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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 63 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 63/ मन्त्र 9
    ऋषिः - नोधा गौतमः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिगार्षीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अका॑रि त इन्द्र॒ गोत॑मेभि॒र्ब्रह्मा॒ण्योक्ता॒ नम॑सा॒ हरि॑भ्याम्। सु॒पेश॑सं॒ वाज॒मा भ॑रा नः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सुर्जगम्यात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अका॑रि । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । गोत॑मेभिः । ब्रह्मा॑णि । आऽउ॑क्ता । नम॑सा । हरि॑ऽभ्याम् । सु॒ऽपेश॑सम् । वाज॑म् । आ । भ॒र॒ । नः॒ । प्रा॒तः । म॒क्षु । धि॒याऽव॑सुः । ज॒ग॒म्या॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अकारि त इन्द्र गोतमेभिर्ब्रह्माण्योक्ता नमसा हरिभ्याम्। सुपेशसं वाजमा भरा नः प्रातर्मक्षू धियावसुर्जगम्यात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अकारि। ते। इन्द्र। गोतमेभिः। ब्रह्माणि। आऽउक्ता। नमसा। हरिऽभ्याम्। सुऽपेशसम्। वाजम्। आ। भर। नः। प्रातः। मक्षु। धियाऽवसुः। जगम्यात् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 63; मन्त्र » 9
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! ते तव यैर्गोतमेभिः सुशिक्षितैः पुरुषैर्नमसा हरिभ्यां यान्योक्ता ब्रह्माण्यकारि तैः सह नोऽस्मभ्यं यथा धियावसुः सुपेशसं वाजं प्रातर्जगम्यादेतद्भरेच्च तथा त्वमेनत् सर्वं मक्ष्वाभर ॥ ९ ॥

    पदार्थः

    (अकारि) क्रियते (ते) तव (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष (गोतमेभिः) ये गच्छन्ति जानन्ति प्राप्नुवन्ति विद्यादिशुभान् गुणांस्तैर्विद्वद्भिः किरणैर्वा। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (ब्रह्माणि) बृहत्तमान्यन्नानि धनानि वा (ओक्ता) समन्तादुक्तानि प्रशंसितानि (नमसा) अन्नेन। नम इति अन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) वज्रनामसु पठितम्। (निघं०२.२) (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्याम् बलपराक्रमाभ्याम् (सुपेशसम्) शोभनानि पेशांसि रूपाणि यस्मात्तम् (वाजम्) विज्ञानकरम् (आ) समन्तात् (भर) धर (नः) अस्मभ्यम् (प्रातः) प्रतिदिनम् (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) कर्मप्रज्ञाभ्यां सुखेषु वासयिता (जगम्यात्) पुनः पुनः प्राप्नुयात् ॥ ९ ॥

    भावार्थः

    यथा विद्युत्सूर्य्यादिरूपेण सर्वं जगत्पोषति तथैव सभाद्यध्यक्षादयः प्रशस्तैर्धनादिभिर्युक्तां प्रजां कुर्य्युः ॥ ९ ॥ अस्मिन् सूक्त ईश्वरसभाद्यध्यक्षाग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर भी उक्त सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सभा आदि के पति ! (ते) आपके जिन (गोतमेभिः) विद्या से उत्तम शिक्षा को प्राप्त हुए शिक्षित पुरुषों से (नमसा) अन्न और धन (हरिभ्याम्) बल और पराक्रम से जिन (ओक्ता) अच्छे प्रकार प्रशंसा किये हुए (ब्रह्माणि) बड़े-बड़े अन्न और धनों को (अकारि) करते हैं, उनके साथ (नः) हम लोगों के लिये उनको जैसे (धियावसुः) कर्म और बुद्धि से सुखों में बसानेवाला विद्वान् (सुपेशसम्) उत्तमरूप युक्त (वाजम्) विज्ञानसमूह को (प्रातः) प्रतिदिन (जगम्यात्) पुनः-पुनः प्राप्त होवे और इसका धारण करे, वैसे आप पूर्वोक्त सबको (मक्षु) शीघ्र (आ भर) सब ओर से धारण कीजिये ॥ ९ ॥

    भावार्थ

    जैसे बिजुली सूर्य्य आदि रूप से सब जगत् को आनन्दों से पुष्ट करती है, वैसे सभाध्यक्ष आदि भी उत्तम धन और श्रेष्ठ गुणों से प्रजा को पुष्ट करें ॥ ९ ॥ इस सूक्त में ईश्वर, सभाद्यध्यक्ष और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्तार्थ की पूर्व सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥

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    विषय

    प्रभुस्तवन व सज्जनसङ्ग

    पदार्थ

    १. हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमान् प्रभो ! (गोतमेभिः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले पुरुषों से (ते) = तेरा स्तवन (अकारि) = किया जाता है । उन गौतमों से (नमसा) = बड़े नमन के साथ, विनयपूर्वक (हरिभ्याम्) = कर्मेन्द्रियों व ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा (ब्रह्माणि) = स्तुतिवचन (आ उक्ता) = सदा कहे गये हैं । ‘मिट्ठा बोलुन, निवा चलन, हत्थों वी कुछ देव’ - ये हैं वे कर्म जिनके द्वारा प्रभु का स्तवन होता है । इस प्रकार प्रभुस्तवन करनेवाले (नः) = हमारे लिए (सुपेशसम्) = सुन्दर आकृति को उत्पन्न करनेवाले (वाजम्) = बल को (आभर) = सर्वथा भरिए [प्राप्त कराइए] । २. साथ ही यह भी कृपा कीजिए कि (प्रातः) = प्रातः (मक्षु) = शीघ्र ही (धियावसुः) = ज्ञानपूर्वक कर्मों के द्वारा निवास को उत्तम बनानेवाला पुरुष (जगम्यात्) = हमें प्राप्त हो । इसके सङ्ग से हम भी धियावसु बन पाएँगे ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें । प्रभु हमें शक्ति प्राप्त कराएँ और सज्जनसङ्ग की सुविधा दें ।

    विशेष / सूचना

    विशेष - सूक्त का प्रारम्भ इन शब्दों से होता है कि वे प्रभु महान् व शक्तिशाली है [१] । प्रभु का स्तोता क्रियाशील होता है [२] । वे प्रभु ही हमारे शोषक शत्रु काम व शुष्ण का विनाश करते हैं[३] । वासना का विनाश गर्भ में ही कर देना ठीक है [४] । वे प्रभु हमारे शत्रुओं को नष्ट करके हमारे लिए उन्नति का मार्ग प्रशस्त कर देते हैं [५] । प्रभुरक्षण से ही युद्ध में विजय प्राप्त होती है [६] । इस विजय को करनेवाले ‘पुरुकुत्स, सुदास व पुरु’ बनते हैं [७] । हम उस सात्त्विक अन्न का प्रयोग करें जोकि ज्ञानवर्धक हो [८] और गोतम बनकर सदा प्रभुस्तवन करनेवाले हों [९] । अब प्रभु की उपासना से अगला सूक्त आरम्भ होता है -

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    विषय

    ऐश्वर्यदान

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( गोतमेभिः ) उत्तम किरणों से जिस प्रकार ( नमसा ) अन्न की वृद्धि के साथ साथ ( ब्रह्माणि ) ऐश्वर्य और नाना सुख भी उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार ( गोतमेभिः ) विद्वान्गण ( ते हरिभ्याम् ) तेरे हरणशील अश्वों के समान आगे बढ़नेवाले बल और पराक्रम दोनों की वृद्धि के लिए (नमसा) आदर सत्कार और अन्नादि के साथ साथ ( ब्रह्माणि ) स्तुति, ज्ञानोपदेश और नाना धन भी ( अकारि ) प्रस्तुत करते हैं । तू ( नः ) हमारे लिए ( धियावसुः ) कर्म शक्ति और प्रज्ञा के बल से स्वयं प्रजा में रहने और राष्ट्र में सुख से प्रजा के बसाने वाला होकर (प्रातः) प्रति दिन या शीघ्र ही, या अपने राज्य के प्रारम्भ काल में ही (सुपेशसम्) उत्तम सुवर्ण आदि धनों और गौ आदि पशुओं से सम्पन्न ( वाजम् ) ऐश्वर्य को (आभर) प्राप्त करा । और ( मक्षू ) शीघ्र ही ( जगम्यात् ) हमें पुनः २ प्राप्त हो । इति पञ्चमो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ७,९, भुरिगार्षी पङ्क्तिः । विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिगार्षी जगती । ६ स्वराडार्षी बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    फिर भी उक्त सभाध्यक्ष कैसा हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! ते तव यैः गोतमेभिः सुशिक्षितैः पुरुषैः नमसा हरिभ्यां यानि ओक्ता ब्रह्माणि अकारि तैः सह नः अस्मभ्यं यथा धियावसुः सुपेशसं वाजं प्रातः जगम्यात् एतद् भरेत् च तथा त्वम् एतत् सर्वं मक्षू आ भर ॥९॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष=सभा आदि के अध्यक्ष ! (ते) तव=तुम्हारे, (यैः)=जिनके द्वारा, (गोतमेभिः) ये गच्छन्ति जानन्ति प्राप्नुवन्ति विद्यादिशुभान् गुणांस्तैर्विद्वद्भिः किरणैर्वा=विद्या आदि शुभ गुणों वाले विद्वानों के द्वारा, (सुशिक्षितैः)= सुशिक्षित, (पुरुषैः)= पुरुषों के द्वारा, (नमसा) अन्नेन=अन्न से, (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्याम् बलपराक्रमाभ्याम्=हरणशील बल और पराक्रम से, (यानि)=जो, (ओक्ता) समन्तादुक्तानि प्रशंसितानि=हर ओर से कहे गये और प्रशंसित, (ब्रह्माणि) बृहत्तमान्यन्नानि धनानि वा= बहुत अन्न या धन, (अकारि) क्रियते=करते हैं, (तैः)=उनके, (सह)=साथ, (नः) अस्मभ्यम्=हमारे लिये, (यथा)=जैसे, (धियावसुः) कर्मप्रज्ञाभ्यां सुखेषु वासयिता=कर्म और प्रज्ञा नाम के सुखों में रहनेवाले, (सुपेशसम्) शोभनानि पेशांसि रूपाणि यस्मात्तम्=उत्तम रूपोंवाले, (वाजम्) विज्ञानकरम्=विशेष ज्ञान को प्रदान करनेवाले, (प्रातः) प्रतिदिनम्=प्रतिदिन, (जगम्यात्) पुनः पुनः प्राप्नुयात्=बार-बार प्राप्त कराता है, (एतत्)=इसे, (भरेत्)=धारण करे, (च)=और, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=तुम, (एतत्)=इस, (सर्वम्)=सब को, (मक्षु) शीघ्रम्=शीघ्र, (आ) समन्तात्=हर ओर से, (भर) धर=धारण करो ॥९॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    जैसे बिजली और सूर्य आदि रूप से सब जगत् को पोषित करता है, वैसे ही सभा आदि के अध्यक्ष आदि उत्तम धन आदि युक्त प्रजा को करें, अर्थात् प्रजा को उत्तम धन आदि युक्त बनायें ॥९॥

    विशेष

    महर्षिकृत सूक्त के भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस सूक्त में ईश्वर, सभा आदि के अध्यक्ष और अग्नि के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥९॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (इन्द्र) सभा आदि के अध्यक्ष ! (ते) तुम्हारे, (यैः) जिन (गोतमेभिः) विद्या आदि शुभ गुणों वाले विद्वान् (सुशिक्षितैः) सुशिक्षित (पुरुषैः) पुरुषों के द्वारा (नमसा) अन्न से, (हरिभ्याम्) हरणशील बल और पराक्रम से, (यानि) जो (ओक्ता) हर ओर से कहे गये और प्रशंसित (ब्रह्माणि) बहुत से अन्न या धन [प्रदान] (अकारि) करते हैं। (तैः) उनके (सह) साथ (नः) हमारे लिये, (यथा) जैसे (धियावसुः) कर्म और प्रज्ञा नाम के सुखों में रहनेवाले, (सुपेशसम्) उत्तम रूपोंवाले और (वाजम्) विशेष ज्ञान को प्रदान करनेवाला (प्रातः) प्रतिदिन (जगम्यात्) बार-बार प्राप्त कराता है, वह (एतत्) इसे (भरेत्) धारण करे। (च) और (तथा) वैसे ही (त्वम्) तुम (एतत्) इस (सर्वम्) सब को (मक्षु) शीघ्र (आ) हर ओर से (भर) धारण करो ॥९॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (अकारि) क्रियते (ते) तव (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष (गोतमेभिः) ये गच्छन्ति जानन्ति प्राप्नुवन्ति विद्यादिशुभान् गुणांस्तैर्विद्वद्भिः किरणैर्वा। गौरिति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.१) (ब्रह्माणि) बृहत्तमान्यन्नानि धनानि वा (ओक्ता) समन्तादुक्तानि प्रशंसितानि (नमसा) अन्नेन। नम इति अन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.७) वज्रनामसु पठितम्। (निघं०२.२) (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्याम् बलपराक्रमाभ्याम् (सुपेशसम्) शोभनानि पेशांसि रूपाणि यस्मात्तम् (वाजम्) विज्ञानकरम् (आ) समन्तात् (भर) धर (नः) अस्मभ्यम् (प्रातः) प्रतिदिनम् (मक्षु) शीघ्रम् (धियावसुः) कर्मप्रज्ञाभ्यां सुखेषु वासयिता (जगम्यात्) पुनः पुनः प्राप्नुयात् ॥९॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे इन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! ते तव यैर्गोतमेभिः सुशिक्षितैः पुरुषैर्नमसा हरिभ्यां यान्योक्ता ब्रह्माण्यकारि तैः सह नोऽस्मभ्यं यथा धियावसुः सुपेशसं वाजं प्रातर्जगम्यादेतद्भरेच्च तथा त्वमेनत् सर्वं मक्ष्वाभर ॥९॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा विद्युत्सूर्य्यादिरूपेण सर्वं जगत्पोषति तथैव सभाद्यध्यक्षादयः प्रशस्तैर्धनादिभिर्युक्तां प्रजां कुर्य्युः ॥९॥ सूक्तस्य भावार्थः(महर्षिकृतः)- अस्मिन् सूक्त ईश्वरसभाद्यध्यक्षाग्निगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥९॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी विद्युत सूर्य इत्यादी रूपाने सर्व जगाला आनंद देते तसे सभाध्यक्ष इत्यादींनीही उत्तम धन व श्रेष्ठ गुणांनी प्रजेला पुष्ट करावे. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of the world, by the most eminent sages of vision and intelligence, like fast motions of light rays for the sun, songs of homage have been presented with heart and soul with offerings of faith and reverence and sung for you.$May the same lord of wealth and intelligence come to us and bless us with wondrous wealth of food, light and energy at the break of dawn.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is he (Indra) is taught further in the ninth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra ( President of the Assembly) praises have been offered to thee by highly educated persons. They have been uttered to thee with great reverence and with force and strength which remove all misery. Grant us various kinds of food and knowledge. The person who causes us to remain in happiness with action and gives us knowledge that makes us beautiful may come to us in the morning again and again.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (गोतमेभिः) ये गछन्ति जानन्ति प्राप्नुवन्ति विद्यदिशुभान्गुणान् तैर्विद्वद्भिः किरणैर्वा । =By the learned who know and acquire knowledge and other divine attributes. (हरिभ्याम्) हरणशीलाभ्यां बलपराक्रमाभ्याम्। = By force and strength which remove all evils. (सुपेशसम्) शोभनानि पेशांसि ( रूपाणि) यस्मात्तम् ।

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As electricity supports this universe in the form of the sun and other luminaries, in the same menner, the President of the Assembly etc. should make people endowed with admirable wealth.

    Translator's Notes

    In this hymn also the attributes of God, fire and President of the Assembly have been mentioned, so it is connected with the previous hymn. Here ends the commentary on the 63rd hymn of fifth varga of the 1st Mandala of Rigveda.

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    Subject of the mantra

    Even then, this topic has been preached in this mantra as to how the said Chairman of the assembly should be.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra)=Chairman of the Assembly etc.! (te) =your, (yaiḥ) =those, (gotamebhiḥ)=scholar with auspicious qualities like knowledge etc., (suśikṣitaiḥ) =well educated, (puruṣaiḥ) =by men, (namasā) =by food, (haribhyām)=by nature of stealing and bravery, (yāni) =those, (oktā) =said from all sides and praised, (brahmāṇi)= a lot of food or money, [pradāna]=provide, (akāri) =do, (taiḥ) =their, (saha)=with, (naḥ) =for us, (yathā) =like, (dhiyāvasuḥ)=Those who live in the happiness of Karma and wisdom, (supeśasam) =those with perfect forms and, (vājam)=imparter of special knowledge, (prātaḥ) =everyday, (jagamyāt) =gets obtained again and again, he (etat) =to this, (bharet) =must possess, (ca) =and, (tathā) =similarly, (tvam) =you, (etat) =to this, (sarvam) =to all, (makṣu)= quickly, (ā) =from all sides, (bhara) =possess.

    English Translation (K.K.V.)

    O Chairman of the Assembly etc.! You are provided with food and wealth by learned, well-educated men with auspicious qualities like knowledge, etc., who are spoken about and praised from all sides by their nature of stealing and bravery. Along with them, as the one who lives in the pleasures of action and wisdom, has excellent forms and imparts special knowledge, makes us attain it again and again every day, let him possess it. And in the same way, you quickly possess all this from every side.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as lightning and the Sun nourish the whole world, in the same way, the Chairman of the Assembly etc. should provide the subjects with good wealth etc., that is, make the subjects with good wealth et cetera. Translation of gist of the hymn by Maharshi Dayanand-Due to the description of God, the Chairman of the Assembly etc. and the qualities of fire in this hymn, the interpretation of this hymn should be understood to be consistent with the interpretation of the previous hymn.

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