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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 67 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    वने॑षु जा॒युर्मर्ते॑षु मि॒त्रो वृ॑णी॒ते श्रु॒ष्टिं राजे॑वाजु॒र्यम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वने॑षु । जा॒युः । मर्ते॑षु । मि॒त्रः । वृ॒णी॒ते॒ । श्रु॒ष्टिम् । राजा॑ऽइव । अ॒जु॒र्यम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनेषु जायुर्मर्तेषु मित्रो वृणीते श्रुष्टिं राजेवाजुर्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनेषु। जायुः। मर्तेषु। मित्रः। वृणीते। श्रुष्टिम्। राजाऽइव। अजुर्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 67; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यो विद्वान् वनेषु जायुरिवाजुर्य्यं श्रुष्टिं राजेव क्षेमः साधुर्नेव भद्रः क्रतुर्नेव स्वाधीर्होता हव्यवाड्भुवद्भवेद्धार्मिकान् मनुष्यान् वृणीते तं सदा सेवध्वम् ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (वनेषु) संभजनीयेषु पदार्थेषु (जायुः) प्रजेता (मर्तेषु) मनुष्येषु (मित्रः) सखेव (वृणीते) स्वीकुरुते (श्रुष्टिम्) क्षिप्रकारिणम्। श्रुष्टि इति क्षिप्रनाम। आशु अष्टीति । (निरु०६.१२) (राजेव) यथा सभाद्यध्यक्षः (अजुर्य्यम्) युद्धविद्यासङ्गतम् (क्षेमः) कल्याणकारी (न) इव (साधुः) सत्यमानी सत्यकारी सत्यवादी (क्रतुः) प्रशस्तकर्मप्रज्ञः (न) इव (भद्रः) कल्याणकरः (भुवत्) भवेत्। अत्र लडर्थे लेट्। (स्वाधीः) सुष्ठु समन्ताद्धीयते येन सः (होता) दाताऽनुग्रहीता (हव्यवाट्) यो ग्राह्यदातव्यान् पदार्थान् वहति प्रापयति सः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गं कृत्वाऽऽनन्दः सदैव कर्त्तव्यः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सड़सठवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् कैसा हो, इस विषय को कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम लोग जो विद्वान् (वनेषु) सम्यक् सेवने योग्य पदार्थ (जायुः) जीतने के हेतु सूर्य्य के समान (अजुर्य्यम्) युद्धविद्या से सङ्गत सेना के तुल्य योग्य (श्रुष्टिम्) शीघ्रता करनेवाले को (राजेव) राजा के समान (क्षेमः) रक्षक (साधुः) सत्पुरुष के समान (भद्रः) कल्याणकारी (क्रतुर्न) उत्तम बुद्धि और कर्मकर्त्ता के तुल्य (स्वाधीः) अच्छे प्रकार धारण करने (होता) देने तथा अनुग्रह करने और (हव्यवाट्) लेने-देने योग्य पदार्थों का प्राप्त करानेवाला (भुवत्) हो तथा धर्मात्मा मनुष्यों को (वृणीते) स्वीकार करे, उसका सदा सेवन करो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्रा में उपमा और (वाचकलुप्तोपमालङ्कार) हैं। मनुष्यों को उचित है कि विद्वानों का संग करके सदैव आनन्द भोग करें ॥ १ ॥

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    विषय

    हव्यवाट् प्रभु

    पदार्थ

    १. वे प्रभु (वनेषु) = उपासकों में [वन संभक्तौ] अथवा एकान्त देशों में (जायुः) = प्रादुर्भूत होते हैं । सर्वव्यापकता के नाते प्रभु सर्वत्र है, परन्तु उस प्रभु के प्रकाश को उपासक ही देखता है । एकान्त स्थान में ध्यान करनेवाला ही उस हृदयस्थ प्रभु का साक्षात्कार करता है । २. वे प्रभु (मर्तेषु) = मनुष्यों में (मित्रः) = उन्हें पाप से बचानेवाले [प्रमीतेस्त्रायते] साथी हैं । वे प्रभु (श्रुष्टिम्) = शीघ्रता से, अनालस्यभाव से कार्यों को सम्पन्न करनेवाले यज्ञशील पुरुष को ही (वृणीते) = वरते हैं, उसी प्रकार (इव) = जैसे (राजा) = एक राजा (अजुर्यम्) = जीर्णता से रहित दृढ़ाङ्ग पुरुष को वरता है । ३. वे प्रभु (क्षेमः न) = कल्याण करनेवाले की भाँति (साधः) = हमारे कार्यों को सिद्ध करनेवाले हैं और (क्रतुः न) = कर्म करनेवाले के समान (भद्रः) = कल्याण करनेवाले हैं । वे प्रभु (स्वाधीः) = [सु+अधी] सदा उत्तम कर्मों और प्रज्ञानोंवाले (भुवत्) = हैं । ४. वे प्रभु ही (होता) = इस सृष्टियज्ञ के करनेवाले तथा (हव्यवाट्) = हव्य - उत्तम पदार्थों प्राप्त करानेवाले हैं । प्रभु के उपासक बनकर हम हव्य पदार्थों को क्यों न प्राप्त करेंगे ?

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासक के हृदय में प्रभु का प्रादुर्भाव होता है । वे प्रभु ही सब पदार्थों के देनेवाले हैं ।

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    विषय

    नाना दृष्टान्तों से वीर पुरुष, नायक, राजा अग्नि तथा परमेश्वर का वर्णन

    भावार्थ

    जो वीर पुरुष (वनेषु) वनों में भस्म कर देने वाले अग्नि के समान, भोग्य ऐश्वर्यो और सैनिक दलों के बीच (जायुः) शत्रुओं का विजय करने वाला हो, जो ( मर्त्तेषु ) मनुष्यों के बीच उनका ( मित्रः ) प्राण के समान स्नेही ( श्रुष्टिम् ) अन्नादि भोग्य पदार्थ को एवं शीघ्रकारी कुशल पुरुष को ( वृणीते ) वरण करता, प्राप्त करता है और जो ( राजा इव ) राजा के समान (अजुर्यम्) जरा रहित, बलवान्, जवान मर्द को अपने कार्य के लिये चुन लेता है वह ( क्षेमः न साधुः ) रक्षक पुरुष के समान सब कार्यों का साधक और सज्जन पुरुष के समान कल्याणकारी ( क्रतुः न ) क्रिया कुशल, प्रजावान् पुरुष के समान ( भद्रः ) सब को सुख देने और कल्याण करने वाला, (स्वाधीः) उत्तम आचरण करने वाले उत्तम रीति से प्रजाओं का पालक पोषक, (होता) सब को उचित अधिकारों, ऐश्वर्यों, और वेतनों का देने वाला, ( हव्यवाट् ) ग्राह्य और देने योग्य ऐश्वर्य को धारण करने वाला ( भुवत् ) हो। वही अग्रणी, ज्ञानी पुरुष ‘अग्नि’ पद पर स्थापित करने योग्य है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशरः शाक्त्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥छन्दः—१ पङ्क्तिः । २ भुरिक् पङ्क्तिः । ३ निचृत्पङ्क्तिः । ४,५ विराट् पङ्क्तिः ॥ पंचर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब सड़सठवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् कैसा हो, इस विषय को कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यः विद्वान् वनेषु जायुः{मर्तेषु} {मित्रः} इव अजुर्य्यं श्रुष्टिं राजेव क्षेमः साधुः न इव भद्रः क्रतुः न इव स्वाधीः होता हव्यवाट् भुवत् भवेद् धार्मिकान् मनुष्यान् वृणीते तं सदा सेवध्वम् ॥१॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः)=जो, (विद्वान्)= विद्वान्, (वनेषु) संभजनीयेषु पदार्थेषु= आश्रित पदार्थों में, (जायुः) प्रजेता=प्रकृष्ट रूप से विजय प्राप्त करनेवाला, {मर्तेषु} मनुष्येषु=मनुष्यों में, {मित्रः} सखेव=मित्र के, (इव)= समान, (अजुर्य्यम्) युद्धविद्यासङ्गतम् =युद्ध विद्या में संयोजित, (श्रुष्टिम्) क्षिप्रकारिणम्= शीघ्रता से कार्य करनेवाला, (राजेव) यथा सभाद्यध्यक्षः=सभा आदि के अध्यक्ष के समान, (क्षेमः) कल्याणकारी= कल्याणकारी, (साधुः) सत्यमानी सत्यकारी सत्यवादी=सत्य को माननेवाले, सत्य बोलनेवाले और सत्य पर आचरण करनेवाले के, (न) इव=समान, (भद्रः) कल्याणकरः=कल्याणकारी, (क्रतुः) प्रशस्तकर्मप्रज्ञः= प्रशस्त कर्म और प्रज्ञा वाले के, (न) इव=समान, (स्वाधीः) सुष्ठु समन्ताद्धीयते येन सः=उत्तम रूप से समाहित करनेवाले, (होता) दाताऽनुग्रहीता=दाता और ग्रहण करनेवाले, (हव्यवाट्) यो ग्राह्यदातव्यान् पदार्थान् वहति प्रापयति सः= ग्रहण किये गये पदार्थों को ले जाकर प्राप्त करानेवाले, (भुवत्) भवेत्=होवे। (धार्मिकान्) =धार्मिक, (मनुष्यान्)=मनुष्यों को, (वृणीते) स्वीकुरुते=स्वीकार करता है, (तम्)=उसका, (सदा)=सदा, (सेवध्वम्)=सेवन करो ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों के द्वारा विद्वानों का संगति करके सदैव आनन्द का भोग करना चाहिए ॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब, (यः) जो, (विद्वान्) विद्वान् (वनेषु) आश्रित पदार्थों में (जायुः) प्रकृष्ट रूप से विजय प्राप्त करनेवाला, {मर्तेषु} मनुष्यों में {मित्रः} मित्र के (इव) समान, (अजुर्य्यम्) युद्ध विद्या में संयोजित करनेवाला, (श्रुष्टिम्) शीघ्रता से कार्य करनेवाला, (राजेव) सभा आदि के अध्यक्ष के समान (क्षेमः) कल्याणकारी, (साधुः) सत्य को माननेवाले, सत्य बोलनेवाले और सत्य पर आचरण करनेवाले के (न) समान (भद्रः) कल्याणकारी, (क्रतुः) प्रशस्त कर्म और प्रज्ञा वाले के (न) समान (स्वाधीः) उत्तम रूप से समाहित करनेवाला, (होता) दाता और ग्रहण करनेवाला और (हव्यवाट्) ग्रहण किये गये पदार्थों को ले जाकर प्राप्त करानेवाला (भुवत्) होवे। (धार्मिकान्) धार्मिक (मनुष्यान्) मनुष्यों को (वृणीते) वह स्वीकार करता है, (तम्) उसका (सदा) सदा (सेवध्वम्) सेवन करो ॥१॥

    संस्कृत भाग

    स्वर सहित पद पाठ वने॑षु । जा॒युः । मर्ते॑षु । मि॒त्रः । वृ॒णी॒ते॒ । श्रु॒ष्टिम् । राजा॑ऽइव । अ॒जु॒र्यम् ॥ क्षेमः॑ । न । सा॒धुः । क्रतुः॑ । न । भ॒द्रः । भुव॑त् । सु॒ऽआ॒धीः । होता॑ । ह॒व्य॒ऽवाट् ॥ विषयः- पुनः स विद्वान् कीदृशो भवेदित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गं कृत्वाऽऽनन्दः सदैव कर्त्तव्यः ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात ईश्वर, सभाध्यक्ष व विद्युत अग्नीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे पूर्वसूक्तार्थाची या सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा (वाचकलुप्तोपमालंकार) आहेत. माणसांनी विद्वानांची संगत करून सदैव आनंद भोगावा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Just as a ruler selects a young, unaging and enthusiastic worker, best of the desirable lot and friendliest among people, so does Agni select and bless a devotee for the divine mission of life’s yajna. May this Agni, Lord of yajna, Itself the giver and receiver, carrier of the fragrances across life and the world, immanent in forests and manifest in sunbeams, friendliest power among living beings, good like happiness incarnate, creative and blissful as yajna itself be our sustainer, protector and promoter in life and select us for the sacred mission of Divinity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should (Agni-a learned leader) be is taught in the first mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O man, you should always serve a learned leader who is like a conqueror of desirable good objects, who is like a King who chooses an efficient able young man as his adviser or helper, who is kind friend among men, who is auspicious or beneficent like a Sadhu (noble person true in mind, word and deed) is doer of good like a nan of good intellect and actions, good upholder of noble things, prosperous as a performer of good works, kind giver of happiness, conveyor of various objects that are worth taking and giving and propitious.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (श्रुष्टिम् ) क्षिप्रकारिणम् श्रुष्टि रितिक्षिप्रनाम (नि० ६.१२ ) =An efficient and active man who does work quickly. (साधु:) सत्यमानी सत्यवादी सत्यकारी = A man true in mind, word and deed. (स्वाधी:) सुष्ठु समन्तात् धीयते येन सः | = Good upholder from all sides. (होता) दाता अनुग्रहीता = Donor and kind.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or similes used in Mantra. Men should enjoy bliss by associating themselves with the learned persons.

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    Subject of the mantra

    Now the sixty-seventh hymn begins. In its first mantra, how a scholar should be this subject of has been addressed.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yaḥ) =those, (vidvān) =scholars, (vaneṣu)=in dependent substances, (jāyuḥ)=conqueror of all glory, {marteṣu} =in humans, {mitraḥ} =of friend, (iva) =like, (ajuryyam)=Consolidator of martial arts, (śruṣṭim)= quick-working, (rājeva) =like the president of the Assembly etc., (kṣemaḥ)= doer of felicity, (sādhuḥ)= One who believes the truth, speaks the truth and practices the truth, (na) =like (bhadraḥ) doer of felicity, (kratuḥ)=of great deeds and wisdom, (na) =like, (svādhīḥ)= an excellent consolidator, (hotā) giver and receiver and, (havyavāṭ)=one who transports and gets received the things, (dhārmikān) =righteous, (manuṣyān) =to humans, (vṛṇīte)=he accepts, (tam) =his, (sadā) =always, (sevadhvam) =serve.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! All of you, the one who is a learned person, who is eminently victorious in dependent matters, who is like a friend among humans, who unites in the knowledge of war, who works quickly, who is beneficial like the President of the Assembly etc., who believes in the truth, speaks the truth and behaves according to the truth, is doer of felicity, one who has extensive deeds and intelligence should be an excellent consolidator, giver and receiver, and one who can take away the received thins for further delivery. He accepts righteous people, always serve him.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are simile and silent vocal simile as figurative at two places in this mantra. Human beings should always enjoy happiness with the communion of scholars.

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