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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 56 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 56/ मन्त्र 1
    ऋषिः - सव्य आङ्गिरसः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    ए॒ष प्र पू॒र्वीरव॒ तस्य॑ च॒म्रिषोऽत्यो॒ न योषा॒मुद॑यंस्त भु॒र्वणिः॑। दक्षं॑ म॒हे पा॑ययते हिर॒ण्ययं॒ रथ॑मा॒वृत्या॒ हरि॑योग॒मृभ्व॑सम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒षः । प्र । पू॒र्वीः । अव॑ । तस्य॑ । च॒म्रिषः॑ । अत्यः॑ । न । योषा॑म् । उत् । अ॒यं॒स्त॒ । भु॒र्वणिः॑ । दक्ष॑म् । म॒हे । पा॒य॒य॒ते॒ । हि॒र॒ण्ययम् । रथ॑म् । आ॒ऽवृत्य॑ । हरि॑ऽयोगम् । ऋभ्व॑सम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एष प्र पूर्वीरव तस्य चम्रिषोऽत्यो न योषामुदयंस्त भुर्वणिः। दक्षं महे पाययते हिरण्ययं रथमावृत्या हरियोगमृभ्वसम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एषः। प्र। पूर्वीः। अव। तस्य। चम्रिषः। अत्यः। न। योषाम्। उत्। अयंस्त। भुर्वणिः। दक्षम्। महे। पाययते। हिरण्ययम्। रथम्। आऽवृत्य। हरिऽयोगम्। ऋभ्वसम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 56; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रादावध्यापकोपदेशकगुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    य एष भुर्वणिस्तस्य चम्रिषः पूर्वीः प्रजा उत्पादयितुमत्यो न योषामुदयँस्त स तस्यै प्रजायै महे सत्योपदेशैः श्रोत्राण्यावृत्य हिरण्ययमृभ्वसं हरियोगं रथं दक्षं च प्रापय्य पाययते स सर्वैर्माननीयो भवति ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (एषः) अध्यापक उपदेशको वा (प्र) प्रकृष्टार्थे (पूर्वीः) प्राचीनाः सनातनीः प्रजाः (अव) विरुद्धार्थे (तस्य) परमैश्वर्य्यस्य प्राप्तये (चम्रिषः) चाम्यन्त्यदन्ति भोगाँस्तान्। अत्र बाहुलकादौणादिक इसिः प्रत्ययो रुडागमश्च। (अत्यः) अश्वः। अत्य इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (न) इव (योषाम्) भार्य्याम् (उत्) (अयँस्त) उद्यच्छति (भुर्वणिः) बिभर्त्ति यः सः। अत्र भृञ् धातोर्बाहुलकादौणादिकः क्वणिः प्रत्ययः। (दक्षम्) बलं चातुर्य्यं वा (महे) पूज्ये व्यवहारे (पाययते) रक्षां कार्यते (हिरण्ययम्) तेजः सुवर्णं वा प्रचुरं यस्मिँस्तम् (रथम्) यानसमूहम् (आवृत्य) सामग्र्याच्छाद्य (हरियोगम्) हरीणामश्वादीनां योगो यस्मिँस्तम् (ऋभ्वसम्) ऋभून् मनुष्यादीन् पदार्थान् वाऽस्यन्ति येन तम् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। उपदेशकः स्वसदृशी विदुषीं स्त्रियं परिणीय यथा स्वयं पुरुषानुपदिशेद् बालकानध्यापयेत् तथा तत्स्त्री स्त्रिय उपदिशेत् कन्याश्च पाठयेदेवं कृते कुतश्चिदप्यविद्याभये न पीडयेताम् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब छप्पनवें सूक्त का आरम्भ है, उस के पहिले मन्त्र में अध्यापक और उपदेशक के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    जो (एषः) यह (भुर्वणिः) धारण वा पोषण करनेवाला सभा का अध्यक्ष वा सूर्य (न) जैसे (अत्यः) घोड़ा घोड़ियों से संयोग करता है, वैसे (योषाम्) विद्वान् स्त्री से युक्त हो के (तस्य) उस परमैश्वर्य की प्राप्ति के लिये (चम्रिषः) भोगों को करनेवाली (पूर्वीः) सनातन प्रजा को (प्रावोदयंस्त) अच्छे प्रकार अधर्म वा निकृष्टता से निवृत्त कर वह उस प्रजा के वास्ते (महे) पूजनीय मार्ग में कान आदि इन्द्रियों को (आवृत्य) युक्त कर (हिरण्यम्) बहुत तेज वा सुवर्ण (ऋभ्वसम्) मनुष्यादिकों के प्रक्षेपण करनेवाला (हरियोगम्) अग्नियुक्त वा अश्वादि युक्त हुए (दक्षम्) बल चतुर शिल्पी मनुष्य युक्त (रथम्) यानसमूह को (आवृत्य) सामग्री से आच्छादन करके सुखरूपी रसों को (पाययते) पान करता है, वह सब से मान्य को प्राप्त होता है ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। उपदेशक अपने तुल्य विदुषी स्त्री के साथ विवाह करके जैसे आप पुरुषों को उपदेश और बालकों को पढ़ावे, वैसे उसकी स्त्री स्त्रियों को उपदेश और कन्याओं को पढ़ावें, ऐसे करने से किसी ओर से अविद्या और भय से दुःख नहीं हो सकता ॥ १ ॥

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    विषय

    रथ का प्रत्यावर्तन

    पदार्थ

    १. (एषः) = गतमन्त्र के अन्तिम शब्दों के अनुसार सदा ज्ञानपूर्वक कर्मों में लगा रहनेवाला यह जीव (तस्य चम्रिषः) = उसके, अर्थात् अपने [चमूषु अवस्थिताः] शरीररूप पात्रों में स्थित (पूर्वीः) = पूरणता के कारणभूत सोमकणों को (प्र अव उदयंस्त) = प्रकर्षेण करता हुआ उन्नत करता है, अर्थात् इन सोमकणों की ऊर्ध्वगति करनेवाला होता है । उसी पुकार उन सोमकणों को उन्नत करता है, (न) = जैसे (अत्यः) = सतत गतिशील अर्थात् पुरुषार्थी व्यक्ति (योषाम्) = पत्नी की उन्नति का कारण बनता है । आलसी व्यक्ति पत्नी की दुर्गति का ही कारण हुआ करता है । २. सोमकणों की ऊर्ध्वगति से यह पुरुष (भुर्वणिः) = अपना भरण करता है और प्रभु का संभजन करनेवाला होता है । यह (महे) = महत्व की प्राप्ति के लिए (दक्षम्) = सब प्रकार की उन्नति के कारणभूत सोम को (पाययते) = अङ्ग - प्रत्यङ्ग को पिलाता है, अर्थात् उन सोमकणों का शरीर में ही व्यापन करता है । ३. यह व्यक्ति (हिरण्ययं रथम्) = अपने ज्योतिर्मय शरीररूप रथ को विषयों से (आवृत्य) = हटाकर (हरियोगम्) = सब दुःखों के हरण करनेवाले प्रभु से मेलवाला तथा (ऋभ्वसम्) = [उरु भासमानम्] खूब दीप्त बनाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - सोमकणों की ऊर्ध्वगति से हम प्रभु - प्रवण होते हैं ।

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    विषय

    परमेश्वर, राजा, सभा और सेना के अध्यक्षों के कर्तव्यों और सामथ्यर्थों का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अत्यः न ) अश्व जिस प्रकार ( योषाम् ) घोड़ी को ( उत् अयंस्त ) प्राप्त हो, अथवा ( अत्यः न ) जिस प्रकार स्वयम्वर में बल शौर्य की प्रतिस्पर्द्धा में सबसे अधिक बढ़ जानेवाला पुरुष ही ( भुर्वणिः ) भरणपोषण करनेहारा पति होकर ( योषाम् ) स्वयंवरा कन्या को (उत् अयंस्त) शौर्य विवाह लेता है उसी प्रकार ( भुर्वणिः ) राष्ट्र को धारण पोषण करने में समर्थ ( अत्यः ) बलशौर्य की प्रतिस्पर्द्धा में सबसे अधिक बढ़ जानेहारा (एषः) यह वीर राजा भी (तस्य) उस राष्ट्र की (पूर्वीः) सर्वश्रेष्ठ, अग्रगण्य ( चम्रिषः ) पात्रों में रक्खी, (पूर्वीः) भरी पूरी योग्य सम्पदाओं के समान ( चम्रिषः ) सेनाओं में आशा पर चलनेवाली, (पूर्वीः) सर्वश्रेष्ठ अग्रगण्य, बल में परिपूर्ण सेनाओं को ( उत् अयंस्त ) अपने अधीन करके उन पर शासन कर नियम में चलाता है। और वह (ऋभ्वसम्) बहुत अधिक दीप्ति के साथ तीव्र बाण आदि अस्त्रों को फेंकने में समर्थ (हरियोगम्) अश्वों द्वारा जोते जानेवाले (हिरण्ययं) लोह के बने (रथम्) रथ या तोप को (आवृत्य) प्रयोग करके (महे ) बड़े भारी विजय कार्य करने के लिए ( दक्षं ) बल या क्रिया सामर्थ्य को (पाययते) सुरक्षित रखता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    सव्य आङ्गिरस ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः– १, ३, ४ निचृज्जगती । २ जगती । ५ त्रिष्टुप् ६ भुरिक् त्रिष्टुप् ॥

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    विषय

    अब छप्पनवें सूक्त का आरम्भ है, उस के पहले मन्त्र में अध्यापक और उपदेशक के गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    यः एषः भुर्वणिः तस्य चम्रिषः {प्र} पूर्वीः{अव} प्रजाः उत्पादयितुम् अत्यः न योषाम् उत् अयँस्त स तस्यै प्रजायै महे सत्य उपदेशैः श्रोत्राणि आवृत्य हिरण्ययम् ऋभ्वसं हरियोगं रथं दक्षं च प्रापय्य पाययते स सर्वैः माननीयः भवति ॥१॥

    पदार्थ

    (यः)=जो, (एषः) अध्यापक उपदेशको वा=अध्यापक और उपदेशक, (भुर्वणिः) बिभर्त्ति यः सः=भरण पोषण करनेवाला, (तस्य) परमैश्वर्य्यस्य प्राप्तये= उस परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये, (चम्रिषः) चाम्यन्त्यदन्ति भोगाँस्तान्=उन भोगों को, {प्र} प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (पूर्वीः) प्राचीनाः सनातनीः प्रजाः= प्राचीन सनातन काल से वर्त्तमान प्रजा के, {अव} विरुद्धार्थे = अबाधित, (प्रजाः)= सन्तानों को, (उत्पादयितुम्)=पैदा करने लिये, (अत्यः) अश्वः= अश्व के, (न) इव=समान, (योषाम्) भार्य्याम्=पत्नी को, (उत्) =ऊपर, (अयँस्त) उद्यच्छति= ऊपर ले जाता है, (सः)=वह, (तस्यै)=उस, (प्रजायै)=प्रजा के लिये, (महे) पूज्ये व्यवहारे= पूज्य व्यवहार में, (सत्य)= सत्य, (उपदेशैः)= उपदेशों के द्वारा, (श्रोत्राणि)=कानों को, (आवृत्य) सामग्र्याच्छाद्य=ढक कर, (हिरण्ययम्) तेजः सुवर्णं वा प्रचुरं यस्मिँस्तम्= तेज या सोना जिसमें प्रचुर मात्रा में हो, (ऋभ्वसम्) ऋभून् मनुष्यादीन् पदार्थान् वाऽस्यन्ति येन तम्=देवता या मनुष्य आदि पदार्थ जिस रथ के द्वारा जाते हैं, उसको, (हरियोगम्) हरीणामश्वादीनां योगो यस्मिँस्तम्=जिसमें अश्व आदि को जोड़ा गया है, उन, (रथम्) यानसमूहम्=रथों के समूह को, (दक्षम्) बलं चातुर्य्यं वा=बल और चतुराई से, (च)=भी, (प्रापय्य)=प्राप्त करके, (पाययते) रक्षां कार्यते=रक्षा करता है, (सः) =वह, (सर्वैः) =सबका, (माननीयः)= माननीय, (भवति) =होता है॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। उपदेशक अपने तुल्य विदुषी स्त्री के साथ विवाह करके जैसे स्वयं पुरुषों को उपदेश देता है और बालकों को पढ़ाता है, वैसे ही उसकी स्त्री उपदेश देवे और कन्याओं को पढ़ाने के लिये किसी भी अविद्या के भय से पीड़ित न होवे॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (यः) जो (एषः) अध्यापक और उपदेशक, (भुर्वणिः) भरण पोषण करनेवाला, (तस्य) उस परम ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिये और (चम्रिषः) उन भोगों को {प्र} प्रकृष्ट रूप से (पूर्वीः) प्राचीन सनातन काल से वर्त्तमान प्रजा के {अव} अबाधित रूप से (प्रजाः) सन्तानों को (उत्पादयितुम्) पैदा करने लिये (अत्यः) अश्व के (न) समान (योषाम्) पत्नी को (उत्) ऊपर (अयँस्त) ऊपर ले जाता है। (सः) वह (तस्यै) उस (प्रजायै) सन्तानों के लिये (महे) पूज्य व्यवहार में (सत्य) सत्य (उपदेशैः) उपदेशों के द्वारा (श्रोत्राणि) कानों को (आवृत्य) ढक कर (हिरण्ययम्) प्रचुर मात्रा में तेज या सोना से (ऋभ्वसम्) देवता या मनुष्य आदि पदार्थ जिस रथ के द्वारा जाते हैं, उसको (हरियोगम्) जिनमें अश्व आदि को जोड़ा गया है, उन (रथम्) रथों के समूह को (दक्षम्) बल और चतुराई से (च) भी (प्रापय्य) प्राप्त करके (पाययते) रक्षा करता है। (सः) वह (सर्वैः) सबका (माननीयः) माननीय (भवति) होता है॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (एषः) अध्यापक उपदेशको वा (प्र) प्रकृष्टार्थे (पूर्वीः) प्राचीनाः सनातनीः प्रजाः (अव) विरुद्धार्थे (तस्य) परमैश्वर्य्यस्य प्राप्तये (चम्रिषः) चाम्यन्त्यदन्ति भोगाँस्तान्। अत्र बाहुलकादौणादिक इसिः प्रत्ययो रुडागमश्च। (अत्यः) अश्वः। अत्य इत्यश्वनामसु पठितम्। (निघं०१.१४) (न) इव (योषाम्) भार्य्याम् (उत्) (अयँस्त) उद्यच्छति (भुर्वणिः) बिभर्त्ति यः सः। अत्र भृञ् धातोर्बाहुलकादौणादिकः क्वणिः प्रत्ययः। (दक्षम्) बलं चातुर्य्यं वा (महे) पूज्ये व्यवहारे (पाययते) रक्षां कार्यते (हिरण्ययम्) तेजः सुवर्णं वा प्रचुरं यस्मिँस्तम् (रथम्) यानसमूहम् (आवृत्य) सामग्र्याच्छाद्य (हरियोगम्) हरीणामश्वादीनां योगो यस्मिँस्तम् (ऋभ्वसम्) ऋभून् मनुष्यादीन् पदार्थान् वाऽस्यन्ति येन तम् ॥ १ ॥ विषयः- तत्रादावध्यापकोपदेशकगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- य एष भुर्वणिस्तस्य चम्रिषः पूर्वीः प्रजा उत्पादयितुमत्यो न योषामुदयँस्त स तस्यै प्रजायै महे सत्योपदेशैः श्रोत्राण्यावृत्य हिरण्ययमृभ्वसं हरियोगं रथं दक्षं च प्रापय्य पाययते स सर्वैर्माननीयो भवति ॥१॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। उपदेशकः स्वसदृशी विदुषीं स्त्रियं परिणीय यथा स्वयं पुरुषानुपदिशेद् बालकानध्यापयेत् तथा तत्स्त्री स्त्रिय उपदिशेत् कन्याश्च पाठयेदेवं कृते कुतश्चिदप्यविद्याभये न पीडयेताम् ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सूर्य किंवा विद्वानाच्या गुणवर्णनाने या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. उपदेशकाने स्वतः सारख्याच विदुषी स्त्रीबरोबर विवाह करावा. जसे स्वतः पुरुषांना उपदेश व बालकांना शिक्षण देतो तसे त्याच्या पत्नीनेही स्त्रियांना उपदेश व बालिकांना शिक्षण द्यावे. असे केल्यामुळे कुठूनही अविद्या व भय यांनी दुःख होऊ शकत नाही. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    This Indra, lord protector of the land, advances to meet, guide and protect his people just as the smartest young man advances and wins the hand of his lady love. And, holding them as sacred libations in the ladle for offering into the yajna fire, he ascends the excellent, golden chariot prepared by experts and driven by the fastest fuel power, and advances to protect the glory of the Lord of humanity for them.

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    Subject of the mantra

    Now is the beginning of the fifty-sixth hymn, in its first mantra the qualities of a teacher and a preacher have been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yaḥ) =That, (eṣaḥ)=teacher and preacher, (bhurvaṇiḥ) =nourisher, (tasya)=to attain that ultimate opulence and, (camriṣaḥ) =to those people, {pra}=eminently, (pūrvīḥ) prācīna sanātana kāla se varttamāna {ava}=uninterruptedly, (prajāḥ) =to children, (utpādayitum) =to produce, (atyaḥ) =of horse, (na) =like, (yoṣām) =to wife, (ut) =above, (ayaṁsta) =takes away,(saḥ) =he, (tasyai) =of that, (prajāyai)=for the children, (mahe)=in reverent behavior, (satya) =truth, (upadeśaiḥ) =by preaching, (śrotrāṇi) =to ears, (āvṛtya) =covering, (hiraṇyayam)=with abundant brilliance or gold, (ṛbhvasam) =the chariot by which deities or human beings etc. move is called, to that, (hariyogam)=In which horse etc. have been added, that, (ratham)= group of chariots, (dakṣam) =by force and cleverness, (ca) =also, (prāpayya)=attains, (pāyayate) =gets protected, (saḥ) =that, (sarvaiḥ) =of all, (mānanīyaḥ)=honourable, (bhavati)=happens.

    English Translation (K.K.V.)

    The teacher and preacher, the nourisher, who takes the wife up like a horse to attain that ultimate opulence and to give birth to children in an uninterrupted manner from the ancient eternal times to the present. For children, by covering the ears through true teachings in reverent conduct, he bestows the chariot with which the deities or human beings etc. move in abundance, with glitter or gold, the groups of chariots to which the horses etc. are attached, He obtains it and protects it through force and cleverness. He is respected by everyone.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are paronomasia and simile as figurative in this mantra. Just as a preacher, by marrying a woman as learned as he is, preaches to men and teaches children, in the same way his wife should preach and should not suffer from any fear of ignorance while teaching girls.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the first Mantra, the attributes of the teacher and preacher are taught.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    He (teacher or preacher) becomes respectable everywhere who marries a learned lady being virile like a horse and sustainer of all, who fills the ears of all with his true sermons and enables them to get golden and splendid chariots drawn by horses and carrying men makes them mighty to protect the subjects.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अत्यः) अश्वः प्रत्य इत्यश्वनाम ( निघ० १.१४) = Horse. (हिरण्ययम् ) तेजः सुवर्णं वा प्रचुरं यस्मिन् तम् = Splendid and full of gold.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A preacher should marry a learned lady like himself. As he preaches among men-and teaches the boys, his wife should preach among women and should teach girls. By so doing ignorance and fear cannot remain any where.

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