ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 64/ मन्त्र 1
वृष्णे॒ शर्धा॑य॒ सुम॑खाय वे॒धसे॒ नोधः॑ सुवृ॒क्तिं प्र भ॑रा म॒रुद्भ्यः॑। अ॒पो न धीरो॒ मन॑सा सु॒हस्त्यो॒ गिरः॒ सम॑ञ्जे वि॒दथे॑ष्वा॒भुवः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठवृष्णे॑ । शर्धा॑य । सुऽम॑खाय । वे॒धसे॑ । नोधः॑ । सु॒ऽवृ॒क्तिम् । प्र । भ॒र॒ । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । अ॒पः । न । धीरः॑ । मन॑सा । सु॒ऽहस्त्यः॑ । गिरः॑ । सम् । अ॒ञ्जे॒ । वि॒दथे॑षु । आ॒ऽभुवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृष्णे शर्धाय सुमखाय वेधसे नोधः सुवृक्तिं प्र भरा मरुद्भ्यः। अपो न धीरो मनसा सुहस्त्यो गिरः समञ्जे विदथेष्वाभुवः ॥
स्वर रहित पद पाठवृष्णे। शर्धाय। सुऽमखाय। वेधसे। नोधः। सुऽवृक्तिम्। प्र। भर। मरुत्ऽभ्यः। अपः। न। धीरः। मनसा। सुऽहस्त्यः। गिरः। सम्। अञ्जे। विदथेषु। आऽभुवः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 64; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ वायुस्वरूपगुणदृष्टान्तेन विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे नोधो मनुष्य ! आभुव अपो नेव धीरः सुहस्त्योऽहं वृष्णे शर्द्धाय वेधसे सुमखाय मनसा मरुद्भ्यो विदथेषु गिरः सुवृक्तिं च समञ्जे तथैव त्वं प्रभर ॥ १ ॥
पदार्थः
(वृष्णे) वृष्टिकर्त्रे (शर्द्धाय) बलाय (सुमखाय) शोभनाय चेष्टासाध्याय यज्ञाय (वेधसे) धारणाय। अत्र विधाञो वेध च। (उणा०४.१३२) अनेनास्य सिद्धिः। (नोधः) स्तावकः (सुवृक्तिम्) वर्जयन्त्यनया सा शोभना चासौ वृक्तिश्च ताम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (भर) धर (मरुद्भ्यः) वायुभ्यः (अपः) प्राणान् कर्माणि वा (न) इव (धीरः) संयमी विद्वान् मनुष्यः (मनसा) विज्ञानेन (सुहस्त्यः) शोभनहस्तक्रियाः सुहस्तास्तासु साधुः (गिरः) वाचः (सम्) सम्यक् (अञ्जे) स्वेच्छया गृह्णामि (विदथेषु) युद्धादिचेष्टामययज्ञेषु (आभुवः) समन्ताद्भवन्ति ये या वा तान् ता वा ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यावच्चेष्टा भावना बलं विज्ञानं पुरुषार्थो धारणं विसर्जनं वचनं श्रवणं वृद्धिः क्षयः क्षुत्पिपासादिकं च भवति तावत् सर्वं वायुनिमित्तेनैव जायत इति वेद्यम्। यादृशीमेतां विद्यामहं जानामि तादृशीमेव त्वमपि गृहाणेति सर्वदोपदेष्टव्यम् ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब चौसठवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है, उसके पहिले मन्त्र में वायु के गुणों के दृष्टान्त से विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे (नोधः) स्तुति करनेवाले मनुष्य ! (आभुवः) अच्छे प्रकार उत्पन्न होनेवाले (अपः) कर्म वा प्राणों के समान (धीरः) संयम से रहनेवाला विद्वान् (सुहस्त्यः) उत्तम हस्तक्रियाओं में कुशल मैं (मनसा) विज्ञान और (मरुद्भ्यः) पवनों के सकाश से (विदथेषु) युद्धादि चेष्टामय यज्ञों में (गिरः) वाणी (सुवृक्तिम्) उत्तमता से दुष्टों को रोकनेवाली क्रिया को (समञ्जे) अपनी इच्छा से ग्रहण करता हूँ, वैसे ही तू (प्रभर) धारण कर ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जितनी चेष्टा, भावना, बल, विज्ञान, पुरुषार्थ धारण करना, छोड़ना, कहना, सुनना, बढ़ना, नष्ट होना, भूख, प्यास आदि हैं, वे सब वायु के निमित्त से ही होते हैं। जिस प्रकार कि इस विद्या को मैं जानता हूँ, वैसे ही तू भी ग्रहण कर, ऐसा उपदेश सबको करो ॥ १ ॥
विषय
प्राणायाम व प्रभु का उपासन
पदार्थ
१. हे (नोधः) = इन्द्रियनवक का धारण करनेवाले । [पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ = ९ , क्योंकि जिह्वा दोनों ओर है], तू उस प्रभु के लिए (सुवृक्तिम्) = उत्तमता से आवर्जित करनेवाले स्तोत्र को प्रभर प्रकर्षेण सम्पादित कर, जो प्रभु (वृष्णे) = सुखों की वृष्टि करनेवाले हैं, (शर्धाय) = [शर्ध - Strength, power] जो शक्ति के पुज हैं, (सुमखाय) = सृष्टिरूप उत्तम यज्ञ को करनेवाले हैं, (वेधसे) = विधाता हैं, सृष्टिनिर्माता हैं व बुद्धिमान् हैं । २. (मरुद्भ्यः) = [मरुतः प्राणाः] प्राणों का भी स्तवन कर । अथवा इन प्राणों के द्वारा तू अपने अन्दर (सुवृक्तिम्) = उत्तमता से पापवर्जन करनेवाला हो । प्राणसाधना से बुराइयों को दूर कर । (न) = जैसे (धीरः) = धैर्यवान् और ज्ञानी बनकर (सुहस्त्यः) = उत्तम हाथोंवाला होता हुआ (अपः) = कर्मों को तू (मनसा) = मन से धारण करे, उसी प्रकार (विदथेषु) = ज्ञानयज्ञों में (आभुवः) = सब विषयों में होनेवाली, अर्थात् सब पदार्थों का ज्ञान देनेवाली (गिरः) = वेदवाणियों को (समञ्जे) = मैं तुझे व्यक्त करता हूँ । जितना - जितना हम धीर व सुहस्त बनकर कर्म करते हैं, उतना - उतना प्रभु हमें ज्ञान देनेवाले होते हैं । अकर्मण्य को ज्ञान प्राप्त नहीं होता ।
भावार्थ
भावार्थ - [क] हम प्रभु का स्तवन करें, [ख] प्राणसाधना करें, [ग] धीर व सुहस्त्य बनकर कर्म करें, [घ] प्रभु हमारे लिए वेदवाणियों का उपदेश करेंगे ।
विषय
विद्वान् का कर्तव्य ।
भावार्थ
हे (नोधः) यथार्थ सत्य विज्ञान के उपदेश और प्रवचन को धारण करने हारे विद्वन् ! तू ( वृष्णे ) जल वर्षण करने वाले मेघ और ( शर्धाय ) घोर गर्जन करने वाले विद्युत्, ( सुमखाय ) पृथ्वी से सूर्य की किरणों द्वारा जल का वायु में आना और फिर वृष्टि द्वारा बरसना, अन्न का उत्पन्न होना, पुनः प्राणियों द्वारा खाया जाकर जीव सन्तति रूप से उत्पन्न होना आदि उत्तम यज्ञ के लिये और (वेधसे) विविध जल आदि पदार्थों के धारण करने के लिये ( मरुद्भ्यः ) वायुओं की ( सुवृक्तिम् ) उत्तम रीति से अज्ञान को दूर करने वाली स्तुति या वर्गन (प्र भर) कर । इसी प्रकार ( वृष्णे ) सब सुखों के वर्षाने वाले राजा की वृद्धि के लिये, (शर्धाय) राष्ट्र की बल वृद्धि के लिये, ( सुमखाय ) राष्ट्र में उत्तम यज्ञों, धार्मिक कार्यों के सम्पादन के लिये और ( वेधसे ) राष्ट्र में विविध ऐश्वर्यों और व्यवस्थाओं के धारण के लिये ( मरुद्भ्यः ) विद्वान् और वायु के समान बलशाली वीर पुरुषों के ( सुवृक्तिम् ) उत्तम, दोष निवारक गुण स्तुति को ( प्र भर ) प्रकट कर । ( धीरः ) बुद्धिमान् पुरुष जिस प्रकार ( मनसा ) मनसे विचार कर ( गिरः ) ज्ञान वाणियों को प्रकट करता है और ( सुहस्त्यः ) उत्तम हस्त क्रियाओं में कुशल पुरुष जिस प्रकार (अपः न) नाना कर्मों, विज्ञानों तथा हाथों द्वारा बनाये जाने योग्य उत्तम शिल्पों को प्रकट करता है उसी प्रकार मैं (सुहस्त्यः) उत्तम हस्त क्रियाओं में कुशल, सिद्धहस्त होकर ( विदथेषु ) संग्राम आदि कार्यों में (आभुवः) सब तरफ़ सामर्थ्य प्रकट करने वाले, (अपः) कर्म कौशलों और शस्त्र संचालन, सेना संचालन आदि क्रियाओं को ( सम् अञ्जे ) प्रकट करूं और मैं ही (धीरः) धीर, संयमी, वाग्मी होकर ( मनसा ) ज्ञानपूर्वक ( आभुवः ) सब प्रकार से सफल होने वाली ( गिरः ) आज्ञाओं और वाणियों का (सम् अञ्जे) प्रकाश करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ अग्निर्मरुतश्च देवताः । छन्दः—१, ४, ६,९ विराड् जगती । २, ३, ५, ७, १०—१३ निचृज्जगती ८, १४ जगती । १५ निचृत्त्रिष्टुप् ॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अब चौसठवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है, उसके पहले मन्त्र में वायु के गुणों के दृष्टान्त से विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे नोधः मनुष्य ! आभुव अपः न इव धीरः सुहस्त्यः अहं वृष्णे शर्द्धाय वेधसे सुमखाय मनसा मरुद्भ्यः विदथेषु गिरः सुवृक्तिं च सम् अञ्जे तथैव त्वं प्र भर ॥१॥
पदार्थ
हे (नोधः) स्तावकः= स्तुति करनेवाले, (मनुष्य)=मनुष्य ! (आभुवः) समन्ताद्भवन्ति ये या वा तान् ता वा=हर ओर से होनेवाले, (अपः) प्राणान् कर्माणि वा=प्राण और कर्मों के, (न) इव=समान, (धीरः) संयमी विद्वान् मनुष्यः= संयमी विद्वान् मनुष्य, (सुहस्त्यः) शोभनहस्तक्रियाः सुहस्तास्तासु साधुः= उत्तम हाथों की क्रिया में निपुण, (अहम्)=मैं, (वृष्णे) वृष्टिकर्त्रे=वर्षा करनेवाले, (शर्द्धाय) बलाय=बल के लिये, (वेधसे) धारणाय=धारण करने के लिये, (सुमखाय) शोभनाय चेष्टासाध्याय यज्ञाय=उत्तम प्रयासों से सिद्ध किये जानेवाले यज्ञों के लिये, (मनसा) विज्ञानेन=विशेष ज्ञान से, (मरुद्भ्यः) वायुभ्यः=वायु के लिये, (विदथेषु) युद्धादिचेष्टामययज्ञेषु=युद्ध आदि प्रयासों से सिद्ध किये जानेवाले यज्ञों में, (गिरः) वाचः=वाणी, (सुवृक्तिम्) वर्जयन्त्यनया सा शोभना चासौ वृक्तिश्च ताम्= उत्तमता से दुष्टों को रोकनेवाली क्रिया से (च)=भी, (सम्) सम्यक्=अच्छी तरह से, (अञ्जे) स्वेच्छया गृह्णामि=अपनी इच्छा से ग्रहण करता हूँ, (तथैव)=वैसे ही, (त्वम्)= तुम, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (भर) धर=धारण करो ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा जब तक प्रयास, भावना, बल, विशेष ज्ञान, पुरुषार्थ को धारण करना और छोड़ना, शब्दों को सुनना, वृद्धि और नाश, भूख और प्यास आदि होते हैं, तब तक सब वायु के कारण से ही होते हैं, ऐसा जानना चाहिए। जिस प्रकार कि इस विद्या को मैं जानता हूँ, वैसे ही तुम भी ग्रहण करो और सबको उपदेश करो ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (नोधः) स्तुति करनेवाले (मनुष्य) मनुष्य ! (आभुवः) हर ओर से होनेवाले (अपः) प्राण और कर्मों के (न) समान, (धीरः) संयमी विद्वान् मनुष्य (सुहस्त्यः) उत्तम हाथों की क्रिया में निपुण (अहम्) मैं (वृष्णे) वर्षा करनेवाले (शर्द्धाय) बल और (वेधसे) धारण करने के लिये (सुमखाय) उत्तम प्रयासों से सिद्ध किये जानेवाले यज्ञों के लिये (मनसा) विशेष ज्ञान से (मरुद्भ्यः) वायु के लिये (विदथेषु) युद्ध आदि प्रयासों से सिद्ध किये जानेवाले यज्ञों में (गिरः) वाणी जो (सुवृक्तिम्) उत्तमता से दुष्टों को रोकनेवाली क्रिया से (च) भी (सम्) अच्छी तरह से (अञ्जे) अपनी इच्छा से ग्रहण करता हूँ। (तथैव) वैसे ही (त्वम्) तुम (प्र) प्रकृष्ट रूप से (भर) धारण करो ॥१॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वृष्णे) वृष्टिकर्त्रे (शर्द्धाय) बलाय (सुमखाय) शोभनाय चेष्टासाध्याय यज्ञाय (वेधसे) धारणाय। अत्र विधाञो वेध च। (उणा०४.१३२) अनेनास्य सिद्धिः। (नोधः) स्तावकः (सुवृक्तिम्) वर्जयन्त्यनया सा शोभना चासौ वृक्तिश्च ताम् (प्र) प्रकृष्टार्थे (भर) धर (मरुद्भ्यः) वायुभ्यः (अपः) प्राणान् कर्माणि वा (न) इव (धीरः) संयमी विद्वान् मनुष्यः (मनसा) विज्ञानेन (सुहस्त्यः) शोभनहस्तक्रियाः सुहस्तास्तासु साधुः (गिरः) वाचः (सम्) सम्यक् (अञ्जे) स्वेच्छया गृह्णामि (विदथेषु) युद्धादिचेष्टामययज्ञेषु (आभुवः) समन्ताद्भवन्ति ये या वा तान् ता वा ॥१॥ विषयः- अथ वायुस्वरूपगुणदृष्टान्तेन विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे नोधो मनुष्य ! आभुव अपो नेव धीरः सुहस्त्योऽहं वृष्णे शर्द्धाय वेधसे सुमखाय मनसा मरुद्भ्यो विदथेषु गिरः सुवृक्तिं च समञ्जे तथैव त्वं प्रभर ॥१॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यावच्चेष्टा भावना बलं विज्ञानं पुरुषार्थो धारणं विसर्जनं वचनं श्रवणं वृद्धिः क्षयः क्षुत्पिपासादिकं च भवति तावत् सर्वं वायुनिमित्तेनैव जायत इति वेद्यम्। यादृशीमेतां विद्यामहं जानामि तादृशीमेव त्वमपि गृहाणेति सर्वदोपदेष्टव्यम् ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात वायूच्या गुणांचा उपदेश असल्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी हे जाणावे की प्रयत्न भावना, बल, विज्ञान, पुरुषार्थधारण, विसर्जन, वचन, श्रवण, वृद्धी, क्षय, भूक, तहान इत्यादी वायूच्या निमित्तानेच होतात. ‘ज्या प्रकारे या विद्येला मी जाणतो तसेच तू ही ग्रहण कर’ असा उपदेश सर्वांना करावा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Nodha, poet of vision and wisdom, come and sing a song of celebration in selected words of pure beauty for the generous, mighty and omniscient lord of universal yajna and in honour of the Maruts, divine energies of universal motion. Settled and constant, pure and fluent as waters, dexterous of hand in structure and form, with heart and soul I compose, adorn and chant holy voices revealed in meditation, presenting themselves as celebrants of the Lord.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of learned persons are taught by the illustration of the winds.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O praiser of true knowledge, rightly praise the attributes of the winds which cause rain, strength-upholding of various objects and noble Yajna. As a patient man utters words after full deliberation and as an artist, gives expression to various acts, in the same manner, I being well-versed in various indurtries and martial activities express myself in the Yajnas of various kinds including the battles. You should also do like that.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सुमखाय) शोभनाय चेष्टासाध्याय यज्ञाय = For noble Yajna done with labour. (विदथेषु) युद्धादिचेष्टामययज्ञेषु = In the Yajnas of various kinds including the battles. (मरुद्भ्यः) वायुभ्यः = For the winds.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that whatever is the movement, force, knowledge, exertion, speech, hearing, growth, decay, hunger and thirst, it is all caused by the air. They should rightly preach the science of air to others.
Subject of the mantra
Now there is start of sixty-fourth hymn, in its first mantra the qualities of a scholar have been preached with the example of the qualities of air.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (nodhaḥ)= who praises, (manuṣya) =man, (ābhuvaḥ) =happening from all sides, (apaḥ) =of life-breath and karma, (na)= like, (dhīraḥ)= sober learned man, (suhastyaḥ) =skilled in fine action of hand, (aham) =I, (vṛṣṇe)= rainmakers, (śarddhāya) =force and, (vedhase) =for possessing, (sumakhāya)= for yajnas to be accomplished with best efforts, (manasā)= with special knowledge, (marudbhyaḥ) =for air, (vidatheṣu)=In the yajnas accomplished through efforts like war etc., (giraḥ) =speech that, (suvṛktim)=by the action of stopping the evil ones from the best, (ca) =also, (sam) =properly, (añje)= I accept it as per my wish, (tathaiva) =similarly, (tvam) =you, (pra) =excellently, (bhara) =possess.
English Translation (K.K.V.)
O man who praises! Like the life and actions taking place from all sides, a man with discipline and knowledge is adept in the use of excellent hands, I am adept in the power of rain and in the yajnas to be accomplished with best efforts to wear them, in fighting for air with special knowledge and by efforts etc. Among the yajnas to be performed, I accept with my own will the speech which is excellent in stopping the wicked, even better than the action which prevents evil. Similarly, you should possess it excellently.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. As long as human beings have efforts, emotions, strength, special knowledge, adopting and releasing efforts, listening to words, growth and destruction, hunger and thirst, etc., all are due to air only, it should be known. Just as I know this knowledge, you should accept it and preach it to everyone as well.
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