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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 52 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 52/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्यं सु मे॒षं म॑हया स्व॒र्विदं॑ श॒तं यस्य॑ सु॒भ्वः॑ सा॒कमीर॑ते। अत्यं॒ न वाजं॑ हवन॒स्यदं॒ रथ॒मेन्द्रं॑ ववृत्या॒मव॑से सुवृ॒क्तिभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्यम् । सु । मे॒षम् । म॒ह॒य॒ । स्वः॒ऽविद॑म् । श॒तम् । यस्य॑ । सु॒ऽभ्वः॑ । सा॒कम् । ईर॑ते । अत्य॑म् । न । वाज॑म् । ह॒व॒न॒ऽस्यदम् । रथ॑म् । आ । इन्द्र॑म् । व॒वृ॒त्या॒म् । अव॑से । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्यं सु मेषं महया स्वर्विदं शतं यस्य सुभ्वः साकमीरते। अत्यं न वाजं हवनस्यदं रथमेन्द्रं ववृत्यामवसे सुवृक्तिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्यम्। सु। मेषम्। महय। स्वःऽविदम्। शतम्। यस्य। सुऽभ्वः। साकम्। ईरते। अत्यम्। न। वाजम्। हवनऽस्यदम्। रथम्। आ। इन्द्रम्। ववृत्याम्। अवसे। सुवृक्तिऽभिः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 52; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स इन्द्रः कीदृगित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यस्येन्द्रस्य सेनाध्यक्षस्य शतं सुभ्वो जनाः सुवृक्तिभिः साकमत्यमश्वं नेवावसे हवनस्यदं वाजमिन्द्रं स्वर्विदं रथमीरते, येनाहं ववृत्यां वर्त्तयेयं त्यन्तं मेषं त्वं सुमहय ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (त्यम्) तं सभाध्यक्षम् (सु) शोभने (मेषम्) सुखजलाभ्यां सर्वान् सेक्तारम् (महय) पूजयोपकुरु वा। अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (स्वर्विदम्) स्वरन्तरिक्षं विन्दति येन तम् (शतम्) असंख्याताः (यस्य) इन्द्रस्य (सुभ्वः) ये जनाः सुष्ठु सुखं भावयन्ति ते। अत्र छन्दस्युभयथा (अष्टा०६.४.८७) इति यणादेशः। (साकम्) सह (ईरते) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति (अत्यम्) अश्वम्। अत्य इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (न) इव (वाजम्) वेगयुक्तम् (हवनस्यदम्) येन हवनं पन्थानं स्यन्दते तम् (रथम्) विमानादिकम् (आ) समन्तात् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् (ववृत्याम्) वर्त्तयेयम्, लिङ्प्रयोगोऽयम्। बहुलं छन्दसीत्यादिभिः द्वित्वादिकम् (अवसे) रक्षणाद्याय (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु शोभना वृक्तयो दुःखवर्जनानि यासु क्रियासु ताभिः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यथाऽश्वं नियोज्य रथादिकं चालयन्ति, तथैतैर्वह्न्यादिभिर्यानानि वाहयित्वा कार्याणि साधयेयुः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब बावनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्र कैसा हो, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    (यस्य) जिस परमैश्वर्ययुक्त सभाध्यक्ष के (शतम्) असंख्यात (सुभ्वः) सुखों को उत्पन्न करनेवाले कारीगर लोग (सुवृक्तिभिः) दुःखों को दूर करनेवाली उत्तम क्रियाओं के (साकम्) साथ (अत्यम्) अश्व के (न) समान अग्नि जलादि से (अवसे) रक्षादि के लिये (हवनस्यदम्) सुखपूर्वक आकाश मार्ग में प्राप्त करनेवाले (वाजम्) वेगयुक्त (इन्द्रम्) परमोत्कृष्ट ऐश्वर्य के दाता (स्वर्विदम्) जिससे आकाश मार्ग से जा आ सकें, उस (रथम्) विमान आदि यान को (ईरते) प्राप्त होते हैं और जिससे मैं (ववृत्याम्) वर्त्तता हूँ (त्यम्) उस (मेषम्) सुख को वर्षानेवाले को हे विद्वान् मनुष्य ! तू उनका (सुमहय) अच्छे प्रकार सत्कार कर ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को जैसे अश्व को युक्त कर रथ आदि को चलाते हैं, वैसे अग्नि आदि से यानों को चला के कार्यों को सिद्ध कर सुखों को प्राप्त होना चाहिये ॥ १ ॥

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    विषय

    सुमेष - स्वर्विद

    पदार्थ

    १. (त्यम्) = उस (सु - मेषम्) = अत्यन्त उत्तम क्रियाओंवाले अथवा हमारे कामादि शत्रुओं के साथ संग्राम करनेवाले और इस प्रकार (स्वर्विदम्) = प्रकाश को प्राप्त करनेवाले अथवा [सुष्ठु अरणीयम्] उत्तम धनों को प्राप्त करानेवाले प्रभु को तू (महया) = पूजित करनेवाला हो । २. उस प्रभु का तू पूजन कर (यस्य) = जिसके पूजन में (सुभ्वः) = [सु+भूः] उत्तम स्थितिवाले लोग (शतम्) = सौ वर्ष के लम्बे जीवन तक, अर्थात् आजीवन (साकम्) = मिलकर, घर के सब - के - सब सभ्य एकत्र होकर (ईरते) = प्रवृत्त होते हैं । ३. मैं अपने (रथम्) = इस जीवन - रथ को (अवसे) = रक्षण के लिए तथा (सुवृक्तिभिः) = खूब अच्छी प्रकार पापों के वर्जन के हेतु से (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु की ओर (आववृत्याम्) = आवृत्त करूं । मैं इस शरीर - रथ से प्रभु की ओर चलूँ, न कि प्रकृति की ओर । यह मेरा शरीररूप रथ (हवनस्यदम्) = प्रभु के पुकारने के साथ गतिशील हो [हवन - पुकारना, स्यन्द - गतौ] । मैं प्रभु का स्मरण करूँ और क्रिया में प्रवृत्त रहूँ । (अत्यं न) = मेरा यह रथ [अत सातत्यगमने] सतत गतिशील घोड़े के समान सदा क्रियाशील हो और इस क्रियाशीलता से ही (वाजम्) = शक्ति का पुञ्ज हो । निर्बल व निष्क्रिय शरीर से प्रभु - पूजन नहीं होता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - मेरा यह शरीररूप रथ प्रभु की ओर चले । यह सबल व सतत गतिशील हो । वे प्रभु हमारे शत्रुओं का नाश करनेवाले तथा प्रकाश व सुख को प्राप्त करानेवाले हैं ।

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    विषय

    वर्षते हुए मेघ से सेनापति राजा और परमेश्वर की तुलना ।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! तू (मेषम्) मेघ जिस प्रकार भूमियों पर जलों की वर्षा करता है ( यस्य साकं शतं सुभ्वः ईरते ) जिसके वर्षण के साथ २ ही सैकड़ों उत्तम उर्वरा भूमियों के स्वामी किसान गण (ईरते) एक साथ हल चलाते हैं उस ( स्वर्विदम् ) सुखकारी मेघ के समान (मेषम् ) प्रजा पर सुखों की वर्षा करने वाले अथवा मेढ़े के समान शत्रुओं से मुक़ाबला लेने वाले, दृढ़ उस राजा का ( सुमहय ) अच्छी प्रकार आदर कर ( यस्य ) जिसके अधीन रहकर (शतं सुभ्वः) सैकड़ों उत्तम भूमिपति (साकम्) एक साथ ही ( ईरते ) युद्ध यात्रा करते हैं । अथवा जिसके बल से सैकड़ों अच्छे २ भूमिपति कांप जाते हैं। परमेश्वर के पक्ष में—उस परमेश्वर की उपासना कर जिसके आश्रय में या जिसको प्राप्त करने के लिये (शतं सुभ्वः) सैकड़ों उत्तम कोटि के, अति सामर्थ्यवान् पुरुष यत्न करते हैं, या जिसके भय से उत्तम २ बलशाली लोग भी कांपते हैं। मैं प्रजाजन (वाजं अत्यं न) वेगवान् अश्व के समान (हवनस्यदम्) गमन करने योग्य मार्ग पर वेग से जाने वाले एवं शत्रु के ललकार पर वेग से आक्रमण करने वाले (रथम्) रथारोही (इन्द्रं) शत्रुहन्ता राजा को (सुवृक्तिभिः) उत्तम शत्रुओं को पराजय करने वाले शक्तियों सहित (अवसे) अपनी रक्षा के लिये ( आ वृत्याम् ) वरण करूं । परमेश्वर के पक्ष में—(हवनस्यदं) आह्वान, पुकार और स्तुति पर ही करुणा से द्रवित होने वाले, अति दयालु (रथम्) रस स्वरूप, परमरमणीय, (इन्द्रं) परमेश्वर को मैं (सुवृक्तिभिः) उत्तम हृदयग्राही स्तुतियों द्वारा ( आववृत्याम्) प्राप्त करूं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः । इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १,८ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ त्रिष्टुप् । ९, १० स्वराट् त्रिष्टुप् । १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप् । २-४ निचृज्जगती । ६, ११ विराड् जगती ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अब बावनवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में इन्द्र कैसा हो, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे विद्वन् ! यस्य इन्द्रस्य सेनाध्यक्षस्य शतं सुभ्वः जनाः सुवृक्तिभिः साकम् अत्यम् अश्वं न इव अवसे हवनस्यदं वाजम् इन्द्रं स्वर्विदं रथम् ईरते, येन अहं ववृत्यां वर्त्तयेयं त्यं तं मेषं त्वं सुमहय ॥ १ ॥

    पदार्थ

    हे (विद्वन्)=विद्वन् ! (यस्य) इन्द्रस्य=इन्द्र, (सेनाध्यक्षस्य)= सेनाध्यक्ष के, (शतम्) असंख्याताः=असंख्य, (सुभ्वः) ये जनाः सुष्ठु सुखं भावयन्ति ते=जो लोग उत्तम सुख काअनुभव करते हैं, ऐसे (जनाः)=लोग, (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु शोभना वृक्तयो दुःखवर्जनानि यासु क्रियासु ताभिः= जिन क्रियाओं से दुःखों को टालकर शोभनीय और शुद्ध हो जाते हैं, (साकम्) सह=साथ, (अत्यम्) अश्वम्=अश्व के, (न) इव =समान, (अवसे) रक्षणाद्याय=रक्षण आदि के लिये, (हवनस्यदम्) येन हवनं पन्थानं स्यन्दते तम्= जिनसे हवन के मार्ग में वायु प्रवाहित होता है, उस (वाजम्) वेगयुक्तम्= वेगयुक्त को, (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् =परम ऐश्वर्यवाले, (स्वर्विदम्) स्वरन्तरिक्षं विन्दति येन तम्= जिससे अन्तरिक्ष को खोजते हैं, उस (रथम्) विमानादिकम्=विमान आदि से, [आ] समन्तात्=हर ओर से, (ईरते) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति=पहुँचते हैं, (येन)=जिसके द्वारा, (अहम्)=मैं, (ववृत्याम्) वर्त्तयेयम्= व्यवहार करता हूँ, (त्यम्) तं सभाध्यक्षम्तम्=उस शभाध्यक्ष, (तम्)=उसको, (मेषम्) सुखजलाभ्यां सर्वान् सेक्तारम्=सुख के जलों से पूरी तरह से सिंचित करो, (त्वम्)=तुम, (सु) शोभने=शोभनीय, (महय) पूजयोपकुरु वा=पूजा या उपकार करो ॥ १ ॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्य जैसे अश्व को युक्त करके रथ आदि को चलाते हैं, वैसे ही अग्नि आदि से यानों को चला करके कार्यों को सिद्ध करना चाहिये ॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (विद्वन्) विद्वान् (यस्य) इन्द्र! (सेनाध्यक्षस्य) सेनाध्यक्ष के, जो (शतम्) असंख्य (सुभ्वः) लोग उत्तम सुख का अनुभव करते हैं, ऐसे (जनाः) लोग, (सुवृक्तिभिः) जिन क्रियाओं से दुःखों को टालकर शोभनीय और शुद्ध हो जाते हैं, उन क्रियाओं के (साकम्) साथ (अत्यम्) अश्व के (न) समान, (अवसे) रक्षण आदि के लिये, (हवनस्यदम्) जिनसे हवन के मार्ग में वायु प्रवाहित होता है, उस (वाजम्) वेगयुक्त [मार्ग को] (इन्द्रम्) परम ऐश्वर्यवाले, (स्वर्विदम्) जिससे अन्तरिक्ष को खोजते हैं, उस (रथम्) विमान आदि से [आ] हर ओर से (ईरते) पहुँचते हैं। (येन) जिसके द्वारा (अहम्) मैं (ववृत्याम्) व्यवहार करता हूँ, (त्यम्) उस सभाध्यक्ष (तम्) को (मेषम्) सुख के जलों से पूरी तरह से सिंचित करो। (त्वम्) तुम (सु) शोभनीय, (महय) पूजा या उपकार करो ॥ १ ॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्यम्) तं सभाध्यक्षम् (सु) शोभने (मेषम्) सुखजलाभ्यां सर्वान् सेक्तारम् (महय) पूजयोपकुरु वा। अत्र अन्येषामपि दृश्यत इति दीर्घः। (स्वर्विदम्) स्वरन्तरिक्षं विन्दति येन तम् (शतम्) असंख्याताः (यस्य) इन्द्रस्य (सुभ्वः) ये जनाः सुष्ठु सुखं भावयन्ति ते। अत्र छन्दस्युभयथा (अष्टा०६.४.८७) इति यणादेशः। (साकम्) सह (ईरते) गच्छन्ति प्राप्नुवन्ति (अत्यम्) अश्वम्। अत्य इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (न) इव (वाजम्) वेगयुक्तम् (हवनस्यदम्) येन हवनं पन्थानं स्यन्दते तम् (रथम्) विमानादिकम् (आ) समन्तात् (इन्द्रम्) परमैश्वर्यवन्तम् (ववृत्याम्) वर्त्तयेयम्, लिङ्प्रयोगोऽयम्। बहुलं छन्दसीत्यादिभिः द्वित्वादिकम् (अवसे) रक्षणाद्याय (सुवृक्तिभिः) सुष्ठु शोभना वृक्तयो दुःखवर्जनानि यासु क्रियासु ताभिः ॥ १ ॥ विषयः- पुनः स इन्द्रः कीदृगित्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे विद्वन् ! यस्येन्द्रस्य सेनाध्यक्षस्य शतं सुभ्वो जनाः सुवृक्तिभिः साकमत्यमश्वं नेवावसे हवनस्यदं वाजमिन्द्रं स्वर्विदं रथमीरते, येनाहं ववृत्यां वर्त्तयेयं त्यम्तं मेषं त्वं सुमहय ॥ १ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्या यथाऽश्वं नियोज्य रथादिकं चालयन्ति, तथैतैर्वह्न्यादिभिर्यानानि वाहयित्वा कार्याणि साधयेयुः ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात विद्वान, विद्युत इत्यादी, अग्नी व ईश्वराच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे घोडे रथाला जुंपून रथ चालविले जातात. तसे अग्नी इत्यादीद्वारे यान चालवून कार्य सिद्ध करावे व माणसांनी सुख प्राप्त करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Honour that Indra, lord of glory and virile generosity who takes us high to the skies. Hundreds of noble and creative craftsmen together with their expert performance work on and engineer his glorious chariot which can cover the spatial paths across the skies for the sake of protection and defence. I wish I too could fly by that chariot.

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    Subject of the mantra

    Now it is the beginning of the fifty-second hymn. In its first mantra, it has been preached about how Indra should be.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvan) =scholar, (yasya)=indra, (senādhyakṣasya)=of the army chief, those, (śatam)=innumerable (subhvaḥ)=people experience great happiness, this is how, (janāḥ) =people, (suvṛktibhiḥ) =the activities by which one becomes beautiful and pure by avoiding sorrows, (sākam) =with, (atyam) =of horse, (na) =like, (avase)= for protection etc., (havanasyadam)=through which air flows in the path of Havan, that, (vājam) =speedy, [mārga ko]=to the path, (indram) =having extreme opulence, (svarvidam) =to which space they, search, (ratham) =by aircraft etc. vehilcle, [ā] =from all sides, (īrate) =arrive, (yena) =by whom, (aham) =I, (vavṛtyām) =practising, (tyam) =to that chairman, (tam)=to, (meṣam)=irrigate completely with the waters of happiness, (tvam) =you, (su)=splendidly, (mahaya)= worship or do favour.

    English Translation (K.K.V.)

    O learned Indra! Those innumerable people of the army chief who experience the best happiness, such people, by whose actions they become beautiful and pure by avoiding sorrows, like a horse with those actions, for protection etc., by which air flows in the path of yajna, that speedy path by which the supreme opulent ones explore the space, come from that craft etc., through whom I interact completely with the waters of happiness. You splendidly worship or do benevolence.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as human beings drive chariots etc. by harnessing horses, in the same way, tasks should be accomplished by driving vehicles with fire et cetera.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Indra is taught further in this hymn.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person, honor well that Indra (President of the Assembly or the Commander of the Army) showerer of happiness, under whose order or guidance, hundreds of men cause happiness with the means that eliminate all misery, manufacture cars like the aero plane which hasten like a fleet couser to the destination, which take to the firmament and are full of much wealth for our protection, so that we may also travel comfortably and enjoy happiness.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मेषम् ) सुखजलाभ्यां सर्वान् सेक्तारम् = Showerer of happiness and bringer of water by proper arrangements. ( स्वर्विदम् ) स्व: अन्तरिक्षं विन्दति येन तम् = Taking to the firmament. ( अत्यम् ) अश्वम् अत्य इत्यश्वनाम । ( निघ० १.१४) ( हवनस्यदम्) येन हवनं पन्थानं स्यन्दते तम् = By which a man travels on the Path. ( रथम्) विमानादिकम् = Car like the aero plane etc. ( सुवृक्तिभिः ) सुष्ठु शोभनाः वृक्तयः दुःखवर्जनानि यासु क्रियासु = By the processes which eliminate or take off misery.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men yoke horses and drive ordinary chariots, in the same way, they should learn to drive various vehicles with the proper combination of fire, water etc. and thus accomplish their works.

    Translator's Notes

    (2) By taking Indra as God, as done by Rishi Dayananda in many mantras of this hymn, the spiritual meaning is as follows: Men should rightly worship God, the Giver of Supreme happiness, the Pure cause of all and under whose direction, hundreds of planets and stars etc. are revolving. I (devotee) remember Him again and again and recite the eulogies of lovely Lord, who is all-pervading, moving everywhere with horse like speed (so to speak) and who is propitiated through complete renouncement of all evil propensities, for our protection and safety. मेषम्-सर्वमनोरथसाधकम् अथवा सुखसेचकम् = Fulfiller of all noble desires or showerer of happiness. Here again both Prof. Wilson and Griffith have committed the mistake of taking मेषम् as ram, though even Sayanacharya, whom they claim to follow has translated the worth मेषम् here as शत्रुभिः सह स्पर्धमानम् = Victor of the enemies. स्वर्विंदम् has been translated by Skanda Swami as सर्वस्य शातारंम् = or Omniscient. हवनम् -हु दानादनयोः आदाने च हूयते आदीयते सुखयात्रार्थं स्वीक्रियते इति हवनं पन्थाः सुवृक्तिभिः-सुष्ठु वर्जितदोषाभिः स्तुतिभिः इति स्कन्दस्वामी |

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