ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 73/ मन्त्र 1
र॒यिर्न यः पि॑तृवि॒त्तो व॑यो॒धाः सु॒प्रणी॑तिश्चिकि॒तुषो॒ न शासुः॑। स्यो॒न॒शीरति॑थि॒र्न प्री॑णा॒नो होते॑व॒ सद्म॑ विध॒तो वि ता॑रीत् ॥
स्वर सहित पद पाठर॒यिः । न । यः । पि॒तृ॒ऽवि॒त्तः । व॒यः॒ऽधाः । सु॒ऽप्रनी॑तिः । चि॒कि॒तुषः॑ । न । शासुः॑ । स्यो॒न॒ऽशीः । अति॑थिः । न । प्री॒णा॒नः । होता॑ऽइव । सद्म॑ । वि॒ध॒तः । वि । ता॒री॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
रयिर्न यः पितृवित्तो वयोधाः सुप्रणीतिश्चिकितुषो न शासुः। स्योनशीरतिथिर्न प्रीणानो होतेव सद्म विधतो वि तारीत् ॥
स्वर रहित पद पाठरयिः। न। यः। पितृऽवित्तः। वयःऽधाः। सुऽप्रनीतिः। चिकितुषः। न। शासुः। स्योनऽशीः। अतिथिः। न। प्रीणानः। होताऽइव। सद्म। विधतः। वि। तारीत् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 73; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यूयं यः पितृवित्तो रयिर्न वयोधाः सुप्रणीतिश्चिकितुषः शासुर्न स्योनशीः प्रीणानोऽतिथिर्न विधतो होतेव सद्म वितारीत् तं नित्यं भजतोपकुरुत वा ॥ १ ॥
पदार्थः
(रयिः) निधिसमूहः (न) इव (यः) विद्वान् (पितृवित्तः) पितृभ्योऽध्यापकेभ्यो वित्तः प्रतीतो विज्ञातः (वयोधाः) यो वयो जीवनं दधातीति (सुप्रणीतिः) शोभना प्रशस्ता नीतिर्यस्य सः (चिकितुषः) प्रशस्तविद्यस्य (न) इव (शासुः) शासनकर्त्तोपदेष्टा (स्योनशीः) यः स्योनेषु सुखेषु विद्याधर्मपुरुषार्थेषु शेत आस्ते सः (अतिथिः) महाविद्वान् भ्रमणशील उपदेष्टा परोपकारी मनुष्यः (न) इव (प्रीणानः) प्रसन्नः सत्यासत्यविज्ञापकः (होतेव) दाता यथा ग्रहीता (सद्म) गृहवद् वर्त्तमानं शरीरं वा (विधतः) यो विधानं करोति तस्य (वि) विशेषे (तारीत्) सुखानि ददाति ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्काराः। न खलु विद्याधर्मानुष्ठानविद्वत्सङ्गसुविचारैर्विना कस्यचिन्मनुष्यस्य विद्यासुशिक्षासाक्षात्कारो विद्युदादिपदार्थविज्ञानं च जायते, न किल नित्यं भ्रमणशीलानां विदुषामतिथीनामुपदेशेन विना कश्चिन्निर्भ्रमो भवितुं शक्नोति, तस्मादेतत् सदान्वाचरणीयम् ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब तिहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! तुम (यः) जो विद्वान् (पितृवित्तः) पिता, पितामहादि अध्यापकों से प्रतीत विद्यायुक्त हुए (रयिः) धनसमूह के (न) समान (वयोधाः) जीवन को धारण करने (सुप्रणीतिः) उत्तम नीतियुक्त तथा (चिकितुषः) उत्तम विद्यावाले (शासुः) उपदेशक मनुष्य के (न) समान (स्योनशीः) विद्या, धर्म्म और पुरुषार्थयुक्त सुख में सोने (प्रीणानः) प्रसन्न तथा (अतिथिः) महाविद्वान् भ्रमण और उपदेश करनेवाले परोपकारी मनुष्य के (न) समान (विधतः) वा सब व्यवहारों को विधान करता है, उसके (होतेव) देने-लेनेवाले (सद्म) घर के तुल्य वर्त्तमान शरीर का (वि तारीत्) सेवन और उससे उपकार लेके सबको सुख देता है, उसका नित्य सेवन और उससे परोपकार कराया करो ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। विद्याधर्मानुष्ठान, विद्वानों का संग तथा उत्तमविचार के विना किसी मनुष्य को विद्या और सुशिक्षा का साक्षात्कार, पदार्थों का ज्ञान नहीं होता और निरन्तर भ्रमण करनेवाले अतिथि विद्वानों के उपदेश के विना कोई मनुष्य सन्देहरहित नहीं हो सकता, इससे सब मनुष्यों को अच्छा आचरण करना चाहिये ॥ ९ ॥
विषय
उपासक का वर्धन
पदार्थ
१. वे प्रभु (यः) = जो (पितृवित्तः रयिः नः) = पिता से प्राप्त धन की भाँति (वयोधाः) = उत्कृष्ट जीवन के देनेवाले हैं, वे (विधतः) = उपासक के (सद्म) = घर को (वितारीत्) = विशेषेण प्रवृद्ध करनेवाले हैं । पिता से धन प्राप्त हो जाने पर सन्तान को अपना समय व्यर्थ धनार्जन में विनष्ट नहीं करना पड़ता । वह आत्मिक उन्नति में आगे बढ़ते हुए जीवन को बड़ा सुन्दर बना पाता है । इसी प्रकार पिता से प्राप्त धन जीवन को उत्कृष्ट बनाने में सहायक हो जाता है । २. वे प्रभु (सुप्रणीतिः) = उत्तमता से हमें आगे ले जानेवाले हैं (न) = जैसेकि (चिकितुषः) = एक ज्ञानी पुरुष का (शासुः) = शासन व उपदेश । ज्ञानी पुरुष का उपदेश हमारी अग्रगति का कारण होता है, इसी प्रकार हृदयस्थ प्रभु की प्रेरणा हमें निरन्तर आगे ले - चलती है । ३. (स्योनशीः) = सुख के आधारभूत वे प्रभु हैं - ‘रसो वै सः , रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति’ - वे प्रभु रस हैं, उस रस को प्राप्त करके हमारा जीवन भी आनन्दमय बनता है । “अतिथिः न प्रीणानः” - अतिथि के समान वे प्रभु तर्पणीय हैं । जैसे घर में आये अतिथि का ‘अर्घ्य, पाद्य, आचमनी व मधुपर्क’ आदि से आतिथ्य किया जाता है, इसी प्रकार हमें उस प्रभु का अपने कर्मों के अर्पण द्वारा अर्चन करना चाहिए । वे प्रभु तो (होता इव) = होता के समान हैं । वे हमारे लिए सब - कुछ देनेवाले हैं । उस प्रभु का अर्चन हमारी ही वृद्धि का कारण होगा ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमारे जीवन को उत्तम बनाने में सहायक होते हैं, हमें उत्तम मार्ग से ले - चलते हैं । वे सुख के आधार है और उपासक की वृद्धि करनेवाले हैं ।
विषय
अग्नि, राजा का वर्णन ।
भावार्थ
( पितृवित्तः ) पिता से प्राप्त ( रयिः न ) धन जिस प्रकार ( वयो धाः ) सन्तान को अन्न प्रदान करता है उसी प्रकार विद्वान् और राजा भी (पितृवित्तः) आचार्यादि पालक जनों से सुशिक्षित, उत्तम शासकों द्वारा स्वीकृत हो । वह ( चिकितुषः ) ज्ञानवान् शासक के ( सुप्रणीतिः शासुः न ) उत्तम रीति से प्रयोग किये गये शासन वचन के समान ( सुप्रणीतिः ) उत्तम मार्ग पर ले जाने वाला और ( शासुः ) सर्व शास्त्रों का उपदेष्टा हो । वह ( स्योनशीः ) सुख से शयन करनेहारे ( अतिथिः न ) अतिथि के समान ( स्योन-शीः ) समस्त सुखजनक उत्तम पुरुषार्थों में स्थित हो । वह ( होता इव ) सुखप्रद दाता के समान ( प्रीणानः ) स्वयं सबसे प्रसन्न और सबको सुखी करनेहारा हो । वह विद्वान् राजा ( विधतः ) विशेष विशेष काम या राजसेवा करनेवाले पुरुष को (सद्म) आश्रय रहने का घर भी ( वितारीत् ) देवे । राजा अपने सेवकों को उत्तम आश्रय या गृह दे। उत्तम गुणवान्, परमेश्वर ( विधतः ) अपने भक्त साधक को शरण देता है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पराशर ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१, २, ४, ५, ७, ९, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ६ त्रिष्टुप् । ८ विराट् त्रिष्टुप् ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
विषय (भाषा)- अब तिहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यूयं यः पितृवित्तः रयिः न वयोधाः सुप्रणीतिः चिकितुषः शासुः न स्योनशीः प्रीणानः अतिथिः न विधतः होतेव सद्म वि तारीत् तं नित्यं भजत उपकुरुत वा ॥१॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यूयम्)=तुम सब, (यः) विद्वान्= विद्वान्, (पितृवित्तः) पितृभ्योऽध्यापकेभ्यो वित्तः प्रतीतो विज्ञातः=ऐसा प्रतीत होता है कि माता पिता और अध्यापकों के लिये, (रयिः) निधिसमूहः= धन के खजाने के, (न) इव=समान हो, (वयोधाः) यो वयो जीवनं दधातीति=जो आयु और जीवन देता है, (सुप्रणीतिः) शोभना प्रशस्ता नीतिर्यस्य सः=जिसकी उत्तम और प्रसंसनीय नीतियां हैं, (चिकितुषः) प्रशस्तविद्यस्य= प्रशस्त विद्या के, (शासुः) शासनकर्त्तोपदेष्टा= शिक्षक और उपदेशक के, (न) इव=समान, (स्योनशीः) यः स्योनेषु सुखेषु विद्याधर्मपुरुषार्थेषु शेत आस्ते सः= विद्या, धर्म औरतथासे पुरुषार्थ में निवास करनेवाले और सुख प्राप्त करनेवाले, (प्रीणानः) प्रसन्नः सत्यासत्यविज्ञापकः=सत्य और असत्य के ज्ञान को प्रदान करने में प्रसन्न, (अतिथिः) महाविद्वान् भ्रमणशील उपदेष्टा परोपकारी मनुष्यः= बहुत विद्वान् भ्रमणशील उपदेषशक और परोपकारी अतिथि के, (न) इव= समान, (विधतः) यो विधानं करोति तस्य=नियम बनानेवाले, (होतेव) दाता यथा ग्रहीता=एक जैसा देने और ग्रहण करनेवाले, (सद्म) गृहवद् वर्त्तमानं शरीरं वा=घर या शरीर के समान उपस्थित, (वि) विशेषे = विशेष, (तारीत्) सुखानि ददाति=सुख देता है, (तम्)=उसका, (नित्यम्)=नित्य, (भजत)=पूजन कीजिये, (वा)=और, (उपकुरुत)=उपकार कीजिये॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। निश्चय से ही विद्या, धर्म के अनुष्ठान, विद्वानों की संगति और उत्तम विचारों के विना किसी मनुष्य को विद्या और सुशिक्षा का प्रत्यक्ष रूप से उपस्थित करना और विद्युत् आदि पदार्थों का विशेष ज्ञान नहीं होता है। निश्चय से ही नित्य भ्रमण करनेवाले, विद्वान् अतिथि के उपदेश के विना कोई मनुष्य सन्देह रहित नहीं हो सकता है, इसलिये सदा उनके आचरण का अनुसरण करना चाहिये ॥९॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यूयम्) तुम सब (यः) विद्वान् (पितृवित्तः) ऐसा प्रतीत होता है कि माता पिता और अध्यापकों के लिये (रयिः) धन के खजाने के (न) समान हो। (वयोधाः) जो आयु और जीवन देता है, (सुप्रणीतिः) जिसकी उत्तम और प्रसंसनीय नीतियां हैं, (चिकितुषः) प्रशस्त विद्या के (शासुः) शिक्षक और उपदेशक के (न) समान (स्योनशीः) विद्या, धर्म औप पुरुषार्थ में निवास करनेवाले और सुख प्राप्त करनेवाले और (प्रीणानः) सत्य और असत्य के ज्ञान को प्रदान करने में प्रसन्न रहनेवाले (अतिथिः) बहुत विद्वान्, भ्रमणशील उपदेषशक और परोपकारी अतिथि के (न) समान (विधतः) नियम बनानेवाले, (होतेव) एक जैसा देने और ग्रहण करनेवाले (सद्म) घर या शरीर के समान उपस्थित होते हुए (वि) विशेष (तारीत्) सुख देता है। (तम्) उसका (नित्यम्) नित्य (भजत) पूजन कीजिये (वा) और (उपकुरुत) उपकार कीजिये॥१॥
संस्कृत भाग
र॒यिः । न । यः । पि॒तृ॒ऽवि॒त्तः । व॒यः॒ऽधाः । सु॒ऽप्रनी॑तिः । चि॒कि॒तुषः॑ । न । शासुः॑ । स्यो॒न॒ऽशीः । अति॑थिः । न । प्री॒णा॒नः । होता॑ऽइव । सद्म॑ । वि॒ध॒तः । वि । ता॒री॒त् ॥ विषयः- अथ विद्वद्गुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्काराः। न खलु विद्याधर्मानुष्ठानविद्वत्सङ्गसुविचारैर्विना कस्यचिन्मनुष्यस्य विद्यासुशिक्षासाक्षात्कारो विद्युदादिपदार्थविज्ञानं च जायते, न किल नित्यं भ्रमणशीलानां विदुषामतिथीनामुपदेशेन विना कश्चिन्निर्भ्रमो भवितुं शक्नोति, तस्मादेतत् सदान्वाचरणीयम् ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात ईश्वर, अग्नी, विद्वान व सूर्याच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्तार्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. विद्याधर्मानुष्ठान, विद्वानांचा संग व उत्तम विचाराशिवाय कोणत्याही माणसाला विद्या व सुशिक्षणाचा साक्षात्कार व पदार्थांचे ज्ञान होत नाही व निरंतर भ्रमण करणाऱ्या अतिथी विद्वानांच्या उपदेशाशिवाय कोणताही माणूस शंकारहित होऊ शकत नाही. त्यामुळे सर्व माणसांनी चांगले आचरण केले पाहिजे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Agni is young and fresh, a philanthropist like a noble heir to the knowledge, power and wealth of ancestors, a controller and disciplinarian with policy like the noble and benevolent policy and orders of the wise, pleasing and blissful like a wise and learned guest enjoying liberal hospitality, and one who helps you cross over the seas of life like a priest conducting the yajna in the house of the yajamana.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a learned person are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, You should serve and ever do good to a learned person who is like the treasure known through the fatherly teachers, who is the supporter of life, whose conduct is excellent, who is like the preceptor of a highly educated person, who is always established in wisdom, rightenousness and exertion that cause happiness, who is like a cheerful benevolent guest roaming about to preach truth as distinguished from untruth, who increases the happiness in the house of the Yajamana (Performer of the Yajana) like the officiating priest.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(पितृवित्तः) पितृभ्यः अध्यापकेभ्यः वित्तः प्रतीतो विज्ञातः = Knowledge through the teachers who are like fathers. (शासु:) शासनकर्ता उपदेष्टा = Instructor or preceptor. (स्योनशी:) य: स्योनेषु सुखेषु विद्याधर्म पुरुषार्थेषु शेते आस्ते सः = He who is established in wisdom, Dharma, (righteousness) and exertion. (अतिथि:) महाविद्वान् भ्रमणशीलः उपदेष्टा परोपकारी मनुष्य: = A highly learned, benevolent pracher of truth as guest.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is not possible for any one to have realisation of wisdom and good education without knowledge, the observance of Dharma (righteousness) the association with the learned and good thoughts. None can be free from all doubts and delusions without the sermons of the wise highly learned guests going from place to place for preaching truth. Therefore all this must be done by all.
Translator's Notes
(अत सातत्यगमने) स्योनमिति सुखनाम (निघ० ३.६ ) Other commentators have translated पितृ वित्त: generally as Patrimonial Wealth (Wilson) Patrimonial riches. (Griffith) but Rishi Dayananda gives broader and more comprehensive meaning taking the word पितृ in the sense of father-like teachers.
Subject of the mantra
Now the seventy-third hymn starts. In its first mantra the qualities of a scholar have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O!(manuṣyāḥ) =humans, (yūyam) =all of you, (yaḥ) =scholar, (pitṛvittaḥ)=It appears that for parents and preceptors, (rayiḥ) =of treasure trove, (na) =are like, (vayodhāḥ) =who gives age and life, (supraṇītiḥ) =who has excellent and praiseworthy ethics, (cikituṣaḥ) =of eminent knowledge, (śāsuḥ) =of preceptor and preacher, (na) =like, (syonaśīḥ)= those who reside in knowledge, righteousness and efforts, who provide happiness and, (prīṇānaḥ)=those who are happy in imparting the knowledge of truth and falsehood, (atithiḥ) =of a very learned man, a traveling preacher and a charitable guest, (na) =like (vidhataḥ) =rule makers, (hoteva) =those who give and receive alike, (sadma)= being present like a house or a body, (vi) =special, (tārīt) =provides happiness, (tam) =his, (nityam)=dialy, (bhajata) =worship, (vā) =and, (upakuruta)= do benevolence.
English Translation (K.K.V.)
O humans! All you scholars, it seems, are like a treasure trove of money for parents and preceptors. One who gives age and life, who has good and praiseworthy ethics, who is like a preceptor and preacher of vast knowledge, who resides in knowledge, righteousness and efforts, who gives happiness and who is happy in imparting the knowledge of truth and falsehood, very learned, the one who makes rules like a traveling preacher and a charitable guest, who gives and receives equally, being present like a house or a body, gives special happiness. Worship him daily and do benevolence.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Certainly, without education, observance of righteousness, association with scholars and good thoughts, no person can have direct exposure to knowledge and good education and special knowledge of things like electricity etc. Certainly, no person can be free from doubt without the advice of a learned guest who travels daily, hence one should always follow their conduct.
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