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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 70 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 70/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    व॒नेम॑ पू॒र्वीर॒र्यो म॑नी॒षा अ॒ग्निः सु॒शोको॒ विश्वा॑न्यश्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒नेम॑ । पू॒र्वीः । अ॒र्यः । म॒नी॒षा । अ॒ग्निः । सु॒शोकः॑ । विश्वा॑नि । अ॒श्याः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वनेम पूर्वीरर्यो मनीषा अग्निः सुशोको विश्वान्यश्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वनेम। पूर्वीः। अर्यः। मनीषा। अग्निः। सुशोकः। विश्वानि। अश्याः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 70; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनुष्यगुणा उपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    वयं यः सुशोकश्चिकित्वानग्निरर्य्य ईश्वरो जीवो वा मनीषया पूर्वीः प्रजा विश्वानि दैव्यानि व्रता मानुषस्य जन्म चाश्याः समन्ताद् व्याप्नोति तमा वनेम ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (वनेम) संविभागेनानुष्ठेम (पूर्वीः) पूर्वभूताः प्रजाः (अर्य्यः) स्वामीश्वरो जीवो वा। अर्य्य इतीश्वरनामसु पठितम्। (निघं०२.२२) (मनीषा) मनीषया विज्ञानेन (अग्निः) ज्ञानादिगुणवान् (सुशोकः) शोभनाः शोका दीप्तयो यस्य सः (विश्वानि) सर्वाणि भूतानि कर्माणि वा (अश्याः) व्याप्नुहि (आ) समन्तात् (दैव्यानि) दिव्यैर्गुणैः कर्मभिर्वा निर्वृत्तानि (व्रता) विद्याधर्मानुष्ठानशीलानि (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (आ) आभिमुख्ये (मानुषस्य) मनुष्यजातौ भवस्य (जनस्य) श्रेष्ठस्य देवस्य मनुष्यस्य (जन्म) शरीरधारणेन प्रादुर्भवम् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्येन जगदीश्वरेण मनुष्येण वा कारणकार्यजीवाख्याः शुद्धाः गुणाः कर्म्माणि व्याप्तानि स चोपास्यः सत्कर्त्तव्यो वास्ति नह्येतेन विना मनुष्यजन्मसाफल्यं जायते ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ७० सत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है, इसके पहिले मन्त्र में मनुष्यों के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हम लोग जो (सुशोकः) उत्तम दीप्तियुक्त (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (अग्निः) ज्ञान आदि गुणवाला (अर्य्यः) ईश्वर वा मनुष्य (मनीषा) बुद्धि तथा विज्ञान से (पूर्वीः) पूर्व हुई प्रजा और (विश्वानि) सब (दैव्यानि) दिव्य गुण वा कर्मों से सिद्ध हुए (व्रता) विद्याधर्मानुष्ठान और (मानुषस्य) मनुष्य जाति में हुए (जनस्य) श्रेष्ठ विद्वान् मनुष्य के (जन्म) शरीरधारण से उत्पत्ति को (अश्याः) अच्छी प्रकार प्राप्त कराता है, उसका (आ वनेम) अच्छे प्रकार विभाग से सेवन करें ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को जिस जगदीश्वर वा मनुष्य के कार्य्य, कारण और जीव प्रजा शुद्ध गुण और कर्मों को व्याप्त किया करे, उसी की उपासना वा सत्कार करना चाहिये, क्योंकि इसके विना मनुष्यजन्म ही व्यर्थ जाता है ॥ १ ॥

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    विषय

    अग्नि व सुशोक प्रभु का उपासन

    पदार्थ

    १. (पूर्वीः) = अपने जीवन को पूरण करनेवाले हम - शरीर को नीरोग और मन को न्यूनताओं से रहित बनानेवाले हम (वनेम) = उस प्रभु का सम्भजन करें जो [क] (मनीषा) = बुद्धि के द्वारा (अर्यः) = गन्तव्य है । वे सब भूतों में गूढ प्रभु सूक्ष्मदर्शी पुरुषों द्वारा सूक्ष्मबुद्धि से ही द्रष्टव्य हैं ; [ख] (अग्निः) = वे अग्रणी हैं, गुणों के दृष्टिकोण से वे अग्रस्थान में स्थित हैं । वस्तुतः प्रत्येक गुण की वे चरमसीमा हैं ; [ग] (सुशोकः) = उत्तम दीप्तिवाले हैं, उनका ज्ञान देदीप्यमान है, निर्भ्रान्त ज्ञानवाले हैं । [घ] (विश्वानि अश्याः) = सब भूतों में वे व्याप्त है । २. वे प्रभु (दैव्यानि) = सूर्यादि देवों से सम्बद्ध (व्रतानि) = व्रतों को (आचिकित्वान्) = पूर्णरूप से जानते हैं । प्रत्येक देव की गति प्रभु के ज्ञान का विषय है । उसके शासन में ही तो ये अपने - अपने मार्ग पर आक्रमण कर रहे हैं ३. वे प्रभु (मानुषस्य जनस्य) = मानुष जन के (जन्म) = जन्म को भी (आ) = [चिकित्वान्] पूर्णरूप से जानते हैं । इनके कर्मों को ठीक - ठाक जानते हुए ही वे इन्हें कर्मानुसार विविध फल प्राप्त कराते हैं । जड़ - चेतन कोई भी प्रभु के ज्ञान - क्षेत्र को लाँघ नहीं पाता ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम उस प्रभु का भजन करें जो बुद्धि के द्वारा दर्शनीय हैं, अग्नि व सुदीप्त होते हुए सबको व्याप्त किये हुए हैं । वे प्रभु सूर्यादि देवों के व्रतों को जानते हुए मानव के जन्म को भी पूर्णतया जानते हैं ।

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    विषय

    अग्नि के समान भोक्ता राजा, स्वामी, ईश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( अग्निः ) अग्नि जिस प्रकार ( सुशोकः ) उत्तम कान्ति, ज्वाला और दीप्ति से युक्त होकर (विश्वानि) समस्त पदार्थों को (अश्याः) व्यापता है, या खा जाता, अर्थात् भस्म कर देता है, (मनीषा) बुद्धि और विज्ञान के बल से (अर्यः) सबका स्वामी (अग्निः) ज्ञानवान् (सुशोकः) उत्तम कान्तिमान्, तेजस्वी होकर (पूर्वी) ऐश्वर्य से समृद्ध, धनधान्य से पूर्ण प्रजाओं और ( विश्वानि ) समस्त राष्ट्र के ऐश्वर्यों को ( अश्याः ) व्यापता और उनका भोग करता है। वह (दैव्यानि) विद्वानों के बताये अथवा (दैव्यानि) सूर्य, मेघ आदि के लोकोपकारक गुणों के अनुकरण में ( व्रता ) प्रजा के हितकारी कर्त्तव्यों को और ( मानुषस्य ) मननशील ( जनस्य ) जनों के ( जन्म ) जन्म को भी ( आ अश्युः ) पालन करे और उसको सफल करे । हम सब उसकी ही ( वनेम ) शरण जावें । ईश्वरपक्ष में—वह ( मनीषा अर्यः ) ज्ञान से सबका ) प्रेरक, स्वामी तेजस्वी होकर सब पूर्ण शक्तियों, प्रजाओं और सब पदार्थों में व्यापक है । ( चिकित्वान् ) वह सर्वज्ञ, सब दिव्य पदार्थों के धर्मों को और मननशील प्राणियों के जन्मों तक को व्यापता है, उनको जानता है। हम उसकी उपासना करें। जीवपक्ष में—जीव अपनी बुद्धि बल से सब शक्तियों को तेजस्वी अग्नि के समान ज्ञान करे और भोग करे। वह दिव्य पदार्थों और विद्वानों के गुणों, धर्मों और कर्त्तव्यों को जाने, मानुष जन्म को प्राप्त करे, हम उस जीव को जानें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ४ विराट्पक्तिः । २ पङ्क्तिः ३, ५ निचृत् पंक्तिः । ६ याजुषी पंक्तिः ॥ षडर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब ७० सत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है, इसके पहले मन्त्र में मनुष्यों के गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- वयं यः सुशोकः चिकित्वान्{आ} अग्निः अर्य्य ईश्वरः जीवः वा मनीषया पूर्वीः प्रजा विश्वानि दैव्यानि व्रता मानुषस्य {जनस्य} जन्म च अश्याः समन्ताद् व्याप्नोति तम् आ वनेम ॥१॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (वयम्)=हम, (यः)=जो, (सुशोकः) शोभनाः शोका दीप्तयो यस्य सः=शोभनीय तेजवाले, (चिकित्वान्) ज्ञानवान्= ज्ञानवान्, {आ} आभिमुख्ये=सामने से उपस्थित, (अग्निः) ज्ञानादिगुणवान्=ज्ञान आदि गुणवाले, (अर्य्यः) स्वामीश्वरो जीवो वा= स्वामी परमेश्वर या जीव, (मनीषया) मनीषया विज्ञानेन=बुद्धि और विशेष ज्ञान से, (पूर्वीः) पूर्वभूताः प्रजाः=पहले उत्पन्न हुई सन्तानें, (विश्वानि) सर्वाणि भूतानि कर्माणि वा=समस्त जीव और तत्त्व या कर्म, (दैव्यानि) दिव्यैर्गुणैः कर्मभिर्वा निर्वृत्तानि=दिव्य गुणों या कर्मों से निर्वृत्त हो चुके, (व्रता) विद्याधर्मानुष्ठानशीलानि=विद्या और धर्म का अनुष्ठान करने के स्वभाववाले, (मानुषस्य) मनुष्यजातौ भवस्य=मनुष्य जाति में उत्पन्न हुए, {जनस्य} श्रेष्ठस्य देवस्य मनुष्यस्य=श्रेष्ठ देव स्वरूप मनुष्यों के, (जन्म) शरीरधारणेन प्रादुर्भवम्=शरीर धारण कर उत्पन्न होना, (च) =भी, (अश्याः) व्याप्नुहि=व्याप्त होता है, (समन्तात्) =हर ओर से, (व्याप्नोति)= व्याप्त होता है, (तम्)=उसका, (आ) आभिमुख्ये =सामने से उपस्थित होकर, (वनेम) संविभागेनानुष्ठेम=अच्छे प्रकार से अनुष्ठान करें ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जिस जगदीश्वर के द्वारा या मनुष्य के द्वारा कारण, कार्य और जीव नामक शुद्ध गुण और कर्म व्याप्त होते हैं, उसी की मनुष्यों के द्वारा उपासना और सत्कार किया जाना चाहिये, इसके विना मनुष्य जन्म की सफलता नहीं होती है ॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (वयम्) हम (यः) जो (सुशोकः) शोभनीय तेजवाले हैं, (चिकित्वान्) ज्ञानवान् और {आ} सामने से उपस्थित हैं। (अग्निः) ज्ञान आदि गुणवाले (अर्य्यः) स्वामी परमेश्वर या जीव, (मनीषया) बुद्धि और विशेष ज्ञान से, (पूर्वीः) पहले उत्पन्न हुई सन्तानें, (विश्वानि) समस्त जीव और तत्त्व या कर्म से (दैव्यानि) दिव्य गुणों या कर्मों से निर्वृत्त हो चुके, (व्रता) विद्या और धर्म का अनुष्ठान करने के स्वभाववाले, (मानुषस्य) मनुष्य जाति में उत्पन्न हुए {जनस्य} श्रेष्ठ देव स्वरूप मनुष्यों का (जन्म) शरीर धारण कर उत्पन्न होना (च) भी, (समन्तात्) हर ओर से (व्याप्नोति) व्याप्त होता है। (तम्) उसका (आ) सामने से उपस्थित होकर, (वनेम) हम अच्छे प्रकार से अनुष्ठान करें ॥१॥

    संस्कृत भाग

    व॒नेम॑ । पू॒र्वीः । अ॒र्यः । म॒नी॒षा । अ॒ग्निः । सु॒शोकः॑ । विश्वा॑नि । अ॒श्याः॒ ॥ स्वर सहित पद पाठ आ । दैव्या॑नि । व्र॒ता । चि॒कि॒त्वान् । आ । मानु॑षस्य । जन॑स्य । जन्म॑ ॥ पदार्थः(महर्षिकृतः)- (वनेम) संविभागेनानुष्ठेम (पूर्वीः) पूर्वभूताः प्रजाः (अर्य्यः) स्वामीश्वरो जीवो वा। अर्य्य इतीश्वरनामसु पठितम्। (निघं०२.२२) (मनीषा) मनीषया विज्ञानेन (अग्निः) ज्ञानादिगुणवान् (सुशोकः) शोभनाः शोका दीप्तयो यस्य सः (विश्वानि) सर्वाणि भूतानि कर्माणि वा (अश्याः) व्याप्नुहि (आ) समन्तात् (दैव्यानि) दिव्यैर्गुणैः कर्मभिर्वा निर्वृत्तानि (व्रता) विद्याधर्मानुष्ठानशीलानि (चिकित्वान्) ज्ञानवान् (आ) आभिमुख्ये (मानुषस्य) मनुष्यजातौ भवस्य (जनस्य) श्रेष्ठस्य देवस्य मनुष्यस्य (जन्म) शरीरधारणेन प्रादुर्भवम् ॥१॥ विषयः- अथ मनुष्यगुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- वयं यः सुशोकश्चिकित्वानग्निरर्य्य ईश्वरो जीवो वा मनीषया पूर्वीः प्रजा विश्वानि दैव्यानि व्रता मानुषस्य जन्म चाश्याः समन्ताद् व्याप्नोति तमा वनेम ॥१॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैर्येन जगदीश्वरेण मनुष्येण वा कारणकार्यजीवाख्याः शुद्धाः गुणाः कर्म्माणि व्याप्तानि स चोपास्यः सत्कर्त्तव्यो वास्ति नह्येतेन विना मनुष्यजन्मसाफल्यं जायते ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात ईश्वर, मनुष्य व सभा इत्यादी अध्यक्षाच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. ज्या जगदीश्वराने कार्य, कारण, जीवांना तसेच माणसाच्या शुभ गुण कर्मांना व्याप्त केलेले आहे. त्या परमेश्वराची उपासना व उचित कर्तव्य केले पाहिजे. त्याशिवाय मनुष्य जन्माचे सार्थक होत नाही. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    We, ancient people, with our heart and soul honour and worship Agni, Lord of universal wealth and power, brilliant and blazing Divinity, who knows, pervades, reaches and controls all the divine laws and rules of the world and the origin, birth and history of all the people and nations.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Now the attributes of a good man are taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    1) In case of God. We meditate upon God who is Refulgent and being the Lord of the world is Omniscient. By His wisdom, He knows all the subjects whether old or new, all the divine cows and acts which regulate the birth of the human race. (2) We serve and honour a learned person who is full of the light of wisdom and knows all the subjects whether old or new, all divine vows and acts which regulate the birth of the human race.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अर्यः) स्वामी ईश्वरो जीवोवा अर्थ इतीश्वर नाम (निघ० २.२२) = A soul Master of senses. (सुशोकः) शोभनाः शोकाः दीप्तयो यस्य सः = Refulgent or full of splendour. (शोचतिर्ज्वलतिकर्मा निघ० १.१६ )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Shleshalankara double entendre in the Mantra. A man being master of his senses should worship God who pervades or possesses all pure attributes and acts. He should also respect a man who is endowed with good attributes and actions. Without this, a man can not make his birth as human being fruitful.

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    Subject of the mantra

    Now the 70th hymn begins, in its first mantra the virtues of human beings are preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (vayam) =We, (yaḥ) =who, (suśokaḥ) =having splendid magnificence, (cikitvān)= knowledgeable and, {ā} =being present from front, (agniḥ) =having qualities like knowledge etc., (aryyaḥ)=Lord God or creature, (manīṣayā)=With wisdom and special knowledge, (pūrvīḥ) =first born children, (viśvāni) =by all living beings and elements or action, (daivyāni)= Having become free from divine qualities or actions, (vratā) =Those with a nature to practice knowledge and righteousness, (mānuṣasya)= born into mankind, {janasya} =the best humans in the form of deities, (janma)=to be born with a body, (ca) =also, (samantāt) =from every side, (vyāpnoti) =pervades, (tam) =it’s, (ā) =appearing from the front, (vanema)= let us perform the ritual properly.

    English Translation (K.K.V.)

    We, who are having splendid magnificence, are knowledgeable and present from the front. Lord God or living beings with qualities like knowledge, wisdom and special knowledge, first born children, all living beings and elements or karmas, those who have been freed from divine qualities or actions, those who have the nature to perform the rituals of knowledge and righteousness, the best ones born among the human race. The birth of human beings in the form of deities is also prevalent everywhere. By being present in front of him, let us perform the rituals properly.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is paronomasia as figurative in this mantra. The god, through whom the causes, actions and pure qualities and karma are pervaded through human beings, should be worshiped and honoured by human beings, without this there is no success in human birth. (Rigveda 01.70.01)

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