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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 77 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 77/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    क॒था दा॑शेमा॒ग्नये॒ कास्मै॑ दे॒वजु॑ष्टोच्यते भा॒मिने॒ गीः। यो मर्त्ये॑ष्व॒मृत॑ ऋ॒तावा॒ होता॒ यजि॑ष्ठ॒ इत्कृ॒णोति॑ दे॒वान् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    क॒था । दा॒शे॒म॒ । अ॒ग्नये॑ । का । अ॒स्मै॒ । दे॒वऽजु॑ष्टा । उ॒च्य॒ते॒ । भा॒मिने॑ । गीः । यः । मर्त्ये॑षु । अ॒मृतः॑ । ऋ॒तऽवा॑ । होता॑ । यजि॑ष्ठः । इत् । कृ॒णोति॑ । दे॒वान् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कथा दाशेमाग्नये कास्मै देवजुष्टोच्यते भामिने गीः। यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा होता यजिष्ठ इत्कृणोति देवान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कथा। दाशेम। अग्नये। का। अस्मै। देवऽजुष्टा। उच्यते। भामिने। गीः। यः। मर्त्येषु। अमृतः। ऋतऽवा। होता। यजिष्ठः। इत्। कृणोति। देवान् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 77; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यथा वयं विद्वद्भिर्यो मर्त्येष्वमृत ऋतावा होता यजिष्ठो देवान् कृणोत्यस्मै भामिनेऽग्नये का कथा देवजुष्टा गीरुच्यते तस्मा इदेव दाशेम तथा यूयमपि कुरुत ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (कथा) केन प्रकारेण (दाशेम) दद्याम (अग्नये) विज्ञापकाय (का) वक्ष्यमाणा (अस्मै) उपदेशकाय (देवजुष्टा) विद्वद्भिः प्रीता सेविता वा (उच्यते) कथ्यते (भामिने) प्रशस्तो भामः क्रोधो विद्यते यस्य तस्मै (गीः) वाक् (यः) जीवः (मर्त्येषु) नश्यमानेषु पदार्थेषु (अमृतः) मृत्युरहितः (ऋतावा) ऋताः प्रशस्ताः सत्या गुणा विद्यन्ते यस्मिन् सः (होता) ग्रहीता दाता (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा सङ्गमिता (इत्) एव (कृणोति) करोति (देवान्) दिव्यगुणान् पदार्थान् विदुषो वा ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वानीश्वरस्य स्तुतिं विद्वत्सेवनं च कृत्वा दिव्यान् गुणान् प्राप्य सुखानि प्राप्नोति, तथैवाऽस्माभिरपि कर्त्तव्यम् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सतहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् कैसा हो, यह विषय कहा है ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जैसे हम लोग विद्वानों के साथ होते हैं, वैसे (यः) जो (मर्त्येषु) मरणधर्म्मयुक्त शरीरादि में (अमृतः) मृत्युरहित (ऋतावा) सत्य गुण, कर्म, स्वभावयुक्त (होता) दाता और ग्रहण करनेहारा (यजिष्ठः) अत्यन्त सत्संगी (देवान्) दिव्यगुण वा दिव्यपदार्थों वा विद्वानों को (कृणोति) करता है (अस्मै) इस उपदेशक (भामिने) दुष्टों पर क्रोधकारक (अग्नये) सत्यासत्य जनानेहारे के लिये (का) कौन (कथा) किस हेतु से (देवजुष्टा) विद्वानों ने सेवी हुई (गीः) वाणी (उच्यते) कही है, उस (इत्) ही को (दाशेम) विद्या देवें, वैसे तुम भी किया करो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् ईश्वर की स्तुति और विद्वानों को सेवन करके दिव्य गुणों को प्राप्त होकर सुखों को प्राप्त होता है, वैसे ही हम लोगों को सेवन करना चाहिये ॥ १ ॥

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    विषय

    देव बनना

    पदार्थ

    १. (कथा) = किस प्रकार (अग्नये दाशेम) = उस अग्रणी प्रभु के लिए हम अपना अर्पण करें ? हमारी प्रबल कामना यही है कि हम उस प्रभु के प्रति अपना अर्पण कर सकें । (अस्मै) = इस (भामिने) = तेजस्विता के पुञ्ज प्रभु के लिए (देवजुष्टा) = विद्वानों से सेवित (गीः) = वाणी (उच्यते) = उच्चारण की जाती है और यह वाणी का अत्यन्त आनन्द देनेवाली होती है । २. ये तेजस्विता के पुञ्ज प्रभु वे हैं (यः) = जो (मर्त्येषु) = मरणधर्मा पुरुषों में (अमृतः) = कभी नष्ट न होनेवाले हैं । सर्वव्यापक होते हुए वे प्रभु उन सब वस्तुओं में विद्यमान हैं जो समय - प्रवाह में नष्ट हो जाती हैं । वे प्रभु ही (ऋतावा) = ऋत का अवन व रक्षण करते है । , होता - सब पदार्थों के देनेवाले हैं, (यजिष्ठः) = पूज्य, संगतिकरण - योग्य व समर्पणीय हैं । ३. ये प्रभु ही (इत्) = निश्चय से अपने उपासकों को (देवान् कृणोति) = दिव्यवृत्तिवाला बना देते हैं । प्रभुकृपा से हम मनुष्य से ऊपर उठकर देव बन जाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभुस्मरण में ही आनन्द है । वे प्रभु हमें देव बना देते हैं । प्रभु की उपासना ही देव बनने का साधन है ।

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    विषय

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    भावार्थ

    ( यः ) जो ( मर्त्येषु ) मरणशील प्राणियों में (अमृतः) स्वयं कभी न मरने वाला, ( ऋतावा ) सत्य गुणों और ज्ञानों से युक्त, (होता) सब सुखों का दाता सब ऐश्वर्यों का लेने या वश करने वाला, ( यजिष्ठः ) सबसे अधिक पूजनीय है । जो ( देवान् ) दिव्य पदार्थ सूर्य आदि लोकों का बना है, ( अस्मै अग्नये ) उस सर्व प्रकाशक परमेश्वर के लिये ( कथं ) किस प्रकार से और क्योंकर हम (दाशेम) प्रदान करें अर्थात् उसको क्योंकर हम आत्म समर्पण करें ? और (देव जुष्टा) विद्वानों के हृदय को प्रिय लगने वाली ( का ) कौनसी ( गीः ) वाणी ( भामिने ) दुष्टों के प्रति कोप करने वाले इस के लिये ( उच्यते ) कही जाय ? राजा और विद्वान् के पक्ष में—( मर्त्येषु ) मनुष्यों में ( अमृतः ) अमृत ज्ञानवान्, हृदयवान्, सदा जागृत, उत्साही, सत्य न्याय वाला जो ( देवान् कृणोति ) विद्वानों को नियुक्त करता है । उसको कैसे हम भेंट आदि दें । उसके आदरार्थ कैसे वचन कहें ? इस सब बात का विचार करना चाहिये ।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ निचृत्पंक्तिः । २ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप् । पंचर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब सतहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में विद्वान् कैसा हो, यह विषय कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे मनुष्याः ! यथा वयं विद्वद्भिः यः मर्त्येषु अमृतः ऋतावा होता यजिष्ठः देवान् कृणोति अस्मै भामिने अग्नये का कथा देवजुष्टा गीः उच्यते तस्मा इत् एव दाशेम तथा यूयम् अपि कुरुत ॥१॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (मनुष्याः)=मनुष्यों! (यथा)=जिस प्रकार से, (वयम्)=हम, (विद्वद्भिः)=विद्वानों के द्वारा, (यः) जीवः=प्राणियों, (मर्त्येषु) नश्यमानेषु पदार्थेषु=नष्ट होनेवाले पदार्थों में और, (अमृतः) मृत्युरहितः= मृत्यु से रहित अमर, (ऋतावा) ऋताः प्रशस्ताः सत्या गुणा विद्यन्ते यस्मिन् सः= ऋत, उत्कृष्ट और सत्य गुणवाले, (होता) ग्रहीता दाता=यज्ञ में हवियों को ग्रहण करने और देनेवाले, (यजिष्ठः) अतिशयेन यष्टा सङ्गमिता= यज्ञ में अतिशय रूप से सङ्गति करण करनेवाले, (देवान्) दिव्यगुणान् पदार्थान् विदुषो वा=दिव्य गुण वाले पदार्थों या विद्वानोंके द्वारा, (कृणोति) करोति=करता है। (अस्मै) उपदेशकाय=इस उपदेशक के लिये, (भामिने) प्रशस्तो भामः क्रोधो विद्यते यस्य तस्मै=उत्कृष्ट मन्युवाले, (अग्नये) विज्ञापकाय=विशेष ज्ञान करानेवाले के लिये, (का) वक्ष्यमाणा=कहे हुए, (कथा) केन प्रकारेण=किस प्रकार से, (देवजुष्टा) विद्वद्भिः प्रीता सेविता वा=विद्वानों के द्वारा प्रेम से अनुसरण की हुई, (गीः) वाक्=वाणी, (उच्यते) कथ्यते=कही जाती है, (तस्मा)=उसके लिये, (इत्) एव =ही, (दाशेम) दद्याम=देते हैं, (तथा)=वैसे ही, (यूयम्)=तुम सब, (अपि)=भी, (कुरुत)= किया कीजिये ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् ईश्वर की स्तुति और विद्वानों का अनुसरण करके दिव्य गुणों को प्राप्त करके सुखों को प्राप्त करता है, वैसे ही हम लोगों को करना चाहिये ॥१॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- मन्यु- दुष्ट आचरण करनेवालों और पापियों के प्रति क्रोध का भाव मन्यु कहलाता है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (मनुष्याः) मनुष्यों! (यथा) जिस प्रकार से (वयम्) हम (विद्वद्भिः) विद्वानों के द्वारा, (यः) प्राणियों, (मर्त्येषु) नष्ट होनेवाले पदार्थों में और (अमृतः) अमर, (ऋतावा) ऋत, उत्कृष्ट और सत्य गुणवाले, (होता) यज्ञ में हवियों को ग्रहण करने और देनेवाले और (यजिष्ठः) यज्ञ में अतिशय रूप से सङ्गति करण करनेवाला (देवान्) दिव्य गुण वाले पदार्थों या विद्वानोंके द्वारा [यज्ञ] (कृणोति) करता है। (अस्मै) इस उपदेशक के लिये, (भामिने) उत्कृष्ट मन्युवाले और (अग्नये) विशेष ज्ञान करानेवाले के लिये (का) कही हुई, (कथा) किस प्रकार से (देवजुष्टा) विद्वानों के द्वारा प्रेम से अनुसरण की हुई (गीः) वाणी (उच्यते) कही जाती है, (तस्मा) उसके लिये (इत्) ही (दाशेम) देते हैं। (तथा) वैसे ही (यूयम्) तुम सब (अपि) भी (कुरुत) किया कीजिये ॥१॥

    संस्कृत भाग

    क॒था । दा॒शे॒म॒ । अ॒ग्नये॑ । का । अ॒स्मै॒ । दे॒वऽजु॑ष्टा । उ॒च्य॒ते॒ । भा॒मिने॑ । गीः । यः । मर्त्ये॑षु । अ॒मृतः॑ । ऋ॒तऽवा॑ । होता॑ । यजि॑ष्ठः । इत् । कृ॒णोति॑ । दे॒वान् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वानीश्वरस्य स्तुतिं विद्वत्सेवनं च कृत्वा दिव्यान् गुणान् प्राप्य सुखानि प्राप्नोति, तथैवाऽस्माभिरपि कर्त्तव्यम् ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात ईश्वर, विद्वान व अग्नीच्या गुणाचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा विद्वान ईश्वराची स्तुती व विद्वानांचे सेवन करून दिव्य गुणांना प्राप्त करून सुख मिळवितो तसेच आम्ही ही वागले पाहिजे. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    What shall we offer, how shall we offer, what appropriate words worthy of divinities, to this Agni, lord of yajna, light of knowledge, loving, kind and righteous, who, immortal among the mortals, is the master of eternal truth and Law, lord promoter of yajnic projects, most adorable and most sacrificing, creates brilliant and generous celebrities?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Agni is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    What should we give and what speech agreeable to the enlightened persons and liked by them should be addressed to this Agni (Freacher of truth) who has noble indignation to root out evil and injustice, who as a soul realises that he is immortal spirit among the perishable bodies, observant of truth, receiver and giver of knowledge, unifier and who makes people full of divine virtues and learned. You should give him as we do.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (अस्मै) (अग्नये) विज्ञापकाय उपदेशकाय = For this preacher of truth who enlightens us. (होता) ग्रहीता दाता = Receiver and giver of knowledge. (भामिने) प्रशस्तः भामा क्रोधो विद्यते यस्य तस्मै । = For him who is full of noble indignation against evil and injustice.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A learned person enjoys happiness by glorifying God, by associating with the wise and acquiring divine virtues. We should also do likewise."

    Translator's Notes

    होता is derived from हु-दानादनयो: आदाने च Therefore it has Receiver and giver. Agni is been interpreted as ग्रहीता दाता derived from अग-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था :ज्ञानं गमनं प्राप्तिमच Here the first and third meanings have been combined and it has been interpreted as विज्ञापकाय or enlightener. Besides अग्नि-इति पदनामसु पठितम् (निघ० ५.१) Thus also the meaning is the same as pointed out above as Observant of truth shows clearly that here Agni, as material fire cannot be meant.

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    Subject of the mantra

    Now the seventy-seventh hymn starts. In its first mantra, how a scholar should be, this subject has been discussed.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (manuṣyāḥ) =human, (yathā)= just as, (vayam) =we, (vidvadbhiḥ) =by scholars, (yaḥ) =living beings,, (martyeṣu)= in perishable goods and, (amṛtaḥ)= immortal without death, (ṛtāvā) =universally truthful, excellent and truthful qualities, (hotā) =one who accepts and gives offerings in yajna and, (yajiṣṭhaḥ)= one who provides great company in yajna, (devān)= by substances of divine quality or by scholars, [yajña]=yajna, (kṛṇoti)=performs, (asmai) =for this preacher, (bhāmine)=of excellent pride and (agnaye) =for the one who imparts special knowledge, (kā) =said, (gīḥ) =speech of Vedas, (kathā)=by which means, (devajuṣṭā)= followed lovingly by scholars, (ucyate) =is pronounced, (tasmā) =for that, [isa veda vāṇī ko]=to this speech of Vedas, (it) =only, (dāśema) =impart, (tathā) =similarly, (yūyam) =all of you, (api) =also, (kuruta) =do.

    English Translation (K.K.V.)

    O humans! Just as we, through scholars, are aware of the living beings, perishable things and the immortal one, free from death, universally truthful, excellent and having truthful qualities, the one who accepts and gives offerings in the yajna and the one who provides great company in yajna, performs yajna with substances having divine qualities or by scholars. For this preacher, for the one with excellent pride and for the one who imparts special knowledge, the way the words are said by the scholars, follow them with affection, it is for that reason only that this speech of Veda is pronounced. All of you should do the same.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as a scholar attains happiness by praising God and acquiring divine qualities by following scholars, we should do the same.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    Manyu- The feeling of anger towards evil-doers and sinners is called Manyu.

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