ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 66/ मन्त्र 1
र॒यिर्न चि॒त्रा सूरो॒ न सं॒दृगायु॒र्न प्रा॒णो नित्यो॒ न सू॒नुः ॥
स्वर सहित पद पाठर॒यिः । न । चि॒त्रा । सूरः॑ । न । स॒म्ऽदृक् । आयुः॑ । न । प्रा॒णः । नित्यः॑ । न । सू॒नुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
रयिर्न चित्रा सूरो न संदृगायुर्न प्राणो नित्यो न सूनुः ॥
स्वर रहित पद पाठरयिः। न। चित्रा। सूरः। न। सम्ऽदृक्। आयुः। न। प्राणः। नित्यः। न। सूनुः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 66; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! भवन्तो रयिर्नेव चित्रः सूरो नेव संदृगायुर्नेव प्राणो नित्यो नेव सूनुः पयो नेव धेनुस्तक्वा नेव भूर्णिर्विभावा शुचिरग्निर्वना सिसक्ति तं यथावद् विज्ञाय कार्येषूपयोजयन्तु ॥ १ ॥
पदार्थः
(रयिः) द्रव्यसमूहः (न) इव (चित्रा) विविधाश्चर्यगुणः। अत्र सुपां सुलुगित्याकारादेशः। (सूरः) सूर्यः (न) इव (सन्दृक्) सम्यग्दर्शयिता (आयुः) जीवनम् (न) इव (प्राणः) सर्वशरीरगामी वायुः (नित्यः) कारणरूपेणाविनाशिस्वरूपः (न) इव (सूनुः) कारणरूपेण वायोः पुत्रवद्वर्त्तमानः (तक्वा) स्तेनः। तक्वेति स्तेननामसु पठितम्। (निघं०३.२४) (भूर्णिः) धर्त्ता (वना) अरण्यानि किरणान् वा (सिसक्ति) समवैति (पयः) दुग्धम् (न) इव (धेनुः) दुग्धदात्री गौः (शुचिः) पवित्रः (विभावा) यो विविधान् पदार्थान् भाति प्रकाशयति सः ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्येनेश्वरेण प्रजाहिताय विविधगुणोऽनेककार्योपयोगी सत्यस्वभावोऽग्निर्निर्मितः स एव सर्वदोपासनीयः ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब छासठवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में पूर्वोक्त अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! आप सब लोग (रयिर्न) द्रव्यसमूह के समान (चित्रा) आश्चर्य गुणवाले (सूरः) सूर्य्य के (न) समान (संदृक्) अच्छे प्रकार दिखानेवाला (आयुः) जीवन के (न) समान (प्राणः) सब शरीर में रहनेवाला (नित्यः) कारणरूप से अविनाशिस्वरूप वायु के (न) समान (सूनुः) कार्य्यरूप से वायु के पुत्र के तुल्य वर्त्तमान (पयः) दूध के (न) समान (धेनुः) दूध देनेवाली गौ (तक्वा) चोर के (न) समान (भूर्णिः) धारण करने (विभावा) अनेक पदार्थों का प्रकाश करनेवाला (शुचिः) पवित्र अग्नि (वना) वन वा किरणों को (सिसक्ति) संयुक्त होता वा संयोग करता है, उसको यथावत् जान के कार्यों में उपयुक्त करो ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को उचित है कि जिस ईश्वर ने प्रजा के हित के लिए बहुत गुणवाले अनेक कार्य्यों के उपयोगी सत्य स्वभाववाले इस अग्नि को रचा है, उसी की सदा उपासना करें ॥ १ ॥
विषय
अद्भुत धन
पदार्थ
१. पराशर ऋषि कहता है कि वे प्रभु मेरे लिए (चित्रा रयिः न) = अद्भुत धन के समान है, चायनीय = पूजनीय धन के तुल्य हैं । जैसे धन का संग्रह किया जाता है, उसी प्रकार वे प्रभु मेरे द्वारा संग्रहणीय हैं । २. (सूरः न) = सूर्य के समान वे (संदृक्) = सम्यक् प्रकाश करनेवाले हैं । सूर्योदय होते ही सम्पूर्ण अन्धकार लुप्त हो जाता है, इसी प्रकार प्रभु - सूर्य के उदय होने पर मेरे हृदय का अन्धकार विनष्ट हो जाता है । उपनिषद् के शब्दों में उस प्रभु के ज्ञात होने पर सब - कुछ ज्ञात हो जाता है । ३. (आयुः न) = आयु की भाँति (प्राणः) = वे प्रभु मेरे प्राण हैं । वस्तुतः ‘स उ प्राणस्य प्राणः’ प्राण के भी प्राण वे प्रभु ही हैं । वास्तविक जीवन देनेवाले वे प्रभु ही हैं । ४. (नित्यः न) = [नि - In] सदा अन्दर होनेवाली वस्तु की भाँति अर्थात् सदा हृदयस्थ होते हुए वे (सूनः) = [धू प्रेरणे] प्रेरणा देनेवाले हैं । ५. (तक्वा न) = गतिशील घोड़े की भाँति (भूर्णिः) = वे मेरा भरण करनेवाले हैं । घोड़ा पीठ पर बैठे मनुष्य को स्थान से स्थानान्तर पर ले - जाता है, इसी प्रकार वे प्रभु मेरी जीवन - यात्रा में मुझे लक्ष्य तक पहुँचानेवाले हैं । ६. (पयः न) = आप्यायन करनेवाले दूध की भाँति वे प्रभु (धेनुः) = प्रीणित करनेवाले हैं । ७. ये (शुचिः) = पूर्ण पवित्र (विभावा) = विशिष्ट दीप्तिवाले प्रभु (वना) = उपासकों को [वन संभक्तौ] (सिषक्ति) = [समवैति] प्राप्त होते हैं । मैं प्रभु का उपासक होता है, वे प्रभु मुझे प्राप्त होते हैं । मुझे वे मन में शुचि और मस्तिष्क में विभावा बनाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - मैं प्रभु को ही अपना धन समझें । प्रभु की शरण में जाने से ही मेरी यात्रा पूर्ण होगी । मैं ‘शुचि’ व ‘विभावा’ बनूँगा ।
विषय
नाना दृष्टान्तों से वीर पुरुष, नायक, राजा अग्नि तथा परमेश्वर का वर्णन
भावार्थ
(रयिः न) जिस प्रकार ऐश्वर्यमय द्रव्य (चित्रा) नाना प्रकार के संग्रह करने योग्य पदार्थों से पूर्ण होता है उसी प्रकार अग्रणी नायक भी ( चित्रः ) आश्चर्यजनक गुणों वाला हो । वह ( सूरः न ) विद्वान् पुरुष या सूर्य के समान (संदृक्) सम्यक दृष्टि वाला तत्वज्ञानी और अन्यों को अच्छे प्रकार दीखने और दिखाने वाला हो । ( आयुः न प्राणः ) वह प्राण के समान राष्ट्र में आयु का वर्धक हो । ( सूनुः न नित्यः) वह पुत्र के समान सबका स्थिर दायभागी, सबकी जायदाद का स्वामी है। जिस जायदाद का कोई वारिस नहीं उसका वारिस राजा हो। और (भूर्णिः) हिंसाकारी (तक्वा) चोर पुरुष जिस प्रकार (वना सिषक्ति) प्रजा को लूटकर जंगलों में जा छिपता है उसी प्रकार वह भी ( तक्वा ) शत्रुओं को कठोर दण्ड देने वाला और (भूर्णिः) प्रजाओं का पालक होकर (वना) संविभाग करने और देने योग्य ऐश्वर्यों को (सिषक्ति) प्रदान करे। या वह (वना सिषक्ति) सैन्यदलों को संघटित करे। वह (धेनुः न) दुधार गाय के समान (पयः) प्रजा को पुष्टिकारक अन्न प्रदान करें । ( शुचिः ) वह ईमानदार, शुद्ध आचरणवान्, सच्चा होकर (विभावा) अग्नि के समान विशेष दीप्ति से चमके । अग्नि के पक्ष में—(तक्वा न भूर्णिः ) ज्वर के समान भून डालने वाला संतापजनक अथवा अश्व के समान अपने स्वामी का पोषक है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशरः शाक्त्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता । छन्दः—१ पंक्तिः । २ भुरिक् पंक्तिः । ३ निचृत्पंक्तिः । ४, ५ विराट् पंक्तिः ॥
विषय
विषय(भाषा)- अब छियासठवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में पूर्वोक्त अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः-हे मनुष्या ! भवन्तः रयिः न इव चित्रः सूरः न इव संदृक् आयुः न इव प्राणः नित्यः न इव सूनुः पयः न इव धेनुः तक्वा न इव भूर्णिः विभावा शुचिः अग्निः वना सिसक्ति तं यथावद् विज्ञाय कार्येषु उपयोजयन्तु ॥१॥
पदार्थ
पदार्थः-हे (मनुष्याः)=मनुष्यों ! (भवन्तः)=आप, (रयिः) द्रव्यसमूहः=द्रव्यों के समूह के, (न) इव=समान, (चित्रा) विविधाश्चर्यगुणः=विभिन्न प्रकार के आश्चर्य गुणवाले, (सूरः) सूर्यः=सूर्य के, (न) इव=समान, (सन्दृक्) सम्यग्दर्शयिता=ठीक-ठीक दिखानेवाले, (आयुः) जीवनम्=जीवन के, (न) इव =समान, (प्राणः) सर्वशरीरगामी वायुः=सम्पूर्ण शरीर में प्रवेश करनेवाली वायु, (नित्यः) कारणरूपेणाविनाशिस्वरूपः=कारणरूप से अविनाशी स्वरूप के, (न) इव=समान, (सूनुः) कारणरूपेण वायोः पुत्रवद्वर्त्तमानः =कारण रूप से वायु के पुत्र के समान वर्त्तमान, और (पयः) दुग्धम्=दूध के, (न) इव=समान, (धेनुः) दुग्धदात्री गौः=दूध देनेवाली गाय को, (तक्वा) स्तेनः=चुराने के, (न) इव=समान, (भूर्णिः) धर्त्ता=धारण करनेवाले, (विभावा) यो विविधान् पदार्थान् भाति प्रकाशयति सः = विविध पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले और, (शुचिः) पवित्रः= पवित्र, (अग्निः)=अग्नि, (वना) अरण्यानि किरणान् वा=जंगल या किरणों को, (सिसक्ति) समवैति=संयुक्त होता है, (तम्)=उसको, (यथावत्)=ठीक-ठीक, (विज्ञाय)=जानकर, (कार्येषु)=कार्यों में, (उपयोजयन्तु)=उपयोग में लाओ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद-इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। ईश्वर ने प्रजा के हित के लिए विविध गुणवाले अनेक कार्यों के उपयोगी, सत्य स्वभाववाले अग्नि को रचा है, उसी की सदा मनुष्यों के द्वारा उपासना की जानी चाहिए॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (भवन्तः) आप (रयिः) द्रव्यों के समूह के (न) समान (चित्रा) विभिन्न प्रकार के आश्चर्य गुणवाले (सूरः) सूर्य के (न) समान (सन्दृक्) ठीक-ठीक दिखानेवाले (आयुः) जीवन के (न) समान और (प्राणः) सम्पूर्ण शरीर में प्रवेश करनेवाली वायु को (नित्यः) कारण रूप से अविनाशी स्वरूप के (न) समान (सूनुः) कारण रूप से वायु के पुत्र के समान वर्त्तमान और (पयः) दूध के (न) समान (धेनुः) दूध देनेवाली गाय को (तक्वा) चुराने के (न) समान (भूर्णिः) धारण करनेवाले, (विभावा) विविध पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले और (शुचिः) पवित्र (अग्निः) अग्नि, (वना) जंगल और किरणों को (सिसक्ति) संयुक्त करता है, (तम्) उसको (यथावत्) ठीक-ठीक (विज्ञाय) जानकर (कार्येषु) कार्यों में (उपयोजयन्तु) उपयोग में लाओ॥१॥
संस्कृत भाग
स्वर सहित पद पाठ र॒यिः । न । चि॒त्रा । सूरः॑ । न । स॒म्ऽदृक् । आयुः॑ । न । प्रा॒णः । नित्यः॑ । न । सू॒नुः ॥तक्वा॑ । न । भूर्णिः॑ । वना॑ । सै॒स॒क्ति॒ । पयः॑ । न । धे॒नुः । शुचिः॑ । वि॒भाऽवा॑ ॥ विषयः- पुनः सोऽग्निः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्येनेश्वरेण प्रजाहिताय विविधगुणोऽनेककार्योपयोगी सत्यस्वभावोऽग्निर्निर्मितः स एव सर्वदोपासनीयः ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात ईश्वर व अग्नीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. ज्या ईश्वराने प्रजेच्या हितासाठी अनेक गुण असणाऱ्या व अनेक कार्यात उपयुक्त असणाऱ्या अग्नीला निर्माण केलेले आहे म्हणून माणसांनी त्याचीच सदैव उपासना करावी. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Wondrous as wealth and beauty, illuminating as the sun, breath of energy as life itself, ever present and essentially constant as a son, restless as a falcon, abiding with the forests and sunbeams, a very mother cow, nourishing and life-giving as milk, it is pure and blazing, shining and revealing all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How is Agni is taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, you should know well the Agni (fire) and utilise it properly in various works which is like wonderful wealth, like the sun which shows us all objects, like vital breath, dear like a well-conducted own son, hidden in all things, like a thief, speedy, like a milk-yielding cow, which is pure and radiant, consumes the forests.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(भूणिः) धर्ता = Bearer (भृञ्-धारणपोषणयोः) (तक्वा) सोमः तक्वेति स्तेननाम (निघ० ३.२४) = A thief, Agni hidden in all things like a thief.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is Upamalankara or similes in the Mantra. God alone is to be always adored who has created for the welfare of all beings the [fire] for the possesses many attributes and is very useful.
Translator's Notes
Rishi Dayananda has taken the word ताक्वा in the sense of a thief on the authority of the Vedic Lexicon-Nighantu. Other commentators have taken it to mean for speedy horse on the basis of Nighantu itself तकति: चरत्यर्थ: (निघ० २.१४)। Both meanings can be taken.
Subject of the mantra
Now there is start of sixty-sixth hymn. In its first mantra the qualities of fire mentioned above have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O!(manuṣyāḥ) =humans, (bhavantaḥ) =you, (rayiḥ)=of group of substances, (na) =like, (citrā) =of various of wondful qualities, (sūraḥ) =of the Sun, (na) =like, (sandṛk) = correctly showing, (āyuḥ) =of life, (na) =like and, (prāṇaḥ) =to air entering the entire body, (nityaḥ)=causally indestructible, (na) =like, (sūnuḥ)= causally present like the son of air, (payaḥ) =of milk, (na) =like, (dhenuḥ) =to the milking cow, (takvā)=to steal, (na) =like, (bhūrṇiḥ)=bearers, (vibhāvā) =illumunating various materials and, (śuciḥ) =pure, (agniḥ) =fire, (vanā)= to the forest and the rays, (sisakti) =combines, (tam) =to that, (yathāvat) =properly, (vijñāya) =knowing, (kāryeṣu) =in works, (upayojayantu) =put into use.
English Translation (K.K.V.)
O humans! Like a group of matter, like the Sun with various wonderful qualities, like the life that shows you correctly and like the air that enters the entire body, like the indestructible form due to the cause, like the son of air who is present and like milk, he one who holds the giving cow like a stealer, the one who illuminates various things and the one who combines the sacred fire and the forest. You know that properly and use in your work.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Translation of gist of the mantra by Maharshi Dayanand- There is simile as a figurative in this mantra. God has created fire of true nature, which is useful for many works with various qualities for the welfare of the people, it should always be worshiped by humans.
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