ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 61/ मन्त्र 1
अ॒स्मा इदु॒ प्र त॒वसे॑ तु॒राय॒ प्रयो॒ न ह॑र्मि॒ स्तोमं॒ माहि॑नाय। ऋची॑षमा॒याध्रि॑गव॒ ओह॒मिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मा॑णि रा॒तत॑मा ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मै । इत् । ऊँ॒ इति॑ । प्र । त॒वसे॑ । तु॒राय॑ । प्रयः॑ । न । ह॒र्मि॒ । स्तोम॑म् । माहि॑नाय । ऋची॑षमाय । अध्रि॑ऽगवे । ओह॑म् । इन्द्रा॑य । ब्रह्मा॑णि । रा॒तऽत॑मा ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मा इदु प्र तवसे तुराय प्रयो न हर्मि स्तोमं माहिनाय। ऋचीषमायाध्रिगव ओहमिन्द्राय ब्रह्माणि राततमा ॥
स्वर रहित पद पाठअस्मै। इत्। ऊँ इति। प्र। तवसे। तुराय। प्रयः। न। हर्मि। स्तोमम्। माहिनाय। ऋचीषमाय। अध्रिऽगवे। ओहम्। इन्द्राय। ब्रह्माणि। रातऽतमा ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 61; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 4; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यथाहमु प्रयो न प्रीतिकारकमन्नमिव तवसे तुराय ऋचीषमायाध्रिगवे माहिनायास्मा इन्द्राय सभाद्यध्यक्षायेदेवौहं स्तोमं राततमा ब्रह्माण्यन्नानि धनानि वा प्रहर्मि प्रकृष्टतया ददामि तथा यूयमपि कुरुत ॥ १ ॥
पदार्थः
(अस्मै) सभाद्यध्यक्षाय (इत्) एव (उ) वितर्के (प्र) प्रकृष्टे (तवसे) बलवते (तुराय) कार्य्यसिद्धये तूर्णं प्रवर्त्तमानाय शत्रूणां हिंसकाय वा (प्रयः) तृप्तिकारकमन्नम् (न) इव (हर्मि) हरामि। अत्र शपो लुक्। (स्तोमम्) स्तुतिम् (माहिनाय) उत्कृष्टयोगान्महते (ऋचीषमाय) ऋच्यन्ते स्तूयन्ते ये त ऋचीषास्तानतिमान्यान् करोति तस्मै। अत्र ऋचधातोर्बाहुलकादौणादिकः कर्मणीषन् प्रत्ययः। ऋचीषमः स्तूयते वज्री ऋचा समः। (निरु०६.२३) (अध्रिगवे) शत्रुभिरध्रयोऽसहमाना वीरास्तान् गच्छति प्राप्नोति तस्मै (ओहम्) ओहति प्राप्नोति येन तम्। (इन्द्राय) परमैश्वर्यकारकाय (ब्रह्माणि) सुसंस्कृतानि बृहत्सुखकारकाण्यन्नानि धनानि वा। ब्रह्मेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) धननामसु च पठितम्। (निघं०२.१०) (राततमा) अतिशयेन दातव्यानि ॥ १ ॥
भावार्थः
मनुष्यैः स्तोतुमर्हान् राज्याधिकारिणः कृत्वा तेभ्यो यथायोग्यानि करप्रयुक्तानि धनानि दत्त्वोत्तमैरन्नादिभिः सदा सत्कर्त्तव्याः राजपुरुषैः प्रजास्था मनुष्याश्च ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब इकसठवें ६१ सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में सभा आदि का अध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे विद्वान् लोगो ! जैसे मैं (उ) वितर्कपूर्वक (प्रयः) तृप्ति करनेवाले कर्म्म के (न) समान (तवसे) बलवान् (तुराय) कार्यसिद्धि के लिये शीघ्र करता (ऋचीषमाय) स्तुति करने को प्राप्त होने तथा (अध्रिगवे) शत्रुओं से असह्य वीरों के प्राप्त होनेहारे (माहिनाय) उत्तम-उत्तम गुणों से बड़े (अस्मै) इस (इन्द्राय) सभाध्यक्ष के लिये (इत्) ही (ओहम्) प्राप्त करनेवाले (स्तोमम्) स्तुति को (राततमा) अतिशय करने के योग्य (ब्रह्माणि) संस्कार किये हुए अन्न वा धनों को (प्र) (हर्मि) देता हूँ, वैसे तुम भी किया करो ॥ १ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि स्तुति के योग्य पुरुषों को राज्य का अधिकार देकर, उनके लिये यथायोग्य हाथों से प्रयुक्त किये हुए धनों को देकर, उत्तम-उत्तम अन्नादिकों से सदा सत्कार करें और राजपुरुषों को भी चाहिये कि प्रजा के पुरुषों का सत्कार करें ॥ १ ॥
विषय
इन्द्र का 'स्तुति व हवि' से परिचरण
पदार्थ
१. (इत् उ) = निश्चय से (अस्मै तवसे) = इस प्रवृद्ध - सब गुणों व आकार के दृष्टिकोण से बढ़े हुए, (तुराय) = शीघ्रता से कार्यों को करनेवाले अथवा शत्रुओं का संहार करनेवाले [तुर्वित्रे], (माहिनाय) = महिमा से सम्पन्न और अतएव पूजा के योग्य (ऋचीषमाय) = [ऋचा समः] जितनी भी स्तुति की जाए उससे अधिक, (अधिग्रवे) = अप्रतिहत गमन व कर्मवाले, जिसके मार्ग में कोई भी रुकावट उत्पन्न नहीं कर सकता, ऐसे (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (ओहम्) = [वहनीयं, प्रापणीयम्] वहन के योग्य, अत्यन्त उत्कृष्ट (स्तोमम्) = स्तुतिसमूह को (प्रहर्मि) = प्रकर्षेण प्राप्त करता हूँ । उसी प्रकार प्राप्त करता हूँ (न) = जैसे (प्रयः) = अन्न को प्राप्त करते हैं । जैसे मैं भोजन करता हूँ, भोजन करना जैसे मेरा स्वभाव हो गया है, उसी प्रकार स्तवन भी मेरे लिए स्वाभाविक है । यह मेरा अध्यात्म - भोजन ही हो गया है । २. मैं इस ब्रह्म के लिए ही, ब्रह्म की प्राप्ति के लिए ही (राततमा) = अतिशयेन देने योग्य (ब्रह्माणि) = हविर्लक्षण अन्नों को भी प्राप्त करता है, सदा यज्ञों का करनेवाला बनकर यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला बनता हैं । यज्ञशेष के सेवन से ही प्रभु का परिचरण [सेवा] होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - मैं स्तुति और हवि के द्वारा प्रभु का परिचरण करता हूँ ।
विषय
इन्द्र, परमेश्वर की स्तुति ।
भावार्थ
(प्रयः न ) अति आदर और स्नेह से दिये जाने योग्य अन्न और ज्ञान या अर्ध पाद्य आदि जल जिस प्रकार योग्य उत्तम पुरुष में दिया जाता है उसी प्रकार (तवसे) महान् (तुराय) राज्य-कार्यों को शीघ्रता से, विना आलस्य प्रमाद के करने वाले, (महिनाय) उत्तम गुणों, सामर्थ्यों के कारण महान् और (ऋचीषमाय) स्तुति-वचनों के समान, यथार्थ स्तुस्य गुणों के धारण करने वाले, (अध्रिगवे) शत्रु से न सहने योग्य, बलवान् वीरों को धारण करने और भयंकर प्रयाण करने वाले, (इन्द्राय) ऐश्वर्यवान्, ऐश्वर्यप्रद, शत्रुहन्ता पुरुष को (इत् उ) ही मैं ( ओहम् ) धारण करने योग्य अथवा शत्रुओं को पीड़ित करने वाले ( स्तोमम् ) स्तुति वचन अधिकार पद और सैनिक वीरों का संघ और (ब्रह्माणि) वेदवचन, अन्न, धब और बड़े बड़े बलशाली अस्त्रादि, (राततमा) समस्त उत्तम उत्तम देने योग्य पदार्थ ( प्रहमिं) प्रदान करता हूँ। परमेश्वर के पक्ष में—महान्, सबके प्रेरक, पूज्य, यथार्थ स्तुति और अपार शक्तिवाले, परमेश्वर की स्तुति के लिए मैं पूज्य पुरुष को आदरार्थ जल और अन्नादि के समान स्तुतिवचन और वेदमन्त्रों को प्रस्तुत करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, १४, १६ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ९ निचृत् विष्टुप् । ३, ४, ६, ८, १०, १२ पंक्तिः । ५, १५ विराट पंक्तिः । ११ भुरिक् पंक्ति: । १३ निचृतपंक्तिः । षोडशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अब इकसठवें ६१ सूक्त का आरम्भ है। उसके पहले मन्त्र में सभा आदि का अध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यथा अहम् उ प्रयः न प्रीतिकारकम् अन्नम् इव तवसे तुराय ऋचीषमाय आध्रिगवे माहिनाय अस्मै इन्द्राय सभाद्यध्यक्षाय इत् एव ओहं स्तोमं राततमा ब्रह्माणि अन्नानि धनानि वा प्र हर्मि प्रकृष्टतया ददामि तथा यूयम् अपि कुरुत ॥१॥
पदार्थ
(यथा)=जैसे, (अहम्)=मैं, (उ) वितर्के=अथवा, (प्रयः) तृप्तिकारकमन्नम्= तृप्ति करानेवाले अन्न के, (न) इव=समान, (प्रीतिकारकम्) = प्रीति करानेवाले, (अन्नम्)= अन्न के, (इव)=समान, (तवसे) बलवते= शक्तिशाली, (तुराय) कार्य्यसिद्धये तूर्णं प्रवर्त्तमानाय शत्रूणां हिंसकाय वा= कार्य को सिद्ध करने के लिये शीघ्र प्रवृत्त होनेवाले और शत्रुओं के हिंसक के लिये, (ऋचीषमाय) ऋच्यन्ते स्तूयन्ते ये त ऋचीषास्तानतिमान्यान् करोति तस्मै=जो ऋचाओं से स्तुति करते हैं, उनके इन गुणों के लिये, (अध्रिगवे) शत्रुभिरध्रयोऽसहमाना वीरास्तान् गच्छति प्राप्नोति तस्मै=ऐसे वीर जो शत्रुओं के द्वारा सहन न किये जाने योग्य हैं, उन्हें प्राप्त करनेवाले, (माहिनाय) उत्कृष्टयोगान्महते=उत्कृष्ट योग से महान्, (अस्मै) सभाद्यध्यक्षाय=सभा आदि के अध्यक्ष के लिये, (इन्द्राय) परमैश्वर्यकारकाय=परम ऐश्वर्य करनेवाले के लिये, (सभाद्यध्यक्षाय)=सभा आदि के अध्यक्ष के लिये, (इत्) एव=ही, (ओहम्) ओहति प्राप्नोति येन तम्=जिससे प्राप्त होता है, उसकी (स्तोमम्) स्तुतिम्=स्तुति को, (राततमा) अतिशयेन दातव्यानि=अतिशय रूप से दिये जानेवाले, (ब्रह्माणि) सुसंस्कृतानि बृहत्सुखकारकाण्यन्नानि धनानि वा= पूरी तरह से परिपूर्ण, बहुत सुख प्रदान करनेवाले अन्न और धन, (प्रकृष्टतया)= प्रकृष्ट रूप से, (ददामि)=देता हूँ, (तथा)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी [ऐसे ही] (कुरुत) =करो॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्यों के द्वारा स्तुति के योग्य राज्य के अधिकारी बनाकर के, उनके लिये यथायोग्य कर लगाये हुए धनों को देकर, उत्तम अन्न आदि से सदा सत्कार करना चाहिए और राजपुरुषों तथा प्रजा में स्थित मनुष्यों का भी सत्कार करना चाहिए ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यथा) जैसे (अहम्) मैं (उ) अथवा (प्रयः) तृप्ति करानेवाले और (प्रीतिकारकम्) प्रीति करानेवाले, (अन्नम्) अन्न के (इव) समान (तवसे) शक्तिशाली, (तुराय) कार्य को सिद्ध करने के लिये शीघ्र प्रवृत्त होनेवाले और शत्रुओं के हिंसक के लिये, (ऋचीषमाय) जो ऋचाओं से स्तुति करते हैं, उनके इन गुणों के लिये, (अध्रिगवे) ऐसे वीर जो शत्रुओं के द्वारा सहन न किये जाने योग्य हैं, उन्हें प्राप्त करनेवाले, (माहिनाय) उत्कृष्ट योग से महान्, (अस्मै) सभा आदि के अध्यक्ष के लिये (इन्द्राय) परम ऐश्वर्य करनेवाले के लिये (इत्) ही (ओहम्) जिससे प्राप्त होता है, उसकी (स्तोमम्) स्तुति को (राततमा) अतिशय रूप से किये जानेवाले और (ब्रह्माणि) पूरी तरह से परिपूर्ण, बहुत सुख प्रदान करनेवाले अन्न और धन (प्रकृष्टतया) प्रकृष्ट रूप से (ददामि) देता हूँ। (तथा) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (कुरुत) करो॥१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अस्मै) सभाद्यध्यक्षाय (इत्) एव (उ) वितर्के (प्र) प्रकृष्टे (तवसे) बलवते (तुराय) कार्य्यसिद्धये तूर्णं प्रवर्त्तमानाय शत्रूणां हिंसकाय वा (प्रयः) तृप्तिकारकमन्नम् (न) इव (हर्मि) हरामि। अत्र शपो लुक्। (स्तोमम्) स्तुतिम् (माहिनाय) उत्कृष्टयोगान्महते (ऋचीषमाय) ऋच्यन्ते स्तूयन्ते ये त ऋचीषास्तानतिमान्यान् करोति तस्मै। अत्र ऋचधातोर्बाहुलकादौणादिकः कर्मणीषन् प्रत्ययः। ऋचीषमः स्तूयते वज्री ऋचा समः। (निरु०६.२३) (अध्रिगवे) शत्रुभिरध्रयोऽसहमाना वीरास्तान् गच्छति प्राप्नोति तस्मै (ओहम्) ओहति प्राप्नोति येन तम्। (इन्द्राय) परमैश्वर्यकारकाय (ब्रह्माणि) सुसंस्कृतानि बृहत्सुखकारकाण्यन्नानि धनानि वा। ब्रह्मेत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) धननामसु च पठितम्। (निघं०२.१०) (राततमा) अतिशयेन दातव्यानि ॥१॥ विषयः- अथ सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- यथाहमु प्रयो न प्रीतिकारकमन्नमिव तवसे तुराय ऋचीषमायाध्रिगवे माहिनायास्मा इन्द्राय सभाद्यध्यक्षायेदेवौहं स्तोमं राततमा ब्रह्माण्यन्नानि धनानि वा प्रहर्मि प्रकृष्टतया ददामि तथा यूयमपि कुरुत ॥१॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः स्तोतुमर्हान् राज्याधिकारिणः कृत्वा तेभ्यो यथायोग्यानि करप्रयुक्तानि धनानि दत्त्वोत्तमैरन्नादिभिः सदा सत्कर्त्तव्याः राजपुरुषैः प्रजास्था मनुष्याश्च ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सभाध्यक्ष इत्यादीचे वर्णन व अग्निविद्येचा प्रचार करणे सांगितलेले आहे. यामुळे या सूक्तार्थाबरोबर पूर्वीच्या सूक्तार्थाची संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
माणसांनी प्रशंसनीय पुरुषांना राज्याचा अधिकार द्यावा. त्यांना यथायोग्य धन देऊन उत्तम अन्न इत्यादींनी सदैव सत्कार करावा व राज-पुरुषांनीही प्रजेचा सत्कार करावा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In honour of this lord Indra, mighty power, great leader, holy celebrity and commander of the brave, informidable to the enemies, I offer an excellent song of praise in adoration and holiest offerings of the most spontaneous and liberal homage.
Subject of the mantra
Now the sixty-first hymn begins. In its first mantra, it has been preached about what kind of President of the Assembly etc. should be.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yathā) =like (aham) =I, (u) =or, (prayaḥ)= satisfying and, (prītikārakam) =those who make love, (annam) =of food, (iva) =like, (tavase) =powerfull, (turāya)=for those who are quick to accomplish their work and are aggressive towards their enemies, (ṛcīṣamāya)= for these qualities of those who praise with mantras of Rigveda, (adhrigave)=the one who attains such brave men who cannot be tolerated by the enemies, (māhināya)= great by excellent yoga, (asmai)= for the Chairman of the Assembly etc. (indrāya)=for the one who has supreme wealth, (it) =only, (oham) from which it is obtained, his, (stomam) =to praise, (rātatamā)= being done extremely and, (brahmāṇi)=food and wealth that are fully complete and provide great happiness, (prakṛṣṭatayā) =eminently, (dadāmi) =provide, (tathā) =similarly, (yūyam) =all of you, (api) =also, (kuruta) =do.
English Translation (K.K.V.)
Like me or the one who gives satisfaction and love, who is as powerful as grain, who is quick to accomplish his work and who is violent to his enemies, who praises with mantras of Rigveda, for these qualities of such a brave man who cannot be tolerated by his enemies. Only for the one who attains them, who is great with excellent yoga, who bestows supreme opulence for the Chairman of the Assembly etc., the one from whom one attains, the food and wealth which are praised to the fullest and are complete, which provide immense happiness, are given in the most powerful form, I give eminently. You all do the same.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
After making officers of the state worthy of praise by the people, one should always pay them with appropriate taxed money, good food etc. and one should also treat the royal men and people among the people with respect.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should be the President of the Assembly is taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
As I praise the great President of the Assembly who is powerful, rapid and destroyer of his enemies, the admirer and devotee of the sublime Vedas, subduer of even brave foes, like the nourishing good food which I offer to him along with these eulogies, you should also do likewise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(तुराय) कार्यसिद्धये तूर्णं प्रवर्तमानाय शत्रूणां हिंसकाय वा = Rapid in discharging his duties and destroyer of his enemies. ( प्रयः ) तृप्तिकारकम् अन्नम् = Nourishing food. (ब्रह्माणि) सुसंस्कृतानि बृहत्सुखकारकाण्यत्नानि वा । ब्रह्मोत्यन्त्रनाम । ( निघ० २.७ ) ब्रह्मेति धननाम ( निघ० २.१० ) = Nourishing well cooked food and wealth.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should appoint praise worthy officers of the State, should pay to them taxes etc. and respect them by inviting them and they also should show proper respect to their subjects.
Translator's Notes
तुराय is derived from तुर-त्वरणे and तूरी-गतित्वरणहिंसनयो: Therefore the two meanings by Rishi Dayananda Sarasvati as given above. प्रय इत्यन्न नाम ( निघ० २.७)
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