ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
श्री॒णन्नुप॑ स्था॒द्दिवं॑ भुर॒ण्युः स्था॒तुश्च॒रथ॑म॒क्तून्व्यू॑र्णोत् ॥
स्वर सहित पद पाठश्री॒णन् । उप॑ । स्था॒त् । दिव॑म् । भु॒र॒ण्युः । स्था॒तुः । च॒रथ॑म् । अ॒क्तून् । वि । ऊ॒र्णो॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्रीणन्नुप स्थाद्दिवं भुरण्युः स्थातुश्चरथमक्तून्व्यूर्णोत् ॥
स्वर रहित पद पाठश्रीणन्। उप। स्थात्। दिवम्। भुरण्युः। स्थातुः। चरथम्। अक्तून्। वि। ऊर्णोत् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
यद्यो भुरण्युः श्रीणन्मनुष्यो दिवं द्योतनात्मकं परमेश्वरं विद्युतं वा पर्युपस्थात् स्थातुः स्थावरं चरथमक्तूंश्च पर्यूर्णोत् स एषां विश्वेषां देवानामेको महित्वा भुवद्विभवेत् ॥ १ ॥
पदार्थः
(श्रीणन्) परिपक्वं कुर्वन् (उप) सामीप्ये (स्थात्) तिष्ठेत् (दिवम्) प्रकाशस्वरूपम् (भुरण्युः) धर्त्ता पोषको वा। अत्र भुरणधातोः कण्ड्वादित्वाद् यक् तत उः। (स्थातुः) स्थावरसमूहम्। अत्र स्थाधातोस्तुः सुपां सुलुगित्यमः स्थाने सुश्च। (चरथम्) जङ्गमसमूहम् (अक्तून्) व्यक्तान् प्राप्तव्यान् सर्वान् पदार्थान् (वि) विशेषार्थे (ऊर्णोत्) ऊर्णोत्याच्छादयति स्वीकरोति (परि) सर्वतः (यत्) यः (एषाम्) वर्त्तमानानां मनुष्याणां मध्ये (एकः) कश्चित् (विश्वेषाम्) सर्वेषाम् (भुवत्) (देवः) दिव्यगुणसम्पन्नो विद्वान् (देवानाम्) विदुषां मध्ये (महित्वा) पूजितो भूत्वा ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। नहि कश्चित्परमेश्वरमनुपास्य विद्युद्विद्यामनाश्रित्य सर्वाणि पारमार्थिकव्यावहारिकसुखानि प्राप्तुमर्हति ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर वे ईश्वर और विद्युत् अग्नि कैसे गुणवाले हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
(यत्) जो (भुरण्युः) धारण वा पोषण करनेवाला (श्रीणन्) परिक्व करता हुआ मनुष्य (दिवम्) प्रकाश करनेवाले परमेश्वर वा विद्युत् अग्नि के (उप स्थात्) उपस्थित होवे और (स्थातुः) स्थावर (चरथम्) जङ्गम तथा (अक्तून्) प्रकट प्राप्त करने योग्य पदार्थों को (पर्यूर्णोत्) आच्छादन वा स्वीकार करता है वह (एषाम्) इन वर्त्तमान (विश्वेषाम्) सब (देवानाम्) विद्वानों के बीच (एकः) सहायरहित (देवः) दिव्यगुणयुक्त (महित्वा) पूजा को प्राप्त होकर (विभुवत्) विभव अर्थात् ऐश्वर्य को प्राप्त होवे ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। कोई परमेश्वर की उपासना वा विद्युत् अग्नि के आश्रय को छोड़कर सब परमार्थ और व्यवहार के सुखों को प्राप्त होने को योग्य नहीं हो सकता ॥ १ ॥
विषय
उपस्थान से परिपाक
पदार्थ
१. (श्रीणन्) = [श्री पाके] अपना परिपाक करनेवाला (उपस्थात्) = [उपतिष्ठेत्] प्रभु का उपासन करे । प्रभुनिष्ठ व्यक्ति अपने जीवन का सुन्दर परिपाक कर पाता है । आचार्य को ‘मृत्यु’ कहते हैं । यह आचार्य विद्यार्थी का ज्ञानाग्नि द्वारा परिपाक करता है [भ्रस्ज पाके] । प्रभु भी (दिवं भुरण्युः) = ज्ञान का भरण करनेवाले हैं । इस ज्ञान से ही तो भक्त के जीवन का परिपाक करते हैं । २. वह प्रभु (स्थातुः चरथम्) = स्थावर - जंगम, चराचर - उभयात्मक जगत् को (व्यूर्णोत) = विशेषरूप से आच्छादित करते हैं । सारे ब्रह्माण्ड को वे अपने में धारण करते हैं और ब्रह्माण्ड को धारण करते हुए जीवों के हृदयों में (अक्तून्) = ज्ञान की रश्मियों को प्रकाशित करते हैं । हृदयों को ज्ञानरश्मियों से प्रकाशित करके इन जीवों को वे जीवनमार्ग के दर्शन के योग्य बनाते हैं । ३. वास्तविकता तो यह है (यत्) = कि वे (एकः देवः) = अद्वितीय मुख्य देव प्रभु ही (एषां विश्वेषां देवानाम्) = इन सब देवों के (महित्वा) = [महत्वानि] महत्त्वों को (परिभुवत्) = परितः व्याप्त करके वर्तमान हो रहे हैं । इन सब देवों को प्रभु ही देवत्व प्राप्त कराते हैं “तेन देवा देवतामग्न आयन्” उस देव की दीप्ति से ही ये सब देव दीप्त हो रहे हैं । “तस्य भासा सर्वमिदं विभाति” [श्वेता०उप० ६/१९] ।
भावार्थ
भावार्थ - जीवन के परिपाक के लिए प्रभु का उपस्थान आवश्यक है । प्रभु ही सबको देवत्व प्राप्त कराते हैं ।
विषय
परमेश्वर
भावार्थ
जिस प्रकार सूर्य ( भुरण्युः ) सबका पालक पोषक होकर (श्रीणन्) ओषधियों को परिपक्व करता है, आकाश में स्थित होता है, और स्थावर और जंगम चराचर जगत् को प्रकाशित करता है और वह समस्त प्रकाशमान पिण्डों में से अपने महान् सामर्थ्य के कारण सबसे श्रेष्ठ है इसी प्रकार परमेश्वर ( श्रीणन् ) समस्त ब्रह्माण्ड का कालाग्नि द्वारा परिपाक करता हुआ (दिवम् ) ज्योतिर्मय प्रकाश को तथा महान् आकाश और समस्त तेजोमय सूर्य आदि को ( उप स्थात् ) व्यापता है । वह ( भुरण्युः ) सबका पालक पोषक प्रभु ( स्थातुः चरथम् ) स्थावर और जंगम संसार को और ( अक्तून् ) जगत् को प्रकाशित करने वाले किरणों या रात्रियों को (वि ऊर्णोत्) विविध प्रकार से प्रकट करता है, उनके अन्धकारों के आवरणों को दूरकर प्रकाशित करता है । ( यत् ) जो ( एकः ) और सुखअकेला ही ( एषां विश्वेषां ) इन सब ( देवानाम् ) प्रकाशक प्रद और सुखप्रद लोकों और पदार्थों के बीच (महित्वा) अपने महान् सामर्थ्य से (देवः) सबसे बड़ा प्रकाशक और सुखदाता (परिभुवत्) सर्वत्र विद्यमान है। विद्वान् राजा और (दिवं श्रीणन्) ज्ञान और विद्वत्-सभा को दृढ़ करता हुआ स्थावर और जंगम को पोषण करे, प्रकाशकारी विज्ञानों को प्रकट करे । वह अकेला ही अपने महान् सामर्थ्य से सब विद्वानों और विजिगीषुओं में सबसे बड़ा बने ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशरः शाक्त्य ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ४ निचृत् पंक्तिः ॥ २, ३, ५ पंक्तिः ॥ पंचर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- फिर वे ईश्वर और विद्युत् अग्नि कैसे गुणवाले हैं, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यद् यः भुरण्युः श्रीणन् मनुष्यः दिवं द्योतनात्मकं परमेश्वरं विद्युतं वा परि उप स्थात् स्थातुः स्थावरं चरथम् अक्तून् {वि} च परि ऊर्णोत् स एषां विश्वेषां {देवः} देवानाम् एकः महित्वा भुवत् भवेत् ॥१॥
पदार्थ
पदार्थः- (यत्) यः=जो, (भुरण्युः) धर्त्ता पोषको वा=धारण और पोषण करनेवाला, (श्रीणन्) परिपक्वं कुर्वन्=परिपक्व करता हुआ, (मनुष्यः)= मनुष्य, (दिवम्)- द्योतनात्मकम्- प्रकाशस्वरूपम्= प्रकाश स्वरूप, (परमेश्वरम्)= परमेश्वर (वा)=अथवा, (विद्युतम्)= विद्युत्, (परि) सर्वतः=हर ओर से, (उप) सामीप्ये=समीपता से, (स्थात्) तिष्ठेत्=स्थित रहता है, (स्थातुः) स्थावरसमूहम्=स्थावर जीवों के समूह को, और, (चरथम्) जङ्गमसमूहम्= गतिशील जीवों के समूह, और, (अक्तून्) व्यक्तान् प्राप्तव्यान् सर्वान् पदार्थान्=प्रकट और प्राप्त होनेवाले समस्त पदार्थों को, (च)=भी, {वि} विशेषार्थे= विशेष रूप से, (परि) सर्वतः=हर ओर से, (ऊर्णोत्) ऊर्णोत्याच्छादयति स्वीकरोति=आच्छादित करता है या स्वीकार करता है, (सः)=वह, (एषाम्) वर्त्तमानानां मनुष्याणां मध्ये=उपस्थित मनुष्यों में, (विश्वेषाम्) सर्वेषाम्=समस्त, {देवः} दिव्यगुणसम्पन्नो विद्वान्= दिव्य गुणों से सम्पन्न विद्वानों में, (देवानाम्) विदुषां मध्ये= विद्वानों के बीच में, (एकः) कश्चित्=कोई एक, (महित्वा) पूजितो भूत्वा=पूजा के योग्य होकर, (भुवत्) भवेत्=होवे ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। कोई परमेश्वर की उपासना के विना और विद्युत् विद्या का आश्रय न लेते हुए सब पारमार्थिक और व्यावहारिक के सुखों को प्राप्त करने के योग्य नहीं हो सकता है ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यत्) जो (भुरण्युः) धारण और पोषण करनेवाला, (श्रीणन्) परिपक्व करता हुआ (मनुष्यः) मनुष्य, (दिवम्) प्रकाशस्वरूप (परमेश्वरम्) परमेश्वर (वा)अथवा, (विद्युतम्) विद्युत् (परि) हर ओर से (उप) समीपता से (स्थात्) स्थित रहता है। (स्थातुः) स्थावर जीवों के समूह को और (चरथम्) गतिशील जीवों के समूह और (अक्तून्) प्रकट होनेवाले और प्राप्त होनेवाले समस्त पदार्थों को (च) भी {वि} विशेष रूप से, (परि) हर ओर से (ऊर्णोत्) आच्छादित करता है या स्वीकार करता है। (सः) वह (एषाम्) उपस्थित मनुष्यों में और (विश्वेषाम्) समस्त {देवः} दिव्य गुणों से सम्पन्न (देवानाम्) विद्वानों के बीच में (एकः) कोई एक (महित्वा) पूजा के योग्य (भुवत्) होवे ॥१॥
संस्कृत भाग
स्वर सहित पद पाठ श्री॒णन् । उप॑ । स्था॒त् । दिव॑म् । भु॒र॒ण्युः । स्था॒तुः । च॒रथ॑म् । अ॒क्तून् । वि । ऊ॒र्णो॒त् ॥ परि॑ । यत् । ए॒षा॒म् । एकः॑ । विश्वे॑षाम् । भुव॑त् । दे॒वः । दे॒वाना॑म् । म॒हि॒ऽत्वा ॥ विषयः- पुनस्तौ कीदृशावित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। नहि कश्चित्परमेश्वरमनुपास्य विद्युद्विद्यामनाश्रित्य सर्वाणि पारमार्थिकव्यावहारिकसुखानि प्राप्तुमर्हति ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात ईश्वर व अग्नीच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. कोणताही माणूस परमेश्वराची उपासना व विद्युत अग्नीच्या आश्रयाशिवाय सर्वार्थाने परमार्थ व व्यवहार यांचे सुख प्राप्त करू शकत नाही. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The blazing, vibrating, ripening, perfecting power and energy of the Lord, Agni, that sustains and beautifies the world pervades and abides by the moving and non-moving forms of existence and covers as well as brightens and defines the day and night with His presence. He is the sole one lord and light of all the brilliancies of the universe by virtue of His own might.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are God and electricity is taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1) The person who is sustainer of all and who makes his knowledge mature by practice and experience, worships Refulgent God. He covers (protects ) inamimate and animate things that are to be He thus becomes highly respectable by learned persons among the enlightened. obtained. (2) He who knows fully the attributes of the electricity that upholds all beings and is very beneficial becomes a renowned scientist among highly intelligent persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(श्रीणन्) परिपक्वं कुर्वन् = Making mature or experience. (अक्तून) व्यक्तान पदार्थान् सर्वान् = All articles to be obtained.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
None can accomplish spiritual and secular worldly happiness without worshipping God and without thoroughly knowing and utilising the science of electricity.
Subject of the mantra
Then, what kind of qualities are those Gods and electric fire are?This subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yat) =that, (bhuraṇyuḥ)=sustaining and nurturing, (śrīṇan)=maturing, (manuṣyaḥ)=man, (divam) = resplendent, (parameśvaram) =God, (vā) =or, (vidyutam)=lightening, (pari) =from all sides, (upa) =from proximity, (sthāt) =is situated, (sthātuḥ)= group of stationary living beings and (caratham)= groups of moveable living beings and, (aktūn =All things that appear and are received, (ca) =also, {vi} =specially, (pari) =from all sides, (ūrṇot) =covers or accepts, (saḥ) =he, (eṣām)= among the humans present and, (viśveṣām) =all, {devaḥ} =endowed with divine qualities, (devānām) =among the scholars, (ekaḥ)=the one, (mahitvā)= worthy of worship, (bhuvat) = should be.
English Translation (K.K.V.)
The one who sustains and nurtures, the man who matures, resplendent God or lightening is present nearby from all sides. It specifically covers or accepts the groups of stationary living beings, the group of moveable living beings and all the things that appear and are received, from all sides. He should be the one worthy of worship among the people present and among the scholars endowed with all the divine qualities.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is paronomasia as a figurative in this mantra. One cannot be able to attain all the spiritual and practical pleasures without worshiping God and without taking recourse to the knowledge of electricity.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
atman.sanatan@gmail.com
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal