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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 86 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - मरुतः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    मरु॑तो॒ यस्य॒ हि क्षये॑ पा॒था दि॒वो वि॑महसः। स सु॑गो॒पात॑मो॒ जनः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मरु॑तः । यस्य॑ । हि । क्षये॑ । पा॒थ । दि॒वः । वि॒ऽम॒ह॒सः॒ । सः । सु॒ऽगो॒पात॑मः । जनः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मरुतो यस्य हि क्षये पाथा दिवो विमहसः। स सुगोपातमो जनः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मरुतः। यस्य। हि। क्षये। पाथ। दिवः। विऽमहसः। सः। सुऽगोपातमः। जनः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 86; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स गृहस्थः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे विमहसो ! दिवो यूयं मरुतो यस्य क्षये पाथ स हि खलु सुगोपातमो जनो जायेत ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (मरुतः) प्राणा इव प्रिया विद्वांसः (यस्य) (हि) खलु (क्षये) गृहे (पाथ) रक्षका भवथ। अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (दिवः) विद्यान्यायप्रकाशकाः (विमहसः) विविधानि महांसि पूज्यानि कर्माणि येषां तत्सम्बुद्धौ (सः) (सुगोपातमः) अतिशयेन सुष्ठु स्वस्यान्येषां च रक्षकः (जनः) मनुष्यः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्राणेन विना शरीरादिरक्षणं न सम्भवति, तथैव सत्योपदेशकेन विना प्रजारक्षणं न जायते ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह गृहस्थ कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

    पदार्थ

    हे (विमहसः) नाना प्रकार पूजनीय कर्मों के कर्त्ता ! (दिवः) विद्यान्यायप्रकाशक तुम लोग (मरुतः) वायु के समान विद्वान् जन (यस्य) जिसके (क्षये) घर में (पाथ) रक्षक हो (सः हि) वही (सुगोपातमः) अच्छे प्रकार (जनः) मनुष्य होवे ॥ १ ॥

    भावार्थ

    जैसे प्राण के विना शरीरादि का रक्षण नहीं हो सकता, वैसे सत्योपदेशकर्त्ता के विना प्रजा की रक्षा नहीं होती ॥ १ ॥

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    विषय

    "सुगोपा = तम" जन

    पदार्थ

    १. हे (दिवः) = [दिव् विजिगीषा] रोगों को जीतने की कामना करनेवाले (विमहसः) = विशिष्ट तेजस्विता व दीप्तिवाले (मरुतः) = प्राणों ! आप (यस्य) = जिस पुरुष के (क्षये) = शरीररूप गृह में [क्षि निवासगत्योः] (हि) = निश्चय से (पाथ) = सोम का रक्षण करते हो (सः जनः) = वह मनुष्य (सुगोपा - तमः) = इन्द्रियों का सर्वोत्तम रक्षक होता है । २. प्राणायाम द्वारा प्राणसाधना होने पर शरीर के रोग नष्ट होते हैं, बुद्धि का प्रकाश दीप्त होता है । शरीर में सोम की ऊर्ध्वगति होकर शरीर की शक्तियों का विकास होता है । यह पुरुष अपना उत्तम रक्षण करनेवाला होता है । इसकी इन्द्रियों की शक्ति कभी क्षीण नहीं होती । सुरक्षित सोम इन्द्रियों की शक्ति का रक्षण करता है । इस प्रकार यह पुरुष 'सुगोपातम' बनता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ = प्राणसाधना द्वारा शरीर में ही सोम का पान करें, जिससे सब इन्द्रियों की शक्ति अक्षीण बनी रहे ।

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    विषय

    उत्तम रक्षक और परमेश्वर का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे ( विमहसः ) विविध प्रकार के और विशेष तेजों वाले ज्ञानों और प्रभावों से युक्त ( मरुतः ) विद्वान् और वीर पुरुषो ! आप लोग ( यस्य क्षये ) जिस के घर में या जिस के आश्रय रह कर (दिवः) पृथिवी की और विद्या, विज्ञान की ( पाथ ) रक्षा करते हो ( सः ) वह ( जनः ) मनुष्य (सुगोपातमः) उत्तम रक्षक है । अध्यात्म में—( मरुतः ) प्राणगण जिस आत्मा के देह में रह कर शरीर की रक्षा करते हैं वह आत्मा शरीर का उत्तम रक्षक है । उस ब्रह्माण्ड में जिस सूर्य के अधीन ये वायु गण रह कर जल का किरणों द्वारा पान करते हैं वह सूर्य ही समस्त प्रजाओं का बड़ा रक्षक है। इसी प्रकार वह परमेश्वर जिस के आश्रय में रह कर विद्वान् गण आनन्द रस का पान करते हैं वह सब से बड़ा रक्षक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः–१, ४, ८, ९ गायत्री । २, ३, ७ पिपीलिका मध्या निचृद्गायत्री । ५, ६, १० निचृद्गायत्री ॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर वह गृहस्थ कैसा हो, इस विषय को इस मन्त्र में कहा है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विमहसः ! दिवः यूयं मरुतः यस्य क्षये पाथ सः हि खलु सुगोपातमः जनः जायेत ॥१॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (विमहसः) विविधानि महांसि पूज्यानि कर्माणि येषां तत्सम्बुद्धौ=विभिन्न प्रकार के महान् पूज्य कर्मों के कर्त्ता ! (दिवः) विद्यान्यायप्रकाशकाः= विद्या और न्याय का प्रकाश करनेवाले, (यूयम्)=तुम सब, (मरुतः) प्राणा इव प्रिया विद्वांसः=प्राणों के समान विद्वान् लोग, (यस्य)=जिसके, (क्षये) गृहे=घर में, (पाथ) रक्षका भवथ= रक्षक होते हो, (सः)=वह, (हि) खलु=निश्चित रूप से, (सुगोपातमः) अतिशयेन सुष्ठु स्वस्यान्येषां च रक्षकः=अतिशय रूप से अपने और अन्य लोगों का उत्तम रक्षक, (जनः) मनुष्यः= मनुष्य, (जायेत)=होवे ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्राण के विना शरीर आदि का रक्षण नहीं हो सकता है, वैसे ही सत्य के उपदेशक के विना प्रजा की रक्षा नहीं होती है॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (विमहसः) विभिन्न प्रकार के महान् पूज्य कर्मों के कर्त्ता और (दिवः) विद्या और न्याय का प्रकाश करनेवाले! (यूयम्) तुम सब (मरुतः) प्राणों के समान विद्वान् लोग, (यस्य) जिसके (क्षये) घर में (पाथ) रक्षक होते हो, (सः) वह (हि) निश्चित और (सुगोपातमः) अतिशय रूप से अपने और अन्य लोगों का उत्तम रक्षक (जनः) मनुष्य (जायेत) होवे ॥१॥

    संस्कृत भाग

    मरु॑तः । यस्य॑ । हि । क्षये॑ । पा॒थ । दि॒वः । वि॒ऽम॒ह॒सः॒ । सः । सु॒ऽगो॒पात॑मः । जनः॑ ॥ विषयः- पुनः स गृहस्थः कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा प्राणेन विना शरीरादिरक्षणं न सम्भवति, तथैव सत्योपदेशकेन विना प्रजारक्षणं न जायते ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात शरीरात स्थित असलेले प्राण इत्यादी वायू इच्छित सुख सिद्ध करून सर्वांचे रक्षण करतात. तसेच सभाध्यक्ष इत्यादींनी संपूर्ण राज्याचे यथायोग्य रक्षण करावे. या अर्थाच्या वर्णनाने या सूक्तात सांगितलेल्या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर एकरूपता जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    जसे प्राणाशिवाय शरीर इत्यादीचे रक्षण होऊ शकत नाही. तसे सत्य उपदेशकाशिवाय प्रजेचे रक्षण होत नाही. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Maruts, dear as the breath of life, bright as the light of heaven, agents of great and adorable action, the person whose house you visit and bless with protection grows to be the most secure and meritorious person.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a house holder be is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Maruts-beloved learned persons like the Pranas, O doers of adorable acts, illuminators of knowledge and justice ! That man of whose dwelling, you are guardians (by giving your noble advice and knowledge) indeed becomes the best protector of himself and others.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मरुतः) प्राणा इव प्रिया विद्वांसः = Beloved learned persons, beloved like the Pranas. (दिवः) विद्यान्यायप्रकाशका: = Illuminators of knowledge and justice.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As there can be no protection of body without Prana (vital energy),in the same manner, without a true preacher of truth, the subjects cannot get protection.

    Translator's Notes

    प्रारणा वै मरुतः स्वापय:(ऐतरेय ३१६) According to the passage quoted above from the Aitareya Brahmana 3.16 it is clear that the word Marutah is used for the Pranas also, so Rishi Dayananda Sarasvati has interpreted it here as beloved learned persons like the Pranas. The word दिवः is derived from दिवु-क्रीडा विजिगीषा व्यवहारयति स्तुति मोदमदस्बप्न कान्तिगतिषु here the meaning of द्युति has been taken and hence it has been interpreted as विद्यान्यायप्रकाशकाः or illuminators of knowledge and justice.

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    Subject of the mantra

    Then, how should that householder be? This subject has been discussed in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vimahasaḥ) the doer of various types of great reverend deeds and, (divaḥ)=doing the light of knowledge and justice, (yūyam) =all of you, (marutaḥ)=people as learned as life-breath, (yasya) whose, (kṣaye) =in house, (pātha)= be protector, (saḥ) =he, (hi) definitely and, (sugopātamaḥ) extremely be a great protector of self and others, (janaḥ) =human, (jāyeta) =be.

    English Translation (K.K.V.)

    O the doer of various types of great reverend deeds and the light of knowledge and justice! All of you, people as learned as life-breath, who be protector in whose house, he must definitely and extremely be a great protector human of self and others.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as the body cannot be saved without the life-breath, similarly the people cannot be protected without the preceptor of truth.

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