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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 71/ मन्त्र 1
    ऋषिः - पराशरः शाक्तः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उप॒ प्र जि॑न्वन्नुश॒तीरु॒शन्तं॒ पतिं॒ न नित्यं॒ जन॑यः॒ सनी॑ळाः। स्वसा॑रः॒ श्यावी॒मरु॑षीमजुष्रञ्चि॒त्रमु॒च्छन्ती॑मु॒षसं॒ न गावः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । प्र । जि॒न्व॒न् । उ॒श॒तीः । उ॒शन्त॑म् । पति॑म् । न । नित्य॑म् । जन॑यः । सऽनी॑ळाः । स्वसा॑रः । श्यावी॑म् । अरु॑षीम् । अ॒जु॒ष्र॒न् । चि॒त्रम् । उ॒च्छन्ती॑म् । उ॒षस॑म् । न । गावः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप प्र जिन्वन्नुशतीरुशन्तं पतिं न नित्यं जनयः सनीळाः। स्वसारः श्यावीमरुषीमजुष्रञ्चित्रमुच्छन्तीमुषसं न गावः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप। प्र। जिन्वन्। उशतीः। उशन्तम्। पतिम्। न। नित्यम्। जनयः। सऽनीळाः। स्वसारः। श्यावीम्। अरुषीम्। अजुष्रन्। चित्रम्। उच्छन्तीम्। उषसम्। न। गावः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 71; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यूयं यं नित्यं चित्रं परमेश्वरं सभाध्यक्षं वा सनीळा जनयः प्रजा उशन्तीः स्वसार उशन्तं पतिं नेव गावः श्यावीमरुषीमुच्छन्तीमुषसं नेवोपाजुष्रन् तं सततं सेवित्वा प्रजिन्वन् ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (उप) सामीप्ये (प्र) प्रकृष्टार्थे (जिन्वन्) तर्पयन्तु। (उशतीः) कामयमानाः (उशन्तम्) कामयमानम् (पतिम्) पालकं पाणिग्रहीतारम् (न) इव (नित्यम्) अव्यभिचारिस्वरूपेणाविनाशिनम् (जनयः) या जायन्ते ता प्रजाः (सनीळाः) एकेश्वराधिकरणसमानस्थानाः (स्वसारः) युवतयो भगिन्यः (श्यावीम्) अल्पकृष्णवर्णाम् (अरुषीम्) आरक्तवर्णाम् (अजुष्रन्) सेवन्ते। अत्र बहुलं छन्दसीति रुडागमः। (चित्रम्) अद्भुतगुणस्वरूपभावम् (उच्छन्तीम्) निवासयन्तीम् (उषसम्) रात्र्यन्तसमयम् (न) इव (गावः) किरणा धेनवो वा ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। सर्वैर्मनुष्यैर्यथा धार्मिका विदुषी पतिव्रता स्त्री पतिं धार्मिको विद्वान् स्त्रीव्रतो मनुष्यो धार्मिकां विवाहितां स्त्रियं सेवते। यथा चोषःकालं प्राप्य किरणाः पशवः पृथिव्यादिकान् पदार्थान् सेवन्ते तथैव परमेश्वरः सभाध्यक्षश्च नित्यं सेवनीयः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब इकहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है, इसके प्रथम मन्त्र में सभाध्यक्ष आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! तुम विद्वान् लोग जिस (नित्यम्) व्यभिचाररहित स्वरूप से नित्य अविनाशी (चित्रम्) आश्चर्य गुण, कर्म और स्वभावयुक्त परमेश्वर वा सभाध्यक्ष के (सनीळाः) एक ईश्वर के बीच रहने से समान स्थानवाले (जनयः) प्रजा वा (उशन्तीः) शोभायमान (स्वसारः) युवती भगिनी (उशन्तम्) शोभायमान अपने-अपने (पतिम्) पालन करनेवाले पति के (न) समान तथा (गावः) किरण वा धेनु (श्यावीम्) धुमैले वर्ण से युक्त वा (अरुषीम्) अत्यन्त लाल वर्णवाली (उच्छन्तीम्) विशेष वास कराती हुई (उषसम्) प्रातःकाल की वेला के (न) समान (उपाजुष्रन्) सेवन करके (प्रजिन्वन्) अत्यन्त तृप्त रहो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। सब मनुष्यों को चाहिये कि जैसे धर्मात्मा विद्वान् स्त्री विवाहित पति का और धर्मात्मा विद्वान् मनुष्य विवाहित स्त्री का सेवन करता है, जैसे प्रातःकाल होते ही किरण वा गौ आदि पशु पृथिवी आदि पदार्थों का सेवन करते हैं, वैसे ही परमेश्वर वा सभाध्यक्ष का निरन्तर सेवन करें ॥ १ ॥

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    विषय

    प्रभुरूप पति की प्राप्ति

    पदार्थ

    १. (उशन्तम्) = उस हित की कामनावाले (नित्यं पति न) = शाश्वतकाल से रक्षक के रूप में वर्तमान उस पतिरूप प्रभु को (उशतीः) = चाहती हुई (जनयः) = अपना विकास करनेवाली (सनीळाः) = प्रभुरूप एक ही आश्रय में निवास करनेवाली (स्वसारः) = आत्मतत्व की ओर चलनेवाली प्रजाएँ (उप) = उस प्रभु की उपासना करती हुई (प्रजिन्वन्) = तृप्ति को अनुभव करती हैं - उपासना में एक अवर्णनीय आनन्द प्राप्त करती हैं । २. ये प्रजाएँ नित्य पति को - प्रभु को उसी प्रकार प्राप्त होती हैं (न) = जैसेकि (श्यावीम्) = [श्यैङ् गतौ] सदा नियम से आगमनवाली (अरुषीम्) = उषा को (गावः) = किरणें (अजुष्रन्) = प्राप्त होती हैं - सेवन करती हैं । जैसे उषा को किरणें नियम से प्राप्त होती है, उसी प्रकार आत्मतत्व की ओर झुकाववाली प्रजाएँ उस प्रभु की नियमितरूप से उपासना करती हैं । उषा जैसे अन्धकार को दूर करती है, उसी प्रकार ये उपासना करनेवाली प्रजाएँ भी अपने हृदय - अन्धकार को दूर करके प्रकाशमय जीवन को बिताती हुई एक अद्भुत तृप्ति का अनुभव करती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु को मैं उसी प्रकार चाहूँ जैसे पत्नी पति को चाहती है । मुझे प्रभु की उपासना उसी प्रकार प्राप्त हो जैसेकि उषा को किरणें प्राप्त होती हैं ।

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    विषय

    बहिनों और गौओं के समान प्रजाओं का वर्णन ।

    भावार्थ

    ( उशन्तीः ) कामनाशील स्त्रियें ( उशन्तं पतिं न ) अपने कामना युक्त पति को जिस प्रकार ( उप प्र जन्वन् ) प्राप्त होकर उसे प्रसन्न करती हैं उसी प्रकार ( सनीळाः ) एक ही देश में रहने वाली ( जनयः ) प्रजाएं ( उशतीः ) प्रेमपूर्वक चाहती हुई ( उशन्तं पतिम् ) अपने प्रति प्रेम करने वाले पालक राजा को (उप प्र जिन्वन् ) प्राप्त होकर उसे अच्छी प्रकार समृद्ध करें । ( गावः ) किरणें जिस प्रकार ( उच्छन्तीम् ) अन्धकार के आवरण को दूर करती हुई ( श्यावीम् ) कुछ २ अन्धकार से अन्धियारी ( अरुषीम् ) कुछ २ ललाई लिये हुए ( उषसम् न ) उषःकाल को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार ( स्वसारः) स्वयं अपने बल से आगे बढ़ने वाली ( गावः ) भूमियें, उनके निवासी प्रजागण या विद्वान् जन ( श्यावीम् ) ज्ञान से सम्पन्न, आगे बढ़ने वाले ( अरुषीम् ) कान्तिमान्, तेजस्वी ( चित्रम् ) संग्रह करने योग्य अद्भुत ऐश्वर्य को ( उच्छन्तीम् ) प्रकट करने वाले ( उषसम् ) शत्रुओं को जला डालने वाले, राजा या विद्वत्सभा को ( अजुषन् ) प्राप्त हों । परमेश्वर के पक्ष में—प्रेम वाली स्त्रियें जिस प्रकार प्रेमी पति को चाहती हैं उसी प्रकार एक स्थान की प्रजाएं अपने पालक नित्य परमेश्वर को भजन करें। किरणें जिस प्रकार उषा को प्राप्त हों उसी प्रकार विद्वान्, ज्ञानवाली प्रजाएं पापनाशक, प्रकाशस्वरूप परमेश्वर का भजन करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, ६, ७ त्रिष्टुप् । २, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ४, ८, १० विराट् त्रिष्टुप् । भूरिक् पंक्तिः ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब इकहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है, इसके प्रथम मन्त्र में सभाध्यक्ष आदि के गुणों का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यं नित्यं चित्रं परमेश्वरं सभाध्यक्षं वा सनीळा जनयः प्रजाः उशन्तीः स्वसार उशन्तं पतिं न इव गावः श्यावीम् अरुषीम् उच्छन्तीम् उषसं न इव उप अजुष्रन् तं सततं सेवित्वा प्र जिन्वन्॥१॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यम्)=जिस, (नित्यम्) अव्यभिचारिस्वरूपेणाविनाशिनम्= व्यभिचार न करनेवाले स्वरूप के और अविनाशी, (चित्रम्) अद्भुतगुणस्वरूपभावम्=अद्भुत गुण के स्वरूप और भाव के, (परमेश्वरम्)= परमेश्वर, (वा)=या, (सभाध्यक्षम्)= सभाध्यक्ष, (सनीळाः) एकेश्वराधिकरणसमानस्थानाः= एक ईश्वर के समान मिलने के स्थान में, (जनयः) या जायन्ते ता प्रजाः=सन्तान की, (उशन्तीः) कामयमानाः=इच्छा करती हुई, (स्वसारः) युवतयो भगिन्यः=बहिनें, (उशन्तम्) कामयमानम्=इच्छा करते हुए, (पतिम्) पालकं पाणिग्रहीतारम्=रक्षक पतियों के, (न) इव=समान, (गावः) किरणा धेनवो वा=किरणों या गायों के, (श्यावीम्) अल्पकृष्णवर्णाम्=श्याम रंग के, और, (अरुषीम्) आरक्तवर्णाम् =लाल रंग के, (उच्छन्तीम्) निवासयन्तीम्=निवास करता हुई, (उषसम्) रात्र्यन्तसमयम् =रात्रि के अन्त में उषा के समय में, (न) इव =समान, (उप) सामीप्ये=समीप से, (अजुष्रन्) सेवन्ते=अनुसरण करते हैं, (तम्)=उसकी, (सततम्)=निरन्तर, (सेवित्वा)=पूजा करते हुए, (प्र) प्रकृष्टार्थे=प्रकृष्ट रूप से, (जिन्वन्) तर्पयन्तु=प्रसन्न करो ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में श्लेष और उपमालङ्कार हैं। सब मनुष्यों में, जैसे धार्मिक, विदुषी, पतिव्रता स्त्री, धार्मिक, विद्वान् पति का अनुसरण करती है। धार्मिक विद्वान् मनुष्य स्त्री के समान पत्नी का अनुसरण करता है। जैसे उषा काल होते ही पहुँचनेवाली किरणें, पशु, पृथिवी आदि पदार्थों का अनुसरण करती हैं, वैसे ही परमेश्वर या सभा आदि के अध्यक्ष का नित्य अनुसरण करने योग्य हैं ॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यम्) जिस (नित्यम्) विकार रहित स्वरूप के, अविनाशी, (चित्रम्) अद्भुत गुण के स्वरूपवाले और भाववाले (परमेश्वरम्) परमेश्वर (वा) या (सभाध्यक्षम्) सभाध्यक्ष के (सनीळाः) ईश्वर के समान मिलने के एक स्थान में, (जनयः) सन्तान की (उशन्तीः) इच्छा करती हुई (स्वसारः) बहिनें, (उशन्तम्) इच्छा करते हुए (पतिम्) रक्षक पतियों के (न) समान, (गावः) किरणों या गायों के (श्यावीम्) श्याम और (अरुषीम्) लाल रंग के (उच्छन्तीम्) निवासों में रहती हुई, (उषसम्) रात्रि के अन्त में उषा के समय के (न) समान (उप) समीपता से (अजुष्रन्) अनुसरण करती हैं। (तम्) उस [परमेश्वर की] (सततम्) निरन्तर (सेवित्वा) पूजा करते हुए (प्र) प्रकृष्ट रूप से (जिन्वन्) [उसे] प्रसन्न करो ॥१॥

    संस्कृत भाग

    उप॑ । प्र । जि॒न्व॒न् । उ॒श॒तीः । उ॒शन्त॑म् । पति॑म् । न । नित्य॑म् । जन॑यः । सऽनी॑ळाः । स्वसा॑रः । श्यावी॑म् । अरु॑षीम् । अ॒जु॒ष्र॒न् । चि॒त्रम् । उ॒च्छन्ती॑म् । उ॒षस॑म् । न । गावः॑ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषोपमालङ्कारौ। सर्वैर्मनुष्यैर्यथा धार्मिका विदुषी पतिव्रता स्त्री पतिं धार्मिको विद्वान् स्त्रीव्रतो मनुष्यो धार्मिकां विवाहितां स्त्रियं सेवते। यथा चोषःकालं प्राप्य किरणाः पशवः पृथिव्यादिकान् पदार्थान् सेवन्ते तथैव परमेश्वरः सभाध्यक्षश्च नित्यं सेवनीयः ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात ईश्वर, सभाध्यक्ष, स्त्री-पुरुष व विद्युत आणि विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेष व उपमालंकार आहेत. जशी धार्मिक विदुषी स्त्री विवाहित पतीचा व धर्मात्मा विद्वान मनुष्य विवाहित स्त्रीचा स्वीकार करतो. जसे प्रातःकाली किरण व गाई इत्यादी पशू, पृथ्वी इत्यादी पदार्थांचे सेवन करतात तसेच माणसांनी परमेश्वर व सभाध्यक्षाचे सेवन करावे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Like married women in a state of love and desire meeting the loving husband for the joy of living, like cows of the same stall going up and out to welcome and feel the sallow, ruddy, wonderful and brilliant dawn, harbinger of light, for a fresh lease of life, let all the people together in love and faith always worship the wondrous, loving protector, Agni, eternal father, for a fresh lease of life and the joy of living.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    1) In case of God- O men, you should lovingly adore God who is Eternal and wonderful on account of His Divine attributes as beloved wives love their own loving husbands. As the cows or the rays of the sun approach the dawn which is at first dark, then glammering and finally radiant, in the same manner, all wise people worship God who is the destroyer of all sins and Resplendent. (2) In the case of the President of the Assembly. As beloved wives love their loving husbands, in the same manner, the subjects of the same land and loving the President of the Assembly who protects them should honour him and be pleased. As the cows or the rays of the sun approach the dawn, so the subjects desiring the glorious President of the Assembly who loves them should satisfy him and be glad to serve him.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जिन्वन्) तर्पयन्तु = Should satisfy or please. (उशती:) कामयमानाः = Desiring or loving. (सनीडा:) एकेश्वराधिकरणसमानस्थानाः = Loving together under God, loving and helping one another. (गाव:) किरणा धेनवो वा

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men should adore God and honour the President of the Assembly as a noble (righteous) learned chaste wife serves her husband and a righteous learned and faithful husband serves his righteous married wife and as the rays of the sun and animals serve the earth and other objects.

    Translator's Notes

    जिवि-प्रीणने वश-कान्तौ

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    Subject of the mantra

    Now the seventy-first hymn starts, in its first mantra the qualities of the Chairman of the Assembly etc. are preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yam) =which, (nityam)=disorder-free, imperishable, (citram)=having amazing qualities and feelings, (parameśvaram) =God, (vā)(sabhādhyakṣam)=of President of the Assembly, (sanīḻāḥ)=In a place of gathering like God, (janayaḥ) =of children, (uśantīḥ) icchā karatī huī (svasāraḥ) =sisters, (uśantam) =desiring, (patim) =of protective husbands, (na) =like, (gāvaḥ) =of rays or cows, (śyāvīm) =gray and, (aruṣīm) =of red colour, (ucchantīm) =living in abodes, (uṣasam) =at the end of the night at dawn, (na) =like, (upa) =by proximity, (ajuṣran)= follow, (tam) =that,[parameśvara kī]=of God, (satatam) =continuously, (sevitvā)= worshiping (pra)= intensely, (jinvan) [use] =Please Him.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! All of you, in a place of gathering like the God free from disorders, imperishable, In a place of gathering like a God with a form and spirit of wonderful qualities or a God like President of the Assembly, sisters desiring to have children, like protective husbands desiring, living in the gray and red abodes of rays or cows, follow them as closely as the time of dawn at the end of the night. Please that God intensely by worshiping Him continuously.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There are paronomasia and simile as figurative in this mantra. Among all human beings, a righteous, learned, devoted woman follows her righteous, learned husband. A righteous scholar follows his wife. Just as the rays that arrive at dawn follow animals, earth etc., in the same way God or the President of the Assembly etc. are worthy of being followed daily.

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