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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 87 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमो राहूगणपुत्रः देवता - मरुतः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    प्रत्व॑क्षसः॒ प्रत॑वसो विर॒प्शिनोऽना॑नता॒ अवि॑थुरा ऋजी॒षिणः॑। जुष्ट॑तमासो॒ नृत॑मासो अ॒ञ्जिभि॒र्व्या॑नज्रे॒ के चि॑दु॒स्राइ॑व॒ स्तृभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्रऽत्व॑क्षसः । प्रऽत॑वसः । वि॒ऽर॒प्शिनः॑ । अना॑नताः । अवि॑थुराः । ऋ॒जी॒षिणः॑ । जुष्ट॑ऽतमासः । नृऽत॑मासः । अ॒ञ्जिऽभिः॑ । वि । आ॒न॒ज्रे॒ । के । चि॒त् । उ॒स्राइ॑व॒ स्तृभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रत्वक्षसः प्रतवसो विरप्शिनोऽनानता अविथुरा ऋजीषिणः। जुष्टतमासो नृतमासो अञ्जिभिर्व्यानज्रे के चिदुस्राइव स्तृभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रऽत्वक्षसः। प्रऽतवसः। विऽरप्शिनः। अनानताः। अविथुराः। ऋजीषिणः। जुष्टऽतमासः। नृऽतमासः। अञ्जिऽभिः। वि। आनज्रे। के। चित्। उस्राइव स्तृभिः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 87; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्ते सभाध्यक्षादयः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे सभाध्यक्षादयो ! भवत्सेनासु ये केचित्स्तृभिरञ्जिभिः सह वर्त्तमाना उस्रा इव प्रत्वक्षसः प्रतवसो विरप्शिनोऽनानता अविथुरा ऋजीषिणो जुष्टतमासो नृतमासश्च शत्रुबलानि व्यानज्रे व्यजन्तु प्रक्षिपन्तु ते भवद्भिर्नित्यं पालनीयाः ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (प्रत्वक्षसः) प्रकृष्टतया शत्रूणां छेत्तारः (प्रतवसः) प्रकृष्टानि तवांसि बलानि सैन्यानि येषान्ते (विरप्शिनः) सर्वसामग्र्या महान्तः (अनानताः) शत्रूणामभिमुखे खल्वनम्राः (अविथुराः) कम्पभयरहिताः। अत्र बाहुलकादौणादिकः कुरच् प्रत्ययः। (ऋजीषिणः) सर्वविद्यायुक्तः उत्कृष्टसेनाङ्गोपार्जकाः (जुष्टतमासः) राजधर्मिभिरतिशयेन सेविताः (नृतमासः) अतिशयेन नायकाः (अञ्जिभिः) व्यक्तै रक्षणविज्ञानादिभिः (वि) (आनज्रे) अजन्तु शत्रून् क्षिपन्तु। व्यत्ययेनात्मनेपदम्। (के) (चित्) अपि (उस्राइव) यथा किरणास्तथा (स्तृभिः) शत्रुबलाच्छादकैर्गुणैः। स्तृञ् आच्छादन इत्यस्मात् क्विप् वा च्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीति तुगभावः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    यथा किरणास्तथा प्रतापवन्तो मनुष्या येषां समीपे सन्ति, कुतस्तेषां पराजयः। अतः सभाध्यक्षादिभिरेतल्लक्षणाः पुरुषाः सुपरीक्ष्य सुशिक्ष्य सत्कृत्योत्साह्य रक्षणीयाः। नैवं विना केचिद्राज्यं कर्त्तुं शक्नुवन्तीति ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब सतासीवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में पूर्वोक्त सभाध्यक्ष कैसे होते हैं, यह उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    हे सभाध्यक्ष आदि सज्जनो ! आप लोगों को (के) (चित्) उन लोगों की प्रतिदिन रक्षा करनी चाहिये जो कि अपनी सेनाओं में (स्तृभिः) शत्रुओं को लञ्जित करने के गुणों से (अञ्जिभिः) प्रकट रक्षा और उत्तम ज्ञान आदि व्यवहारों के साथ वर्त्ताव रखते और (उस्रा इव) जैसे सूर्य की किरण जल को छिन्न-भिन्न करती हैं, वैसे (प्रत्वक्षसः) शत्रुओं को अच्छे प्रकार छिन्न-भिन्न करते हैं तथा (प्रतवसः) प्रबल जिनके सेनाजन (विरप्शिनः) समस्त पदार्थों के विज्ञान से महानुभाव (अनानताः) कभी शत्रुओं के सामने न दीन हुए और (अविथुराः) न कँपे हो (ऋजीषिणः) समस्त विद्याओं को जाने और उत्कर्षयुक्त सेना के अङ्गों को इकट्ठे करें (जुष्टतमासः) राजा लोगों ने जिनकी बार-बार चाहना करी हो (नृतमासः) सब कामों को यथायोग्य व्यवहार में अत्यन्त वर्त्तानेवाले हों (व्यानज्रे) शत्रुओं के बलों को अलग करें, उनका सत्कार किया करो ॥ १ ॥

    भावार्थ

    जैसे सूर्य की किरणें तीव्र प्रतापवाली हैं, वैसे प्रबल प्रतापवाले मनुष्य जिनके समीप हैं, क्योंकर उनकी हार हो। इससे सभाध्यक्ष आदिकों को उक्त लक्षणवाले पुरुष अच्छी शिक्षा, सत्कार और उत्साह देकर रखने चाहिये, विना ऐसे किये कोई राज्य नहीं कर सकते हैं ॥ १ ॥

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    विषय

    प्राणसाधक का अलंकृत जीवन

    पदार्थ

    १. प्राणसाधना करनेवाले पुरुष (प्रत्वक्षसः) = अपने शत्रुओं को तनूकृत करनेवाले होते हैं अथवा अपनी बुद्धि को सूक्ष्म बनाते हैं । (प्रतवसः) = प्रकृष्ट बल से युक्त होते हैं । इस प्रकार बुद्धि और बल को बढ़ाकर ये (विरप्शिनः) = महान् बनते हैं अथवा [वि+रप्] उत्कृष्ट स्तुति के शब्दों का उच्चारण करनेवाले होते हैं । इस प्रकार 'प्रत्वक्षसः ' शब्द इनकी बुद्धि के उत्कर्ष की सूचना देता है । 'प्रतवसः ' से शारीरिक बल का उल्लेख हुआ है और 'विरप्शिनः ' शब्द हृदय की प्रशस्तता का संकेत करता है । इनके हृदय में प्रभु की महिमा की भावना जागती है और उसी को ये वाणी से उच्चारण करनेवाले होते हैं । २. (अनानताः) = प्रभु का स्मरण करते हुए ये संसार में अन्याय से दबते नहीं । प्रभुस्मरण इन्हें वह शक्ति प्राप्त कराता है जो इन्हें शत्रुओं के सामने झुकने नहीं देती । ये (अविथुराः) = कम्पभय से रहित होते हैं, शत्रुओं से कम्पित नहीं हो जाते । (ऋजीषिणः) =[Hastening towards, seining, driving away] ये शत्रुओं पर आक्रमण करके उन्हें काबू कर लेते हैं और उन्हें अपने से दूर भगा देते हैं । ३. (जुष्टतमासः) = शत्रुओं को दूर भगाकर ये [जुषी प्रीतिसेवनयोः] प्रीतिपूर्वक प्रभु का उपासन करनेवाले होते हैं । (नृतमासः) = इस उपासना के द्वारा अपने को आगे और आगे ले - चलते हैं । उन्नतिपथ पर चलते हुए ये (केचित्) = इनेगिने लोग (अञ्जिभिः) = सुशोभित करनेवाले सद्गुणों से उसी प्रकार (व्यानज्रे) = सुशोभित दिखते हैं [व्यक्ता दृश्यन्ते = सा०] (इव) = जैसे (उस्रा) = प्रातःकाल [Morning] का चमकता हुआ आकाश [Bright sky] (स्तृभिः) = तारों से सुशोभित होता है । एक - एक सद्गुण उसक जीवन के आकाश में एक - एक तार के समान होता है ।

    विशेष / सूचना

    भावार्थ = प्राणसाधना 'बुद्धि, शरीर व हृदय' तीनों को प्रशस्त करती है । प्राणसाधक कामादि शत्रुओं को नष्ट करता हुआ अपने जीवन को सद्गुणों से मण्डित करता है ।

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    विषय

    वीर उत्तम नायकों का वर्णन। उनके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( केचित् ) कुछ वीर पुरुष ( उस्राः इव ) किरणों के समान हों । वे (प्रत्यक्षसः) तीक्ष्ण शस्त्रों से शत्रुओं की खूब काट छांट करने में कुशल, ( प्रतवसः ) सब प्रकार से बड़े शक्तिशाली, ( अनानताः ) शत्रु के सामने कभी न झुकने वाले, ( ऋजीषिणः ) ऋजु, सरल धर्म युक्त मार्ग में जाने वाले, अथवा ऐश्वर्यों और बल उपार्जन में दत्तचित्त, (जुष्टतमासः) सब राजकार्यों में खूब सेवा करने वाले, तथा राजपुरुषों द्वारा सेवा करने योग्य, ( अविथुराः ) भय से कभी न कांपने वाले, ( नृतमासः ) उत्तम नायक, नेता पुरुष (स्तृभिः) विस्तृत, परराज्य, स्वराष्ट्र सब पर आच्छादन, अपना अधिकार या शासन करने वाले, या शत्रुओं के नाशक, (अञ्जिभिः) रक्षा, ज्ञान आदि के प्रकाशक और प्रकट चिन्हों और गुणों सहित हों । वे (वि आनज्रे) विविध उपाय से शत्रुओं और वाधक कारणों को उखाड़ फेंकें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्दः—१, २, ५ विराड् जगती । ३ जगती । ६ निचृज्जगती । ४ त्रिष्टुप् । षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब सतासीवें सूक्त का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में पूर्वोक्त सभाध्यक्ष कैसे होते हैं, यह उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे सभाध्यक्षादयः ! भवत्सेनासु ये के चित् स्तृभिः अञ्जिभिः सह वर्त्तमाना उस्राइव प्रत्वक्षसः प्रतवसः विरप्शिनः अनानताः अविथुराः ऋजीषिणः जुष्टतमासः नृतमासः च शत्रुबलानि व्यानज्रे व्यजन्तु प्रक्षिपन्तु ते भवद्भिः नित्यं पालनीयाः ॥१॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (सभाध्यक्षादयः)=सभा के अध्यक्ष आदि ! (भवत्सेनासु) =आपकी सेना में, (ये)=जो, (के)=कोई, (चित्) अपि=भी, (स्तृभिः) शत्रुबलाच्छादकैर्गुणैः=शत्रु के बलों का आच्छादन करनेवाले गुणों से, (अञ्जिभिः) व्यक्तै रक्षणविज्ञानादिभिः= व्यक्त किये हुए रक्षण विज्ञान आदि के, (सह)=साथ, (वर्त्तमाना)=उपस्थित, (उस्राइव) यथा किरणास्तथा=किरणों जैसे, (प्रत्वक्षसः) प्रकृष्टतया शत्रूणां छेत्तारः=प्रकृष्ट रूप से शत्रुओं को नष्ट करनेवाले, (प्रतवसः) प्रकृष्टानि तवांसि बलानि सैन्यानि येषान्ते=प्रकृष्ट बलवाली सेना के, (विरप्शिनः) सर्वसामग्र्या महान्तः=समस्त सामग्री से महान्, (अनानताः) शत्रूणामभिमुखे खल्वनम्राः=शत्रुओं के सामने से निश्चित रूप से न झुके हुए, (अविथुराः) कम्पभयरहिताः=कम्पन के भय से रहित, (ऋजीषिणः) सर्वविद्यायुक्तः उत्कृष्टसेनाङ्गोपार्जकाः=समस्त विद्याओंवाले और उत्कृष्ट शाखाओं को प्राप्त करनेवाले, (जुष्टतमासः) राजधर्मिभिरतिशयेन सेविताः=राज्य के कर्त्तव्य करनेवालों के द्वारा अतिशय रूप से सेवन किये हुए, (नृतमासः) अतिशयेन नायकाः=अतिशय रूप से नायक, (च)=भी, (शत्रुबलानि)= शत्रुओं के बलों को, (वि)=विशेष रूप से, (आनज्रे) अजन्तु शत्रून् क्षिपन्तु=शत्रुओं को नष्ट कर दें, (व्यजन्तु)= विशेष रूप से नष्ट कर दें, (प्रक्षिपन्तु)= प्रकृष्ट रूप से नष्ट कर दें, (ते)= वे, (भवद्भिः)= आपके द्वारा, (नित्यम्)= नित्य, (पालनीयाः)=पालन किये जाने योग्य हैं ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- जैसे सूर्य की किरणें तेजवाली हैं, वैसे ही प्रबल प्रतापवाले मनुष्य जिनके समीप हैं, क्योंकर उनकी हार हो। इसलिये सभाध्यक्ष आदि के द्वारा इन लक्षणोंवाले पुरुषों को अच्छी तरह से परीक्षा करके, उत्तम शिक्षा दे करके, उनका सत्कार करके, उत्साह के साथ उनका रक्षण करना चाहिये। ऐसे किये विना कोई राज्य नहीं कर सकते हैं ॥१॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (सभाध्यक्षादयः) सभा के अध्यक्ष आदि ! (भवत्सेनासु) आपकी सेना में, (ये) जो (के) कोई (चित्) भी (स्तृभिः) शत्रु के बलों का आच्छादन करनेवाले गुणों से और (अञ्जिभिः) व्यक्त किये हुए रक्षण विज्ञान आदि के (सह) साथ (वर्त्तमाना) उपस्थित (उस्राइव) किरणों जैसे (प्रत्वक्षसः) प्रकृष्ट रूप से शत्रुओं को नष्ट करनेवाले हैं। (प्रतवसः) प्रकृष्ट बलवाली सेना की (विरप्शिनः) समस्त महान् सामग्रीवाली और (अनानताः) शत्रुओं के सामने से निश्चित रूप से न झुकी हुई और (अविथुराः) कम्पन के भय से रहित (ऋजीषिणः) समस्त विद्याओंवाले और उत्कृष्ट शाखाओं को प्राप्त करनेवाले, (जुष्टतमासः) राज्य के कर्त्तव्य करनेवालों के द्वारा अतिशय रूप से सेवन किये हुए और (नृतमासः) अतिशय रूप से नायक के रूप में उपस्थित सैनिक (च) भी (शत्रुबलानि) शत्रुओं के बलों को (वि) विशेष रूप से और (आनज्रे) शत्रुओं को नष्ट कर दें। (ते) वे (भवद्भिः) आपके द्वारा (नित्यम्) नित्य (पालनीयाः) पालन किये जाने योग्य हैं ॥१॥

    संस्कृत भाग

    प्रऽत्व॑क्षसः । प्रऽत॑वसः । वि॒ऽर॒प्शिनः॑ । अना॑नताः । अवि॑थुराः । ऋ॒जी॒षिणः॑ । जुष्ट॑ऽतमासः । नृऽत॑मासः । अ॒ञ्जिऽभिः॑ । वि । आ॒न॒ज्रे॒ । के । चि॒त् । उ॒स्राइ॑व॒ स्तृभिः॑ ॥ विषयः- पुनस्ते सभाध्यक्षादयः कीदृशा इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- यथा किरणास्तथा प्रतापवन्तो मनुष्या येषां समीपे सन्ति, कुतस्तेषां पराजयः। अतः सभाध्यक्षादिभिरेतल्लक्षणाः पुरुषाः सुपरीक्ष्य सुशिक्ष्य सत्कृत्योत्साह्य रक्षणीयाः। नैवं विना केचिद्राज्यं कर्त्तुं शक्नुवन्तीति ॥१॥

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात राजा व प्रजा यांचे कर्तव्य सांगितलेले आहे. यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    जशी सूर्याची किरणे तीव्र सामर्थ्ययुक्त असतात तसे ज्यांच्याजवळ प्रबल शक्तिमान पुरुष असतात त्यांचा पराजय कसा होईल? त्यासाठी सभाध्यक्ष इत्यादींनी वरील लक्षणयुक्त पुरुषांना चांगले शिक्षण द्यावे. त्यांचा सत्कार करून उत्साहित करावे. असे केल्याशिवाय कोणीही राज्य करू शकत नाही. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Maruts, shaping and refining powers of life and nature, active powerfully, mighty exuberant, unbent, unshaken, lovers of truth, knowledge and joy to the last drop of soma, most adorable, foremost leaders of humanity shine as the lights of dawn with their splendour and cover the beauty of life with their blessings of protection.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How are the Presidents of the assemblies and armies etc. is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Presidents of the assemblies and Chiefs of the armies etc. you should always maintain and fully support brave persons who are annihilators of, adversaries, endowed with exceeding vigour and power, great in all respects, un-bending or never flinching, the immovable, the impetuous and absolutely fearless, full of knowledge of various kinds and gatherers of all the different parts of the army, the must beloved and the most manly leaders, who throw away the powers of the foes possessing manifestly the power of protection and knowledge, full of virtues which ecclipse the attributes of the armies of the enemies, like the rays of the sun.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (प्रत्वक्षस:) प्रकृष्टतया शत्रूणां छेसार: = Annihilators of the enemies well. (विरप्शिन:) सर्वसामग्र्या महान्तः = Great in all respects or with all necessary articles. (ऋजीषिणः) सर्वविद्यायुक्ताः, उत्कृष्टसेनांगोपार्जका: = Gatherers of the admirable parts of the army. (अंजिभिः) व्यक्तैः रक्षणविज्ञानादिभिः = By protection, knowledge and other manifest attributes. (स्तृभिः) शत्रुबलाच्छादकैगुणैः = By the virtues which ecclipse the merits of the power of the foes. (उस्त्रा इव ) यथाकिररगाः तथा = Like the rays of the sun. (प्रत्यक्षसः) from तक्षू-तनूकरणे भ्वा (अंजिभिः) अज्जू from व्यक्तिस्रक्षणकान्तिगतिषु रुधादिः (स्तृभिः) from स्तृञ् आच्छादने क्यादि: उस्रा इति रश्मिनामसु (निघ० १.५ ) (विरप्शिन:) विरशीतिमहनाम (निघ० ३३) = Great

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    How can those people be defeated who have brave and mighty persons shining like the rays of the sun ? Therefore, it is the duty of the Presidents of the assemblies and Chiefs of the armies to protect such heroes after testing them well, having given them proper training, having respected and encouraged them. None can administer the State without doing this.

    Translator's Notes

    Prof. Maxmuller and Griffith translated the word virapshinah as the singers (M.M.) or loud singers. Even so this and other epithets used for Maruts which Prof. Maxmuller has translated in the Vedic Hymns as "the never flinching, the immovable, the impetuous, the most beloved and the most manly "clearly show that they are brave men and yet Prof. Maxmuller, Griffith and other Western Scholars translate the word Maruts as "Storm-Gods." This is nothing but their pre-conceived notion.

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    Subject of the mantra

    Now, there is beginning of the eighty-seventh hymn, in its first mantra, how the aforesaid Presidents of the Assemblies are? This has been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O!(sabhādhyakṣādayaḥ)= President of the Assembly etc., (bhavatsenāsu) =in your army, (ye) =which, (ke) =any, (cit) =also, (stṛbhiḥ) =with qualities that cover the enemy's forces and, (añjibhiḥ) =expressed defense science etc., (saha) =with, (varttamānā) =present, (usrāiva) =like rays, (pratvakṣasaḥ) =are great destroyer of enemies, (pratavasaḥ)= of a mighty army, (virapśinaḥ)=with all the great stuff and, (anānatāḥ)=certainly not bowing before the enemies and, (avithurāḥ)= free from fear of trembling, (ṛjīṣiṇaḥ)=the one who has all the knowledge and has acquired excellent divisions, (juṣṭatamāsaḥ)= excessively served the duties of the state and, (nṛtamāsaḥ) =soldiers presented as extremely heroic, (ca) =also, (śatrubalāni) =to enemy forces, (vi) =especially and, (ānajre)=must destroy the enemies, (te) =they, (bhavadbhiḥ) =by you, (nityam) =dail, (pālanīyāḥ)= are worthy of being nurtured.

    English Translation (K.K.V.)

    O President of the Assembly etc.! In your army, whoever possesses the properties of enveloping the enemy's forces and with the expressed protection science etc., is the one who naturally destroys the enemies like rays. A hero with all the great resources of a mighty powerful army and certainly unbowed before the enemies and free from fear of trembling, having all the knowledge and having acquired excellent divisions, greatly enjoyed by those who perform the duties of the state, The soldiers present as heroes also destroy the enemy forces and especially the enemies. They are worthy of being nurtured by you daily.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    Just as the rays of the Sun are bright, so are the people who are close to those with great power, why should they be defeated? Therefore, men with these characteristics should be thoroughly examined by the President of the Assembly etc., given good education, felicitated and protected with enthusiasm. No state can be ruled without doing this.

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