चांगल्या प्रकारे परोपकार करणार नाहीस तोपर्यंत तुला माणुसकी व सर्वोत्तम सुखाची प्राप्ती कधी होणार नाही. त्यासाठी धार्मिक बनून परोपकारी हो. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Indra, noble soul of purity and yajnic meditation, hero of a hundred acts of goodness, for a drink of the soma of Lord Indra’s creation, rising to new honour and grandeur every day, take a new birth into higher knowledge every moment.

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    Subject of the mantra

    How living beings are able in accepting the use of the aforesaid subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=! (indra)=full of knowledge and God’s grace, (sukrato)= scholars having great deeds, (vidvan)=learned fellow, (manuṣya)=man, (tvam)= you, (sadyaḥ)=today itself, (sutasya)= of the juice of worldly substances produced, (pītaye)=to take, (jyaiṣṭhaḍḍhāya)=for the sake of rituals of excellent deeds, (vṛddhaḥ)=best in acceptance of knowledge, auspicious virtues and wisdom and best in benevolence. (ajāyathā)=be.

    English Translation (K.K.V.)

    O learned fellow! Full of knowledge and God’s grace, scholars! Having great deeds (karma), you take for the sake of excellent deeds, rituals today itself of the juice of worldly substances produced; you be the best in accepting knowledge, auspicious virtues and wisdom and be best in benevolence.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God preaches to the soul, “O human being! Unless you get augmented in learning and do philanthropy, you will never get humanness and best delights, therefore you should always be righteous and effort oriented.

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    Translation

    O resplendent Lord, you are the supreme accomplisher of all that is noble and beneficial. May you be pleased with our heartfelt prayers and extend your blessed hand to enfold us in your embrace.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How or doing what the soul becomes fit to make proper use of the sun and the air etc. is taught in the next Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person endowed with good intellect and noble actions, you should become the best by acquiring knowledge and other virtues, in order to drink the Juice of all things of the world, and to do very noble deeds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    ( इन्द्र ) विद्यादिपरमैश्वर्ययुक्त विद्वन् = O man endowed with the great wealth of knowledge.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God teaches the soul. O man ! unless you engage yourself in doing good to others having become old in knowledge (erudite) and experienced, you will not be a true man and will not attain the best happiness. Therefore you should be industrious and righteous.

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    हिंगलिश (1)

    Subject

    Make life comfortable सुखमय जीवन

    Word Meaning

    संसार के पदार्थों के सुख को ग्रहण करने ले लिए विद्या आदि उत्तम ज्ञान से प्रेरित हो कर श्रेष्ठ अत्युत्तम कर्म करने वाले पूज्य जनों का अनुसरण करो Reach the status of senior entrepreneur by utilizing the vast store of knowledge and technology to bring comfort and welfare in life of entire community.

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