ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 78/ मन्त्र 1
अ॒भि त्वा॒ गोत॑मा गि॒रा जात॑वेदो॒ विच॑र्षणे। द्यु॒म्नैर॒भि प्र णो॑नुमः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । त्वा॒ । गोत॑माः । गि॒रा । जात॑ऽवेदः । विऽच॑र्षणे । द्यु॒म्नैः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि त्वा गोतमा गिरा जातवेदो विचर्षणे। द्युम्नैरभि प्र णोनुमः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि। त्वा। गोतमाः। गिरा। जातऽवेदः। विऽचर्षणे। द्युम्नैः। अभि। प्र। नोनुमः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 78; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे जातवेदो विचर्षणे परमात्मन् ! यं त्वां यथा गोतमा द्युम्नैर्गिरा स्तुवन्ति यथा च वयमभि प्रणोनुमस्तथा सर्वे मनुष्याः कुर्य्युः ॥ १ ॥
पदार्थः
(अभि) आभिमुख्ये (त्वा) त्वाम् (गोतमाः) अतिशयेन स्तोतारः (गिरा) वाण्या (जातवेदाः) पदार्थप्रज्ञापक (विचर्षणे) सर्वादिद्रष्टः (द्युम्नैः) धनैर्विज्ञानादिभिर्गुणैः सह (अभि) सर्वतः (प्र) प्रकृष्टे (नोनुमः) अतिशयेन स्तुमः ॥ १ ॥
भावार्थः
सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरमुपास्याप्तविद्वांसमुपसङ्गम्य विद्या संभावनीया ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अठहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में उन्हीं विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे (जातवेदः) पदार्थों को जाननेवाले (विचर्षणे) सबसे प्रथम देखने योग्य परमेश्वर ! जिस आपकी जैसे (गोतमाः) अत्यन्त स्तुति करनेवाले (द्युम्नैः) धन और विमानादिक गुणों तथा (गिरा) उत्तम वाणियों के साथ (अभि) चारों ओर से स्तुति करते हैं और जैसे हम लोग (अभि प्रणोनुमः) अत्यन्त नम्र होके (त्वा) आपकी प्रशंसा करते हैं, वैसे सब मनुष्य करें ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। सब मनुष्यों को चाहिये कि परमेश्वर की उपासना और विद्वानों का सङ्ग करके विद्या का विचार करें ॥ १ ॥
विषय
युम्नों की प्राप्ति
पदार्थ
१. हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ ! (विचर्षणे) = विशेषेण सबके द्रष्टा, सबका ध्यान करनेवाले प्रभो ! (गोतमाः) = प्रशस्त इन्द्रियोंवाले पुरुष (गिरा) = वेदवाणियों के द्वारा (त्वा अभि) = आपको ही आभिमुख्येन स्तुत करते हैं, आपका ही लक्ष्य करके स्तुति - मन्त्रों का उच्चारण करते हैं । वस्तुतः उनके गोतम बन सकने का रहस्य यही है कि वे सदा आपका स्तवन करते हैं । आपका स्तवन ही उन्हें विषय - प्रवणता से बचाये रखता है । जब आप उनका ध्यान रखते हैं तो उनके मार्गभ्रष्ट होने की आंशका ही कैसे हो सकती है ? २. हम भी (द्युम्नैः) = द्युम्नों की प्राप्ति के हेतु से (अभिप्रणोनुमः) = दिन के आरम्भ में और दिन की समाप्ति पर दोनों ही समयों में आपका खूब ही स्तवन करते हैं । आपका यह स्तवन हमें [क] यश [Splendour, glory, lustre] प्राप्त कराता है, [ख] शक्ति [Energy, strength, power] देनेवाला होता है, [ग] धनी [wealth, property] बनाता है, [घ] अन्तःप्रेरणा [Inspiration] देनेवाला होता है, [ङ] त्याग की वृत्ति - [Sacrificial offering] - वाला बनता है । [द्युम्नम् धननाम, नि० २/१० ; द्योततेर्यशो वा अन्नं वा निरु० ५/५ ; यशो वै हिरण्यम् - ऐ० ७/१८]
भावार्थ
भावार्थ - प्रशस्तेन्द्रिय पुरुष प्रभु की उपासना करते हैं । वस्तुतः उपासना से ही वे प्रशस्त - इन्द्रिय बनते हैं । हम भी प्रभु का उपासन करके यश - शक्ति - धन - अन्तः प्रेरणा व त्यागवृत्ति को प्राप्त करते हैं ।
विषय
पुरुषों और स्त्रियों को उपदेश । वे किस प्रकार के बनें ।
भावार्थ
हे (विचर्षणे) सबके आदि द्रष्टा! सबके देखनेहारे ! हे ( जातवेदः ) समस्त धनों और ज्ञानों के उत्पादक स्वामिन् ! परमेश्वर ! (गोतमा) ज्ञान-वाणियों के उत्तम विद्वान् स्तुतिकर्त्ता जन ( त्वा अभि ) तुझे ही लक्ष्य कर (गिरा) वेदवाणी से स्तुतिकरते हैं । हम भी ( घुम्नैः ) तेरे गुणों के प्रकाश करने वाले मन्त्रों तथा तेरे गुणों और ऐश्वर्यों से मुग्ध होकर ( त्वा अभि ) तुझे लक्ष्य कर ( प्र नोनुमः ) सदा नमस्कार करें । राजा के पक्ष में—हे राजन् ! ( गोतमाः ) उत्तम भूमियों के स्वामी और हम प्रजाजन तुझे वाणी से मुख्य पद पर प्रस्तुत करते और धनों सहित तेरे आगे झुकते हैं । ऐश्वर्यवान् होने से ‘जातवेदा’ और सर्वनिरीक्षक साक्षी, द्रष्टा होने से या विविध प्रजाओं का स्वामी होने से ‘विचर्षणि’ है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१-५ गोतम राहूगण ऋषिः ॥ ऋग्नर्देवता ॥ १-५ गायत्री छन्दः ।
विषय
विषय (भाषा)- अब अठहत्तरवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में उन्हीं विद्वानों के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे जातवेदः विचर्षणे परमात्मन् ! यं त्वां यथा {अभि} गोतमाः द्युम्नैः गिरा स्तुवन्ति यथा च वयम् अभि प्र नोनुमः तथा सर्वे मनुष्याः कुर्य्युः ॥१॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (जातवेदाः) पदार्थप्रज्ञापक=पदार्थों का उत्कृष्ट रूप से ज्ञान करानेवाले, (विचर्षणे) सर्वादिद्रष्टः=समस्त वस्तुओं और जीवों को आदिकाल से देखनेवाले, (परमात्मन्)= परमात्मा ! (यम्)=जिस, (त्वा) त्वाम्=तुमको, (यथा)=जैसे, {अभि} आभिमुख्ये=सामने से, (गोतमाः) अतिशयेन स्तोतारः= अतिशय रूप से स्तुति करनेवाले, (द्युम्नैः) धनैर्विज्ञानादिभिर्गुणैः सह=धन और विशेष ज्ञान आदि के गुण के साथ, (गिरा) वाण्या =वाणी से, (स्तुवन्ति)= स्तुति करते हैं, (च)=और, (यथा)=जैसे, (वयम्)=हम, (अभि) सर्वतः=हर ओर से, (प्र) प्रकृष्टे = प्रकृष्ट रूप से, (नोनुमः) अतिशयेन स्तुमः=अतिशय स्तुति करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (सर्वे)=सब, (मनुष्याः)=मनुष्य लोग, (कुर्य्युः)=कीजिये॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- सब मनुष्यों के द्वारा परमेश्वर की उपासना करके और आप्त विद्वान् की उपासना और संगति करण करके, उनके लिये विद्या प्राप्त करने की संम्भावना है ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (जातवेदाः) पदार्थों का उत्कृष्ट रूप से ज्ञान करानेवाले, (विचर्षणे) समस्त वस्तुओं और जीवों को आदिकाल से देखनेवाले (परमात्मन्) परमात्मा ! (यम्) जिस (त्वा) तुमको, (यथा) जैसे {अभि} सामने से, (गोतमाः) अतिशय रूप से स्तुति करनेवाले, (द्युम्नैः) धन और विशेष ज्ञान आदि के गुण के साथ (गिरा) वाणी से (स्तुवन्ति) स्तुति करते हैं (च) और (यथा) जैसे (वयम्) हम (अभि) हर ओर से (प्र) प्रकृष्ट रूप से (नोनुमः) स्तुति करते हैं, (तथा) वैसे ही (सर्वे) सब (मनुष्याः) मनुष्य लोग (कुर्य्युः) कीजिये॥१॥
संस्कृत भाग
अ॒भि । त्वा॒ । गोत॑माः । गि॒रा । जात॑ऽवेदः । विऽच॑र्षणे । द्यु॒म्नैः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- सर्वैर्मनुष्यैः परमेश्वरमुपास्याप्तविद्वांसमुपसङ्गम्य विद्या संभावनीया ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात ईश्वर व विद्वानांच्या गुणांचे कथनाने या सूक्तार्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. सर्व माणसांनी परमेश्वराची उपासना व विद्वानांची संगती करून विद्येसंबंधी विचारविनिमय करावा. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Jataveda, Agni, omniscient lord of universal vision, we, men of knowledge and your admirers, offer homage to you with all our wealth and honour and our noblest songs of praise.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God knower and Beholder of all that exists, We praisers or devotees glorify Thee repeatedly with knowledge and other virtues. Let other men also do like wise.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(गोतमाः) अतिशयेन स्तावका:। (घुम्नैः) विज्ञानादिभिर्गुणैः सह
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
All men should meditate upon God and having approached absolutely truthful learned persons, should acquire knowledge.
Translator's Notes
In the Vedic Lexicon Nighantu, we read in 3. 16.गौरितिस्तोतृनाम (निघ० ३.१६ ) Therefore Rishi Dayananda has Those who interpreted the word गोतमा: as अतिशयेन स्तावका: glorify or praise well.द्य म्नम् इति पदनाम (निघ० ४.२ ) पद-गतौ गतेस्त्रयोsर्थाः ज्ञानं गमनं प्राप्तिश्च So here the first meaning of ज्ञान or knowledge has been taken. Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others have committed the mistake of taking as the name of a sage and his descendents. Sayanacharya strangely interprets it as गोतमाः अस्य सूक्तस्य द्रष्टा गोतम: ऋषिः । ऋषेरेक्त्वेऽपि पूजार्थं बहु-वचनम् i. e. By गोतमा: is meant the desendents of the seer of the hymn गोतम (Gotama).Though he is one, plural has been used to show respect. Is it not strange that one should use plural to show respect to oneself? Yogi Shri Aurabindo has translated जातवेदः विचर्षणेas master of Light. "He has remarked in the foot-note. The names of the Rishis are constantly used with a correct reference to their meaning."(See "On the Vedas" P. 314). Wilson following Sayanacharya has therefore translated it as Gotama celebrates thee Agni with praise. Even he translates जातवेदः विचर्षणे the epithets used in the Mantra for Agni as "Knower and beholder of all that exist, Are such epithets applicable in the case of inanimate material fire?" Rishi Dayananda is therefore right in taking Agni for God the Omniscient Supreme Being.
Subject of the mantra
Now the seventy-eighth hymn starts. In its first mantra, the qualities of those scholars have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (jātavedāḥ) =who gives excellent knowledge of things, (vicarṣaṇe) =who sees all things and living beings from the beginning, (paramātman) =God, (yam) =whom, (tvā) =to you, (yathā) =like, {abhi} =from proximity, (gotamāḥ) =praising excessively, (dyumnaiḥ)=with the qualities of wealth and special knowledge etc., (girā) =by speech, (stuvanti) =praise, (ca) =and, (yathā) =like, (vayam) =we, (abhi) =from all sides, (pra) =excessively, (nonumaḥ) =praise, (tathā) =similarly, (sarve) =all, (manuṣyāḥ) =humans, (kuryyuḥ) =do.
English Translation (K.K.V.)
O God! Who gives excellent knowledge of things, who sees all things and living beings from the beginning. Just as those who praise you excessively from the proximity, praise you through words with qualities of wealth and special knowledge etc. and just as we praise you excessively from all sides, so should all human beings praise you.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is a possibility for all human beings to attain knowledge by worshiping God and by worshiping and associating with a learned scholar.
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