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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 79/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हिर॑ण्यकेशो॒ रज॑सो विसा॒रेऽहि॒र्धुनि॒र्वात॑इव॒ ध्रजी॑मान्। शुचि॑भ्राजा उ॒षसो॒ नवे॑दा॒ यश॑स्वतीरप॒स्युवो॒ न स॒त्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हिर॑ण्यऽकेशः । रज॑सः । वि॒ऽसा॒रे । अहिः॑ । धुनिः॑ । वातः॑ऽइव । ध्रजी॑मान् । शुचि॑ऽभ्राजाः । उ॒षसः॑ । नवे॑दाः । यश॑स्वतीः । अ॒प॒स्युवः॑ । न । स॒त्याः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यकेशो रजसो विसारेऽहिर्धुनिर्वातइव ध्रजीमान्। शुचिभ्राजा उषसो नवेदा यशस्वतीरपस्युवो न सत्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽकेशः। रजसः। विऽसारे। अहिः। धुनिः। वातःऽइव। ध्रजीमान्। शुचिऽभ्राजाः। उषसः। नवेदाः। यशस्वतीः। अपस्युवः। न। सत्याः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 79; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 27; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ कथंभूतो विद्युदग्निरित्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे कुमारिका ब्रह्मचारिण्यो ! रजसो विसारे हिरण्यकेशो धुनिरहिरिव ध्रजीमान् वात इव उषस इव शुचिभ्राजा न वेदा यशस्वतीरपस्युवो नेव यूयं सत्या भवत ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (हिरण्यकेशः) हिरण्यवत्तेजोवत्केशा न्यायप्रकाशा यस्य सः (रजसः) ऐश्वर्य्यस्य (विसारे) विशेषेण स्थिरत्वे (अहिः) मेघ इव (धुनिः) दुष्टानां कम्पकः (वातइव) वायुवत् (ध्रजीमान्) शीघ्रगतिः (शुचिभ्राजाः) शुचयः पवित्रा भ्राजाः प्रकाशा यासां ताः (उषसः) प्रभाता इव (नवेदाः) या अविद्यां न विन्दति ताः (यशस्वतीः) पुण्यकीर्त्तिमत्यः (अपस्युवः) आत्मनोऽपांसि कर्माणीच्छन्तः (न) इव (सत्याः) सत्सु गुणकर्मस्वभावेषु भवाः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। याः कन्या यावच्चतुर्विंशतिवर्षमायुस्तावद् ब्रह्मचर्येण जितेन्द्रियतया साङ्गोपाङ्गा वेदविद्या अधीयते ताः मनुष्यजातिभूषिका भवन्ति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ७९ वें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्युत् अग्नि कैसा है, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे कुमारि ब्रह्मचर्य्ययुक्त कन्या लोगो ! (रजसः) ऐश्वर्य्य के (विसारे) स्थिरता में (हिरण्यकेशः) हिरण्य सुवर्णवत् वा प्रकाशवत् न्याय के प्रचार करनेवाले (धुनिः) शत्रुओं को कंपानेवाले (अहिः) मेघ के समान (ध्रजीमान्) शीघ्र चलनेवाले (वातइव) वायु के तुल्य (उषसः) प्रातःकाल के समान (शुचिभ्राजाः) पवित्र विद्याविज्ञान से युक्त (नवेदाः) अविद्या का निषेध करनेवाली विद्यायुक्त (यशस्वतीः) उत्तम कीर्त्तियुक्त (अपस्युवः) प्रशस्त कर्म्म करनेवाली के (न) समान तुम (सत्याः) सत्य गुण, कर्म्म, स्वभाववाली हों ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो कन्या लोग चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य्यसेवन और जितेन्द्रिय होकर छः अङ्ग अर्थात् शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष, उपाङ्ग अर्थात् मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त तथा आयुर्वेद अर्थात् वैद्यक विद्या आदि को पढ़ती हैं, वे सब संसारस्थ मनुष्य जाति की शोभा करनेवाली होती हैं ॥ १ ॥

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    विषय

    पुरुष व स्त्री

    पदार्थ

    १. एक गृहस्थ में पुरुष व स्त्री कैसा बनने का प्रयत्न करें - इस विषय को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि (रजसः) = रजोगुण के (विसारे) = दूर करने में यह पुरुष (हिरण्यकेशः) = हितरमणीय ज्ञान की ज्वालाओंवाला हो । नैत्यिक स्वाध्याय से यह ज्ञानज्योति को इस प्रकार दीप्त करे कि उसकी ज्ञानाग्नि में सब राजसवृत्तियों का दहन हो जाए । २. राजसवृत्तियों को दग्ध करके यह (अहिः) = [न हन्ता] किसी का नाश करनेवाला न हो अथवा [आहन्ति] सब वासनाओं को समाप्त करनेवाला हो; (धुनिः) - इन वासनारूप शत्रुओं को कम्पित करके दूर करे । ३. ऐसा कर सकने के लिए यह (वातः इव) = वायु के समान (ध्रजीमान्) = गतिमान् हो । जैसे वायु स्वाभाविक रूप से गतिमय है, इसी प्रकार यह सदा कर्मशील बना रहे, क्योंकि कर्मशीलता में ही वासनाएँ पनप नहीं पाती । आलस्य आया और वासनाओं का साम्राज्य हुआ । ४. इस गृहस्थ में स्त्रियाँ भी (शुचिभ्राजाः) = पवित्र व दीप्त हों । बिना दीप्ति के पवित्रता सम्भव ही नहीं, अतः स्त्रियाँ भी वेदज्ञान को प्राप्त कर अति पवित्र जीवनवाली हों । (उषसः) = ये वासनाओं को दग्ध करनेवाली हों [उष दाहे], (न वेदा) = [न विदन्ति] छल - छिद्र को न जाननेवाली, एकदम निर्दोष [Innocent] हों, बच्चों - जैसी [Children like] । ५. (यशस्वतीः) = ये स्त्रियाँ अपने ज्ञान व पवित्रता के कारण यशस्वी जीवनवाली हों । (अपस्युवः) = सदा कर्म करने की इच्छावाली हों, अकर्मण्यता इन्हें छु न जाए । ये न तो लेटी रहें और न गपशप में व्यर्थ ही समय का यापन करनेवाली हों । ६. (अपस्युवः न) = कर्मशील पुरुषों की भाँति ही ये (सत्याः) = सदा सत्य का पालन करनेवाली हों । कर्मशील हों और सत्यवादिनी हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - एक सद्गृहस्थ में पुरुष भी क्रियाशील होते हैं और स्त्रियाँ भी । यह क्रियाशीलता उन्हें पवित्र बना देती है ।

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    विषय

    पुरुषों और स्त्रियों को उपदेश । वे किस प्रकार के बनें ।

    भावार्थ

    पुरुष कैसा हो ? ( रजसः ) अन्धकार और राजस आवरण को दूर करने के कार्य में और ( विसारे ) विविध दिशाओं में फैलने या आक्रमण करने में ( हिरण्यकेशः ) सुवर्ण के समान तेज या ज्योति से युक्त या सूर्य के समान तेजस्वी हो । और ( विसारे ) विविध सार अर्थात् बलों के प्राप्त करने और विविध ऐश्वर्यों के दान करने के कार्य में भी ( अहिः ) मेघ के समान उदार, निष्पक्षपात भाव से सब पर सुखों का वर्षक हो । ( वातः इव ) प्रचण्ड वायु के समान ( ध्रजीमान् ) वेगवान्, उग्र होकर ( धुनिः ) शत्रुओं को भय से कंपा देने वाला हो । स्त्रियें किस प्रकार की बने ? स्त्रियें और कुमारी कन्याएं ( शुचि-भ्राजाः ) शुचि, पवित्र, निष्कलंक आचार के प्रकाश या कान्ति से सुशोभित, ( उषसः न ) प्रातः कालिक नव प्रभात बेलाओं के समान हृदय को पवित्र करने वाली ( नवेदाः ) लौकिक कुटिल, अधार्मिक कुसंग और दुराचारों से सर्वथा अनभिज्ञ, निष्पाप ( Innocent and Ignorant ) और ( यशस्वतीः ) उत्तम यश वाली, सुनामधन्य, (उपस्युवः) नित्य उत्तम कर्म और ज्ञानों की करने की इच्छा वाली, कभी निकम्मा न रहने वाली ( न ) और ( सत्याः ) सत्य व्यवहार करने वाली, सन्तानों के प्रति सद्-व्यवहार करने में कुशल हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौतमो राहूगण ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः-१ विराट् त्रिष्टुप् । २, ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ आर्ष्युष्णिक् । ५, ६ निचृदार्ष्युष्णिक् । ७, ८, १०, ११ निचद्गायत्री । ९, १२ गायत्री ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब उन्यासीवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। उसके प्रथम मन्त्र में विद्युत् अग्नि कैसा है, इस विषय का उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे कुमारिका ब्रह्मचारिण्यः ! रजसः विसारे हिरण्यकेशः धुनिः अहिः इव ध्रजीमान् वात इव उषसः इव शुचिभ्राजा नवेदाः यशस्वतीः अपस्युवः न इव यूयं सत्याः भवत ॥१॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (कुमारिका)=कन्याओं, (ब्रह्मचारिण्यः)= ब्रह्मचारी ! (रजसः) ऐश्वर्य्यस्य =ऐश्वर्य्य की, (विसारे) विशेषेण स्थिरत्वे = विशेष रूप से स्थिरता में, (हिरण्यकेशः) हिरण्यवत्तेजोवत्केशा न्यायप्रकाशा यस्य सः=स्वर्ण व तेज के समान बालोंवाली और नैतिक गुणों से प्रकाशित, (धुनिः) दुष्टानां कम्पकः=दुष्टों को भय से कंपा देनेवाली, (अहिः) मेघ इव=बादल के समान, (ध्रजीमान्) शीघ्रगतिः=तीव्र गति से, (वातइव) वायुवत्=वायु के समान, (उषसः) प्रभाता इव= प्रभात की बेला के समान, (शुचिभ्राजाः) शुचयः पवित्रा भ्राजाः प्रकाशा यासां ताः=पवित्रता के प्रकाशवाली, (नवेदाः) या अविद्यां न विन्दति ताः= अविद्या को न जाननेवाली, (यशस्वतीः) पुण्यकीर्त्तिमत्यः=पुण्य कीर्तिवाली, (अपस्युवः) आत्मनोऽपांसि कर्माणीच्छन्तः=अपने कर्म करने की इच्छावाली के, (न) इव=समान, (यूयम्)=तुम सब, (सत्याः) सत्सु गुणकर्मस्वभावेषु भवाः=अच्छे गुण, कर्म और स्वभाववाली, (भवत)= होओ ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो कन्यायें चौबीस वर्ष की आयु तक ब्रह्मचर्य्य के सेवन और जितेन्द्रियता से, अङ्ग और उपाङ्गों सहित वेद विद्या को पढ़ती हैं, वे सब मनुष्य जाति की शोभा करनेवाली होती हैं॥१॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- वेद के अङ्ग और उपाङ्गों को ऋग्वेद के मन्त्र संख्या ०१.७२.०६ में परिभाषित किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (ब्रह्मचारिण्यः) ब्रह्मचारी (कुमारिका) कन्याओं ! (रजसः) ऐश्वर्य्य की (विसारे) विशेष रूप से स्थिरता में, (हिरण्यकेशः) स्वर्ण व तेज के समान बालोंवाली और नैतिक गुणों से प्रकाशित, (धुनिः) दुष्टों को भय से कंपा देनेवाली, (अहिः) बादल के समान और (ध्रजीमान्) तीव्र गति में (वातइव) वायु के समान, (उषसः) प्रभात की बेला के समान (शुचिभ्राजाः) पवित्रता का प्रकाश करनेवाली, (नवेदाः) अविद्या को न जाननेवाली, (यशस्वतीः) पुण्य कीर्तिवाली, (अपस्युवः) अपने कर्म करने की इच्छावाली के (न) समान (यूयम्) तुम सब (सत्याः) अच्छे गुण, कर्म और स्वभाववाली (भवत) होओ ॥१॥

    संस्कृत भाग

    हिर॑ण्यऽकेशः । रज॑सः । वि॒ऽसा॒रे । अहिः॑ । धुनिः॑ । वातः॑ऽइव । ध्रजी॑मान् । शुचि॑ऽभ्राजाः । उ॒षसः॑ । नवे॑दाः । यश॑स्वतीः । अ॒प॒स्युवः॑ । न । स॒त्याः ॥ विषयः- अथ कथंभूतो विद्युदग्निरित्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। याः कन्या यावच्चतुर्विंशतिवर्षमायुस्तावद् ब्रह्मचर्येण जितेन्द्रियतया साङ्गोपाङ्गा वेदविद्या अधीयते ताः मनुष्यजातिभूषिका भवन्ति॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी, ईश्वर व विद्वानांच्या गुणांचे वर्णन असल्यामुळे याच्या अर्थाची पूर्वसूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. ज्या कन्या चोवीस वर्षांपर्यंत ब्रह्मचर्य पालन करून जितेंद्रिय बनतात व सहा अंगे - शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरूक्त छंद व ज्योतिष तसेच उपांगे मीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य व वेदान्त आणि आयुर्वेद अर्थात वैद्यक विद्या इत्यादी शिकतात त्या सर्व जगातील मानव जातीचे भूषण ठरतात. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The sun, lord of golden beams blazing in the expanse of spaces, skies and the earth, shaker of the clouds and tempestuous like the winds, is Agni. The dawns of pure splendour like fairies and angels of truth and honour, shining and rising like flames of yajna fire, revealing like the vibrations of primordial knowledge, these are Agni too.

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    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O virgin Brahmacharini. A young man whom you choose as partner in life should be like the sun with brilliant rays in the spread or increasement of prosperity; he should be like the cloud in liberality and raining down happiness, swift like wind, shaker of the wicked. You should be pure in radiance like the Dawn, innocent and free from ignorance, glorious or illustrious, always desiring to do good deeds and truthful in mind. word and deed

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (हिरण्यकेश:) हिरण्यवत् तेजोवत् केशा यस्य सः = Like the sun with splendid or brilliant rays. (रजस:) ऐश्वर्यस्य = Of prosperity of wealth. (अहि:) मेघ इव = Like the cloud. (नवेदा:) या श्रविद्यां न विन्दन्ति ताः = Free from ignorance (and innocent).

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those maidens who study the Vedas and Vedangas (Branches of the Vedas ) with the observance of Brahmacharya and perfect self- control up to the age of 24 become the ornaments of human race.

    Translator's Notes

    तेजो वै हिरण्यम् (तैत्तिरीय १८.६.१) रज इति पदनाम (निघ० १.४ ) पद गतौ Among the three meanings fafa the third may be taken in the sense of सुखप्रापकम् = Wealth the cause of happiness. अहिरति मेघनाम (निघ० १.१० ) = Cloud. नवेदा इति मेधाविनाम (निघ० ३.१५ )

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    Subject of the mantra

    Now the seventy-ninth hymn starts. In its first mantra, what kind of electrical energy is? This has been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (brahmacāriṇyaḥ) =celibate, (kumārikā) =girls, (rajasaḥ) =of opulence, (visāre) =especially in stability, (hiraṇyakeśaḥ)=hairy like gold and lustre, and illuminated with moral virtues, (dhuniḥ) =the one who makes the wicked tremble with fear, (ahiḥ) =like cloud and, (dhrajīmān) =at high speed, (vātiva) =like air, (uṣasaḥ) =like the morning dawn, (śucibhrājāḥ)=the one who illuminates purity, (navedāḥ) =ignorant of nescience, (yaśasvatīḥ)=having virtuous fame, (apasyuvaḥ) =of the one who wants to do her deeds, (na) =like, (yūyam) =all of you, (satyāḥ)= having good qualities, deeds and nature, (bhavata) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    O celibate girls! In the special stability of opulence, hairy like gold and glory and illuminated with moral qualities, making the wicked tremble with fear, like a cloud and moving fast like the wind, giving light of purity like the morning dawn and ignorant of nescience. May you be of good qualities, deeds and nature like the one who does not know, has virtuous fame, and desires to do her deeds.

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