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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 90 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 90/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    ऋ॒जु॒नी॒ती नो॒ वरु॑णो मि॒त्रो न॑यतु वि॒द्वान्। अ॒र्य॒मा दे॒वैः स॒जोषाः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒जु॒ऽनी॒ती । नः॒ । वरु॑णः । मि॒त्रः । न॒य॒तु॒ । वि॒द्वान् । अ॒र्य॒मा । दे॒वैः । स॒ऽजोषाः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋजुनीती नो वरुणो मित्रो नयतु विद्वान्। अर्यमा देवैः सजोषाः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋजुऽनीती। नः। वरुणः। मित्रः। नयतु। विद्वान्। अर्यमा। देवैः। सऽजोषाः ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 90; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 17; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स विद्वान् मनुष्येषु कथं वर्त्तेतेत्युपदिश्यते।

    अन्वयः

    यथेश्वरो धार्मिकमनुष्यान् धर्म्मं नयति, तथा देवैः सजोषा वरुणो मित्रोऽर्य्यमा विद्वानृजुनीती नोऽस्मान् धर्मविद्यामार्गं नयतु ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (ऋजुनीती) ऋजुः सरला शुद्धा चासौ नीतिश्च तया। अत्र सुपां सुलुगिति तृतीयायाः पूर्वसवर्णादेशः। (नः) अस्मान् (वरुणः) श्रेष्ठगुणस्वभावः (मित्रः) सर्वोपकारी (नयतु) प्रापयतु (विद्वान्) अनन्तविद्य ईश्वर आप्तमनुष्यो वा (अर्य्यमा) न्यायकारी (देवैः) दिव्यैर्गुणकर्मस्वभावैर्विद्वद्भिर्वा (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। परमेश्वर आप्तमनुष्यो वा सत्यविद्याग्रहणस्वभावपुरुषार्थिनं मनुष्यमनुत्तमे धर्मक्रिये च प्रापयति नेतरम् ॥ १ ॥

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    हिन्दी (6)

    विषय

    अब नब्बेवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर वह विद्वान् मनुष्यों में कैसे वर्त्ताव करे, यह उपदेश किया है ॥

    पदार्थ

    जैसे परमेश्वर धार्मिक मनुष्यों को धर्म प्राप्त कराता है, वैसे (देवैः) दिव्य गुण, कर्म और स्वभाववाले विद्वानों से (सजोषाः) समान प्रीति करनेवाला (वरुणः) श्रेष्ठ गुणों में वर्त्तने (मित्रः) सबका उपकारी और (अर्यमा) न्याय करनेवाला (विद्वान्) धर्मात्मा सज्जन विद्वान् (ऋजुनीती) सीधी नीति से (नः) हम लोगों को धर्मविद्यामार्ग को (नयतु) प्राप्त करावे ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। परमेश्वर वा आप्त मनुष्य सत्यविद्या के ग्राहक स्वभाववाले पुरुषार्थी मनुष्य को उत्तम धर्म और उत्तम क्रियाओं को प्राप्त कराता है, और को नहीं ॥ १ ॥

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    पदार्थ


    पदार्थ =  ( वरुणः ) = सर्वोत्तम  ( मित्र: ) = सबसे प्रेम करनेवाला  ( विद्वान् ) = सर्वज्ञ  ( अर्यमा ) = न्यायकारी  ( देवैः सजोषाः ) =  विद्वानों के साथ प्रेम करनेवाला परमात्मा  ( नः ) = हमको  ( ऋजुनीती ) = सरल नीति से  ( नयतु ) = चलाए ।

    भावार्थ

    भावार्थ = हे महाराजाधिराज परमात्मन् ! आप हमको सरल शुद्ध नीति प्राप्त करायें। आप सर्वोत्कृष्ट हैं, हमें श्रेष्ठ विद्या और श्रेष्ठ धनादि प्रदान करके उत्तम बनाएँ। आप सबके मित्र हैं हमें भी सबका शुभचिन्तक बनाएँ । आप महाविद्वान हैं हमें भी विद्वान् बनाएँ, आप न्यायकारी हैं, हमें भी धर्मानुसार न्याय करनेवाला बनाएँ, जिससे हम विद्वानों और दिव्य गुणों के साथ प्रीति करनेवाले होकर आपकी आज्ञा का पालन कर सकें। भगवन् ! आप हमारी सदा सहायता करते रहें, जिससे हम सुनीतियुक्त होकर सुख से अपना जीवन व्यतीत कर सकें। 

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे महाराजाधिराज परमेश्वर! आप हमको (ऋजुनीती) सरल (शुद्ध) कोमलत्वादिगुणविशिष्ट चक्रवर्ती राजाओं की नीति को (नयतु) स्वकृपादृष्टि से प्राप्त करो। आप (वरुणः)  सर्वोत्कृष्ट होने से वरुण हो, सो हमको वरराज्य, वरविद्या, वरनीति देओ तथा आप (मित्रः) सबके शत्रुतारहित मित्र हो, हमको भी आप मित्रगुणयुक्त न्यायाधीश कीजिए तथा आप (विद्वान्) सर्वोत्कृष्ट विद्वान् हो, हमको भी सत्यविद्या से युक्त सुनीति देके साम्राज्याधिकारी सद्यः कीजिए तथा आप (अर्यमा) [यमराज] प्रियाप्रिय को छोड़के न्याय में वर्त्तमान हो, सब संसार के जीवों के पाप और पुण्यों की यथायोग्य व्यवस्था करनेवाले हो सो हमको भी आप तादृश करें, जिससे (देवैः, सजोषाः)  आपकी कृपा से विद्वानों वा दिव्य गुणें के साथ उत्तम प्रीतियुक्त हो, आपमें रमण और आपका सेवन करनेवाले हों ! हे कृपासिन्धो भगवन् ! हमपर कृपा करो जिससे सुनीतियुक्त होके हमारा स्वराज्य अत्यन्त बढ़े ॥१८॥

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    विषय

    वरुण - मित्र - अर्यमा [जीवन के तीन सिद्धान्त]

    पदार्थ

    १. (नः) = हमें (विद्वान्) = ज्ञानी (वरुणः) = अपने हृदय से द्वेष का निवारण करनेवाला श्रेष्ठ व्यक्ति (ऋजुनीती) = [नीत्या] सरल मार्ग से (नयतु) = ले - चले । हम ज्ञानी बनकर द्वेष की व्यर्थता को समझें, इसकी घातकता को समझते हुए हम द्वेष को त्यागें और श्रेष्ठ बनें । २. इसी प्रकार (विद्वान्) = ज्ञानी (मित्रः) = अपने को पापों से बचानेवाला [प्रमीतेः , त्रायते] सबके प्रति स्नेह करनेवाला [मिद् स्नेहने] प्रभुप्रिय व्यक्ति हमें सरल मार्ग से ले - चले । ईर्ष्या - द्वेष, क्रोध का मार्ग कुटिलता का मार्ग है । इस मार्ग से हम बचकर चलें । श्रेय का मार्ग ही निष्पाप है । यही मार्ग छल - छिद्र से रहित व सरल है । ३. (देवैः सजोषा) = सब दिव्य गुणों के साथ समानरूप से प्रीतिवाला - सम्पूर्ण दैवीसम्पत्ति को अपने में धारण करनेवाला (अर्यमा) = [अरीन् यच्छति] काम - क्रोध व लोभ का नियमन करनेवाला (विद्वान्) = ज्ञानी पुरुष हमें सरल मार्ग से ले - चले । देवता सरल मार्ग से ही चलते हैं । कुटिलता व छल - छिद्र आसुरीवृत्ति है । कामादि पर विजय पाकर हम सरल मार्ग को ही अपनाएँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ = सरल जीवन के तीन सिद्धान्त हैं - [क] द्वेष न करना - 'वरुण' [ख] सबके प्रति स्नेह से वर्तना - 'मित्र' और [ग] काम - क्रोध - लोभ का नियमन करना - अर्यमा' ।

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    विषय

    धर्मात्मा विद्वान् राजा और उसके अधीन वीर जनों और विद्वानों का कर्तव्य ।

    भावार्थ

    ( वरुणः ) गुण, कर्म और स्वभाव से श्रेष्ठ, सब दुःखों का वारण करने वाला, सबसे मुख्य पद के लिये वरण करने योग्य, (मित्रः) मृत्यु से बचाने वाला, सबका स्नेही, (अर्यमा) शत्रुओं और बाधक दुःखदायी कारणों का नियन्त्रण करने वाला, न्यायकारी, ( देवैः ) उत्तम विद्वान् पुरुषों के साथ ( सजोषाः ) समान भाव से प्रीतियुक्त होकर ( विद्वाम् ) विद्वान् पुरुष राजा ( नः ) हमें (ऋजुनीती ) ऋजु, सरल, कुटिलता रहित नीति अर्थात् धर्म मार्ग से (नयतु) सन्मार्ग पर चलावे । (२) इसी प्रकार उत्तम गुणों से युक्त परमेश्वर हमें ( देवैः ) उत्तम गुणों, कर्मों और स्वभावों से युक्त होने के कारण ( सजोषाः ) सबसे समान भाव से प्रेम करने हारा और सबका प्रेमपात्र होकर हमें उत्तम धर्म मार्ग से चलावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगणपुत्र ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्दः—१,८ पिपलिकामध्या निचृद्गायत्री । २, ७ गायत्री । ३ पिपीलिकामध्या विराड् गायत्री । ४ विराड् गायत्री । ५, ६ निचृद् गायत्री । ६ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- अब नब्बेवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में फिर वह विद्वान् मनुष्यों में कैसे व्यवहार करे, यह उपदेश किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- यथा ईश्वरः धार्मिकमनुष्यान् धर्म्मं नयति, तथा देवैः सजोषाः वरुणः मित्रः अर्य्यमा विद्वान् ऋजुनीती नः अस्मान् धर्मविद्यामार्गं नयतु ॥१॥

    पदार्थ

    पदार्थः- (यथा)=जिस प्रकार से, (ईश्वरः)= ईश्वर, (धार्मिकमनुष्यान्)= धार्मिक मनुष्यों को, (धर्म्मम्)=धर्म में, (नयति)=ले जाता है, (तथा)=वैसे ही, (देवैः) दिव्यैर्गुणकर्मस्वभावैर्विद्वद्भिर्वा=दिव्य गुण, कर्म और स्वभाव से, अथवा विद्वानों के द्वारा, (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी=समान प्रेम से व्यवहार करनेवाले, (वरुणः) श्रेष्ठगुणस्वभावः= श्रेष्ठ गुण और स्वभावाले, (मित्रः) सर्वोपकारी=सबके उपकारी मित्र, (अर्य्यमा) न्यायकारी= न्याय करनेवाले, (विद्वान्) अनन्तविद्य ईश्वर आप्तमनुष्यो वा= अनन्त विद्यावाले ईश्वर या आप्त मनुष्य, (ऋजुनीती) ऋजुः सरला शुद्धा चासौ नीतिश्च तया=सरल आचारवाले, (नः) अस्मान्=हमें, (धर्मविद्यामार्गम्)= धर्म और विद्या के मार्ग को, (नयतु) प्रापयतु= प्राप्त करावे ॥१॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। परमेश्वर या आप्त मनुष्य, सत्यविद्या ग्रहण कनेवाले स्वभाववाले पुरुषार्थी मनुष्य को उत्कृष्ट धर्मक्रिया, अर्थात् धर्म पर आचरण करनेवाले व्यवहार को भी प्राप्त कराता है, अन्य किसी को नहीं ॥१॥

    विशेष

    अनुवादक की टिप्पणी- आप्त- ऋग्वेद के मन्त्र ०१.८९.०२ में परिभाषित किया गया है।

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- (यथा) जिस प्रकार से (ईश्वरः) ईश्वर (धार्मिकमनुष्यान्) धार्मिक मनुष्यों को (धर्म्मम्) धर्म में (नयति) ले जाता है, (तथा) वैसे ही (देवैः) दिव्य गुण, कर्म और स्वभाव से, अथवा विद्वानों के द्वारा (सजोषाः) समान प्रेम से व्यवहार करनेवाला, (वरुणः) श्रेष्ठ गुण और स्वभावाला, (मित्रः) सबका उपकारी मित्र, (अर्य्यमा) न्याय करनेवाला, (विद्वान्) अनन्त विद्यावाला ईश्वर या आप्त मनुष्य, (ऋजुनीती) सरल आचारशास्त्र का पालन करनेवाला (नः) हमें (धर्मविद्यामार्गम्) धर्म और विद्या के मार्ग को (नयतु) प्राप्त करावे ॥१॥

    संस्कृत भाग

    ऋ॒जु॒ऽनी॒ती । नः॒ । वरु॑णः । मि॒त्रः । न॒य॒तु॒ । वि॒द्वान् । अ॒र्य॒मा । दे॒वैः । स॒ऽजोषाः॑ ॥ विषयः- पुनः स विद्वान् मनुष्येषु कथं वर्त्तेतेत्युपदिश्यते। भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। परमेश्वर आप्तमनुष्यो वा सत्यविद्याग्रहणस्वभावपुरुषार्थिनं मनुष्यमनुत्तमे धर्मक्रिये च प्रापयति नेतरम् ॥१॥

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    मराठी (2)

    विषय

    या सूक्तात अध्ययन अध्यापन करणाऱ्यांचे व ईश्वराचे कर्तव्य, काम व त्याचे फळ सांगितलेले आहे. यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर मागच्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. परमेश्वर किंवा आप्त माणूस सत्यविद्या ग्रहण करण्याचा स्वभाव असणाऱ्या पुरुषार्थी माणसाला उत्तम धर्म व उत्तम क्रिया प्राप्त करवून देतो, इतरांना नाही. ॥ १ ॥

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    हे महाराजाधिराज [परमेश्वरा] ! कृपा करुन तू आम्हाला (ऋजुनीती) सरळपणा, कोमलपणा, इत्यादी गुणवैशिष्ट्ये असलेल्या चक्रवर्ती राजाची नीती (नयतु) शिकव. तू (वरूणः) सर्वोत्कृष्ट असल्यामुळे वरुण आहेस. म्हणुन आम्हाला राज्य, विद्या, नीती इत्यादींचा बर दे. तुझी कुणाशी शत्रुता नाही तर तू सर्वांचा (मित्रः) मित्र आहेस. म्हणून आम्हाला मित्र गुणांनी युक्त न्यायी बनव. तू सर्वोत्कृष्ट विद्वान आहेस आम्हालाही सत्यविद्येने युक्त सुनीती शिकवून साम्राज्याधिकारी [सद्यः] कर, तसेच तू (अर्य्यमा) [यमराज] आहेस. प्रिय अप्रियाचा विचार न करता न्याय करतोस व जगातील सर्व जीवांच्या पाप—पुण्याची यथायोग्य व्यवस्था करतोस म्हणून आम्हालाही तुझ्याप्रमाणे बनव, ज्याच्यामुळे (देवैःसजोषा) आम्ही विद्वानांसारखे किंवा दिव्यगुणांनी युक्त व प्रेमभावनेने तुझ्यात रमावे व तुझीच उपासना करावी अशी कृपा कर. हे कृपासिंधू भगवान आम्हाला साह्य कर ज्यामुळे आम्ही सुनीतीचे अनुकरण करावे व आमचे स्वराज्य वाढावे. ॥१८॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    May God, Lord Omniscient, Varuna, lord of justice and worthy of our intelligent choice, Mitra, lord of universal friendship, and the man of knowledge, wisdom and divine vision bless us with a natural simple and honest way of living. May Aryama, lord of justice and dispensation, bless us with a straight way of living without pretence. May He, lord of love who loves us and whom we love bless us with the company of noble, generous and brilliant people in humanity, and may He grant us the benefit of such generous powers of nature.

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    Purport

    T for aryamā devāiḥ sajoṣāḥ. $10 Supreme Lord! O King of kings. By your kind grace bestow upon us state craft adopted by the great sovereigns, which has special qualities like tenderness, IPARR purity, rightousness etc. Being unsurpassable you are Varuņa to be selected, therefore, bless us with a good government, excellent wisdom and a perfect moral way of life. You are foeless friend of all. Elevate us to the high ranking judges, with friendly disposition towards all. You are most learned-possessor of of Supreme wisdom, bestow upon us righteous policy with true wisdom. Make us soon sovereign king. You are Aryamā regardless of lovable and unlovable, you are engaged in Justice. You deal with the good and evil deeds of all A of all living beings according to their actions. Make us all like you, so that in de vites unison with righteous and wise men with divine virtues, we may by your grace take delight in lovable you. Ocean of mercy O God! Do help us so that acquiring political wisdom our sovereign imperial sway should ever prosper.
     

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should a learned person deal with men is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    As God leads righteous persons towards the path of Dharma (righteousness and duty) in the same manner, may a man of surpassing excellence, a man friendly to all, a just person, learned men lead us towards the path of Dharma (righteousness) and knowledge, following a straight forward or upright and pure policy. along with other enlightened and truthful persons.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (सजोषाः) समानप्रीतिसेवी = Loving and united. (जुषी-प्रीतिसेवनयोः) (देवै:) दिव्यैर्गुणकर्मस्वभावविद्वद्भिर्वा = With divine merits and actions or with enlightened persons.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is God or His devotee absolutely truthful person that lead an industrious and seeker after wisdom and knowledge, towards righteousness and noble acts.

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    Subject of the mantra

    Now the ninetieth hymn begins. How that scholar should behave among the people? This has been preached.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    (yathā)=In the manner, (īśvaraḥ)=God, (dhārmikamanuṣyān)=to righteous people, (dharmmam)= to righteousness, (nayati)= leads, (tathā)=in the same way, (devaiḥ)= by divine virtues, actions and nature, or by scholars, (sajoṣāḥ) =one who behaves with equal love, (varuṇaḥ)= having excellent qualities and nature, (mitraḥ)= benevolent friend of al, (aryyamā)= the one who imparts equitable justice, (vidvān)= God with infinite knowledge or āpta human being, (ṛjunītī)= follower of simple ethics, (naḥ) =to us, (dharmavidyāmārgam) =the path of righteousness and knowledge, (nayatu)= help us attain.

    English Translation (K.K.V.)

    Just as God leads righteous people to righteousness, in the same way, God is the one who behaves with equal love through his divine virtues, deeds and nature, or the one who treats scholars with equal love, has the best qualities and nature, is a helpful friend to all, imparts equitable justice and has infinite knowledge or āpta human being. A follower of simple ethics should help us attain the path of righteousness and knowledge.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. God, or the āpta human being, also enables a person with a nature of attaining, truthful knowledge, effortful and having excellent righteous activities, i.e. behaviour based on righteousness and not to anyone else.

    TRANSLATOR’S NOTES-

    TRANSLATOR’S NOTES- āpta- It has been defined in mantra no. 01.89.02 of Rigveda.

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    ঋজুনীতী নো বরুণো মিত্রো নয়তু বিদ্বান্।

    অর্যমা দেবৈঃ সজোষাঃ।।৭৯।।

    (ঋগ্বেদ ১।৯০।১)

    পদার্থঃ (বরুণঃ) সর্বোত্তম, (মিত্রঃ) সর্বাধিক প্রেম প্রদানকারী, (বিদ্বান্) সর্বজ্ঞ, (অর্যমা) ন্যায়কারী, (দেবৈঃ সজোষাঃ) বিদ্বানের প্রতি আশীর্বাদকারী পরমাত্মা (নঃ) আমাদের (ঋজুনীতী) সরল নীতি দ্বারা (নয়তু) চালনা করেন।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ হে বরণীয় পরমাত্মা! তুমি আমাদেরকে সরল শুদ্ধ নীতি প্রাপ্ত করাও। তুমি সর্বোৎকৃষ্ট, আমাদেরকে শ্রেষ্ঠ বিদ্যা ও শ্রেষ্ঠ ধনাদি প্রদান করে উত্তম বানাও। তুমি সকলের মিত্র, আমাদেরও সকলকে শুভ চিন্তক বানাও। তুমি মহাবিদ্বান, আমাদেরও বিদ্বান বানাও। তুমি ন্যায়কারী, আমাদেরও ধর্মানুসারে ন্যায়কারী করে গড়ে তোল, যাতে আমরা বিদ্বান ও দিব্য গুণের সহিত প্রীতিকারী হয়ে তোমার আজ্ঞাকে পালন করতে পারি। হে পরমাত্মা! তুমি আমাদের সদা সহায়তা করো, যাতে আমরা নীতিযুক্ত হয়ে নিজেদের জীবন অতিবাহিত করতে পারি।।৭৯।।

     

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे महाराजाधिराज परमेश्वर ! तपाईंले हामीलाई ऋजुनीती= सरल [शुद्ध] कोमलत्वादिगुण विशिष्ट चक्रवर्ती राजा हरु को नीति लाई नयतु = स्वकृपा दृष्टि ले प्राप्त गराउनु होस् । तपाईं वरुण= सर्वोत्कृष्ट हुनाले वरुण हुनुहुन्छ, एसर्थ हामीलाई वरराज्य, वरविद्या, र वरनीति प्रदान गर्नु होस् तथा तपाईं मित्रः- शत्रुतारहित सबैका मित्र हुनुहुन्छ, हामीलाई पनि मित्रगुणयुक्त न्यायाधीश बनाई दिनुहोस् तथा तपाईं विद्वान् = सर्वोत्कृष्ट विद्वान् हुनुहुन्छ, हामीलाई पनि हजुरले सत्यविद्या ले युक्त सुनीति दिएर साम्राज्याधिकारी सद्यः गर्नुहोस् तथा तपाईं अर्यमा= [यमराज] प्रिय अप्रिय लाई छोडेर न्याय मा वर्त्तमान हुनुहुन्छ, समस्त संसार का जीव हरु को पाप-पुण्य को यथायोग्य व्यवस्था गर्नुहुने तपाईंले हामीलाई पनि तादृश गर्नुहोस्, जसबाट देवैः, सजोषाः= हजुरको कृपा ले विद्वान् वर्ग दिव्यगुण हरु का साथ उत्तम प्रीति युक्त होऊन, हजुरमा रमण र हजुरको सेवन गर्ने होऊन् । हे कृपासिन्धो भगवन् ! हामी माथि कृपा गर्नु होस् जसले हामी सुनीतियुक्त हौं र हाम्रो स्वराज्य अत्यन्त बढोस् ॥१८॥ 

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