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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यु॒ञ्जन्ति॑ ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒ञ्जन्ति॑ । ब्र॒ध्नम् । अ॒रु॒षम् । चर॑न्तम् । परि॑ । त॒स्थुषः॑ । रोच॑न्ते । रो॒च॒ना । दि॒वि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तं परितस्थुषः। रोचन्ते रोचना दिवि॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युञ्जन्ति। ब्रध्नम्। अरुषम्। चरन्तम्। परि। तस्थुषः। रोचन्ते। रोचना। दिवि॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    तत्रोक्तविद्यार्थं केऽर्था उपयोक्तव्या इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    ये मनुष्या अरुषं ब्रध्नं परितस्थुषश्चरन्तं परमात्मानं स्वात्मनि बाह्यदेशे सूर्य्यं वायुं वा युञ्जन्ति ते रोचना सन्तो दिवि प्रकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते॥१॥

    पदार्थः

    (युञ्जन्ति) योजयन्ति (ब्रध्नम्) महान्तं परमेश्वरम्। शिल्पविद्यासिद्धय आदित्यमग्निं प्राणं वा। ब्रध्न इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३)(अरुषम्) सर्वेषु मर्मसु सीदन्तमहिंसकं परमेश्वरं प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकं रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा। अरुषमिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (चरन्तम्) सर्वं जगज्जानन्तं सर्वत्र व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठन्तीति तान् सर्वान् स्थावरान् पदार्थान् मनुष्यान् वा। तस्थुष इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (रोचन्ते) प्रकाशन्ते रुचिहेतवश्च भवन्ति (रोचनाः) प्रकाशिताः प्रकाशकाश्च (दिवि) द्योतनात्मके ब्रह्मणि सूर्य्यादिप्रकाशे वा। अयं मन्त्रः शतपथेऽप्येवं व्याख्यातः—युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तमिति। असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोऽमुमेवाऽस्मा आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। (श०ब्रा०१३.१.१५.१)॥१॥

    भावार्थः

    ईश्वर उपदिशति-ये खलु विद्यासम्पादने उद्युक्ता भवन्ति तानेव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति। तस्माद्विद्वांसः पृथिव्यादिपदार्थेभ्य उपयोगं सङ्गृह्योपग्राह्य च सर्वान् प्राणिनः सुखयेयुरिति। यूरोपदेशवासिना भट्टमोक्षमूलराख्येनास्य मन्त्रस्यार्थो रथेऽश्वस्य योजनरूपो गृहीतः; सोऽन्यथास्तीति भूमिकायां लिखितम्॥१॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    छठे सूक्त के प्रथम मन्त्र में यथायोग्य कार्य्यों में किस प्रकार से किन-किन पदार्थों को संयुक्त करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है-

    पदार्थ

    जो मनुष्य (अरुषम्) अङ्ग-अङ्ग में व्याप्त होनेवाले हिंसारहित सब सुख को करने (चरन्तम्) सब जगत् को जानने वा सब में व्याप्त (परितस्थुषः) सब मनुष्य वा स्थावर जङ्गम पदार्थ और चराचर जगत् में भरपूर हो रहा है, (ब्रध्नम्) उस महान् परमेश्वर को उपासना योग द्वारा प्राप्त होते हैं, वे (दिवि) प्रकाशरूप परमेश्वर और बाहर सूर्य्य वा पवन के बीच में (रोचना) ज्ञान से प्रकाशमान होके (रोचन्ते) आनन्द में प्रकाशित होते हैं। तथा जो मनुष्य (अरुषम्) दृष्टिगोचर में रूप का प्रकाश करने तथा अग्निरूप होने से लाल गुणयुक्त (चरन्तम्) सर्वत्र गमन करनेवाले (ब्रध्नम्) महान् सूर्य्य और अग्नि को शिल्पविद्या में (परियुञ्जन्ति) सब प्रकार से युक्त करते हैं, वे जैसे (दिवि) सूर्य्यादि के गुणों के प्रकाश में पदार्थ प्रकाशित होते हैं, वैसे (रोचनाः) तेजस्वी होके (रोचन्ते) नित्य उत्तम-उत्तम आनन्द से प्रकाशित होते हैं॥१॥

    भावार्थ

    जो लोग विद्यासम्पादन में निरन्तर उद्योग करनेवाले होते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इसलिये विद्वान् को उचित है कि पृथिवी आदि पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियों को लाभ पहुँचावें कि जिससे उनको भी सम्पूर्ण सुख मिलें। जो यूरोपदेशवासी मोक्षमूलर साहब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ घोड़े को रथ में जोड़ने का लिया है, सो ठीक नहीं। इसका खण्डन भूमिका में लिख दिया है, वहाँ देख लेना चाहिये॥१॥

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    विषय

    छठे सूक्त के प्रथम मन्त्र में यथायोग्य कार्य्यों में किस प्रकार से किन-किन पदार्थों को संयुक्त करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ये मनुष्या अरुषम् ब्रध्नं परितस्थुः चरन्तं परमात्मानं सु आत्मनि बाह्यदेशे सूर्य्यं वायुं वा युञ्जन्ति ते रोचना सन्तः दिवि प्रकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते॥१॥ 

    पदार्थ

    (ये)=जो, (मनुष्या)=मनुष्य, (अरुषम्) सर्वेषु मर्मसु सीदन्तमहिंसकं परमेश्वरं प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकं रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा= सब अङ्गों में  व्याप्त हिंसारहित विशिष्ट लाल रंग के गुणवाले या सूर्य, (ब्रधनम्) महान्तं परमेश्वरम्। शिल्पविद्यासिद्धय आदित्यमग्निं प्राणं वा= महान् परमात्मा या शिल्पविद्या की सिद्धि से प्राप्त या आदित्य, अग्नि या प्राण, (परि+तस्थुषः)=सर्वतः तिष्ठन्तीति तान् सर्वान् स्थावरान् पदार्थान् मनुष्यान् वा=सब जगह स्थित हैं, ऐसे सब स्थावर, पदार्थ और मनुष्य, (चरन्तम्)=सर्व जगज्जानन्तं सर्वत्रा व्याप्नुवनतम्=समस्त जगत् को जानते हुए सर्वत्र व्याप्त होनेवाले, (परमात्मानम्)=परमात्मा को, (सु)=अच्छी तरह से, (आत्मनि)=आत्मा में, (बाह्यदेशे)=बाह्य देश में, (सूर्य्यम्)= सूर्य, (वायुम्)=वायु, (वा)=या, (युञ्जन्ति)=संयुक्त करते हैं, (ते)=वे, (रोचनाः) प्रकाशिता प्रकाशकाश्च= दीप्ति से प्रकाशित, (सन्तः)=होते हुए, (दिवि) द्योत्नात्मके ब्रह्मणि सूर्य्यादिप्रकाशे वा=प्रदीप्त ब्रह्माण्ड या सूर्य आदि के प्रकाश में, (प्रकाशे)=प्रकाश में, (रोचन्ते)=प्रकाशन्ते रुचिहेतवश्च भवन्ति= प्रकाशित होते हैं और चमक के कारण होते हैं।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो लोग विद्या सम्पादन में निरन्तर उद्योग करनेवाले होते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इसलिये विद्वान् को उचित है कि पृथिवी आदि पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियों को लाभ पहुँचावें कि जिससे उनको भी सम्पूर्ण सुख मिलें। जो यूरोपदेशवासी मोक्षमूलर साहब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ घोड़े को रथ में जोड़ने का लिया है, सो ठीक नहीं। इसका खण्डन भूमिका में लिख दिया है, वहाँ देख लेना चाहिये॥१॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि द्वारा शिल्पविद्या की सिद्धि से प्राप्त या आदित्य, अग्नि या प्राण सब जगह स्थित होना बताया गया है। शिल्पविद्या के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। आदित्य सूर्य है। सूर्य की ऊर्जा ही अग्नि है और प्राण वायु है। शिल्पविद्या की सिद्धि के लिए अर्थात् यान आदि को चलाने के लिए जो ऊर्जा चाहिए, वह सूर्य की गरमी और जल को वाष्प बनाकर उससे प्राप्त शक्ति से यान को चलाती है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (ये) जो (मनुष्या) मनुष्य (अरुषम्) सब अङ्गों में  व्याप्त हिंसारहित विशिष्ट लाल रंग के गुणवाले या सूर्य, (ब्रधनम्) महान् परमात्मा या शिल्पविद्या की सिद्धि से प्राप्त या आदित्य, अग्नि या प्राण, (परितस्थुषः) सब जगह स्थित हैं। ऐसे सब स्थावर, पदार्थ और मनुष्य (चरन्तम्) समस्त जगत् को जानते हुए और सर्वत्र व्याप्त होनेवाले (परमात्मानम्) परमात्मा को (सु) अच्छी तरह से (आत्मनि) आत्मा में, (बाह्यदेशे) बाह्य देश में, (सूर्य्यम्) सूर्य, (वा) और (वायुम्) वायु में (युञ्जन्ति) संयुक्त करते हैं। (ते) वे (रोचनाः+ सन्तः) दीप्ति से प्रकाशित होते हुए (दिवि) प्रदीप्त परमेश्वर या सूर्य आदि के (प्रकाशे) प्रकाश से (रोचन्ते) प्रकाशित होते हैं और चमक के कारण होते हैं।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (युञ्जन्ति) योजयन्ति (ब्रध्नम्) महान्तं परमेश्वरम्। शिल्पविद्यासिद्धय आदित्यमग्निं प्राणं वा। ब्रध्न इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३)। (अरुषम्) सर्वेषु मर्मसु सीदन्तमहिंसकं परमेश्वरं प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकं रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा। अरुषमिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (चरन्तम्) सर्वं जगज्जानन्तं सर्वत्र व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठन्तीति तान् सर्वान् स्थावरान् पदार्थान् मनुष्यान् वा। तस्थुष इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (रोचन्ते) प्रकाशन्ते रुचिहेतवश्च भवन्ति (रोचनाः) प्रकाशिताः प्रकाशकाश्च (दिवि) द्योतनात्मके ब्रह्मणि सूर्य्यादिप्रकाशे वा। अयं मन्त्रः शतपथेऽप्येवं व्याख्यातः-युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तमिति। असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोऽमुमेवाऽस्मा आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। (श०ब्रा०१३.१.१५.१)॥१॥
    विषयः- तत्रोक्तविद्यार्थं केऽर्था उपयोक्तव्या इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- ये मनुष्या अरुषं ब्रध्नं परितस्थुषश्चरन्तं परमात्मानं स्वात्मनि बाह्यदेशे सूर्य्यं वायुं वा युञ्जन्ति ते रोचना सन्तो दिवि प्रकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते॥१॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वर उपदिशति-ये खलु विद्यासम्पादने उद्युक्ता भवन्ति तानेव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति। तस्माद्विद्वांसः पृ

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    विषय

    सूर्यादि के ज्ञान में मन का लगाना

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में ईशान बनने के लिए कहा था । ईशान बनने के लिए  , अर्थात् इन्द्रियों को विषयों में जाने से रोकने के लिए ये अभ्यासी लोग अपने मन आदि को (ब्रध्नं युञ्जन्ति) - ब्रध्न में लगाते हैं । ['असौ वा आदित्यो ब्रध्नः' [ब्रा०] आदित्य व सूर्य ही ब्रध्न है] ये अपनी इन्द्रियों  , मन व बुद्धि को सूर्य के अध्ययन में लगाते हैं  , सूर्य का विज्ञान प्राप्त करके जहाँ सूर्य से उचित लाभ प्राप्त करते हैं वहाँ सूर्य में प्रभु की महिमा को भी देखते हैं । 

    २. (अरुषं युञ्जन्ति) [अग्निर्वा अरुषः] - ये अपने मन को अग्नि में लगाते हैं । अग्नि के विज्ञान में लगा हुआ मन प्रसंगवश विषयों में जाने से बचा रहता है और अग्नि का ठीक उपयोग करता हुआ यह अग्निविद्यावित् पुरुष अग्नि में प्रभु - माहात्म्य का दर्शन करता है । 

    ३. (चरन्तं) [युञ्जन्ति]  , [वायुर्वै चरन्] - ये अपने मनों को वायु के ज्ञान की प्राप्ति में लगाते हैं । वायु का ज्ञान इनके स्वास्थ्य को पुष्ट करता है और इन्हें प्रभु की महिमा का स्मरण कराता है । 

    ४. (परितस्थुषः) [युञ्जन्ति]  , 'इमे वै लोकाः परितस्थुषः' - यह मधुच्छन्दा अपने मन आदि को विषयों में जाने से रोकने के लिए इन लोकों के ज्ञान की प्राप्ति में लगाता है । अग्निदेवता का स्थान यह 'पृथिवीलोक' है  , वायुदेवता का स्थान 'अन्तरिक्षलोक' है और सूर्यदेवता का स्थान 'द्युलोक' है । एक ज्ञानी पुरुष जहाँ सूर्य  , अग्नि व वायु के ज्ञान की प्राप्ति का ध्यान करता है वहाँ वह इनके अधिष्ठानभूत लोकों का भी ज्ञान प्राप्त करता है । इस ज्ञान में लगा रहकर उसका मन विषयों में नहीं जाता । 

    ५. अन्त में यह अपने मन आदि को (रोचना) ['नक्षत्राणि वै रोचना दिवि'] - इन देदीप्यमान नक्षत्रों में लगाता है जो नक्षत्र (दिवि रोचन्ते) - द्युलोक में चमकते हैं । ये आकाश को आच्छादित करनेवाले [व्राः] तारे उस प्रभु का ही स्तवन कर रहे हैं [अभ्यनूषत] । इन तारों के प्रकाश में प्रभु का प्रकाश दिखता है । इस प्रकार यह ज्ञानी ज्ञानप्राप्ति में लगा हुआ जहाँ सूर्य  , अग्नि  , वायु  , द्युलोक  , पृथिवीलोक  , अन्तरिक्षलोक व नक्षत्रों में प्रभु की महिमा को देखकर प्रभु के प्रति नतमस्तक होता है वहाँ इन्द्रियों का ईशान भी बना रहता है । इसका मन विषयों में जाने से बचा रहता है । 

    भावार्थ

    भावार्थ - हम अपने मनों को सूर्यादि प्रभु की विभूतियों के ज्ञान के प्राप्त करने में लगाये रक्खें ताकि वे विषय - प्रवण हों ही न । 

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    विषय

    छठे सूक्त के प्रथम मन्त्र में यथायोग्य कार्य्यों में किस प्रकार से किन-किन पदार्थों को संयुक्त करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ये मनुष्या अरुषं ब्रध्नं परितस्थुः चरन्तं परमात्मानं सु आत्मनि बाह्यदेशे सूर्य्यं वायुं वा युञ्जन्ति ते रोचना सन्तः दिवि प्रकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते॥१॥ 

    पदार्थ

    (ये)=जो, (मनुष्या)=मनुष्य, (अरुषम्) सर्वेषु मर्मसु सीदन्तमहिंसकं परमेश्वरं प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकं रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा= सब अङ्गों में  व्याप्त हिंसारहित विशिष्ट लाल रंग के गुणवाले या सूर्य, (ब्रधनम्) महान्तं परमेश्वरम्। शिल्पविद्यासिद्धय आदित्यमग्निं प्राणं वा= महान् परमात्मा या शिल्पविद्या की सिद्धि से प्राप्त या आदित्य, अग्नि या प्राण, (परि+तस्थुषः)=सर्वतः तिष्ठन्तीति तान् सर्वान् स्थावरान् पदार्थान् मनुष्यान् वा=सब जगह स्थित हैं, ऐसे सब स्थावर, पदार्थ और मनुष्य, (चरन्तम्)=सर्व जगज्जानन्तं सर्वत्रा व्याप्नुवनतम्=समस्त जगत् को जानते हुए सर्वत्र व्याप्त होनेवाले, (परमात्मानम्)=परमात्मा को, (सु)=अच्छी तरह से, (आत्मनि)=आत्मा में, (बाह्यदेशे)=बाह्य देश में, (सूर्य्यम्)= सूर्य, (वायुम्)=वायु, (वा)=या, (युञ्जन्ति)=संयुक्त करते हैं, (ते)=वे, (रोचनाः) प्रकाशिता प्रकाशकाश्च= दीप्ति से प्रकाशित, (सन्तः)=होते हुए, (दिवि) द्योत्नात्मके ब्रह्मणि सूर्य्यादिप्रकाशे वा=प्रदीप्त ब्रह्माण्ड या सूर्य आदि के प्रकाश में, (प्रकाशे)=प्रकाश में, (रोचन्ते)=प्रकाशन्ते रुचिहेतवश्च भवन्ति= प्रकाशित होते हैं और चमक के कारण होते हैं।

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जो लोग विद्या सम्पादन में निरन्तर उद्योग करनेवाले होते हैं, वे ही सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इसलिये विद्वान् को उचित है कि पृथिवी आदि पदार्थों से उपयोग लेकर सब प्राणियों को लाभ पहुँचावें कि जिससे उनको भी सम्पूर्ण सुख मिलें। जो यूरोपदेशवासी मोक्षमूलर साहब आदि ने इस मन्त्र का अर्थ घोड़े को रथ में जोड़ने का लिया है, सो ठीक नहीं। इसका खण्डन भूमिका में लिख दिया है, वहाँ देख लेना चाहिये॥१॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- इस मन्त्र के अर्थ में महर्षि द्वारा शिल्पविद्या की सिद्धि से प्राप्त या आदित्य, अग्नि या प्राण सब जगह स्थित होना बताया गया है। शिल्पविद्या के लिए ऊर्जा की आवश्यकता होती है। आदित्य सूर्य है। सूर्य की ऊर्जा ही अग्नि है और प्राण वायु है। शिल्पविद्या की सिद्धि के लिए अर्थात् यान आदि को चलाने के लिए जो ऊर्जा चाहिए, वह सूर्य की गरमी और जल को वाष्प बनाकर उससे प्राप्त शक्ति से यान को चलाती है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (ये) जो (मनुष्या) मनुष्य (अरुषम्) सब अङ्गों में  व्याप्त हिंसारहित विशिष्ट लाल रंग के गुणवाले या सूर्य, (ब्रधनम्) महान् परमात्मा या शिल्पविद्या की सिद्धि से प्राप्त या आदित्य, अग्नि या प्राण, (परितस्थुषः) सब जगह स्थित हैं। ऐसे सब स्थावर, पदार्थ और मनुष्य (चरन्तम्) समस्त जगत् को जानते हुए और सर्वत्र व्याप्त होनेवाले (परमात्मानम्) परमात्मा को (सु) अच्छी तरह से (आत्मनि) आत्मा में, (बाह्यदेशे) बाह्य देश में, (सूर्य्यम्) सूर्य, (वा) और (वायुम्) वायु में (युञ्जन्ति) संयुक्त करते हैं। (ते) वे (रोचनाः+ सन्तः) दीप्ति से प्रकाशित होते हुए (दिवि) प्रदीप्त परमेश्वर या सूर्य आदि के (प्रकाशे) प्रकाश से (रोचन्ते) प्रकाशित होते हैं और चमक के कारण होते हैं।

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (युञ्जन्ति) योजयन्ति (ब्रध्नम्) महान्तं परमेश्वरम्। शिल्पविद्यासिद्धय आदित्यमग्निं प्राणं वा। ब्रध्न इति महन्नामसु पठितम्। (निघं०३.३)। (अरुषम्) सर्वेषु मर्मसु सीदन्तमहिंसकं परमेश्वरं प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकं रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा। अरुषमिति रूपनामसु पठितम्। (निघं०३.७) (चरन्तम्) सर्वं जगज्जानन्तं सर्वत्र व्याप्नुवन्तम् (परि) सर्वतः (तस्थुषः) तिष्ठन्तीति तान् सर्वान् स्थावरान् पदार्थान् मनुष्यान् वा। तस्थुष इति मनुष्यनामसु पठितम्। (निघं०२.३) (रोचन्ते) प्रकाशन्ते रुचिहेतवश्च भवन्ति (रोचनाः) प्रकाशिताः प्रकाशकाश्च (दिवि) द्योतनात्मके ब्रह्मणि सूर्य्यादिप्रकाशे वा। अयं मन्त्रः शतपथेऽप्येवं व्याख्यातः-युञ्जन्ति ब्रध्नमरुषं चरन्तमिति। असौ वा आदित्यो ब्रध्नोऽरुषोऽमुमेवाऽस्मा आदित्यं युनक्ति स्वर्गस्य लोकस्य समष्ट्यै। (श०ब्रा०१३.१.१५.१)॥१॥
    विषयः- तत्रोक्तविद्यार्थं केऽर्था उपयोक्तव्या इत्युपदिश्यते।

    अन्वयः- ये मनुष्या अरुषं ब्रध्नं परितस्थुषश्चरन्तं परमात्मानं स्वात्मनि बाह्यदेशे सूर्य्यं वायुं वा युञ्जन्ति ते रोचना सन्तो दिवि प्रकाशे रोचन्ते प्रकाशन्ते॥१॥

    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वर उपदिशति-ये खलु विद्यासम्पादने उद्युक्ता भवन्ति तानेव सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति। तस्माद्विद्वांसः पृ

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    विषय

    परमेश्वर का वर्णन, पक्षान्तर में सूर्य, राजा का वर्णन योगी के योगाभ्यास का वर्णन ।

    भावार्थ

    विद्वान् यात्रि योगी जन ( ब्रध्नम् ) सबको नियम व्यवस्था में बांधने वाले महान्, सर्वाश्रय, ( अरुषम् ) रोषरहित, अहिंसक, तेजस्वी, ( तस्थुषः परि ) समस्त स्थावर, अचेतन प्राकृतिक संसार में व्यापक परमेश्वर को ( युञ्जन्ति) समाहित चित्त होकर ध्यान करते हैं, उसका योगाभ्यास से साक्षात् करते हैं । और वे ही ( रोचनाः ) ज्ञानमय प्रकाश और परम ज्योतिर्मय तप से तेजस्वी होकर ( दिवि ) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर या मोक्ष में ( रोचन्ते ) प्रकाशित होते हैं, विराजते हैं । सूर्य पक्ष में—( अरुषं ) तेजस्वी, महान, विचरने वाले सूर्य को उसके चारों ओर स्थित सूर्य, नक्षत्र आदि लोकों को भी (युञ्जन्ति ) आकर्षण से बांधते हैं । जो आकाश में चमक रहे हैं। राजा के पक्ष में—( ब्रध्नम् ) सूर्य के समान सबको बांधने वाले, वायु के समान स्वच्छन्द विचरने वाले को ( तस्थुषः परि ) स्थिर प्रजाजनों के ऊपर नियुक्त करते हैं । ( रोचनाः ) ज्ञानवान् पुरुष ( दिवि ) राजसभा में विराजते हैं ।

    टिप्पणी

    असौ वा आदित्यो ब्रध्नः। अग्निर्वा अरुषः। इमे वै लोकाः, परितस्थुषः । नक्षत्राणि वै रोचनानि। वायुर्वै चरन्। इति शत० ब्राह्मणम् ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    १ — १० मधुच्छन्दा ऋषिः ॥ १—३ इन्द्रो देवता । ४, ६, ८, ९ मरुतः । ५, ७ मरुत इन्द्रश्च । १० इन्द्रः ॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम् ।

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    मराठी (1)

    विषय

    सूर्य व वायूद्वारे जशी पुरुषार्थाची सिद्धी केली पाहिजे, ते गोल जगात कशाप्रकारे आहेत व त्यांचा लाभ कसा करून घेतला पाहिजे, इत्यादी प्रयोजनांनी पाचव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर सहाव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    जे लोक विद्या संपादन करण्यात निरंतर उद्युक्त असतात तेच सर्व सुख प्राप्त करतात. त्यासाठी विद्वानांनी पृथ्वी इत्यादी पदार्थांचा उपयोग करून घेऊन सर्व प्राण्यांना लाभ करून द्यावा, ज्यामुळे त्यांनाही सर्व सुख मिळेल. ॥ १ ॥

    टिप्पणी

    जे युरोप देशवासी मोक्षमूलर साहेब इत्यादींनी या मंत्राचा अर्थ - घोड्याचा रथ जोडण्यासाठी असा केलेला आहे, तो योग्य नाही. याचे खंडन भूमिकेमध्ये लिहिलेले आहे, तेथे पाहावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    Pious souls in meditation commune with the great and gracious lord of existence immanent in the steady universe and transcendent beyond. Brilliant are they with the lord of light and they shine in the heaven of bliss.

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    Subject of the mantra

    How appropriate works are to be engaged in different things has been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye)=Those (manuṣyā)=human beings, (aruṣam)= having parts of body of reddish qualities or sun without violence pervading all parts, (bradhanam) The great Supreme Soul or the attainment of craftsmanship or Aditya, Agni or Prana, (paritasthuṣaḥ)=are situated everywhere, all such things, matter and human beings, (carantam) Knowing the whole world and pervading everywhere, (paramātmānam) to the God, (su)=thoroughly (ātmani) =in the soul, (bāhyadeśe)=in an external place, (sūryyam)=the Sun, (vāyum)=in the air, (vā)=and, (yuñjanti)=combine, (te)=they, (rocanāḥ+santaḥ)=illuminating, (divi)=of the effulgent God or the sun etc. (prakāśe) =in the light, (rocante)=are illuminated and are cause of brightness.

    English Translation (K.K.V.)

    The men who have the parts of body of red colour without violence pervading all the organs or the Sun, the great Supreme God or attained by the accomplishment of craftsmanship or Aditya, Agni or Prana, is situated everywhere. All such stationery, matter and human beings, knowing the whole world and the pervading God, well unite in the soul, in the outer world, in the Sun and in the air. They are illuminated by the light of the effulgent God or the Sun etc. and are cause of radiance.

    Footnote

    Translator's comment- In the meaning of this mantra, Maharishi is said to have attained the accomplishment of craftsmanship by Aditya, Agni or Prana to be situated everywhere. Craftsmanship requires energy. Aditya is the Sun. The energy of the sun is fire and life is air. For the accomplishment of craftsmanship, that is, the energy needed to run the vehicle, it drives the vehicle with the energy obtained from the Sun's heat and water vaporizing it.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God preaches-Those who are constantly engaged in the pursuit of knowledge, they get all the happiness. Therefore, by collecting scholars for use from the earth etc., they should reach all living beings for their happiness. The European countryman, Maxmuller Sahib etc. have taken the meaning of this mantra to connect the horse to the chariot, so it is not right. Its refutation has been written in the preamble (of Rhigvedadi-Bhashya Bhoomika), it should be seen there.

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    Translation

    Just as in the cosmos, the circumstationed planetary body derives light from the sun, similarly the mind and speedy vital forces derive light and life from the God-blessed inner soul.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) Those persons who are in communion with Omnipresent God Who is Great are kind and non-violent in their hearts knowing all animate and inanimate objects, shine in Resplendent God. (2) The Mantra is equally applicable to the sun, the Prana or vital breaths or fire (Agni). Those who know the real nature of the sun and the prana, shine. They become glorious.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

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    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God says that those who are busy with acquiring knowledge, enjoy all happiness. Therefore it is the duty of all learned persons to make proper use of all objects like the earth and the sun, prompt others to do so and make all people happy. Prof. Maxmuller has taken it to mean. "Those who stand around while he moves on, harness the bright red (Steed); the lights in heaven shine forth." (Prof. Maxmuller). We have already pointed out that this interpretation is erroneous. (ब्रघ्नम् ) महान्तं परमेश्वरम् ब्रघ्नमिति महन्नामसु पठितम् ( निघ० ३.३) अरुषम् इति सर्वेषु मर्मसु सीदन्तम् अहिंसक परमेश्वरम् प्राणवायुं तथा बाह्ये देशे रूपप्रकाशकम्, रक्तगुणविशिष्टमादित्यं वा अरुषम् इति रूपनामसु (निघ० ३.७) ।

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