ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 8/ मन्त्र 1
ऋषिः - मधुच्छन्दाः वैश्वामित्रः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
एन्द्र॑ सान॒सिं र॒यिं स॒जित्वा॑नं सदा॒सह॑म्। वर्षि॑ष्ठमू॒तये॑ भर॥
स्वर सहित पद पाठआ । इ॒न्द्र॒ । सा॒न॒सिम् । र॒यिम् । स॒ऽजित्वा॑नम् । स॒दा॒ऽसह॑म् । वर्षि॑ष्ठम् । ऊ॒तये॑ । भ॒र॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एन्द्र सानसिं रयिं सजित्वानं सदासहम्। वर्षिष्ठमूतये भर॥
स्वर रहित पद पाठआ। इन्द्र। सानसिम्। रयिम्। सऽजित्वानम्। सदाऽसहम्। वर्षिष्ठम्। ऊतये। भर॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 8; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तत्र कीदृशं धनमीश्वरानुग्रहेण स्वपुरुषार्थेन च प्रापणीयमित्युपदिश्यते।
अन्वयः
हे इन्द्र ! कृपयाऽस्मदूतये वर्षिष्ठं सानसिं सदासहं सजित्वानं रयिमाभर॥१॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (इन्द्र) परमधनप्रदेश्वर ! (सानसिम्) सम्भजनीयम्। सानसिवर्णसि० (उणा०४.१०७) अनेनायं ‘सन’ धातोरसिप्रत्ययान्तो निपातितः। (रयिम्) धनम् (सजित्वानम्) समानानां शत्रूणां विजयकारकम्। अत्र अन्येभ्योऽपि दृश्यते। (अष्टा०३.२.७५) अनेन ‘जि’ धातोः क्वनिप्प्रत्ययः। (सदासहम्) सर्वदा दुष्टानां शत्रूणां हानिकारकदुःखानां च सहनहेतुम् (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धं वृद्धिकारकम्। अत्र वृद्धशब्दादिष्ठन् वर्षिरादेशश्च। (ऊतये) रक्षणाद्याय पुष्टये (भर) धारय॥१॥
भावार्थः
मनुष्यैः सर्वशक्तिमन्तमन्तर्यामिनमीश्वरमाश्रित्य परमपुरुषार्थेन च सर्वोपकाराय चक्रवर्त्तिराज्यानन्दकारकं विद्याबलं सर्वोत्कृष्टं सुवर्णसेनादिकं बलं च सर्वथा सम्पादनीयम्। यतः स्वस्य सर्वेषां च सुखं स्यादिति॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
अब अष्टमसूक्त के प्रथम मन्त्र में यह उपदेश है कि ईश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थ से कैसा धन प्राप्त करना चाहिये-
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारी (ऊतये) रक्षा पुष्टि और सब सुखों की प्राप्ति के लिये (वर्षिष्ठम्) जो अच्छी प्रकार वृद्धि करनेवाला (सानसिम्) निरन्तर सेवने के योग्य (सदासहम्) दुष्ट शत्रु तथा हानि वा दुःखों के सहने का मुख्य हेतु (सजित्वानम्) और तुल्य शत्रुओं का जितानेवाला (रयिम्) धन है, उस को (आभर) अच्छी प्रकार दीजिये॥१॥
भावार्थ
सब मनुष्यों को सर्वशक्तिमान् अन्तर्यामी ईश्वर का आश्रय लेकर अपने पूर्ण पुरुषार्थ के साथ चक्रवर्त्ति राज्य के आनन्द को बढ़ानेवाली विद्या की उन्नति सुवर्ण आदि धन और सेना आदि बल सब प्रकार से रखना चाहिये, जिससे अपने आप को और सब प्राणियों को सुख हो॥१॥
विषय
अब अष्टमसूक्त के प्रथम मन्त्र में यह उपदेश है कि ईश्वर के अनुग्रह और अपने पुरुषार्थ से कैसा धन प्राप्त करना चाहिये।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे इन्द्र ! कृपया अस्मद् ऊतये वर्षिष्ठं सानसिं सदासहं सजित्वानं रयिम् आभर॥१॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) परमधनप्रदेश्वर=परम धन को देने वाले ईश्वर, (कृपया)=कृपया, (अस्मद्)=हमारे, (ऊतये) रक्षणद्याय पुष्टये=रक्षा और पुष्टि आदि के लिये, (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन अतिशयेन वृद्धं वृद्धिकारकम्=अच्छी प्रकार वृद्धि करने वाले, (सानसिम्) सम्भजनीयम्=निरन्तर सेवने के योग्य, (सजित्वानम्) समामानां शत्रूणां विजयकारकम्=तुल्य शत्रुओं से जिताने वाला, (रयिम्) धनम्=धन का, (आ) आ समन्तात्=अच्छी प्रकार, (भर) धरय=दीजिये।
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
सब मनुष्यों को सर्वशक्तिमान् अन्तर्यामी ईश्वर का आश्रय लेकर अपने पूर्ण पुरुषार्थ के साथ चक्रवर्त्ति राज्य के आनन्द को बढ़ानेवाली विद्या की उन्नति सुवर्ण आदि धन और सेना आदि बल सब प्रकार से रखना चाहिये, जिससे अपने आप को और सब प्राणियों को सुख हो॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (इन्द्र) परम धन को देने वाले ईश्वर (कृपया) कृपया (अस्मद्) हमारी (ऊतये) रक्षा, पुष्टि और (वर्षिष्ठम्) अच्छी प्रकार वृद्धि के लिये (सानसिम्) निरन्तर सेवने के योग्य (सजित्वानम्) तुल्य शत्रुओं से जिताने वाले (रयिम्) धन को (आ) अच्छी प्रकार से (भर) दीजिये।
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (आ) समन्तात् (इन्द्र) परमधनप्रदेश्वर ! (सानसिम्) सम्भजनीयम्। सानसिवर्णसि० (उणा०४.१०७) अनेनायं 'सन' धातोरसिप्रत्ययान्तो निपातितः। (रयिम्) धनम् (सजित्वानम्) समानानां शत्रूणां विजयकारकम्। अत्र अन्येभ्योऽपि दृश्यते। (अष्टा०३.२.७५) अनेन 'जि' धातोः क्वनिप्प्रत्ययः। (सदासहम्) सर्वदा दुष्टानां शत्रूणां हानिकारकदुःखानां च सहनहेतुम् (वर्षिष्ठम्) अतिशयेन वृद्धं वृद्धिकारकम्। अत्र वृद्धशब्दादिष्ठन् वर्षिरादेशश्च। (ऊतये) रक्षणाद्याय पुष्टये (भर) धारय॥१॥
विषयः- तत्र कीदृशं धनमीश्वरानुग्रहेण स्वपुरुषार्थेन च प्रापणीयमित्युपदिश्यते।
अन्वयः- हे इन्द्र ! कृपयाऽस्मदूतये वर्षिष्ठं सानसिं सदासहं सजित्वानं रयिमाभर॥१॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्यैः सर्वशक्तिमन्तमन्तर्यामिनमीश्वरमाश्रित्य परमपुरुषार्थेन च सर्वोपकाराय चक्रवर्त्तिराज्यानन्दकारकं विद्याबलं सर्वोत्कृष्टं सुवर्णसेनादिकं बलं च सर्वथा सम्पादनीयम्। यतः स्वस्य सर्वेषां च सुखं स्यादिति॥१॥
विषय
वर्षिष्ठ रयि
पदार्थ
१. (इन्द्र) - हे परमैश्वर्यशाली प्रभो ! (ऊतये) - हमारे रक्षण के लिए (रयिम्) - धन को आभर सब प्रकार से , सब उत्तम मार्गों से - कृषि , पशुपालन व वाणिज्य आदि उत्तम साधनों से प्राप्त कराइए । धन के बिना यह संसार चल नहीं सकता । इसमें छोटे-से-छोटा कार्य भी धन से ही साध्य होता है । यह ठीक है कि धन का आकर्षण इस प्रकार का हो जाता है कि हम इसके दास बन जाते हैं और अपने सब प्रकार के ह्रास का कारण हो जाते हैं , अतः मन्त्र में कहते हैं कि वह धन
२. (सानसिम्) - सम्भजनीय हो , समविभागपूर्वक सेवन के योग्य हो । हम सारे धन को स्वयं अपने भोगों में ही व्यय न कर दें , सबके साथ बाँटकर खाना सीखें । 'केवलाघो भवति केवलादी' इस बात को हम न भूलें कि अकेले खानेवाला शुद्ध पाप का सेवन करता है ।
३. (सजित्वानम्) - यह धन सदा जयशील हो , इस धन के द्वारा हम दारिद्र्य के कष्टों को दूर करनेवाले हों । घर में पोषण व वस्त्रादि की कमी न हो , उचित अन्नादि को प्राप्त कराके यह धन हमारे क्षुधादि रोगों को दूर करनेवाला हो , यह धन हमें आवश्यक भोजन के अभाव में क्षीणशक्तिवाला न होने दे । हमारी सांसारिक आवश्यकताओं का यह विजय करनेवाला हो ।
४. (सदासहम्) - यह धन हमारे काम - क्रोधादि शत्रुओं का भी पराभव करनेवाला हो । हम धन के दास बनकर वासनाओं का शिकार न हो जाएँ ।
५. (वर्षिष्ठम्) - यह धन अतिशयेन संवृद्ध हो । यह बढ़ा हुआ धन हमें बढ़ानेवाला हो , हमारे जीवन में सुखों की वर्षा करनेवाला हो । वस्तुतः पिछले मन्त्र के अन्तिम शब्दों में जब हम प्रभु को ही अपना असाधारण मित्र बनाएँगे तब 'वर्षिष्ठ' धन को प्राप्त करेंगे ही ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें 'सानसि , सजित्वा , सदासह , वर्षिष्ठ' धन को प्राप्त कराएँ । यह धन हामरा रक्षण करेगा ।
विषय
परमेश्वर, राजा, सेनापति
भावार्थ
( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! परमेश्वर ! तू सदा ( सान-सानसिम्) उत्तम रीति से सेवन करने योग्य, (सजित्वानम्) अपने बराबरी के शत्रुओं का विजय करने वाले ( सदासहम् ) सदा शत्रुओं को पराजित करने वाले और समस्त दुःखों के सहन कराने वाले, ( वर्षिष्ठम् ) अत्यन्त अधिक ( रयिम् ) धनैश्वर्य को हमारे ( ऊतये ) रक्षा के लिए ( आ भर ) प्राप्त करा ।
टिप्पणी
‘वर्षिष्ठम्’ – वृद्धशब्दादतिशायने इष्ठन् । वर्षिरादेशः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—१० मधुच्छन्दा ऋषिः । इन्द्रो देवता । गायत्र्य: । दशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
याप्रमाणे जी माणसे ईश्वराची उपासना व वेदोक्त कर्म करणारी आहेत, ती ईश्वराची आश्रित बनून वेदविद्येने आत्म्याचे सुख व उत्तम क्रिया करून शारीरिक सुख प्राप्त करतात. त्यांनी परमेश्वराचीच प्रशंसा करावी, या अभिप्रायाने या आठव्या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वोक्त सातव्या सूत्राच्या अर्थाबरोबर संगती जाणावी.
भावार्थ
सर्व माणसांनी सर्वशक्तिमान, अंतर्यामी ईश्वराचा आश्रय घेऊन आपल्या पूर्ण पुरुषार्थाने सर्वांवर उपकार करण्यासाठी, चक्रवर्ती आनंददायक राज्य होण्यासाठी, विद्यावृद्धी, सुवर्ण इत्यादी धन व सेना इत्यादी बल बाळगले पाहिजे. ज्यामुळे स्वतःला व सर्व प्राण्यांना सुख मिळेल. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, lord supreme of power and glory, bless us with the wealth of life and well-being that gives us the superiority of action over sufferance, delight and victory, courage and endurance, excellence and generosity, and leads us on way to progress under divine protection.
Subject of the mantra
What type of wealth should be obtained by the grace of God and discharge of duties with efforts by us. This has now been preached in the first mantra of eighth hymn.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (indra)=God who gives us enormous wealth, (kṛpayā)=please, (asmad)=our, (ūtaye)=for protection and nourishment, (varṣiṣṭham)=for growth in good manner, (sānasim)=intake, (sajitvānam)=to make the equivalent enemies win, (rayim)=wealth, (ā)=in a nice way, (bhara)=give.
English Translation (K.K.V.)
O Giver of enormous wealth God! Kindly give us wealth for our protection, nourishment and growth in a nice way.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
All human beings should take shelter of the Almighty Inner-dweller God and with all their efforts should keep the progress of knowledge, gold etc., wealth and army etc., which increase the joy of the Chakravarti kingdom of in every way, so that they themselves and all living beings may be happy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What kind of wealth should be obtained by the Grace of God and by one's own exertion is taught in the Ist Mantra of the hymn.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God Giver of great wealth, grant to us from all sides wealth that gives delight, that is distributed among the needy, is enjoyable source of victory, the humbler of foes, abundant, most excellent and giver of power of putting up with all troubles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should take shelter in God the Omnipotent Inner most Spirit of all beings and should acquire by His Grace and by their own exertion for the benefit of all, the wealth of knowledge and the best strength of gold and army, so that all may enjoy happiness.
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