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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृदास्तारपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    इ॒त्था हि सोम॒ इन्मदे॑ ब्र॒ह्मा च॒कार॒ वर्ध॑नम्। शवि॑ष्ठ वज्रि॒न्नोज॑सा पृथि॒व्या निः श॑शा॒ अहि॒मर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒त्था । हि । सोमे॑ । इत् । मदे॑ । ब्र॒ह्मा । च॒कार॑ । वर्ध॑नम् । शवि॑ष्ठ । व॒ज्रि॒न् ओज॑सा । पृ॒थि॒व्याः । निः । श॒शाः॒ । अहि॑म् । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इत्था हि सोम इन्मदे ब्रह्मा चकार वर्धनम्। शविष्ठ वज्रिन्नोजसा पृथिव्या निः शशा अहिमर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इत्था। हि। सोमे। इत्। मदे। ब्रह्मा। चकार। वर्धनम्। शविष्ठ। वज्रिन् ओजसा। पृथिव्याः। निः। शशाः। अहिम्। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे शविष्ठ वज्रिन् ! यथा सूर्योऽहिं यथा ब्रह्मोजसा पृथिव्या मदे सोमे स्वराज्यमन्वर्चन्नित्था वर्धनं चकार तथा हि त्वं सर्वानन्यायाचारान्निः शशाः ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (इत्था) अनेन हेतुना (हि) खलु (सोमे) ऐश्वर्यप्रापके (इत्) अपि (मदे) आनन्दकारके (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् (चकार) कुर्यात् (वर्धनम्) येन वर्धन्ति तत् (शविष्ठ) अतिशयेन बलवान् (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रविद्यासम्पन्न (ओजसा) पराक्रमेण (पृथिव्याः) विस्तृताया भूमेः (निः) नितराम् (शशाः) उत्प्लवस्व (अहिम्) सूर्यो मेघमिव (अर्चन्) पूजयन् (अनु) पश्चात् (स्वराज्यम्) स्वस्य राज्यम् ॥ १ ॥

    भावार्थः

    मनुष्याश्चक्रवर्त्तिराज्यकरणस्य सामग्रीं विधाय पालनं कृत्वा विद्यासुखोन्नतिं कुर्युः ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब ८० वें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में सभापति आदि का वर्णन किया है ॥

    पदार्थ

    हे (शविष्ठ) बलयुक्त (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रविद्या से सम्पन्न सभापति ! जैसे सूर्य (अहिम्) मेघ को जैसे (ब्रह्मा) चारों वेद के जाननेवाला (ओजसा) अपने पराक्रम से (पृथिव्याः) विस्तृत भूमि के मध्य (मदे) आनन्द और (सोमे) ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले में (स्वराज्यम्) अपने राज्य की (अन्वर्चन्) अनुकूलता से सत्कार करता हुआ (इत्था) इस हेतु से (वर्धनम्) बढ़ती को (चकार) करे, वैसे ही तू सब अन्यायाचरणों को (इत्) (हि) ही (निश्शशाः) दूर कर दे ॥ १ ॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि चक्रवर्त्तिराज्य की सामग्री इकट्ठी कर और उसकी रक्षा करके विद्या और सुख की निरन्तर वृद्धि करें ॥ १ ॥

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    विषय

    पृथिवी से अहि का दूरीकरण

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र में कहा था कि प्रभु गृणते = उपदेश देते हैं । (इत्या) = ऐसा होने पर (हि) = निश्चय से (इत्) = सचमुच (मदे सोमे) = हर्ष उत्पन्न करनेवाले सोम [वीर्य] के सुरक्षित होने पर (ब्रह्मा) = चतुर्वेदवेत्ता विद्वान् - प्रकृतिविज्ञान [ऋग्वेद], समाजशास्त्र [यजुर्वेद], अध्यात्मशास्त्र [सामवेद] तथा आयुर्वेद और युद्धवेद [अथर्ववेद] - इन सब विज्ञानों में निपुण व्यक्ति (वर्धनं चकार) = प्रभु के गुणों का वर्धन करनेवाले स्तोत्रों का उच्चारण करता है । हृदयस्थ प्रभु का मूलभूत [First and foremost] उपदेश यह है कि - ‘इन्द्र बनकर सोमपान करो’ । जीवन के चौबीस वर्ष तक के प्रातः सवन में, अगले चवालीस वर्षों के माध्यन्दिनसवन में तथा अन्तिम अड़तालीस वर्षों के सायन्तनसवन में इन्द्र को सोमपान करना है । इस सोम के रक्षण पर ही जीवन का सारा उल्लास निर्भर करता है । इस सात्त्विक उल्लास में वह प्रभु के गुणों का गान करता है । यह प्रभुगुणगान सोमरक्षण में सहायक होता है । इस सोम को ज्ञानप्राप्ति का इंधन बनाकर यह अपने ज्ञान को बढ़ाता है और ब्रह्मा कहलाने का पात्र होता है । २. प्रभु का उपदेश यही है कि तू (शविष्ठ) = अधिक - से - अधिक शक्तिशाली बन । (वज्रिन्) = तेरे हाथ में क्रियाशीलता वज्र हो, (ओजसा) = तू अपनी ओजस्विता से (पृथिव्याः) = इस अपने पृथिवीरूप शरीर से (अहिम्) = सूर्य पर आवरणभूत, मेघ के समान ज्ञान पर आवरणभूत वृत्र = कामवासना को (निः शशाः) = बाहर भगा दे । तू (स्वराज्यं अनु) = स्वराज्य का लक्ष्य करके (अर्चन्) = उपासना करनेवाला बन । उपासना ही मनुष्य को आत्मशासन व संयम के योग्य बनाती है । प्रभु का उपासक ही आत्मशासन कर पाता है । प्रभु से दूर होते ही वासनाएँ हमें आ घेरती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - जीवन का उल्लास वीर्यरक्षण पर आधारित है । वीर्यरक्षण के लिए स्वराज्य - आत्मशासन चाहिए । आत्मशासन के लिए उपासना साधन बनती है ।

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    विषय

    स्वराज्य की वृद्धि, और उनके उपायों का उपदेश ।

    भावार्थ

    ( मदे ) अति हर्षजनक ( सोमे ) ऐश्वर्य राज्यशासन के व्यवस्थित हो जाने पर ( ब्रह्मा ) महान् ज्ञानवान् एवं बड़े भारी ब्रह्म, आचार्य या पुरोहित पर विराजमान् वेदज्ञ विद्वान् ( इत् ) ही ( इत्था ) इस प्रकार से ( वर्धनम् ) राज्यशासन बढ़ाने का उपदेश ( चकार ) करे । हे ( वज्रिन् ) शस्त्रास्त्र सेना बल के स्वामिन् ! हे ( शविष्ठ ) सबसे अधिक शक्तिवाले ! तू ( स्वराज्यम् अनु अर्चन् ) अपने राज्य की निरन्तर वृद्धि और मान आदर करता हुआ ( ओजसा ) अपने पराक्रम से ( पृथिव्याः ) इस पृथिवी में से ( अहिम् ) सूर्य जिस प्रकार मेघ को छिन्न-भिन्न कर देता है उसी प्रकार सर्प के समान कुटिलाचारी और मेघ के समान शस्त्रवर्षी शत्रु को ( निः शशाः ) सर्वथा दण्डित कर, परास्त कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब अस्सीवें सूक्त का आरम्भ किया जाता है। इसके प्रथम मन्त्र में सभापति आदि का वर्णन किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे शविष्ठ वज्रिन् ! यथा सूर्यः अहिं यथा ब्रह्मा ओजसा पृथिव्याः मदे सोमे {इत्} स्वराज्यम् अनु अर्चन् इत्था वर वर्धनं चकार तथा हि त्वं सर्वानि अन्यायाचरान् निः शशाः ॥१॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (शविष्ठ) अतिशयेन बलवान्= अतिशय बलवान्, (वज्रिन्) शस्त्रास्त्रविद्यासम्पन्न= शस्त्र और अस्त्र की विद्या को पूर्ण रूप सिद्ध किये हुए ! (यथा)=जिस प्रकार, (सूर्यः)=सूर्य, (अहिम्) सूर्यो मेघमिव= सूर्य के बादल के समान, (यथा)= जिस प्रकार, (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित्=चारों वेदों का ज्ञाता परमेश्वर, (ओजसा) पराक्रमेण=पराक्रम से, (पृथिव्याः) विस्तृताया भूमेः=विस्तृत भूमि में, (मदे) आनन्दकारके=आनन्द प्रदान करनेवाला और, (सोमे) ऐश्वर्यप्रापके =ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला, {इत्} अपि=भी है, (स्वराज्यम्) स्वस्य राज्यम्=अपने शासन के, (अनु) पश्चात्= पश्चात्, (अर्चन्) पूजयन्=सत्कार करता हुआ, (इत्था) अनेन हेतुना=इस हेतु से, (वर्धनम्) येन वर्धन्ति तत्=वृद्धि, (चकार) कुर्यात् =करे, (तथा) =वैसे ही, (हि) खलु=निश्चित रूप से, (त्वम्) =तुम, (सर्वानि)=समस्त, (अन्यायाचरान्)= अन्याय के व्यवहार को, (निः) नितराम्=अच्छे प्रकार से, (शशाः) उत्प्लवस्व =दूर कर दीजिये ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- चक्रवर्त्ति राज्य का प्रशासन करने की वस्तुओं का नियम बनाकर, उसका पालन और ग्रहण करके मनुष्य विद्या और सुख की उन्नति करें ॥१॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- चक्रवर्त्ति राज्य- जिसके हाथ में चक्र के रूप में कमल के आकार के चिह्न हों, ऐसे समुद्र को घेरे हुई समस्त भूमि के स्वामी को चक्रवर्त्ती कहते हैं। ऐसा राज्य चक्रवर्त्ति राज्य कहलाता है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (शविष्ठ) अतिशय बलवान्, (वज्रिन्) शस्त्र और अस्त्र की विद्या को पूर्ण रूप सिद्ध किये हुए ! (यथा) जिस प्रकार से (सूर्यः) सूर्य (अहिम्) बादल के समान और (यथा) जिस प्रकार (ब्रह्मा) चारों वेदों का ज्ञाता परमेश्वर (ओजसा) पराक्रम से (पृथिव्याः) विस्तृत भूमि में (मदे) आनन्द प्रदान प्रदान करता है और (सोमे) ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला {इत्} भी है। (स्वराज्यम्) अपने शासन कार्य करने के (अनु) पश्चात् (अर्चन्) सत्कार करता हुआ (इत्था) इस हेतु से (वर्धनम्) वृद्धि (चकार) करे। (तथा) वैसे ही (हि) निश्चित रूप से (त्वम्) तुम (सर्वानि) समस्त (अन्यायाचरान्) अन्याय के व्यवहार को (निः) अच्छे प्रकार से (शशाः) दूर कर दीजिये ॥१॥

    संस्कृत भाग

    इ॒त्था । हि । सोमे॑ । इत् । मदे॑ । ब्र॒ह्मा । च॒कार॑ । वर्ध॑नम् । शवि॑ष्ठ । व॒ज्रि॒न् ओज॑सा । पृ॒थि॒व्याः । निः । श॒शाः॒ । अहि॑म् । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- अथ सभाद्यध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्याश्चक्रवर्त्तिराज्यकरणस्य 

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सभाध्यक्ष, सूर्य, विद्वान व ईश्वर यांचे वर्णन करण्याने पूर्व सूक्ताबरोबर या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    माणसांनी चक्रवर्ती राज्याची सामग्री एकत्र करून व त्याचे रक्षण करून विद्या व सुखाची निरंतर वृद्धी करावी. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Giving to freedom and self-government an exalted place of honour, Brahma, lord creator, in-vested the joy and excitement of life with animation, growth and independence. And for the same reason, Indra, strongest in courage and valour, wielder of the thunderbolt of freedom and self-government, with your might and main, strike off the serpent of evil, suffering and slavery from the earth for all time.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should Indra (President of the Assembly) be is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O most powerful President of the Council of Ministers or the Assembly skilled in the weapons of war, just as the sun dispels by his rays the clouds, so do thou expel all wickedness and oppression from thy kingdom and make it acceptable and respected among the people, so that persons well-versed in all the four Vedas and other enlightened men may live therein in peace and by their power derive advantage from the enjoyable objects of the earth and help others to do likewise and thus progress in life. Thou shouldst manifest the glory of thy kingdom or sovereignty.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (ब्रह्मा) चतुर्वेदवित् = Knower of or well-versed in all the four Vedas. ( सोमे मदे ) ऐश्वर्यप्रापके श्रानन्दकारके व्यवहारे = In the dealing that leads to prosperity and bliss. (शशा) उत्प्लवस्व = Expel. (अहम् ) मेघम् = Cloud. (अहिरति मेघनाम निघ० १.१० )

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should devise all means for a good vast and independent kingdom and by preserving it well should always advance in knowledge and happiness.

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    Subject of the mantra

    Now the eightieth hymn starts. In its first mantra, the President of Assembly etc. have been described.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (śaviṣṭha) =extremely powerful, (vajrin)= who has perfected the knowledge of arms and weapons, (yathā)=just as, (sūryaḥ) =Sun, (ahim) =like cloud and, (yathā)=just as, (brahmā) the knower of the four Vedas God, (ojasā)= with great might, (pṛthivyāḥ) =in the vast land, (made)=provides happiness and, (some) =the giver of opulence, {it} =is also, (svarājyam) = completing his administrative work, (anu) =after, (arcan)= extending hospitality, (itthā) =for thispurpose, (vardhanam) =progress, (cakāra) =make, (tathā) =similarly, (hi) =definitely, (tvam) =you, (sarvāni)=all, (anyāyācarān)=unjust behavior, (niḥ)=in a good manner, (śaśāḥ) =remove.

    English Translation (K.K.V.)

    O extremely powerful one, who has perfected the knowledge of arms and weapons! Just as the Sun is like a cloud, just as the God, who is the knower of the four Vedas, provides happiness in the vast land with might and is also the giver of opulence. After completing his administrative duties, he should increase his hospitality. Similarly, you should definitely remove all unjust behaviour in a good manner.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    By making rules for administering the cakravarttī kingdom, following and adopting them, human beings should progress in knowledge and happiness.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    cakravartti rājya- One who has in hand lotus-shaped symbol in the form of a wheel, the owner of all the land that surrounds such an ocean is called Chakravarti. Such a state is called a Chakravarti state.

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