ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 91/ मन्त्र 1
त्वं सो॑म॒ प्र चि॑कितो मनी॒षा त्वं रजि॑ष्ठ॒मनु॑ नेषि॒ पन्था॑म्। तव॒ प्रणी॑ती पि॒तरो॑ न इन्दो दे॒वेषु॒ रत्न॑मभजन्त॒ धीरा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । सो॒म॒ । प्र । चि॒कि॒तः॒ । म॒नी॒षा । त्वम् । रजि॑ष्ठम् । अनु॑ । ने॒षि॒ । पन्था॑म् । तव॑ । प्रऽनी॑ती । पि॒तरः॑ । नः॒ । इ॒न्दो॒ इति॑ । दे॒वेषु॑ । रत्न॑म् । अ॒भ॒ज॒न्त॒ । धीराः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं सोम प्र चिकितो मनीषा त्वं रजिष्ठमनु नेषि पन्थाम्। तव प्रणीती पितरो न इन्दो देवेषु रत्नमभजन्त धीरा: ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। सोम। प्र। चिकितः। मनीषा। त्वम्। रजिष्ठम्। अनु। नेषि। पन्थाम्। तव। प्रऽनीती। पितरः। नः। इन्दो इति। देवेषु। रत्नम्। अभजन्त। धीराः ॥ १.९१.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 91; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 6; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सोमशब्दार्थ उपदिश्यते ।
अन्वयः
हे इन्दो सोम त्वं यया मनीषा चिकितस्तव प्रणीती धीराः पितरो देवेषु रत्नं प्राभजन्त तया नोस्मान् रजिष्ठं पन्थामनुनेषि तस्मात् त्वमस्माभिः सत्कर्त्तव्योऽसि ॥ १ ॥
पदार्थः
(त्वम्) परमेश्वरो विद्वान् वा (सोम) सर्वेश्वर्यवन् (प्र) (चिकितः) जानासि। मध्यमैकवचने लेट्प्रयोगः। (मनीषा) मनस ईषया प्रज्ञानुरूपया। अत्र सुपां सुलुगिति तृतीयास्थाने डादेशः। (त्वम्) (रजिष्ठम्) अतिशयेन ऋतु रजिष्ठम्। ऋजुशब्दादिष्ठनि। विभाषर्जोश्छन्दसि। अ० ६। ४। १६२। इति ऋकारस्य रेफादेशः। (अनु) (नेषि) प्रापयसि। अत्र नौधातोर्लटि बहुलं छन्दसीति शपो लुक्। अत्रान्तर्गतो ण्यर्थः। (पन्थाम्) पन्थानम्। अत्र छान्दसो वर्णलोपो वेति नकारलोपः। (तव) (प्रणीती) प्रकृष्टा चासौ नीतिस्तया। अत्र सुपां सुलुगिति पूर्वसवर्णदीर्घः। (पितरः) ज्ञानिनः (नः) अस्मभ्यम् (इन्दो) सोम्यगुणसम्पन्न (देवेषु) विद्वत्सु दिव्यगुणकर्मस्वभावेषु वा (रत्नम्) रमणीयं धनम् (अभजन्त) भजन्ति (धीराः) ध्यानधैर्ययुक्ताः ॥ १ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। यथा परमेश्वरः परमविद्वान् वाऽविद्यां विनाश्य विद्याधर्ममार्गे प्रापयति तथैव वैद्यकशास्त्ररीत्या सेवितः सोमाद्योषधिगणः सर्वान् रोगान् विनाश्य सुखानि प्रापयति ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब तेईस मन्त्रवाले इक्कानवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सोम शब्द के अर्थ का उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे (इन्दो) सोम के समान (सोम) समस्त ऐश्वर्य्ययुक्त (त्वम्) परमेश्वर वा अतिउत्तम विद्वान् ! जिस (मनीषा) मन को वश में रखनेवाली बुद्धि से (चिकितः) जानते हो वा (तव) आपकी (प्रणीती) उत्तम नीति से (धीराः) ध्यान और धैर्ययुक्त (पितरः) ज्ञानी लोग (देवेषु) विद्वान् वा दिव्य गुण कर्म और स्वभावों में (रत्नम्) अत्युत्तम धन को (प्र) (अभजन्त) सेवते हैं, उससे शान्तिगुणयुक्त आप (नः) हम लोगों को (रजिष्ठम्) अत्यन्त सीधे (पन्थाम्) मार्ग को (अनु) अनुकूलता से (नेषि) पहुँचाते हो, इससे (त्वम्) आप हमारे सत्कार के योग्य हो ॥ १ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। जैसे परमेश्वर अत्यन्त उत्तम विद्वान् अविद्या विनाश करके विद्या और धर्ममार्ग को पहुँचाता है, वैसे ही वैद्यकशास्त्र की रीति से सेवा किया हुआ सोम आदि ओषधियों का समूह सब रोगों का विनाश करके सुखों को पहुँचाता है ॥ १ ॥
विषय
ऋजुतम मार्ग त्वं
पदार्थ
१. हे (सोम) = सौम्य व अत्यन्त शान्त प्रभो! (त्वम्) = आप (मनीषा) = बुद्धि के द्वारा (प्रचिकितः) = प्रकर्षेण ज्ञात होते हो । 'एष सर्वेषु भूतेषु गूढोत्मा न प्रकाशते । दृश्यते त्वग्र्यया बुद्ध्या सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभिः' ॥ सब भूतों में गूढ प्रभु इन्द्रियों से प्रकाशित नहीं होते । वे सूक्ष्म बुद्धि से देखे जाते हैं । २. हे प्रभो ! जो भी आपका दर्शन करता है (त्वम्) = आप उसे (रजिष्ठं पन्थाम्) = ऋजुतम - अत्यन्त सरल मार्ग से (अनुनेषि) = अनुक्रमेण ले -चलते हो । प्रभु का द्रष्टा प्रभुभक्त कभी भी कुटिल मार्ग का अवलम्बन नहीं लेता । ३. हे (इन्दो) = सर्वशक्तिमान् प्रभो ! (तव प्रणीति) = आपके प्रणयन से - आपके द्वारा मार्गदर्शन से (नः) = हममें से (पितरः) = रक्षणात्मक कार्यों में व्याप्त लोग (धीराः) = उत्तम कर्मों व प्रज्ञावाले होते हुए (देवेषु) = चक्षु आदि सब इन्द्रियों में (रत्नम्) = रमणीयता का (अभजन्त) = सेवन करते हैं । प्रभु के द्वारा मार्ग - दर्शन का परिणाम यह होता है कि हम 'पितर व धीर' बनते हैं । इस प्रकार का जीवन बनाने से हमारी सब इन्द्रियाँ रमणीय शक्तिवाली बनी रहती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ = हम बुद्धि के द्वारा प्रभु को जानने का प्रयत्न करें । प्रभु हमें सरल मार्ग से ले - चलेंगे । परिणामतः रक्षणात्मक कर्मों में तथा ज्ञानवर्धन में लगे हुए हम सब इन्द्रियों को रमणीय शक्ति से युक्त बना पाएंगे ।
विषय
परमेश्वर विद्वान, राजा, सोम का वर्णन। उसके कर्तव्य । प्रजा की कामना ।
भावार्थ
हे ( सोम ) सब जगत् के प्रेरक, उत्पादक परमेश्वर ! और विद्वान् ! (त्वं) आप ( मनीषा ) मन की प्रबल इच्छा द्वारा ( प्र चिकितः ) अच्छी प्रकार जानते और ज्ञान देते हो । ( त्वं ) आप ( रजिष्ठम् ) अति ऋजु, सरल ( पन्थाम् ) मार्ग की ओर ( अनु नेषि ) लेजाते हो । (तव) आपकी ही ( प्रणीती ) उत्तम नीति से (नः पितरः) हमारे मा बाप के समान स्नेहवान् होकर ( धीराः ) धीर और कर्मशील बुद्धिमान् पुरुष ( देवेषु ) विद्वानों के बीच में रहते हुए ( रत्नम् ) उत्तम ऐश्वर्य और परम सुख को ( अभजन्त ) प्राप्त करते हैं ॥ (२) राजा वै सोमः । श० १४ । १ । ३ । १२ । राजा और विद्वान् के पक्षमें—तू (मनीषा) अपनी बुद्धि से सब कुछ भली प्रकार जान । ऋजु धर्म मार्ग पर ले चल, हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( पितरः ) पालक, शासक जन ( देवेषु ) विद्वानों और विजयेच्छु वीर पुरुषों के आधार पर ही तेरी उत्तम नीति से धैर्यवान् होकर ( रत्नम् ) रमण योग्य ऐश्वर्य प्राप्त करें । ( ३ ) अध्यात्म में—अन्नं वै सोमः । श० ३।१। १ । ८ ॥ प्राणः सोमः । श० ७ | ३ | १ | २ ॥ रेतः सोमः । श० ३|३| २।१ । हे अन्न ! प्राण ! और प्रजा के उत्पादक हे शुक्र ! तू मन की प्रेरणा से या कामना या हर्ष द्वारा ( प्र चिकितः ) समस्त रोगों को दूर करता और उत्तम ज्ञान सामर्थ्य देता है । और ( रजिष्ठम् पन्थाम् ) राजस भाव से युक्त मार्ग की तरफ गृहस्थोचित कार्य में भी प्रवृत्त करता है। बुद्धिमान् ( पितरः ) मा बाप ( तव प्रणीती ) तेरे उत्तम उत्तम उपयोग से ( देवेषु ) विद्वानों के बीच ( रत्नम् ) पुत्र और ( देवेषु ) प्राणों के बल पर ( रत्नम् ) रमण योग्य शारीरिक सुखप्रद बल को ( अभजन्त ) प्राप्त करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गोतमो रहूगणपुत्र ऋषिः ॥ सोमो देवता ॥ छन्दः—१, ३, ४ स्वराट्पङ्क्तिः ॥ - २ पङ्क्तिः । १८, २० भुरिक्पङ्क्तिः । २२ विराट्पंक्तिः । ५ पादनिचृद्गायत्री । ६, ८, ९, ११ निचृद्गायत्री । ७ वर्धमाना गायत्री । १०, १२ गायत्री। १३, १४ विराङ्गायत्री । १५, १६ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री । १७ परोष्णिक् । १९, २१, २३ निचृत् त्रिष्टुप् ॥ त्रयोविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात अध्ययन, अध्यापन करणाऱ्या विद्या शिकणाऱ्या इत्यादी कामांची सिद्धी करणाऱ्या (सोम) शब्दाच्या अर्थाच्या कथनाने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. जसा परमेश्वर किंवा अत्यंत उत्तम विद्वान अविद्येचा नाश करून विद्या व धर्ममार्गाकडे तसे वैद्यकशास्त्राच्या रीतीने सेवा केलेला सोम इत्यादी औषधींचा समूह सर्व रोगांचा नाश करतो व सुखी करतो. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Soma, lord of peace, power and joy, you are wide-awake with understanding and alertness of mind. You lead to the simple, natural and truthful path of life and action. By virtue of your guidance and leadership, soothing and gracious as the moon, our wise seniors and forefathers enjoy the very jewels of life among the divinities.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The meaning of Sama is stated in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
(1)O God the Lord of the world, Thou thoroughly knowest everything by Thy Supreme Wisdom. Thou leadest us along the straight path. O Source of Peace; It is under Thy guidance that wisemen prossessing the power of mediation and perserverance, obtain charming wealth among the enlightened persons and divine Merits and actions. Therefore, Thou art to be adored by us. (2) The Mantra is also applicable to highly educated persons of peaceful nature who lead towards the straight path of righteousness. It is under their guidance, that wise men endowed with perseverance and the power of meditation obtain charming wealth of knowledge and wisdom and distribute it among others.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(चिकित:) जानासि = Thou knowest: (पितर:) ज्ञानिन: = Wise learned men. (धीराः) ध्यानधैर्ययुक्ता: = Endowed with the power of meditation and perseverance.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As God and a great scholar dispel all darkness of ignorance and lead towards the path of knowledge and rightesousness; in the same manner, the Soma and other herbs used according to instructions given by expert physicians root out all diseases and cause great happiness.
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