ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
दि॒वश्चि॑दस्य वरि॒मा वि प॑प्रथ॒ इन्द्रं॒ न म॒ह्ना पृ॑थि॒वी च॒न प्रति॑। भी॒मस्तुवि॑ष्माञ्चर्ष॒णिभ्य॑ आत॒पः शिशी॑ते॒ वज्रं॒ तेज॑से॒ न वंस॑गः ॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वः । चि॒त् । अ॒स्य॒ । व॒रि॒मा । वि । प॒प्र॒थ॒ । इन्द्र॑म् । न । म॒ह्ना । पृ॒थि॒वी । च॒न । प्रति॑ । भी॒मः । तुवि॑ष्मान् । च॒र्ष॒णिऽभ्यः॑ । आ॒ऽत॒पः । शिशी॑ते । वज्र॑म् । तेज॑से । न । वंस॑गः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवश्चिदस्य वरिमा वि पप्रथ इन्द्रं न मह्ना पृथिवी चन प्रति। भीमस्तुविष्माञ्चर्षणिभ्य आतपः शिशीते वज्रं तेजसे न वंसगः ॥
स्वर रहित पद पाठदिवः। चित्। अस्य। वरिमा। वि। पप्रथ। इन्द्रम्। न। मह्ना। पृथिवी। चन। प्रति। भीमः। तुविष्मान्। चर्षणिऽभ्यः। आऽतपः। शिशीते। वज्रम्। तेजसे। न। वंसगः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 55; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्रादौ सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथाऽस्य सवितुर्दिवो वरिमा मह्ना विपप्रथे पृथिवी चन मह्ना तुल्या न भवति नातपो वंसगो न गोसमूहान् वंसगो न पृथिवीं प्रति तेजसे वज्रं शिशीते प्रक्षिपति तथा यो दुष्टेभ्यो भीमो धार्मिकेभ्यः प्रियो भूत्वा प्रजाः पालयेत् स चित्सर्वैः सत्कर्त्तव्यो नेतरः खलु ॥ १ ॥
पदार्थः
(दिवः) दिव्यगुणात् (चित्) एव (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (वरिमा) वरस्य भावः (वि) विविधार्थे (पप्रथे) प्रथते (इन्द्रम्) परमैश्वर्यस्य प्रापकम् (न) इव (मह्ना) महत्त्वेन। अत्र महधातोः बाहुलकाद् औणादिकः कनिन् प्रत्ययः। (पृथिवी) भूमिः (चन) अपि (प्रति) योगे (भीमः) दुष्टान् प्रति भयंकरः श्रेष्ठान् प्रति सुखकरः (तुविष्मान्) वृद्धिमान्। अत्र तुधातोः बाहुलकादौणादिक इसिः प्रत्ययः स च कित्। (चर्षणिभ्यः) दुष्टेभ्यः श्रेष्ठेभ्यो वा मनुष्येभ्यः (आतपः) समन्तात् प्रतापयुक्तः (शिशीते) उदके शिशीतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (वज्रम्) किरणान् (तेजसे) प्रकाशाय (न) इव (वंसगः) यो वंसं सम्भजनीयं गच्छति गमयति वा स वृषभः ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सवितृमण्डलं सर्वेभ्यो लोकेभ्य उत्कृष्टगुणं महद्वर्त्तते यथा वृषभो गोसमूहेषूत्तमो महाबलिष्ठो वर्त्तते तथैवोत्कृष्टगुणो महान् मनुष्यः सभाद्यधिपतिः कार्य्यः। स च सदैव स्वयं धर्मात्मा सन् दुष्टेभ्यो भयप्रदो धार्मिकेभ्यः सुखकारी च भवेत् ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब पचपनवें सूक्त के पहिले मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (अस्य) इस सविता के (दिवः) प्रकाश से (वरिमा) उत्तमता का भाव (मह्ना) बड़ाई से (विपप्रथे) विशेष करके प्रसिद्ध करता है (पृथिवी) जिसके बराबर भूमि (चन) भी तुल्य (न) नहीं और न (आतपः) सब प्रकार प्रतापयुक्त (वंसगः) बलवान् विभाग कर्त्ता के समान (पृथिवी) भूमि के (प्रति) मध्य में (तेजसे) प्रकाशार्थ (वज्रम्) किरणों को (शिशीते) अति शीतल उदक में प्रक्षेप करता है, वैसे जो दुष्टों के लिये भयंकर धर्मात्माओं के वास्ते सुखदाता हो के प्रजाओं का पालन करे, वह सब से सत्कार के योग्य है, अन्य नहीं ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यमण्डल सब लोकों से उत्कृष्ट गुणयुक्त और बड़ा है और जैसे बैल गोसमूहों में उत्तम और महाबलवान् होता है, वैसे ही उत्कृष्ट गुणयुक्त सब से बड़े मनुष्य को सब मनुष्यों को सभा आदि का पति करना चाहिये और वे सभाध्यक्षादि दुष्टों को भय देने और धार्मिकों के लिये आप भी धर्मात्मा हो के सुख देनेवाले सदा होवें ॥ १ ॥
विषय
भीमः तुविष्मान्
पदार्थ
१. (अस्य) = इस प्रभु का (वरिमा) = उरुत्व व विस्तार (दिवः चित्) = द्युलोक से भी (विपप्रथे) = विशिष्ट विस्तारवाला होता है । द्युलोक से भी महान् वे प्रभु हैं । २. (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु का (मह्ना) = [महिम्ना] महिमा की दृष्टि से पृथिवी (चन) = यह अनन्त विस्तारवाला अन्तरिक्ष भी (प्रति न) = प्रतिनिधित्व करनेवाला नहीं हो सकता । ३. वे प्रभु (भीमः ) = अनुपम शक्ति के कारण शत्रुओं के लिए भयंकर हैं, (तुविष्मान्) = ज्ञानवान् व बलवान् हैं । ऐसे ये प्रभु (चर्षणिभ्यः) = श्रमशील मनुष्यों के लिए (आतपः) = समन्तात् दीप्ति प्राप्त करानेवाले हैं । श्रमशील पुरुष ही प्रज्ञा व पौरुष को प्रवृद्ध कर पाता है और प्रज्ञा व पौरुष से दीप्त होकर यह पुरुष (वंसगः न) = वननीय सुन्दर गतिवाले वृषभ की भाँति (तेजसे) = तेजस्वितापूर्ण कार्यों के लिए (वज्रम्) = अपने क्रियाशीलतारूप वज्र को (शिशीते) = तीक्ष्ण करता है । ४. वस्तुतः क्रियाशीलता ही वह बन है [वज गतौ] जिससे कि इन्द्र [जीवात्मा] सब असुरों [आसुर वृत्तियों] का संहार करता है । यहाँ 'बननीय गतिवाले वृषभ' की उपमा इस बात का संकेत कर रही है कि हमें भी अपनी क्रियाशीलता में सौन्दर्य लाने का प्रयत्न करना है । इस बात का ध्यान रखना है कि हमारी ये क्रियाएँ औरों पर सुखों का वर्षण करनेवाली हों ।
भावार्थ
भावार्थ - अत्यन्त विस्तार व महिमावाले वे प्रभु हैं । वे क्रियाशील पुरुषों को दीप्त जीवनवाला बनाते हैं ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।
भावार्थ
(चित्) जिस प्रकार (अस्य) इस सूर्य की वरिमा, श्रेष्ठ गुण, या तेज, या बड़प्पन ( दिवः चित् ) आकाश के भी पार तक ( वि पप्रथे ) विविध दिशाओं में फैल जाता है । और (इन्द्रम्) सूर्य के ( मह्ना ) अपने महान् वैभव से (पृथिवी चन) पृथिवी भी ( प्रति न ) बराबरी नहीं करती । ठीक उसी प्रकार ( अस्य वरिमा ) उस राजा के श्रेष्ठ गुण (दिवः-चित् ) प्रकाशमान सूर्य या विस्तृत आकाश एवं बड़ी विद्वत्-राज-सभा से भी अधिक (वि पप्रथे ) विशेष रूप से विस्तृत हो । और (पृथिवी चन) समस्त पृथिवी बासी प्रजा ( मह्ना ) अपने बड़े बल से भी (इन्द्रं प्रति न) शत्रुनाशक राजा का प्रतिपक्षी न हो । वह राजा (भीमः) अति भयानक (तुविष्मान्) बलशाली होकर ( चर्षणिभ्यः ) समस्त मनुष्यों के हित के लिये (आतपः) सूर्य के समान तेज से शत्रु का संताप देने वाला होकर ( वंसगः न ) वलीवर्द जिस प्रकार भोग्य गो-गण पर जाता है उस प्रकार वह भूमियों का भोग करे। और उत्तम भोग्य अन्नों को प्राप्त कराने वाला मेघ जिस प्रकार भूमियों पर वर्षा करता है उसी प्रकार प्रजाओं को भोग्य नाना ऐश्वर्य प्रदान करने हारा हो । (तेजसे) सूर्य जिस प्रकार प्रकाश करने के लिये अपने अन्धकार-चारक ( वज्रं शिशीते ) किरण समूह को तीव्र करता है और मेघ जिस प्रकार प्रकाश के लिये (वज्रं) विद्युत् को तीक्ष्ण करता है उसी प्रकार (तेजसे) राजा भी अपने तेज और पराक्रम और प्रभाव की वृद्धि करने के लिये (वज्रम्) अपने शस्त्रास्त्र बल को सदा (शिशीते) तीक्ष्ण, सदा तैयार और अति वेगवान् उग्र, बलवान् बनाये रक्खे । परमेश्वर पक्ष में—परमेश्वर का महान् सामर्थ्य आकाश से भी दूर तक फैला है। पृथिवी उस की समानता नहीं करती। वह सर्व शक्तिमान् प्रजा के हित के लिये दुष्टों का संतापक है। वह तेज के प्रसार के लिये अन्धकार के नाशक सूर्य आदि पदार्थ को तीक्ष्ण बनाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ४ जगती । २,५—७ निचृज्जगती । ३, ८ विराड्जगती ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अब पचपनवें सूक्त के पहले मन्त्र में सभाध्यक्ष के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे मनुष्या ! यथा अस्य सवितुः दिवः वरिमा मह्ना वि पप्रथे{इन्द्रम्} पृथिवी चन मह्ना तुल्या न भवति न आतपः वंसगः न गोसमूहान् वंसगः न पृथिवीं प्रति तेजसे वज्रं शिशीते प्रक्षिपति तथा यः दुष्टेभ्यो भीमः{तुविष्मान्}{चर्षणिभ्यः} धार्मिकेभ्यः प्रियः भूत्वा प्रजाः पालयेत् स चित् सर्वैः सत्कर्त्तव्यः न इतरः खलु ॥१॥
पदार्थ
हे (मनुष्याः)= मनुष्यो ! (यथा)=जिस प्रकार, (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य= सभा आदि के अध्यक्ष, (सवितुः)=सूर्य, (दिवः) दिव्यगुणात्=दिव्य गुणों से, (वरिमा) वरस्य भावः=इच्छित स्थिति में, (मह्ना) महत्त्वेन=महत्व से. (वि) विविधार्थे =विभिन्न प्रकार से, (पप्रथे) प्रथते =फैलता है, {इन्द्रम्} परमैश्वर्यस्य प्रापकम्= परम ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले के, {न} इव=समान, (पृथिवी)=पृथिवी, (चन) अपि=भी, (मह्ना) महत्त्वेन= महत्व से. (तुल्या)=समान, (न)=नहीं, (भवति)=होती है। (न)=न, (आतपः) समन्तात् प्रतापयुक्तः वंसगः=हर ओर से वैभव युक्त बैल, (न) =न, (गोसमूहान्) =गायों के झुण्ड, (वंसगः) यो वंसं सम्भजनीयं गच्छति गमयति वा स वृषभः=जो इष्ट या सम्मानित साँड जाने है या ले जाये जाने के, (न) इव =समान, (पृथिवी) भूमिः= भूमि के, (प्रति) योगे= प्रति, (तेजसे) प्रकाशाय=प्रकाश के लिये, (न) इव=जैसे, (वज्रम्) किरणान् =किरणें, (शिशीते) उदके=जल में, (प्रक्षिपति)=फेंकता है, (तथा)=वैसे ही, (यः)=जो, (दुष्टेभ्यो)= दुष्टों के लिये, (भीमः) दुष्टान् प्रति भयंकरः श्रेष्ठान् प्रति सुखकरः= दुष्टों के प्रति भयकारी और श्रेष्ठों के प्रति सुखकारी, {तुविष्मान्} वृद्धिमान्=वृद्धि करनेवाला, {चर्षणिभ्यः} दुष्टेभ्यः श्रेष्ठेभ्यो वा मनुष्येभ्यः=दुष्ट और श्रेष्ठ मनुष्यों के लिये, (धार्मिकेभ्यः)= धार्मिकों के लिये, (प्रियः)= प्रिय, (भूत्वा) =होकर, (प्रजाः) =प्रजा का, (पालयेत्)= पालन करना चाहिए, (सः)=वह, (चित्) एव=ही, (सर्वैः)=समस्त, (सत्कर्त्तव्यः)=उत्तम कर्त्तव्य हैं, (न)=नहीं, (इतरः)=अन्य हैं, (खलु)=निश्चय से ही॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सूर्यमण्डल सब लोकों से उत्कृष्ट गुणवाला और बड़ा है और जैसे बैल गोसमूहों में उत्तम और महाबलवान् होता है, वैसे ही उत्कृष्ट गुणवाले महान मनुष्य को सभा आदि का अध्यक्ष बनाना चाहिये। और वह सदैव धर्मात्मा होते हुए दुष्टों के लिये भय प्रदान करनेवाला और धार्मिकों के लिये सुखकारी होवे ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (मनुष्याः) मनुष्यो ! (यथा) जिस प्रकार (अस्य) सभा आदि का अध्यक्ष (सवितुः) सूर्य (दिवः) दिव्य गुणों से, (वरिमा) इच्छित स्थिति में (मह्ना) महत्व से, (वि) विभिन्न प्रकार से (पप्रथे) [प्रकाश को] फैलाता है। {इन्द्रम्} परम ऐश्वर्य प्राप्त करानेवाले के {न} समान (पृथिवी) पृथिवी (चन) भी, (मह्ना) महत्व में (तुल्या) समान (न) नहीं (भवति) होती है। (न) न (आतपः) हर ओर से वैभव युक्त बैल, (न) न (गोसमूहान्) गायों के झुण्ड, (वंसगः) जो इष्ट या सम्मानित साँड, जाने हैं या ले जाये जाने के (न) समान, (पृथिवी) भूमि की (प्रति) ओर, (तेजसे) प्रकाश (न) जैसे (वज्रम्) किरणें (शिशीते) जल में (प्रक्षिपति) फेंकता है, (तथा) वैसे ही, (यः) जो (भीमः) दुष्टों के प्रति भयकारी और श्रेष्ठों के प्रति सुखकारी और {तुविष्मान्} वृद्धि करनेवाला है। [उसे] {चर्षणिभ्यः} दुष्ट, श्रेष्ठ मनुष्यों और (धार्मिकेभ्यः) धार्मिकों के लिये (प्रियः) प्रिय (भूत्वा) होकर (प्रजाः) प्रजा का (पालयेत्) पालन करना चाहिए। (सः) वह (चित्) ही (सर्वैः) समस्त (सत्कर्त्तव्यः) उत्तम सत्कार करने योग्य है, (न+ इतरः+ खलु) निश्चय से ही अन्य कोईसत्कार करने योग्य नहीं है ॥१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (दिवः) दिव्यगुणात् (चित्) एव (अस्य) सभाद्यध्यक्षस्य (वरिमा) वरस्य भावः (वि) विविधार्थे (पप्रथे) प्रथते (इन्द्रम्) परमैश्वर्यस्य प्रापकम् (न) इव (मह्ना) महत्त्वेन। अत्र महधातोः बाहुलकाद् औणादिकः कनिन् प्रत्ययः। (पृथिवी) भूमिः (चन) अपि (प्रति) योगे (भीमः) दुष्टान् प्रति भयंकरः श्रेष्ठान् प्रति सुखकरः (तुविष्मान्) वृद्धिमान्। अत्र तुधातोः बाहुलकादौणादिक इसिः प्रत्ययः स च कित्। (चर्षणिभ्यः) दुष्टेभ्यः श्रेष्ठेभ्यो वा मनुष्येभ्यः (आतपः) समन्तात् प्रतापयुक्तः (शिशीते) उदके शिशीतमित्युदकनामसु पठितम्। (निघं०१.१२) (वज्रम्) किरणान् (तेजसे) प्रकाशाय (न) इव (वंसगः) यो वंसं सम्भजनीयं गच्छति गमयति वा स वृषभः ॥ १ ॥ विषयः- तत्रादौ सभाध्यक्षगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे मनुष्या ! यथाऽस्य सवितुर्दिवो वरिमा मह्ना विपप्रथे पृथिवी चन मह्ना तुल्या न भवति नातपो वंसगो न गोसमूहान् वंसगो न पृथिवीं प्रति तेजसे वज्रं शिशीते प्रक्षिपति तथा यो दुष्टेभ्यो भीमो धार्मिकेभ्यः प्रियो भूत्वा प्रजाः पालयेत् स चित्सर्वैः सत्कर्त्तव्यो नेतरः खलु ॥१॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सवितृमण्डलं सर्वेभ्यो लोकेभ्य उत्कृष्टगुणं महद्वर्त्तते यथा वृषभो गोसमूहेषूत्तमो महाबलिष्ठो वर्त्तते तथैवोत्कृष्टगुणो महान् मनुष्यः सभाद्यधिपतिः कार्य्यः। स च सदैव स्वयं धर्मात्मा सन् दुष्टेभ्यो भयप्रदो धार्मिकेभ्यः सुखकारी च भवेत् ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सूर्य, प्रजा व सभाध्यक्षाच्या कृत्याचे वर्णन केलेले आहे. यामुळे या सूक्तार्थाबरोबर पूर्वसूक्तार्थाची संगती जाणली पाहिजे ॥
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे सूर्यमंडल सर्व गोलांमध्ये मोठे व उत्कृष्ट गुणयुक्त आहे व जसे बैल गोसमूहात उत्तम व महाबलवान असतो, तसे उत्कृष्ट गुणाच्या महान मनुष्याला सभापती केले पाहिजे. तो सभाध्यक्ष स्वतः धर्मात्मा असावा व दुष्टांना भयभीत करणारा आणि धार्मिकांना सुख देणारा असावा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The splendour of this Indra, lord of rule and light, extends to the lights of heaven. The earth too cannot rival his greatness with all its expanse. Lord of strength and power, he is fearsome for the enemies, warm for the good, and hot and blazing for others. He radiates light for the dark and strikes the thunderbolt into the hoarded waters of Vritra and walks around as the leader among people as leader of the flock.
Subject of the mantra
Now in the first mantra of the fifty-fifth hymn, the qualities of the Chairman of the Assembly have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yathā) =like, (asya) =president of the gathering etc., (savituḥ) =Sun, (divaḥ) =by devine virtues, (varimā) =in desired situation, (mahnā) =by importance,, (vi) =differently, (paprathe)=spreads, [prakāśa ko]=to light, {indram}= of the one who attains ultimate opulence, {na} =like, (pṛthivī)=earth, (cana) =also, (mahnā) =in importance, (tulyā) =like, (na) =not, (bhavati)=it occurs, (na) =not, (ātapaḥ)=bull full of glory from every side, (na) =not, (gosamūhān)=herds of cows, (vaṃsagaḥ)= the favoured or respected bull, which is about to be known or taken away, (na) =like, (pṛthivī) =of earth, (prati) =towards, (tejase) =light, (na) =like, (vajram) =rays, (śiśīte) =in water, (prakṣipati) =throws, (tathā) =in the same way, (yaḥ) =that, (bhīmaḥ) =terrible towards the wicked and pleasant towards the good and, {tuviṣmān}= Is going to increase, [use]=to that, {carṣaṇibhyaḥ}=evil, superior humans and, (dhārmikebhyaḥ) =for the righteous, (priyaḥ) =dear, (bhūtvā) =being, (prajāḥ) =of people, (pālayet) =must protect, (saḥ) =that, (cit) =only, (sarvaiḥ) =all, (satkarttavyaḥ)=deserves the best hospitality,, (na+ itaraḥ+ khalu) = Certainly no one else is worthy of hospitality.
English Translation (K.K.V.)
O humans! Just as the Sun, president etc. of the gathering, spreads light in various ways through his divine qualities and importance in the desired situation. Even the earth is not equal in importance to the one who grants ultimate opulence. Neither bulls with splendor on every side, nor herds of cows, like the favoured or honoured bulls, are known or carried, towards the land, like light throwing rays into the water, just like that, which is terrifying to the wicked and fearful to the noble ones. It is soothing and enhancing. He should obey the people by being dear to the wicked, noble people and righteous people. He alone is worthy of all the best hospitality and surely no one else is worthy of hospitality.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is a silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the Sun is superior in qualities and is bigger than all the worlds and just as the bull is the best and most powerful among the herds of cows, similarly a great man with excellent qualities should be made the President of the Assembly etc. And being a righteous person, he should always be a source of fear for the wicked and a source of happiness for the righteous.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Though even this heaven's wide space and earth have spread them neither heaven nor earth may be in greatness or amplitude Indra's (God's) match. As the solar world has spread out and earth can never be compared with it in bulk, as the mighty bull is among the herd of cows and the sun is towards the earth by his rays, so the man who is fierce to the wicked but dear to the righteous persons on account of humility and who protects the subjects, he alone should be respected by all and none else.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(दिव:) दिव्यगुणात् = By divine virtue. ( तुविष्मान् ) वृद्धिमान् अत्र तुधातोर्बाहुलकादौणादिक इसि: प्रत्ययः = Mighty or advanced. (वंसगः ) यः वंसं संभजनीयं गच्छति गमयति वा स बृषभ: (वन संभक्तौ ) = Bull.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the solar is the greatest among the worlds, as the bull is mighty among the herd of cows, in the same manner, a man most exalted on account of his virtues should be made the President of the Assembly or the Council of Ministers etc. And he being righteous himself should be terrifier of the wicked and giver of happiness to the righteous.
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