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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 65/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    प॒श्वा न ता॒युं गुहा॒ चत॑न्तं॒ नमो॑ युजा॒नं नमो॒ वह॑न्तम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒श्वा । न । ता॒युम् । गुहा॑ । चत॑न्तम् । नमः॑ । यु॒जा॒नम् । नमः॑ । वह॑न्तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पश्वा न तायुं गुहा चतन्तं नमो युजानं नमो वहन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पश्वा। न। तायुम्। गुहा। चतन्तम्। नमः। युजानम्। नमः। वहन्तम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 65; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथान्तर्व्याप्तोऽग्निरुपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सर्वविद्याभिव्याप्त सभेश्वर ! यजत्राः सजोषा धीरा विद्वांसः पदैः पश्वा तायुं नेव यं गुहा बुद्धौ चतन्तं नमो युजानं नमो वहन्तं त्वा त्वामनुग्मन्। उपसीदन् त्वां प्राप्य त्वय्यवतिष्ठन्ते वयमप्येवं प्राप्यावतिष्ठामहे ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (पश्वा) अपहृतस्य पशोः स्वरूपाङ्गपादचिह्नान्वेषणेन (न) इव (तायुम्) चोरम्। तायुरिति स्तेननामसु पठितम्। (निघं०३.२४) (गुहा) गुहायां सर्वपदार्थानां मध्ये। अत्र सुपां सुलुगिति सप्तम्याडादेशः। (चतन्तम्) गच्छतं व्याप्तम्। चततीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४) (नमः) अन्नम्। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.२०) (युजानम्) समादधानम्। अत्र बाहुलकादौणादिक आनच् प्रत्ययः किच्च। (नमः) सत्कारमन्नं वा (वहन्तम्) प्राप्नुवन्तम् (सजोषाः) सर्वत्र समानप्रीतिसेवनाः (धीराः) मेधाविनो विद्वांसः (पदैः) प्रत्यक्षेण प्राप्तैर्गुणनियमैः (अनु) पश्चात् (ग्मन्) प्राप्नुवन्ति। अत्र गमधातोर्लुङि मन्त्रे घस० इति च्लेर्लुक्। गमहनेत्युपधालोपोऽडभावो लडर्थे लुङ् च। (उप) सामीप्ये (त्वा) त्वां सभेश्वरम् (सीदन्) अवतिष्ठन्ते। अत्राप्यडभावो लडर्थे लुङ् च। (विश्वे) सर्वे (यजत्राः) पूजका उपदेशका सङ्गतिकर्त्तारो दातारश्च ॥ १ ॥

    भावार्थः

    हे मनुष्याः ! यथा स्तेनस्य पदाङ्गस्वरूपप्रेक्षणेन चोरं प्राप्य पश्वादिः पदार्थान् गृह्णन्ति, तथैवात्मान्तरुपदेष्टारं सर्वाधारं ज्ञानगम्यं परमेश्वरं प्राप्य सर्वानन्दं स्वीकुरुत ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब पैंसठवें सूक्त का आरम्भ है। इसके पहिले मन्त्र में सर्वत्र व्यापक अग्नि शब्द का वाच्य जो पदार्थ है, उसका उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे सर्वविद्यायुक्त सभेश ! (विश्वे) सब (यजत्राः) संगतिप्रिय (सजोषाः) सब तुल्य प्रीति को सेवन करनेवाले (धीराः) बुद्धिमान् लोग (पदैः) प्रत्यक्षप्राप्त जो गुणों के नियम उन्हीं से (न) जैसे (पश्वा) पशु को ले जानेवाले (तायुम्) चोर को प्राप्त कर आनन्द होता है, वैसे जिस (गुहा) गुफा में (चतन्तम्) व्याप्त (नमः) वज्र के समान आज्ञा का (युजानम्) समाधान करने (नमः) सत्कार को (वहन्तम्) प्राप्त करते हुए (त्वा) आपको (अनुग्मन्) अनुकूलतापूर्वक प्राप्त तथा (उपसीदन्) समीप स्थित होते हैं, उस आपको हम लोग भी इस प्रकार प्राप्त होके आपके समीप स्थिर होते हैं ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोग जैसे वस्तु को चुराए हुए चोर के पाद आदि अङ्ग वा स्वरूप देखने से उसको पकड़कर चोरे हुए पशु आदि पदार्थों का ग्रहण करते हो, वैसे अन्तःकरण में उपदेश करनेवाले, सबके आधार विज्ञान से जानने योग्य परमेश्वर तथा बिजुलीरूप अग्नि को जान और प्राप्त होके सब आनन्द को स्वीकार करो ॥ १ ॥

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    विषय

    धीर, सजोष व यजत्र

    पदार्थ

    १. (पश्वा न) = [पश्यति] सबके द्रष्टारूप से (तायुम्) = सबका पालन करनेवाले प्रभु को (अनुग्मन् )- प्राप्त करते हैं । प्रभु सबका ध्यान करते हैं [Look after], सबकी आवश्यकताओं को जानते हैं । उन आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए सबका पालन करते हैं । २. वे प्रभु (गुहा चतन्तम्) = हृदयरूप गुहा में गति करते हैं गुहा - चरन् नाम । हमारे हृदयों में निवास के कारण हमारी सब हम अपने को उतना नहीं जानते, जितना कि प्रभु । ३. (नमः युजानम्) = सब प्रकार के अन्नैश्वर्यो को अपने साथ जोड़ते हुए उस प्रभु को प्राप्त करते हैं । सम्पूर्ण अन्नों व ऐश्वर्यों के स्वामी वे प्रभु ही हैं । (नमः वहन्तम्) = इस अन्न व ऐश्वर्य को वे जीवों को यथोचित रूप से प्राप्त कराते हैं । ४. इस प्रभु को (धीराः) = [धियि रमते] बुद्धि में रमण करनेवाले, ज्ञानप्रधान रुचिवाले लोग प्राप्त करते हैं । वे धीरपुरुष जोकि (सजोषाः) = अपने कर्तव्यकर्मों का प्रीतिपूर्वक सेवन करते हैं [जुषी प्रीतिसेवनयोः] । ५. वे प्राप्त करते हैं (पदैः) = शब्दों से, ज्ञान की वाणियों से तथा पद् गतौ गतियों से, कर्मों से । ‘धीराः’ का सम्बन्ध ज्ञान की वाणियों से है और ‘सजोषाः’ का सम्बन्ध कर्मों से । ६. हे प्रभो ! (विश्वे) = सब (यजत्राः) = यज्ञ के द्वारा अपना त्राण करनेवाले लोग (त्वा) = आपके (उप) = समीप (सीदन्) = आसीन होते हैं । “यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः” उस यज्ञपुरुष प्रभु की उपासना यज्ञों द्वारा ही होती है । यज्ञ के अन्तर्गत देवपूजा, संगतिकरण व दान ही प्रमुख धर्म हैं - “तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्” इन धर्मों के पालन से हम प्रभु के समीप होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - धीर, सजोष व यजत्र ही प्रभु की प्राप्ति करते हैं । प्रभु की सच्ची उपासना यही है कि हम ज्ञान में रमण करें [धीर], अपने कर्तव्यों का प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले हों [सजोष], यज्ञात्मक कर्मों के द्वारा अपना रक्षण करें [यज्ञत्र] ।

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    विषय

    अग्नि, परमेश्वर, विद्वान्, का वर्णन ।

    भावार्थ

    (धीराः) धीर, बुद्धिमान् पुरुष जिस प्रकार ( गुहा चतन्तम् ) वन गुफा में छिपे हुए (पश्चा) पशु के साथ विद्यमान (तायुम्) चोर को (पदैः) उसके चरणचिह्नों से ( अनुग्मन्) पीछा करते हैं उसी प्रकार हे परमेश्वर ! हे आत्मन् ! (पश्चा) सबके द्रष्टा रूप से ( गुहा चतन्तं ) ब्रह्माण्ड रूप गुहा या हृदय रूप गुहा में व्यापक, ( तायुम् ) सबके पालक (नमः) अन्न, ऐश्वर्य, पद या सर्व वशकारी बल को ( युजानं ) अपने में धारण करने वाले ( नमः वहन्तम् ) सबके पोषक अन्न और सबके भक्तिभाव को धारण करते हुए ( त्वा ) तुझको ( सजोषाः ) समान प्रेम से तेरा सेवन करने हारे, ( धीराः ) ध्यानवान्, ( विश्वे ) समस्त ( यजत्राः ) उपासक, सत्संगी पुरुष (पदैः) ज्ञान साधनों से ( उपग्मन् ) तुझे प्राप्त होते हैं और ( विश्वे ) वे सब ( त्वा उपसीदन् ) तेरे ही आश्रय पर रहते हैं । राजा के पक्ष में—( पश्चा) पशु सम्पत्ति के साथ विद्यमान (गुहा) राष्ट्र रूप गुफा में रहने वाले ( नमः ) आदर, अन्न, पदाधिकार ऐश्वर्य आदि के धारण करने और प्राप्त कराने वाले को विद्वान पुरुष प्रेम युक्त होकर ( पदैः ) प्राप्तव्य पदाधिकारों से उसके अनुकूल रहें और (यजत्राः) उसके साथ संघ बना कर उसके आश्रय पर रहें । अग्नि के पक्ष में—सब पदार्थों के भीतर वर्त्तमान अन्नादि को खाने वाले जन अग्नि को उपायों से प्राप्त करें । यज्ञशील वेद मन्त्रों से उपासना करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१–४, ५ निचृपङ्क्तिः । ४ विराट् पंक्तिः ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    अब पैंसठवें सूक्त का आरम्भ है। इसके पहले मन्त्र में सर्वत्र व्यापक अग्नि शब्द का वाच्य जो पदार्थ है, उसका उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    हे सर्वविद्याभिव्याप्त सभेश्वर ! {विश्वे} यजत्राः सजोषाः धीराः विद्वांसः पदैः पश्वा तायुं न इव यं गुहा बुद्धौ चतन्तं नमः युजानं नमः वहन्तं त्वा त्वाम् अनु ग्मन् उप सीदन् त्वां प्राप्य त्वयि अवतिष्ठन्ते वयम् अपि एवं प्राप्य अवतिष्ठामहे ॥१॥

    पदार्थ

    हे (सर्वविद्याभिव्याप्त सभेश्वर)=समस्त विद्याओं से युक्त सभा के स्वामी ! {विश्वे} सर्वे=समस्त, (यजत्राः) पूजका उपदेशका सङ्गतिकर्त्तारो दातारश्च=पूजा करनेवाले, सत्सङ्ग करनेवाले और दाता, (सजोषाः) सर्वत्र समानप्रीतिसेवनाः=सब स्थानों में प्रीति से सेवा करनेवाले, (धीराः) मेधाविनो विद्वांसः=मेधावी, (विद्वांसः)= विद्वान्, (पदैः) प्रत्यक्षेण प्राप्तैर्गुणनियमैः= प्रत्यक्ष प्राप्त हुए गुणों के नियमों से, (पश्वा) अपहृतस्य पशोः स्वरूपाङ्गपादचिह्नान्वेषणेन=चोरी से ले जाये गये पशु के पद चिह्नों की खोज से, (तायुम्) चोरम्=चोर के, (न) इव=समान, (यम्)=जिसको, (गुहा) गुहायां सर्वपदार्थानां मध्ये= गुफा में सब पदार्थों के बीच में, (बुद्धौ)= बुद्धि में, (चतन्तम्) गच्छतं व्याप्तम्=प्राप्त होकर व्याप्त हुए, (नमः) अन्नम्=अन्न को, (युजानम्) समादधानम्= अच्छी तरह से धारण करते हुए, (नमः) सत्कारमन्नं वा =सत्कार अथवा अन्न को, (वहन्तम्) प्राप्नुवन्तम्=प्राप्त करते हुए, (त्वा) त्वां सभेश्वरम्=तुम सभा के स्वामी के, (अनु) पश्चात्=पश्चात्, (ग्मन्) प्राप्नुवन्ति=प्राप्त करते हैं और (उप) सामीप्ये=समीप में, (सीदन्) अवतिष्ठन्ते= स्थिर होते हैं, (त्वाम्)=तुमको, (प्राप्य)=प्राप्त करके, (त्वयि)=तुम्हारे, (अवतिष्ठन्ते)=बैठने पर, (वयम्) =हम, (अपि)=भी, (एवम्)=ऐसे ही, (प्राप्य)=पहुँच कर, (अवतिष्ठामहे)= स्थिर होवें ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    हे मनुष्यों ! जैसे चुराए हुए चोर के पैर आदि अंगों के चिह्नों को देखने से चोर को पकड़कर चुराये हुए पशु आदि पदार्थों को ग्रहण करते हो, वैसे ही आत्मा के स्वरूप का उपदेश करनेवाले, सबके आधार ज्ञान से जानने योग्य योग्य परमेश्वर को प्राप्त करके समस्त आनन्द को स्वीकार करो

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    हे (सर्वविद्याभिव्याप्त सभेश्वर) समस्त विद्याओं से युक्त सभा के स्वामी ! {विश्वे} समस्त (यजत्राः) पूजा करनेवाले, सत्सङ्ग करनेवाले और दाता, (सजोषाः) सब स्थानों में प्रीति से सेवा करनेवाले, (धीराः) मेधावी, (विद्वांसः) विद्वान्, (पदैः) प्रत्यक्ष प्राप्त हुए गुणों के नियमों से, (पश्वा) चोरी से ले जाये गये पशु के पद चिह्नों की खोज से, (तायुम्) चोर के (न) समान (यम्) जिसको (गुहा) गुफा में सब पदार्थों के बीच (बुद्धौ) बुद्धि में (चतन्तम्) प्राप्त करके व्याप्त हुए (नमः) अन्न को (युजानम्) अच्छी तरह से धारण करते हुए, (नमः) सत्कार अथवा अन्न को (वहन्तम्) प्राप्त करते हुए, (त्वा) तुम सभा के स्वामी के (अनु) पश्चात् (ग्मन्) प्राप्त करते हैं और (उप) समीप में (सीदन्) बैठते हैं। (त्वाम्) तुमको (प्राप्य) प्राप्त करके, (त्वयि) तुम्हारे (अवतिष्ठन्ते) स्थिर होते हुए (वयम्) हम (अपि) भी (एवम्) ऐसे ही (प्राप्य) पहुँच कर (अवतिष्ठामहे) स्थिर होवें ॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (पश्वा) अपहृतस्य पशोः स्वरूपाङ्गपादचिह्नान्वेषणेन (न) इव (तायुम्) चोरम्। तायुरिति स्तेननामसु पठितम्। (निघं०३.२४) (गुहा) गुहायां सर्वपदार्थानां मध्ये। अत्र सुपां सुलुगिति सप्तम्याडादेशः। (चतन्तम्) गच्छतं व्याप्तम्। चततीति गतिकर्मसु पठितम्। (निघं०२.१४) (नमः) अन्नम्। नम इत्यन्ननामसु पठितम्। (निघं०२.२०) (युजानम्) समादधानम्। अत्र बाहुलकादौणादिक आनच् प्रत्ययः किच्च। (नमः) सत्कारमन्नं वा (वहन्तम्) प्राप्नुवन्तम् (सजोषाः) सर्वत्र समानप्रीतिसेवनाः (धीराः) मेधाविनो विद्वांसः (पदैः) प्रत्यक्षेण प्राप्तैर्गुणनियमैः (अनु) पश्चात् (ग्मन्) प्राप्नुवन्ति। अत्र गमधातोर्लुङि मन्त्रे घस० इति च्लेर्लुक्। गमहनेत्युपधालोपोऽडभावो लडर्थे लुङ् च। (उप) सामीप्ये (त्वा) त्वां सभेश्वरम् (सीदन्) अवतिष्ठन्ते। अत्राप्यडभावो लडर्थे लुङ् च। (विश्वे) सर्वे (यजत्राः) पूजका उपदेशका सङ्गतिकर्त्तारो दातारश्च ॥१॥ विषयः- अथान्तर्व्याप्तोऽग्निरुपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे सर्वविद्याभिव्याप्त सभेश्वर ! यजत्राः सजोषा धीरा विद्वांसः पदैः पश्वा तायुं नेव यं गुहा बुद्धौ चतन्तं नमो युजानं नमो वहन्तं त्वा त्वामनुग्मन्। उपसीदन् त्वां प्राप्य त्वय्यवतिष्ठन्ते वयमप्येवं प्राप्यावतिष्ठामहे ॥ १ ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- हे मनुष्याः ! यथा स्तेनस्य पदाङ्गस्वरूपप्रेक्षणेन चोरं प्राप्य पश्वादिः पदार्थान् गृह्णन्ति, तथैवात्मान्तरुपदेष्टारं सर्वाधारं ज्ञानगम्यं परमेश्वरं प्राप्य सर्वानन्दं स्वीकुरुत ॥ १ ॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात ईश्वर अग्निरूपी विद्युतच्या वर्णनामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! तुम्ही जसे चोराला पाहून पकडता व चोरलेले पशू इत्यादी पदार्थ ताब्यात घेता तसेच अंतःकरणात उपदेश करणाऱ्या, सर्वांचा आधार असलेल्या, विज्ञानाने जाणण्यायोग्य परमेश्वराला व विद्युतरूपी अग्नीला जाणून आनंद मिळवा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Tracing and following the foot-prints of the animal, the master finds where the cattle carrier is hiding in the cave. So do all the yajakas, loving together and dedicated, patient and constant in their search, follow you, Agni, by yogaic stages and find you where you are hiding in the cave of the heart, creating and commanding food and energy, bearing and bestowing food and energy of life, and they sit close around you, preparing and feeding the fire, seeking and finding.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Agni pervading within is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Omniscient Lord of the world (taken as an Assembly) all adorable, firm and highly intelligent learned persons follow Thee who art in the cave of our hearts, providing food to all creatures and being adored by them. They follow Thee like a thief of an animal who is caught by the footmarks by the experts. All enlightened persons contemplate upon Thee and sit down close to Thee. (so to speak) with the perception of Thy attributes and Laws.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (तायुम्) चौरम् तायुरिति स्तेननाम (निघ० ३.२४ ) (चतन्तम्) गच्छन्तम् व्याप्तम् चततीति गतिकर्मसु पठितम् (निघ० २.१४) – Pervading. (नमः) नमस्कारमन्नं वा नम इत्यन्ननामसु पठितम् (निघ० २.२०) णम-प्रह्वीभावे = Salutation(2)Food. (यजत्राः) पूजका:,उपदेशका:,संगतिकर्तारः दातारश्च । =Devotees, preachers. Associates, donors. (यज-देवपूजा संगतिकरणदानेषु )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As men catch hold of a thief seeing his foot-marks etc. and take from him the animals and other things stolen by him, in the same manner, attain God who is within the soul as True Preceptor, the Support of all and who can be attained with knowledge and then enjoy perfect bliss.

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    Subject of the mantra

    Now the sixty-fifth hymn begins. In the first mantra, the substance is the signifier of the word 'Agni' (fire) which is spread everywhere has been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (sarvavidyābhivyāpta sabheśvara)=full of all knowledge Lord of the Assembly {viśve} =all, (yajatrāḥ)=Those who worship, do communion and are donors, (sajoṣāḥ) =Those who serve with love everywhere, (dhīrāḥ)=brilliant, (vidvāṃsaḥ) =scholars, (padaiḥ) =by the rules of qualities obtained directly, (paśvā)= By searching for the footprints of a stolen animal, (tāyum) =of thief, (na) =like, (yam) =to whom, (guhā)= among all things in the cave, (buddhau) =in the intellect, (catantam)= spread after receiving, (namaḥ) =to food, (yujānam) =possessing properly, (namaḥ) = hospitality or food, (vahantam) =while receiving, (tvā) =of you Lord of the Assembly, (anu) =after, (gman) =receive and, (upa)= close to, (sīdan) =sit, (tvām) =to you, (prāpya) =receiving, (tvayi) =your, (avatiṣṭhante) =being stable, (vayam) =we, (api) =too, (evam) =similarly, (prāpya) =reaching, (avatiṣṭhāmahe) = become stable.

    English Translation (K.K.V.)

    O full of all knowledge Lord of the Assembly! Those who perform all the pujas, do communion and are donors, serve with love in all places, are brilliant scholars, follow the rules of virtues acquired directly, search for the footprints of a stolen animal, like a thief who finds all the things in a cave. Holding well the food received and spread in the middle intellect, possessing food properly or while receiving hospitality or food after the Lord of the Assembly and sit close to him. After attaining you and you becoming stable, we too should reach and become stable in the same way.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    O humans! Just as you catch the thief and apprehend the stolen animals etc. after seeing the marks of the legs etc. of a stolen thief, in the same way, by attaining the God who preaches the nature of the soul and is capable of being known by the knowledge that is the basis of everything, you accept all the joy.

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