ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 74/ मन्त्र 1
उ॒प॒प्र॒यन्तो॑ अध्व॒रं मन्त्रं॑ वोचेमा॒ग्नये॑। आ॒रे अ॒स्मे च॑ शृण्व॒ते ॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒ऽप्र॒यन्तः॑ । अ॒ध्व॒रम् । मन्त्र॑म् । वो॒चे॒म॒ । अ॒ग्नये॑ । आ॒रे । अ॒स्मे इति॑ । च॒ । शृ॒ण्व॒ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
उपप्रयन्तो अध्वरं मन्त्रं वोचेमाग्नये। आरे अस्मे च शृण्वते ॥
स्वर रहित पद पाठउपऽप्रयन्तः। अध्वरम्। मन्त्रम्। वोचेम। अग्नये। आरे। अस्मे इति। च। शृण्वते ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 74; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथोपप्रयन्तो वयमस्मे आरे च शृण्वतेऽग्नयेऽध्वरं मन्त्रं सततं वोचेम तथा यूयमपि वदत ॥ १ ॥
पदार्थः
(उपप्रयन्तः) समीपं प्राप्नुवन्तः (अध्वरम्) अहिंसकम् (मन्त्रम्) विचारम् (वोचेम) उच्याम। अत्राशीर्लिङ्यङ् वचउमित्यमागमश्च। (अग्नये) परमेश्वराय (आरे) दूरे। आर इति दूरनामसु पठितम्। (निघं०३.२६) (अस्मे) अस्माकम् (च) चात्समीपे (शृण्वते) श्रवणं कुर्वते ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्बहिरन्तर्व्याप्तमस्माकं दूरे समीपे सर्वव्यवहारं विजानन्तं परमात्मानं विज्ञायाऽधर्माद्भीत्वा सत्यं धर्मं सेवित्वाऽऽनन्दितव्यम् ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब चौहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है, इसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (उपप्रयन्तः) समीप प्राप्त होनेवाले हम लोग इस (अस्मे) हम लोगों के (आरे) दूर (च) और समीप में (शृण्वते) श्रवण करते हुए (अग्नये) परमेश्वर के लिये (अध्वरम्) हिंसारहित (मन्त्रम्) विचार को निरन्तर (वोचेम) उपदेश करें, वैसे तुम भी किया करो ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि बाहर-भीतर व्याप्त होके हम लोगों के दूर-समीप व्यवहार के कर्मों को जानते हुए परमात्मा को जानकर, अधर्म से अलग होकर, सत्य धर्म का सेवन करके आनन्दयुक्त रहें ॥ १ ॥
विषय
यज्ञ व स्तवन
पदार्थ
१. गतसूक्त के साथ पराशर ऋषि के द्वारा द्रष्ट मन्त्र समाप्त होकर गोतम राहगण ऋषि द्वारा द्रष्ट मन्त्र आरम्भ होते हैं । पराशर - शत्रुओं का सुदूर संहार करनेवाले का गोतम - प्रशस्तेन्द्रियवाला बनना स्वाभाविक ही है । यह गोतम ‘रह त्यागे’ त्यागवालों में भी उत्तमकोटि में गिना जाता है, अतः राहूगण कहलाता है । २. गौतम राहूगण बने रहने के लिए यह प्रार्थना करता है कि हे प्रभो ! आप ऐसी कृपा करें की हम (अध्वरं उपप्रयन्तः) = सदा हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों के समीप प्राप्त होते हुए (अग्नये) = अग्नि के लिए (मन्त्रं वोचेम) = मन्त्रों का उच्चारण करें । मन्त्रों में उन यज्ञों के लाभों का वर्णन होता है । इस प्रकार यज्ञों के प्रति श्रद्धा का बढ़ना स्वाभाविक है । आचार्य के शब्दों में इस प्रकार मन्त्रों का रक्षण भी होता है । ३. यज्ञों को करते हुए हम प्रभु का स्तवन भी करते रहें तो भौतिक लाभों के साथ आध्यात्मिक लाभ जुड़ जाता है । साथ ही उन यज्ञों का हमें अंहकार भी नहीं होता । हमें यह ध्यान रहता है कि हमारे माध्यम से प्रभुशक्ति ही इन यज्ञों को सिद्ध कर रही है, हम तो निमित्तमात्र हैं । हम उस प्रभु के लिए मन्त्रों का उच्चारण करें जोकि (आरे च) = सुदूर स्थान में भी, अर्थात् दूर और पास सर्वत्र (अस्मे) = हमारी प्रार्थना को (श्रृण्वते) = सुनते हैं । प्रभु से हमारी प्रार्थना कभी अश्रुत नहीं होती ।
भावार्थ
भावार्थ - हम यज्ञशील हों तथा प्रभु के स्तवन के लिए मन्त्रों का उच्चारण करनेवाले हों । ये प्रभु दूर और समीप सर्वत्र हमारी प्रार्थना को सुनते हैं । इस प्रकार हमारे जीवनों में यज्ञ व स्तवन का समन्वय हो ।
विषय
परमेश्वर की स्तुति।
भावार्थ
हम लोग ( उप प्रयन्तः ) समीप प्राप्त होते हुए, उपासना करते हुए ( आरे ) दूर ( च ) और समीप (शृण्वते) हमारी प्रार्थनाओं को श्रवण करनेवाले ( अग्नये ) सर्वज्ञ परमेश्वर की स्तुति के लिए ( अध्वरम् ) हिंसा या पीड़ा से रहित, शान्तिदायक ( मन्त्रम् ) वेदमन्त्र का (वोचेम) उच्चारण करें। राजा के पक्ष में—पास और दूर की प्रजा के प्रार्थनाओं को श्रवण करनेहारे ( अग्नये ) प्रतापी राजा को हम लोग हिंसारहित, प्रजा को शान्ति और सुख देनेवाले मन्त्र या मन्त्रणा का उपदेश करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप् । ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् ॥
विषय
विषय (भाषा)- अब चौहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है, इसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यथा उपप्रयन्तः वयम् अस्मे आरे च शृण्वते अग्नये अध्वरं मन्त्रं सततं वोचेम तथा यूयम् अपि वदत ॥१॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (मनुष्याः)= मनुष्यों ! (यथा)=जैसे, (उपप्रयन्तः) समीपं प्राप्नुवन्तः=समीप पहुँच करके, (वयम्)=हम, (अस्मे) अस्माकम्=हमारे, (आरे) दूरे= दूर, (च) चात्समीपे=और समीप में, (शृण्वते) श्रवणं कुर्वते= श्रवण करते हुए, (अग्नये) परमेश्वराय= परमेश्वर के लिये, (अध्वरम्) अहिंसकम्=अहिंसक, (मन्त्रम्) विचारम्= विचार का, (सततम्)=निरन्तर, (वोचेम) उच्याम=उच्चारण करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (यूयम्) =तुम सब, (अपि)= भी, (वदत)=बोलिये ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा हमारे बाहर और अन्दर व्याप्त हो करके, दूर व समीप के व्यवहारों को विशेष रूप से जानते हुए, परमात्मा को जान करके, अधर्म से डर करके, सत्य के धर्म का अनुसरण करके आनन्दित होना चाहिए ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों ! (यथा) जैसे (उपप्रयन्तः) समीप पहुँच करके (वयम्) हम, (अस्मे) हमारे (आरे) दूर (च) और समीप में (शृण्वते) श्रवण करते हुए (अग्नये) परमेश्वर के लिये (अध्वरम्) अहिंसक (मन्त्रम्) विचार का (सततम्) निरन्तर (वोचेम) उच्चारण करते हैं, (तथा) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (वदत) बोलिये, अर्थात् उच्चारण कीजिये ॥१॥
संस्कृत भाग
उ॒प॒ऽप्र॒यन्तः॑ । अ॒ध्व॒रम् । मन्त्र॑म् । वो॒चे॒म॒ । अ॒ग्नये॑ । आ॒रे । अ॒स्मे इति॑ । च॒ । शृ॒ण्व॒ते ॥ विषयः- अथेश्वरगुणा उपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्बहिरन्तर्व्याप्तमस्माकं दूरे समीपे सर्वव्यवहारं विजानन्तं परमात्मानं विज्ञायाऽधर्माद्भीत्वा सत्यं धर्मं सेवित्वाऽऽनन्दितव्यम् ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात ईश्वर, विद्वान व विद्युत अग्नीच्या गुणाचे वर्णन असल्यामुळे पूर्वसूक्तार्थाबरोबर या सूक्ताची संगती जाणावी. ॥
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी आत व बाहेर व्याप्त असणाऱ्या व स्वतःच्या दूर आणि जवळच्या व्यवहार कर्मांना जाणणाऱ्या परमात्म्याला जाणून अधर्माचा त्याग करावा व सत्य धर्माचे पालन करून आनंदाने जगावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Moving close to the vedi of the yajna of love and non-violence, let us chant holy words of thought and devotion in praise of Agni, lord of light and yajna who listens to us from far as well as from near.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of God are taught.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men, we chant a loving mantra to our Supreme Leader (God) and utter good words while doing non-violent noble deeds and sacrifices. He listens to our words everywhere, far and near. You should do also like-wise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अध्वरम्) अहिंसकम् = Non-violent. (आरे) दूरे आरे इति दूरनाम (निघ० ३.२६) चात् समीपे = Far and near.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should enjoy bliss by observing Dharma (righteousness) and by fearing the performance of un-righteous act knowing God to be All-pervading and fully conscious of all their dealings far and near.
Subject of the mantra
Now the seventy-fourth hymn starts, in its first mantra the virtues of God are preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O!(manuṣyāḥ) =humans, (yathā) =like, (upaprayantaḥ) =arriving near, (vayam) =we, (asme) =our, (āre) =far, (ca) =and in proximity, (śṛṇvate) =while listening, (agnaye) =for God, (adhvaram) =non-violent,(mantram) =of thought, (satatam) =continuously, (vocema) =pronounce, (tathā) =similarly, (yūyam) =all of you, (api) =alo, (vadata) =speak, that is, pronounce.
English Translation (K.K.V.)
O humans! Just as we, after reaching close, continuously chant non-violent thoughts for God while listening to those far and near us, in the same way all of you should also speak, i.e. pronounce.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. By pervading us outside and inside us through humans, knowing specifically about distant and near behaviours, one should be happy after knowing God, fearing unrighteousness and following the truth of righteousness.
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