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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 7 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 7/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इन्द्र॒मिद्गा॒थिनो॑ बृ॒हदिन्द्र॑म॒र्केभि॑र॒र्किणः॑। इन्द्रं॒ वाणी॑रनूषत॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑म् । इत् । गा॒थिनः॑ । बृ॒हत् । इन्द्र॑म् । अ॒र्केभिः॑ । अ॒र्किणः॑ । इन्द्र॑म् । वाणीः॑ । अ॒नू॒ष॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रमिद्गाथिनो बृहदिन्द्रमर्केभिरर्किणः। इन्द्रं वाणीरनूषत॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रम्। इत्। गाथिनः। बृहत्। इन्द्रम्। अर्केभिः। अर्किणः। इन्द्रम्। वाणीः। अनूषत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 7; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेन्द्रशब्देनार्थत्रयमुपदिश्यते।

    अन्वयः

    ये गाथिनोऽर्किणो विद्वांसस्ते अर्केभिर्बृहत् महान्तमिन्द्रं परमेश्वरमिन्द्रं सूर्य्यमिन्द्रं वायुं वाणीश्चेदेवानूषत यथावत्स्तुवन्तु॥१॥

    पदार्थः

    (इन्द्रम्) परमेश्वरम् (इत्) एव (गाथिनः) गानकर्त्तारः (बृहत्) महान्तम्। अत्र सुपां सुलुगित्यमो लुक्। (इन्द्रम्) सूर्य्यम्। (अर्केभिः) अर्चनसाधकैः सत्यभाषणादिभिः शिल्पविद्यासाधकैः कर्मभिर्मन्त्रैश्च। अर्क इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.२) अनेन प्राप्तिसाधनानि गृह्यन्ते। अर्को मन्त्रो भवति यदेनानार्चन्ति। (निरु०५.४) अत्र बहुलं छन्दसीति भिस ऐसादेशाभावः। (अर्किणः) विद्वांसः (इन्द्रम्) महाबलवन्तं वायुम् (वाणीः) वेदचतुष्टयीः (अनूषत) स्तुवन्तु। अत्र लोडर्थे लुङ्। संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति गुणादेशाभावः॥१॥

    भावार्थः

    ईश्वर उपदिशति-मनुष्यैर्वेदमन्त्राणां विचारेणेश्वरसूर्य्यवाय्वादिपदार्थगुणान् सम्यग्विदित्वा सर्वसुखाय प्रयत्नत उपकारो नित्यं ग्राह्य इति॥१॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सातवें सूक्त का आरम्भ है। इस में प्रथम मन्त्र करके इन्द्र शब्द से तीन अर्थों का प्रकाश किया है-

    पदार्थ

    जो (गाथिनः) गान करनेवाले और (अर्किणः) विचारशील विद्वान् हैं, वे (अर्केभिः) सत्कार करने के पदार्थ सत्यभाषण शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए कर्म मन्त्र और विचार से (वाणीः) चारों वेद की वाणियों को प्राप्त होने के लिये (बृहत्) सब से बड़े (इन्द्रम्) परमेश्वर (इन्द्रम्) सूर्य्य और (इन्द्रम्) वायु के गुणों के ज्ञान से (अनूषत) यथावत् स्तुति करें॥१॥

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करता है कि मनुष्यों को वेदमन्त्रों के विचार से परमेश्वर सूर्य्य और वायु आदि पदार्थों के गुणों को अच्छी प्रकार जानकर सब के सुख के लिये उनसे प्रयत्न के साथ उपकार लेना चाहिये॥१॥

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    विषय

    अब सातवें सूक्त का आरम्भ है। इस में प्रथम मन्त्र करके इन्द्र शब्द से तीन अर्थों का प्रकाश किया है।

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    ये गाथिनःअर्किणो विद्वांसः ते अर्केभिः बृहत् महान्तम्  इन्द्रम् परमेश्वरम् इन्द्रम् सूर्य्यम् इन्द्रम् वायुं वाणीः चेत् एव अनूषत यथावत् स्तुवन्तु॥१॥

    पदार्थ

    (ये)=जो, (गाथिनः) गानकर्त्तारः=गान करने वाले, (अर्किणः)=विचारशील, (विद्वांसः)=विद्वान्, (ते)=वे, (अर्केभिः) अर्चनसाधकैः सम्यभाषणादिभिः शिल्पविद्यासाधकैः क्रमभिर्मन्त्रैश्च=अर्चक साधकों, सत्यभाषण शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए कर्म और मन्त्रों से, (बृहत्) महान्तम्=सबसे बड़े, (इन्द्रम्) परमेश्वरम्=परमेश्वर, (इन्द्रम्) सूर्य्यम्=सूर्य, (इन्द्रम्) वायुम्=वायु, (च)=भी, (इत्) एव=ही, (वाणीः)=वाणी, (यथावत्)=यथावत् (अनूषत) स्तुवन्तु=स्तुति करें ॥१॥ 

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद- ईश्वर उपदेश करता है कि मनुष्यों को वेदमन्त्रों के विचार से परमेश्वर सूर्य्य और वायु आदि पदार्थों के गुणों को अच्छी प्रकार जानकर सब के सुख के लिये उनसे प्रयत्न के साथ उपकार लेना चाहिये॥१॥

     

     

     

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    (ये) जो (गाथिनः) गान करने वाले और (अर्किणः) विचारशील (विद्वांसः) विद्वान् हैं। (ते) वे (अर्केभिः)  अर्चक और साधक, सत्यभाषण और शिल्पविद्या से सिद्ध किये हुए कर्म और मन्त्रों से (बृहत्) सबसे बड़े (इन्द्रम्) परमेश्वर, (इन्द्रम्) सूर्य और (इन्द्रम्) वायु की  (वाणीः) वाणी के लिए (च) भी (यथावत्) ठीक-ठीक प्रकार से (इत्) ही (अनूषत) स्तुति करें ॥१॥

    संस्कृत भाग

    पदार्थः(महर्षिकृतः)- (इन्द्रम्) परमेश्वरम् (इत्) एव (गाथिनः) गानकर्त्तारः (बृहत्) महान्तम्। अत्र सुपां सुलुगित्यमो लुक्। (इन्द्रम्) सूर्य्यम्। (अर्केभिः) अर्चनसाधकैः सत्यभाषणादिभिः शिल्पविद्यासाधकैः कर्मभिर्मन्त्रैश्च। अर्क इति पदनामसु पठितम्। (निघं०४.२) अनेन प्राप्तिसाधनानि गृह्यन्ते। अर्को मन्त्रो भवति यदेनानार्चन्ति। (निरु०५.४) अत्र बहुलं छन्दसीति भिस ऐसादेशाभावः। (अर्किणः) विद्वांसः (इन्द्रम्) महाबलवन्तं वायुम् (वाणीः) वेदचतुष्टयीः (अनूषत) स्तुवन्तु। अत्र लोडर्थे लुङ्। संज्ञापूर्वको विधिरनित्य इति गुणादेशाभावः॥१॥


    विषयः- अथेन्द्रशब्देनार्थत्रयमुपदिश्यते।


    अन्वयः- ये गाथिनोऽर्किणो विद्वांसस्ते अर्केभिर्बृहत् महान्तमिन्द्रं परमेश्वरमिन्द्रं सूर्य्यमिन्द्रं वायुं वाणीश्चेदेवानूषत यथावत्स्तुवन्तु॥१॥


    भावार्थः(महर्षिकृतः)- ईश्वर उपदिशति-मनुष्यैर्वेदमन्त्राणां विचारेणेश्वरसूर्य्यवाय्वादिपदार्थगुणान् सम्यग्विदित्वा सर्वसुखाय प्रयत्नत उपकारो नित्यं ग्राह्य इति ॥१॥

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    विषय

    " ऋग् - यजुः - साम " द्वारा उपासन 

    पदार्थ

    १. (गाथिनः) -  गीयमान [गाये जानेवाले] साम - मन्त्रों से युक्त प्रभु के उद्गाता (इत्) - निश्चय से (इन्द्रम्) - उस शत्रुओं का विदारण करनेवाले  , परमैश्वर्यसम्पन्न प्रभु का (बृहत्) - खूब ही (अनूषत) - स्तवन करते हैं । साममन्त्रों से प्रभु का स्तवन करते हुए ये भक्त अपने हृदयों को साम [शान्ति] से युक्त करनेवाले होते हैं । 

    २. (आर्किणः) - ऋगरूप मन्त्रों से युक्त प्रभु के होता (अर्केभिः) ऋग्रूप मन्त्रों से उसी (इन्द्रम्) ज्ञानरूप परमैश्वर्यवाले इन्द्र का खूब स्तवन करते हैं । ऋचाओं से प्रभु का स्तवन करते हुए ये होता अपने मस्तिष्क में ऋग् - विज्ञान को भरनेवाले होते हैं । 

    ३. अध्वर्यु लोग (इन्द्रम्) - उस सब बलयुक्त कर्मों को करनेवाले प्रभु को ही (वाणीः) [वाणाभिः तृतीयार्थे प्रथमा] - यजूरूप वाणियों से (अनूषत) - स्तुति करते हैं । इन यजू - रूप वाणियों से प्रभु का स्तवन करते हुए ये अध्वर्यु लोग अपने हाथों से यज्ञात्मक कर्मों को ही करते हैं । ये यज्ञात्मक कर्म इन्हें सबल बनानेवाले होते हैं । 

    भावार्थ

    भावार्थ - गाथी साममन्त्रों से  , अर्की ऋगुरूप मन्त्रों से तथा अध्वर्यु यजुर्वाणियों से उस इन्द्र का ही स्तवन करते हैं । इससे इनके मनों में शान्ति  , मस्तिष्क में दीप्त व हाथों में यज्ञात्मक उत्तम कर्म व कर्म द्वारा शक्ति का प्रादुर्भाव होता है । 

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    विषय

    परमेश्वर । पक्षान्तर में राजा ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रम् ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर को ( इत् ) ही ( गाथिनः ) सामगान करनेहारे विद्वान् पुरुष गान करते हैं । ( अर्किणः ) अर्चना योग्य मन्त्रों और विचारों से युक्त विद्वान् पुरुष ( अर्केभिः ) अर्चनाओं और सत्यभाषणादि व्यवहारों, शिल्पादि साधक कर्मों और वेदमन्त्रों से भी उस ( वृहत् इन्द्रम् ) महान् परमेश्वर की स्तुति या साधना करते हैं और विद्वान् पुरुष ( वाणीः ) वाणियों से भी (इन्द्रम् अनूषत) उस ईश्वर की स्तुति करते हैं ।

    टिप्पणी

    वाणीः—यजूरूपाभिरिति सायणः । वेदचतुष्टयीरिति दयानन्दः ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मधुच्छन्दा ऋषिः॥ इन्द्रो देवता॥ गायत्र्यः । दशर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सातव्या सूक्तात ईश्वराने आपली निर्मिती सिद्ध करण्यासाठी अंतरिक्षात सूर्य व वायू स्थापन केलेले आहेत व तोच एक सर्वशक्तिमान, सर्व दोषांनी रहित व सर्व माणसांमध्ये पूज्य आहे. या व्याख्येने या सातव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर सहाव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    ईश्वर असा उपदेश करतो की, माणसांनी वेदमंत्रातील विचारांच्या आधारे सूर्य व वायू तसेच परमेश्वर इत्यादी पदार्थांच्या गुणांना चांगल्या प्रकारे जाणून सर्वांच्या सुखासाठी प्रयत्न करून त्यांचा लाभ घ्यावा. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The singers of Vedic hymns worship Indra, infinite lord of the expansive universe, Indra, the sun, lord of light, Indra, vayu, maruts, currents of energy, and Indra, the universal divine voice, with prayers, mantras, actions and scientific research.

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    Subject of the mantra

    Now, there is beginning of seventh hymn. Three meanings have been elucidated by its first mantra by the word ‘Indra.’

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (ye)=Those, (gāthinaḥ)=singers and, (arkiṇaḥ)=thoughtful,(vidvāṃsaḥ)=are scholars, (te)=they, (arkebhiḥ)= worshipers and seekers, by deeds and mantras accomplish by truthful speech and craftsmanship, (indram)=God, (indram) =Sun and, (indram)=of air, (vāṇīḥ) =for the speech, (ca) =als0, (yathāvat)=properly, (it)=only, (anūṣata)=must praise.

    English Translation (K.K.V.)

    Those, who are singers and thoughtful scholars. They worshipers and seekers must pray the God, the Sun and the air as well through the accomplishment of truthful speech and craftsmanship, deeds and the mantras properly.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    God instructs that human beings, knowing well the qualities of the God, Sun and air, etc., from the idea of mantras of Vedas should take favour from them with efforts for the happiness of all.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    There are three meanings for the word Indra used in this hymn.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    (1) The learned chanters (of Sama Veda) glorify the Great Lord only, with their songs of the Mantras and with the observance of truth etc. The reciters of the (Rigvedic ) Mantras also praise the same Great God. Let all the Vedas and the speeches of the wise, glorify the Lord of the Universe. (2) Let the learned scholars and scientists describe the attributes of the sun with the acts which develop arts and industries. (3) Let the learned scientists describe the attributes of the air and how to utilize it properly, for the benefit of the people.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अर्केभिः) अर्चनसाधकैः सत्यभाषणादिभिः शिल्पविद्या साधकैः कर्मभिः मन्त्रैश्च । अर्क इति पदनामसुपठितम् । अनेनप्राप्तिसाधनानि गृह्यन्ते । अर्को मन्त्रों भवति यत् अनेन अर्चन्ति। (निरुक्ते ५.४)

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    God gives the instruction that men should ponder over the meanings of the Vedic Mantras, should understand the real nature of God, the sun and the air and then should exert themselves for the welfare of all, by utilizing all objects properly.

    Translator's Notes

    For these three meanings of the word Indra, the following quotations from the Brahmanas are quite clear besides many others. (इन्द्रम् ) (१) परमेश्वरम् (२) सूर्यम् (३) वायुम् । तस्मादाह इन्द्रो ब्रह्मेति । ( कौषीतकी ब्राह्मणे ऋग्वेदीये ६.१४) इति परमैश्वर्ये इति धातोर्निष्पन्नः इन्द्रः परमेश्वरवाचकः । अथ यः स इन्द्र एष एव सः य एष (सूर्यः तपति ) (जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मणे १.२८.२ ॥ १.३२. ५ ) अथ यः स इन्द्रोऽसौ स आदित्यः ।। (शतपथ ब्रा० ८.५.३.२) इन्द्र: सूर्यः इति सायणाचार्योऽपि ताण्ड्य ब्राह्मण १४.२. ५. भाष्ये । अयं वा इन्द्रो योऽयं वातः पवते ( शत० १४.२.२.६) यो वै वायुः स इन्द्रः य इन्द्रः स वायुः (शत० ४.१.३.१९) These and other passages substantiate Rishi Dayananda's interpretation given above.

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