ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 88/ मन्त्र 1
आ वि॒द्युन्म॑द्भिर्मरुतः स्व॒र्कै रथे॑भिर्यात ऋष्टि॒मद्भि॒रश्व॑पर्णैः। आ वर्षि॑ष्ठया न इ॒षा वयो॒ न प॑प्तता सुमायाः ॥
स्वर सहित पद पाठआ । वि॒द्युन्म॑त्ऽभिः । म॒रु॒तः॒ । सु॒ऽअ॒र्कैः । रथे॑भिः । या॒त॒ । ऋ॒ष्टि॒मत्ऽभिः॑ । अश्व॑ऽपर्णैः । आ । वर्षि॑ष्ठया । नः॒ । इ॒षा । वयः॑ । न । प॒प्त॒त॒ । सु॒ऽमा॒याः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ विद्युन्मद्भिर्मरुतः स्वर्कै रथेभिर्यात ऋष्टिमद्भिरश्वपर्णैः। आ वर्षिष्ठया न इषा वयो न पप्तता सुमायाः ॥
स्वर रहित पद पाठआ। विद्युन्मत्ऽभिः। मरुतः। सुऽअर्कैः। रथेभिः। यात। ऋष्टिमत्ऽभिः। अश्वऽपर्णैः। आ। वर्षिष्ठया। नः। इषा। वयः। न। पप्तत। सुऽमायाः ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 88; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः पूर्वोक्तसभाध्यक्षादिपुरुषाणां कृत्यमुपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे सुमाया मरुतः सभाध्यक्षप्रजापुरुषा ! यूयं नोऽस्माकं वर्षिष्ठयेषा पूर्णैः स्वर्कैर्ऋष्टिमद्भिरश्वपर्णैर्विद्युन्मद्भी रथेभिर्वयो न पप्ततापप्तत यातायात ॥ १ ॥
पदार्थः
(आ) अभितः (विद्युन्मद्भिः) तारयन्त्रादिसंबद्धा विद्युतो विद्यन्ते येषु तैः (मरुतः) सभाध्यक्षप्रजा मनुष्याः (स्वर्कैः) शोभना अर्का मन्त्रा विचारा वा देवा विद्वांसो येषु तैः। (रथेभिः) विमानादिभिर्यानैः (यात) गच्छत (ऋष्टिमद्भिः) कलाभ्रामणार्थयष्टिशस्त्रास्त्रादियुक्तैः (अश्वपर्णैः) अग्न्यादीनामश्वानां पतनैः सह वर्त्तमानैः (आ) समन्तात् (वर्षिष्ठया) अतिशयेन वृद्धया (नः) अस्माकम् (इषा) उत्तमान्नादिसमूहेन (वयः) पक्षिणः (न) इव (पप्तत) उत्पतत (सुमायाः) शोभना माया प्रज्ञा येषाम्, तत्सम्बुद्धौ ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा पक्षिण उपर्यधः सङ्गत्याऽभीष्टं देशान्तरं सुखेन गच्छन्त्यागच्छन्ति तथैव सुसाधितैस्तडित्तारयन्त्रैर्विमानादिभिर्यानैरुपर्यधः समागमनेनाभीष्टान् समाचरान् वा देशान् सुखेन गत्वागत्य स्वकार्य्याणि संसाध्य सततं सुखयितव्यम् ॥ १ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब छः मन्त्रोंवाले अठासीवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से फिर भी सभाध्यक्ष आदि का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे (सुमायाः) उत्तम बुद्धिवाले (मरुतः) सभाध्यक्ष वा प्रजा पुरुषो ! तुम (नः) हमारे (वर्षिष्ठया) अत्यन्त बुढ़ापे से (इषा) उत्तम अन्न आदि पदार्थों (स्वर्कैः) श्रेष्ठ विचारवाले विद्वानों (ऋष्टिमद्भिः) तारविद्या में चलाने अर्थ डण्डे और शस्त्रास्त्र (अश्वपर्णैः) अग्नि आदि पदार्थरूपी घोड़ों के गमन के साथ वर्तमान (विद्युन्मद्भिः) जिनमें कि तार बिजली हैं, उन (रथेभिः) विमान आदि रथों से (वयः) पक्षियों के (न) समान (पप्तत) उड़ जाओ (आ) उड़ आओ (यात) जाओ (आ) आओ ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि जैसे पखेरू ऊपर-नीचे आके चाहे हुए एक स्थान से दूसरे स्थान को सुख से जाते हैं, वैसे अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए तारविद्या प्रयोग से चलाये हुए विमान आदि यानों से आकाश और भूमि वा जल में अच्छे प्रकार जा-आके अभीष्ट देशों को सुख से जा-आके अपने कार्य्यों को सिद्ध करके निरन्तर सुख को प्राप्त हों ॥ १ ॥
विषय
विद्युन्मान् रथ
पदार्थ
१. हे (मरुतः) = प्राणो ! आप हमें (रथेभिः) = शरीररूप रथों से (आयात) = प्राप्त होओ । जो शरीररूप रथ (विद्युन्मद्भिः) = विशिष्ट दीप्तिवाले हैं, (स्वर्कैः) = उत्तम अर्चनावाले हैं तथा (ऋष्टिमद्भिः) = उत्तम आयुधोंवाले हैं तथा (अश्वपर्णैः) = अश्वों के समान शीघ्रता से पतन व गतिवाले हैं । इस शरीररूप रथ में बुद्धि के ठीक होने से ज्ञान का प्रकाश उत्तम है । एवं यह 'वि - द्युत् - मान्' है । हृदय की उत्तमता के कारण यह उत्तम अर्चना व पूजन की वृत्तिवाला है - स्वर्क है और इसमें इन्द्रियादि सब उपकरण ठीक हैं - [ऋष्टिमद्भिः] और ये रथ दृढ़शक्तिवाले होने से शीघ्रता से गतिवाले हैं । २. हे (सुमायाः) = उत्तम प्रज्ञावाले मरुतो ! आप (नः) = हमें (वर्षिष्ठया) = सब उत्तम सुखों का वर्षण करनेवाली (इषा) = प्रेरणा से उसी प्रकार (पप्तत) = शीघ्रता से प्राप्त होओ (न) = जैसे (वयः) = पक्षी शीघ्रता से घोंसलों को प्राप्त होते हैं । प्राणसाधना से बुद्धि सूक्ष्म होती है, अतः ये "सुमायाः" हैं । इन्हीं की साधना से हृदय निर्मल होकर हमें प्रभु - प्रेरणा को सुनने योग्य बनाता है । यह प्रेरणा ही कार्यान्वित होने पर सब सुखों का कारण बनती है ।
भावार्थ
भावार्थ = प्राणसाधना से यह शरीररूप रथ 'विद्युन्मान्, स्वर्क, ऋष्टिमान् व अश्वपर्ण' बनता है ।
विषय
वीर पुरुषों और विद्वानों के कर्तव्यों का उपदेश ।
भावार्थ
हे ( मरुतः ) विद्वान् पुरुषो ! उत्तम गृहस्थो और गण बनाकर रहने वाले वीर पुरुषो ! वायुगण जिस प्रकार ( ऋष्टिमद्भिः ) दीप्ति वाले (अश्वपर्णैः) सूर्य के पालन सामर्थ्यों और गमन वेगों वाले (स्वर्कैः) उत्तम किरणों से युक्त होकर (विद्युन्मद्भिः) विजुलियों वाले मेघों सहित ( वर्षिष्ठया इषा ) खूब जल वृष्टि से बढ़ी हुई अन्य सम्पत्ति से आते हैं उसी प्रकार ( मरुतः ) विद्वान् जन ( विद्युन्मद्भिः ) विजुली की दीप्ति से युक्त, ( सुअर्कैः ) उत्तम विचारित यन्त्रों से बनाये गये ( ऋष्टिमद्भिः ) चालक खूटियों तथा शस्त्रास्त्रों से युक्त (अश्वपर्णैः) घोड़ों और अग्नि आदि पदार्थों के द्वारा शीघ्र मार्ग में जाने वाले, ( रथेभिः ) रथों या योग्य सवारियों द्वारा ( आयात ) आया जाया करो । हे ( सुमायाः ) उत्तम बुद्धिमान् और कर्मकुशल पुरुषो ! ( वयः न ) पक्षियों के समान ( वर्षिष्ठया इषा ) अति वृष्टि से उत्पन्न अन्न और बहुत अधिक बढ़ी हुई अधीन प्रजा या सेना के साथ ( आ पप्तत ) आया जाया करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ मरुतो देवता ॥ छन्द:—१ पंक्तिः । २ भुरिक्पंक्तिः । ५ निचृत्पंक्तिः । ३ निचृत् त्रिष्टुप् । ४ विराट्त्रिष्टुप् । ६ निचृद्बृहती ॥
विषय
विषय (भाषा)- अब अठासीवें सूक्त का आरम्भ है। इसके प्रथम मन्त्र से फिर भी सभाध्यक्ष आदि का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे सुमाया मरुतः सभाध्यक्षप्रजापुरुषा ! यूयं नः अस्माकं {आ} वर्षिष्ठया इषा पूर्णैः स्वर्कैः ऋष्टिमद्भिः अश्वपर्णैः {आ} विद्युन्मद्भिः रथेभिः वयः न पप्तत अपप्तत यात आयात ॥१॥
पदार्थ
पदार्थः- हे (सुमायाः) शोभना माया प्रज्ञा येषाम्, तत्सम्बुद्धौ=उत्तम प्रज्ञावाले, (मरुतः) सभाध्यक्षप्रजापुरुषा=सभा के अध्यक्ष लोगों ! (यूयम्)=तुम सब, (नः) अस्माकम्=हमारी, {आ} समन्तात्=हर ओर से, (वर्षिष्ठया) अतिशयेन वृद्धया=अतिशय वृद्धि के लिये, (इषा) उत्तमान्नादिसमूहेन=उत्तम समूहों के द्वारा, (पूर्णैः)= पूर्ण किये हुए, (स्वर्कैः) शोभना अर्का मन्त्रा विचारा वा देवा विद्वांसो येषु तैः=उत्तम मन्त्रों के विचारों से या विद्वानों में, (ऋष्टिमद्भिः) कलाभ्रामणार्थयष्टिशस्त्रास्त्रादियुक्तैः=यंत्रों से भ्रमण करने के लिये और डण्डे, शस्त्र ओर अस्त्र से युक्त के द्वारा, (अश्वपर्णैः) अग्न्यादीनामश्वानां पतनैः सह वर्त्तमानैः=अग्नि से उत्पन्न अश्व शक्ति से चलनेवाले पंखोंवाले रथों, अर्थात् विमानों से, {आ} अभितः=हर ओर से, (विद्युन्मद्भिः) तारयन्त्रादिसंबद्धा विद्युतो विद्यन्ते येषु तैः= विद्युत् के तार यन्त्र आदि से जुड़े हुए, (रथेभिः) विमानादिभिर्यानैः=विमान आदि यानों से, (वयः) पक्षिणः= पक्षियों के, (न) इव=समान, (पप्तत) उत्पतत=उड़ते हुए, (अपप्तत)=न उड़ते हुए, (यात) गच्छत=जाते हैं और, (आयात)=आते हैं ॥१॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा जिस प्रकार से पक्षी एक साथ मिलकर के एक स्थान से दूसरे देश के इच्छित स्थान को सुख से जाते-आते हैं, वैसे ही अच्छे प्रकार सिद्ध किये हुए तार यन्त्रों के विमान आदि यानों से ऊपर और नीचे अच्छे प्रकार से आवागमन करने से इच्छित उचित आचरणों से अथवा देशों का सुख के साथ आवागमन करके, उन्हें अपने कार्यों को पूर्ण करके निरन्तर सुखी होना चाहिए ॥१॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (सुमायाः) उत्तम प्रज्ञावाले (मरुतः) सभा के अध्यक्ष लोगों ! (यूयम्) तुम सब (नः) हमारी {आ} हर ओर से (वर्षिष्ठया) अतिशय वृद्धि के लिये, (इषा) उत्तम समूहों के द्वारा (पूर्णैः) पूर्ण किये हुए, (स्वर्कैः) उत्तम मन्त्रों के विचारों से या विद्वानों में, (ऋष्टिमद्भिः) यंत्रों से भ्रमण करने के लिये और डण्डे, शस्त्र ओर अस्त्र से युक्त लोगों के द्वारा, (अश्वपर्णैः) अग्नि से उत्पन्न अश्व शक्ति से चलनेवाले पंखोंवाले रथों, अर्थात् विमानों से {आ} हर ओर से, (विद्युन्मद्भिः) विद्युत् के तार यन्त्र आदि से जुड़े हुए (रथेभिः) विमान आदि यानों से, (वयः) पक्षियों के (न) समान (पप्तत) उड़ते हुए और (अपप्तत) न उड़ते हुए, अर्थात् रुकते हुए (यात) जाते हैं और (आयात) आते हैं ॥१॥
संस्कृत भाग
आ । वि॒द्युन्म॑त्ऽभिः । म॒रु॒तः॒ । सु॒ऽअ॒र्कैः । रथे॑भिः । या॒त॒ । ऋ॒ष्टि॒मत्ऽभिः॑ । अश्व॑ऽपर्णैः । आ । वर्षि॑ष्ठया । नः॒ । इ॒षा । वयः॑ । न । प॒प्त॒त॒ । सु॒ऽमा॒याः॒ ॥ विषयः- पुनः पूर्वोक्तसभाध्यक्षादिपुरुषाणां कृत्यमुपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्यथा पक्षिण उपर्यधः सङ्गत्याऽभीष्टं देशान्तरं सुखेन गच्छन्त्यागच्छन्ति तथैव सुसाधितैस्तडित्तारयन्त्रैर्विमानादिभिर्यानैरुपर्यधः समागमनेनाभीष्टान् समाचरान् वा देशान् सुखेन गत्वागत्य स्वकार्य्याणि संसाध्य सततं सुखयितव्यम् ॥१॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात माणसांना विद्यासिद्धीसाठी अध्ययन, अध्यापनाची रीत सांगितलेली आहे. त्यामुळे या अर्थाची मागील सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे. ॥
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे पक्षी आकाशात वर खाली उडून एका स्थानापासून दुसऱ्या स्थानी स्वच्छंदपणे विहार करतात तसे चांगल्या प्रकारे तयार केलेल्या तारविद्यायुक्त विमान इत्यादी यानाद्वारे आकाश, भूमी व जलामध्ये जाणे येणे करून अभीष्ट स्थानी पोचून आपले कार्य सिद्ध करावे व निरंतर सुख भोगावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Maruts, heroes of the speed of winds, masters of wondrous science and power, go far by brilliant electric chariots fitted with high-powered weapons and equipped with aerial wings and, flying like birds, come to us with food and energy of the best and highest quality.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duty of the Maruts (President of the assembly etc.) is taught further in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Maruts (President of the Assembly and people of the State) with noble intellect, come hither with your vehicles in the form of aeroplanes etc. in which enlightened persons with noble Mantras are seated, in which electric telegraphs and other implements have been arranged that are charged with electricity, stored with various weapons and good food, full of the proper use of the horses in the form of fire, fly to us like birds and then go where ever you like.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(विद्युन्मदिभ:) तारयन्त्रादिसम्बद्धाः विद्युतः विद्यन्ते येषु तैः = In which electric telegraph wires etc. have been arranged. (स्वर्कै:) शोभनाअर्का: मन्त्रा विचारा देवा विद्वांसो वा येषु तैः = Endowed with noble thoughts or in which enlightened persons are seated who are of noble Mantras. (अश्वपर्णै:) अग्न्यादीनाम् अश्वानां पतनैः सह वर्तमानैः = Full of the proper use of horses in the form of fire.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should enjoy all happiness by accomplishing all their works, by going to distant places and returning seated in well-equipped vehicles like aeroplanes charged with electricity, telegraphic wires etc. thereby knowing all desired news of various places.
Translator's Notes
अर्कोमन्त्रो भवति यदनेन अर्चन्ति अर्को देवो भवति यत् एनम् अर्चन्ति (निरुक्ते ५.५ ) । So both meanings of Mantras and Devatas in the sense of learned persons विद्वान्सो हि देवाः (शत) can be taken. Prof. Maxmuller's translation of स्वर्के: as "resounding with beautiful songs" is also worth quoting, approaching Rishi Dayananda's first meaning, though he is still obsessed with strange idea of the chariots of the Storm Gods." विद्यमद्भि: he translates as “Charged with lightning instead of electricity as done by Rishi Dayananda Sarasvati "Fly to us like birds” (Maxmuller) (वयोनपस्ताः ) clearly shows that there is reference to the vehicles like aeroplanes and not ordinary chariots though Western Scholars are not prepared to admit, as such advancement in science would go against their pet "Evolution Theory, Wilson's translation of सुमाया: as "doers of good deeds" is worth-quoting.
Subject of the mantra
Now is the beginning of the eighty-eighth hymn. Even in its first mantra, this has been preached about the President of the Assembly et cetera.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (sumāyāḥ)=with great wisdom, (marutaḥ)=Presidents of the Assembly, (yūyam) =all of you, (naḥ) =our, {ā} =from every side, (varṣiṣṭhayā)=for immense growth, (iṣā)= by best groups, (pūrṇaiḥ) =accomplished, (svarkaiḥ) =by the thoughts of the best mantras or from scholars, (ṛṣṭimadbhiḥ)= to travel with instruments and by people armed with sticks, weapons and missiles, (aśvaparṇaiḥ)= with winged chariots, i.e. aircrafts, driven by horse power generated from fire, {ā} =from every side, (vidyunmadbhiḥ)=electrical wires connected to equipment etc., (rathebhiḥ)=by vehicles like aircraft etc., (vayaḥ) =of birds, (na) =like, (paptata= flying and and, (apaptata)=not flying, i.e. stopping, (yāta) =go and, (āyāta) =come.
English Translation (K.K.V.)
O Presidents of the Assembly with great wisdom! All of you, accomplished by the best groups, by the thoughts of the best mantras or among the scholars, for our immense growth from every side, by the instruments of travel and by the people equipped with sticks, weapons and missiles and horses born of fire. Winged chariots propelled by power, that is, planes, from all sides, planes connected with electrical wires, machines, etc., go and come like birds, flying and not flying, that is, stopping.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is simile as a figurative in this mantra. Just as birds come together to fly happily from one place to another in any country, in the same way, by using well-proven electric-wire instruments, planes, etc., people can move smoothly up and down. They should be constantly happy by completing their tasks by performing the desired proper conduct or by traveling through the countries happily.
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