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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 69/ मन्त्र 5
    ऋषिः - पराशरः शक्तिपुत्रः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    पु॒त्रो न जा॒तो र॒ण्वो दु॑रो॒णे वा॒जी न प्री॒तो विशो॒ वि ता॑रीत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पु॒त्रः । न । जा॒तः । र॒ण्वः । दु॒रो॒णे । वा॒जी । न । प्री॒तः । विशः॑ । वि । ता॒री॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुत्रो न जातो रण्वो दुरोणे वाजी न प्रीतो विशो वि तारीत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुत्रः। न। जातः। रण्वः। दुरोणे। वाजी। न। प्रीतः। विशः। वि। तारीत् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 69; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य ! यद्योऽग्निरिव दुरोणे जातः पुत्रो न रण्वो वाजी न प्रीतो विशो वितारीत्। योऽह्वे नृभिः सनीडा विशो विश्वानि देवत्वा प्रापयति ते त्वमप्यश्याः ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (पुत्रः) पित्रादीनां पालयिता (न) इव (जातः) उत्पन्नः (रण्वः) रमणीयः। अत्र रम धातोर्बाहुलकादौणादिको वः प्रत्ययः। (दुरोणे) गृहे (वाजी) अश्वः (न) इव (प्रीतः) प्रसन्नः (विशः) प्रजाः (वि) विशेषार्थे (तारीत्) दुःखात्सन्तारयेत् (विशः) प्रजाः (यत्) यः (अह्वे) अह्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन् (नृभिः) नेतृभिर्मनुष्यैः (सनीडाः) समानस्थानाः (अग्निः) पावक इव पवित्रः सभाध्यक्षः (देवत्वा) देवानां विदुषां दिव्यगुणानां वा भावरूपाणि (विश्वानि) सर्वाणि (अश्याः) प्राप्नुयाः। अत्र व्यत्ययेन परस्मैपदम् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। नहि मनुष्याणां विज्ञानविद्वत्सङ्गाश्रयेण विना सर्वाणि सुखानि प्राप्तुं शक्यानि भवन्तीति वेदितव्यम् ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर विद्वान् कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्य ! (यत्) जो (अग्निः) अग्नि के तुल्य सभाध्यक्ष (दुरोणे) गृह में (जातः) उत्पन्न हुआ (पुत्रः) पुत्र के (न) समान (रण्वः) रमणीय (वाजी) अश्व के (न) समान (प्रीतः) आनन्ददायक (विशः) प्रजा को (वितारीत्) दुःखों से छुड़ाता है (अह्वे) व्याप्त होनेवाले व्यवहार में (सनीडाः) समानस्थान (विशः) प्रजाओं को (विश्वानि) सब (देवत्वा) विद्वानों के गुण, कर्मों को प्राप्त करता है, उसको तू (अश्याः) प्राप्त हो ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों को विज्ञान और विद्वानों के सङ्ग के विना सब सुख प्राप्त नहीं हो सकते, ऐसा जानना चाहिये ॥ ३ ॥

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    विषय

    प्रीतः वाजी

    पदार्थ


    १. प्रभुभक्त (जातः पुत्रः न) = उत्पन्न हुए - हुए पुत्र के समान (दुरोणे) = गृह में (रण्वः) = रमणीय होता है । इसके सुन्दर जीवन में सबको प्रसन्नता का अनुभव होता है । (वाजी न) = शक्तिशाली पुरुष की भाँति (प्रीतः) = प्रसन्न स्वभाववाला यह (विशः) = सब प्रजाओं को (वितारीत्) = कष्टों से पार करता है । निर्बल व क्षीण - शक्ति पुरुष ही चिड़चिड़े स्वभाव का होता है । यह औरों का हित करने में भी समर्थ नहीं होता । [वितारीत् - दुःखात् सन्तारयते - द०] । शक्तिशाली पुरुष प्रसन्न स्वभाववाला होता है तथा औरों के दुःख को दूर करने का प्रयत्न करता है । 

    २. (विशः) = प्रजाओं को (यत्) = जब (अह्वे) = [आह्वयामि] पुकारता हूँ उनको सम्बोधित करके कुछ कहता हूँ तो यही कहता हूँ कि तुम (नृभिः सनीळाः) = सब मनुष्यों के साथ समान नीडवाले हो, तुम सबका समान गृह प्रभु है, तुम सब प्रभु के पुत्र हो । 

    ३. इस प्रकार उपदेश देने और समझानेवाला व्यक्ति ही (अग्निः) = अग्नणी है, उन्नति - पथ पर आगे बढ़नेवाला है । यह (विश्वानि देवत्वा) = सब दिव्य गुणों को (अश्याः) = प्राप्त होता है [अश्नुते व्याप्नोति - सा०] । अग्नि वही है जो सभी में प्रभु का वास देखता है और सबको प्रभु में देखता है । 

     

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा जीवन रमणीय हो । हम शक्तिशाली व प्रसन्नचेता बनकर औरों के दुःखों को दूर करें । सभी को एक ही बात कहें कि सब एक ही प्रभुरूप घर में रहनेवाले हो । इस भावना के द्वारा अपने में दिव्यत्व बढ़ाएँ । 

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    विषय

    आचार्य उत्तम, शासक, सभाध्यक्ष आदि का वर्णन

    भावार्थ

    (उषः जारः न) प्रभात वेला को अपने उदय से जीर्ण कर देने वाले सूर्य के समान (विभावा) विशेष प्रभा से युक्त तेजस्वी राजा और विद्वान् को (उस्त्रः) समस्त प्रजाओं को ( संज्ञातरूपः ) समस्त रूपों, प्रजाजनों ऐश्वर्यों को जानने वाला, सुख से बसाने वाला होकर (अस्मै) उस प्रजाजन को ( चिकेतत् ) जाने, उसके अभिमत फल प्रदान करे । और ( विश्वे ) समस्त जन ( त्मना ) स्वयं ( दृशीके ) उस दर्शनीय पुरुष के अधीन रहकर ( स्वः ) सुखजनक ऐश्वर्य को ( वहन्तः ) धारण करते हुए ( नवन्त ) उसके आगे आदर से झुकें और ( दुरः ) द्वारों को (वि ऋणवन् ) उसके स्वागत के लिये खोलदे । परमात्मा के पक्ष में—वह परमेश्वर सूर्य के समान विशेष कान्ति से युक्त, समस्त पदार्थों का ज्ञाता (उस्रः) प्रकाशमान्, सबमें बसने वाला, अन्तर्यामी है। सब मनुष्य ( अस्मै ) उस को ज्ञान करें । अथवा (सः अस्मै चिकेतत्) वही इस जीव को ज्ञान और सुख प्रदान करता है । विद्वान्जन ( विश्वे) सब ( त्मना ) अपने आत्मा से ( स्वः वहन्तः ) सुख और ज्ञान को धारण करते हुए ( दुरः वि ऋणन् ) दुष्ट भावों को दूर करें । और उस ( दृशीके नवन्त ) परम दर्शनीय प्रभु के अधीन होकर उसकी स्तुति करें । इति त्रयोदशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशरः शक्तिपुत्र ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पंक्तिः । २, ३ निचृत् पंक्तिः। ४ भुरिक् पंक्तिः । ५ विराट् पंक्तिः पंचर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर विद्वान् कैसा हो, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्य ! यत् यः अग्निः इव दुरोणे जातः पुत्रः न रण्वः वाजी न प्रीतः विशः वि तारीत्। यः अह्वे नृभिः सनीडा विशः विश्वानि देवत्वा प्रापयति ते त्वम् अपि अश्याः ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्यः)= मनुष्य ! (यत्) यः=जो, (अग्निः) पावक इव पवित्रः सभाध्यक्षः=पवित्र करनेवाले के समान पवित्र सभाध्यक्ष के, (इव) =समान, (दुरोणे) गृहे=घर में, (जातः) उत्पन्नः= उत्पन्न, (पुत्रः) पित्रादीनां पालयिता=पिता आदि के द्वारा पालन किये हुए के, (न) इव=समान, (रण्वः) रमणीयः=आनन्ददायक, (वाजी) अश्वः= अश्व के, (न) इव=समान, (प्रीतः) प्रसन्नः= प्रसन्न, (विशः) प्रजाः=सन्तान, (वि) विशेषार्थे= विशेष रूप से, (तारीत्) दुःखात्सन्तारयेत्=दुःख से पार कराता है, (यः)=जो, (अह्वे) अह्नुवन्ति व्याप्नुवन्ति यस्मिन् व्यवहारे तस्मिन्=जिस व्यवहार में पुकारते और व्याप्त होते हैं, उसमें (नृभिः) नेतृभिर्मनुष्यैः=नेतृत्व करनेवाले मनुष्यों के द्वारा, (सनीडाः) समानस्थानाः= समान स्थानों की, (विशः) प्रजाः=सन्तानें, (विश्वानि) सर्वाणि=समस्त, (देवत्वा) देवानां विदुषां दिव्यगुणानां वा भावरूपाणि=दिव्य गुणोंवाले विद्वानों या वास्तव में विद्यमान, (प्रापयति)=प्राप्त कराता है, (ते)=वे, (त्वम्)=तुम, (अपि)=भी, (अश्याः) प्राप्नुयाः=प्राप्त कराओ ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्यों के द्वारा विशेष ज्ञानवाले विद्वानों की सङ्गति और आश्रय के विना सब सुखों की प्राप्ति नहीं हो सकती है, ऐसा जानना चाहिये ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्यः) मनुष्य ! (यत्) जो (अग्निः) पवित्र करनेवाले के समान पवित्र सभाध्यक्ष के (इव) समान, (दुरोणे) घर में (जातः) उत्पन्न, (पुत्रः) पिता आदि के द्वारा पालन किये हुए के (न) समान [और] (रण्वः) आनन्ददायक (वाजी) अश्व के (न) समान, (प्रीतः) प्रसन्न (विशः) सन्तान को, (वि) विशेष रूप से (तारीत्) दुःख से पार कराता है। (यः) जो (अह्वे) जिस व्यवहार में पुकारते और व्याप्त होते हैं, उसमें (नृभिः) नेतृत्व करनेवाले मनुष्यों के द्वारा, (सनीडाः) समान स्थानों की (विशः) सन्तानें, (विश्वानि) समस्त (देवत्वा) दिव्य गुणोंवाले विद्वानों या जो वास्तव में विद्यमान हैं, उनको (प्रापयति) प्राप्त कराता है, (ते) वे (त्वम्) तुम (अपि) भी (अश्याः) प्राप्त कराओ ॥३॥

    संस्कृत भाग

    स्वर सहित पद पाठ पु॒त्रः । न । जा॒तः । र॒ण्वः । दु॒रो॒णे । वा॒जी । न । प्री॒तः । विशः॑ । वि । ता॒री॒त् ॥ विशः॑ । यत् । अह्वे॑ । नृऽभिः॑ । सऽनी॑ळाः । अ॒ग्निः । दे॒व॒ऽत्वा । विश्वा॑नि । अ॒श्याः॒ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। नहि मनुष्याणां विज्ञानविद्वत्सङ्गाश्रयेण विना सर्वाणि सुखानि प्राप्तुं शक्यानि भवन्तीति वेदितव्यम् ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष, उपमा व लुप्तोपमालंकार आहेत. जो सूर्याप्रमाणे विद्येचा प्रकाशक, अग्नीप्रमाणे सर्व दुःखांना भस्म करणारा परमेश्वर किंवा विद्वान असतो. त्याला आपल्या आत्म्याचे आश्रयस्थान बनवून दुष्ट व्यवहाराचा त्याग करून, सत्य व्यवहारात स्थित राहून माणसांनी सदैव सुख प्राप्त करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Rising like a darling son, delight of the home, beautiful and joyous as a horse, Agni takes people across the hurdles of life. To whatever creative and productive yajnic programmes people invite and invoke Agni, It joins the people with Its light and divinity of power and blesses them with all the wealths of life.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O man, you should also serve and respect a leader who diffuses happiness in a dwelling like a delightful lovely son who overcomes adversaries like a pleasing strong steed in the battlefield and takes men across all misery, who living among men. makes them divine.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (रण्व:) रमणीय: । अत्र रम धातोर्बाहुलकादोणादिको व: प्रत्ययः = Delightful,Lovely. (अग्नि:) पावक: इव पवित्र : सभाध्यक्ष: = The President of the Assembly pure like the fire.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know that they cannot enjoy all happiness without right knowledge and association with learned persons.

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    Subject of the mantra

    Then, how should a scholar be?This topic has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyaḥ) =man (yat) =that, (agniḥ)=like the one who sanctifies, the one who sanctifies, (iva) =like, (duroṇe) =in the house, (jātaḥ) =born, (putraḥ)= brought up by father etc., (na) =like, [aura]=and, (raṇvaḥ)=joyful, (vājī) =of horse, (na) =like, (prītaḥ) =happy, (viśaḥ) =to children, (vi)=especially, (tārīt)=makes one overcome sorrow. (yaḥ) =those, (ahve)=In the behavior which calls and pervades, (nṛbhiḥ)= By men who lead, (sanīḍāḥ) =of similar places, (viśaḥ) =children, (viśvāni) =all, (devatvā)=To scholars with divine qualities or those who actually exist, (prāpayati) =gets obtained, (te) =those, (tvam) =you, (api)=also, (aśyāḥ) =get obtained.

    English Translation (K.K.V.)

    O man! Who is like the one who sanctifies, like the President of the holy Assembly, like the one born in the house, like the one brought up by the father etc. and like the joyful horse, who especially makes the children makes overcome sorrow. Who, through the people who lead in the behaviour in which He calls and pervades, makes the children of similar places, the scholars with all the divine qualities or those who are actually present, obtains them, you also get them obtained.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are simile and silent vocal simile figurative at two places in this mantra. It should be known that humans cannot attain all the happiness without the company and shelter of scholars with special knowledge.

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