ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 95/ मन्त्र 1
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - सत्यगुणविशिष्टोऽग्निः शुद्धोऽग्निर्वा
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द्वे विरू॑पे चरत॒: स्वर्थे॑ अ॒न्यान्या॑ व॒त्समुप॑ धापयेते। हरि॑र॒न्यस्यां॒ भव॑ति स्व॒धावा॑ञ्छु॒क्रो अ॒न्यस्यां॑ ददृशे सु॒वर्चा॑: ॥
स्वर सहित पद पाठद्वे । विरू॑पे॒ इति॒ विऽरू॑पे । च॒र॒तः॒ । स्वर्थे॒ इति॑ सु॒ऽअर्थे॑ । अ॒न्याऽअ॑न्या । व॒त्सम् । उप॑ । धा॒प॒ये॒ते॒ इति॑ । हरिः॑ । अ॒न्यस्या॑म् । भव॑ति । स्व॒धाऽवा॑न् । शु॒क्रः । अ॒न्यस्या॑म् । द॒दृ॒शे॒ । सु॒ऽवर्चाः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्वे विरूपे चरत: स्वर्थे अन्यान्या वत्समुप धापयेते। हरिरन्यस्यां भवति स्वधावाञ्छुक्रो अन्यस्यां ददृशे सुवर्चा: ॥
स्वर रहित पद पाठद्वे। विरूपे इति विऽरूपे। चरतः। स्वर्थे इति सुऽअर्थे। अन्याऽअन्या। वत्सम्। उप। धापयेते इति। हरिः। अन्यस्याम्। भवति। स्वधाऽवान्। शुक्रः। अन्यस्याम्। ददृशे। सुऽवर्चाः ॥ १.९५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 95; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ रात्रिदिवसौ कीदृशौ स्त इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे मनुष्या ये विरूपे स्वर्थे द्वे रात्रिदिने परस्परं चरतोऽन्यान्या वत्समुपधापयेते। तयोरन्यस्यां स्वधावान् हरिर्भवति। अन्यस्यां शुक्रः सुवर्चा सूर्यो ददृशे ते सर्वदा वर्त्तमाने रेखादिगणितविद्यया विज्ञायानयोर्मध्य उपयुञ्जीध्वम् ॥ १ ॥
पदार्थः
(द्वे) रात्रिदिने (विरूपे) प्रकाशान्धकाराभ्यां विरुद्धरूपे (चरतः) (स्वर्थे) शोभनार्थे (अन्यान्या) परस्परं वर्त्तमाना (वत्सम्) जातं संसारम् (उप) (धापयेते) पाययेते (हरिः) हरत्युष्णतामिति हरिश्चन्द्रः (अन्यस्याम्) दिवसादन्यस्यां रात्रौ (भवति) (स्वधावान्) स्वेन स्वकीयेन गुणेन धार्य्यत इति स्वधाऽमृतरूप ओषध्यादिरसस्तद्वान् (शुक्रः) तेजस्वी (अन्यस्याम्) रात्रेरन्यस्यां दिनरूपायां वेलायाम् (ददृशे) दृश्यते (सुवर्चाः) शोभनदीप्तिः ॥ १ ॥
भावार्थः
मनुष्यैर्नह्यहोरात्रौ कदाचिन्निवर्त्तेते। किन्तु देशान्तरे सदा वर्त्तेते, यानि कार्य्याणि रात्रौ कर्त्तव्यानि यानि च दिवसे तान्यनालस्येनानुष्ठाय सर्वकार्य्यसिद्धिः कर्त्तव्या ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब रात्रि और दिन कैसे हैं, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (विरूपे) उजेले और अन्धेरे से अलग-अलग रूप और (स्वर्थे) उत्तम प्रयोजनवाले (द्वे) दो अर्थात् रात और दिन परस्पर (चरतः) वर्त्ताव वर्त्तते और (अन्यान्या) परस्पर (वत्सम्) उत्पन्न हुए संसार का (उपधापयेते) खान-पान कराते हैं (अन्यस्याम्) दिन से अन्य रात्रि में (स्वधावान्) जो अपने गुण से धारण किया जाता वह औषधि आदि पदार्थों का रस जिसमें विद्यमान है, ऐसा (हरिः) उष्णता आदि पदार्थों का निवारण करनेवाला चन्द्रमा (भवति) प्रकट होता है वा (अन्यस्याम्) रात्रि से अन्य दिवस होनेवाली वेला में (शुक्रः) आतपवान् (सुवर्चाः) अच्छे प्रकार उजेला करनेवाला सूर्य्य (ददृशे) देखा जाता है, वे रात्रि-दिन सर्वदा वर्त्तमान हैं, इनको रेखागणित आदि गणित विद्या से जानकर इनके बीच उपयोग करो ॥ १ ॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि दिन-रात कभी निवृत्त नहीं होते किन्तु सर्वदा बने रहते हैं अर्थात् एक देश में नहीं तो दूसरे देश में होते हैं। जो काम रात और दिन में करने योग्य हों, उनको निरालस्य से करके सब कामों की सिद्धि करें ॥ १ ॥
विषय
दिन व रात
पदार्थ
१. (द्वे) = दिन और रात ये दो (विरूपे) = परस्पर विरुद्ध रूपवाले [दिन चमकवाला है तो रात्रि अन्धकारवाली , इस कारण दिन को “अहरर्जुनञ्च” श्वेत कहा है और “रात्रिश्च कृष्णम्” रात्रि को काला] (चरतः) = गति करते हैं । एक के पश्चात् दूसरे का आना क्रमशः होता ही रहता है । ये दोनों (स्वर्थे) = उत्तम प्रयोजनवाले हैं । दिन क्रियाशीलता के द्वारा मनुष्य में शक्ति उत्पन्न करता है और रात्रि गाढ निद्रा में ले जाकर , क्रिया को रोककर शरीर का शोधन करनेवाली होती है । इस शोधन से यह जीवन को दीर्घ बनाती है ।
२. रात्रि से सूर्य उत्पन्न होता - सा प्रतीत होता है और दिन की समाप्ति पर चमकवाली होने से यह अग्नि दिन से उत्पन्न होती है । [रात्रेर्वत्सा श्वेत आदित्यः , अह्नोऽग्निस्ताम्रोऽरुणः , इति - तै०] । ये दिन और रात एक - दूसरे के (वत्सम्) = पुत्र को (उपधापयेते) = दूध पिलाती हैं । [दिन रात्रि के पुत्र सूर्य को तथा रात्रि दिन के पुत्र अग्नि को । प्रातः सूर्य के लिए आहुतियाँ दी जाती हैं और रात्रि [सायं] में अग्नि के लिए] ।
३. (हरिः) = रसों का हरण करनेवाला अथवा रोगों का हरण करनेवाला सूर्य (अन्यस्याम्) = अपनी रात्रिरूप माता से भिन्न दिन में (स्वधावान्) = अन्नवाला होता है - सूर्य के लिए आहुतियाँ दिन में दी जाती हैं और (शुक्रः) = मलों के दहन से शुचिता को उत्पन्न करनेवाला अग्नि (अन्यस्याम्) = अपनी दिनरूप माता से भिन्न रात्रि में (सुवर्चाः) = उत्तम (वर्चस्वाला) = उत्तम तेज व चमकवाला (ददृशे) = दीखता है । इसके लिए इसे सायं के समय ही आहुतियाँ दी जाती हैं । प्रातः सूर्य का महत्त्व था , अब सायं अग्नि का महत्व है ।
४. दिन में सूर्य हरि है , हमारे रोगों का हरण करनेवाला है - हम सूर्य के समान ही श्रमशील होते हैं तो यह हमारे दारिद्र्य को दूर करता है । रात्रि में अग्नि शुक्र है । हम अपनी जाठराग्नि को ठीक रखते हैं तो यह शरीर का ठीक शोधन कर देती है । कमरे में अग्नि जलाते हैं तो यह वहाँ के दुर्गन्धित वायु को छिन्न - भिन्न करके वहाँ के वायु को पवित्र करनेवाली होती है ।
भावार्थ
भावार्थ - हमारे जीवनों में दिन - रात व सूर्य और अग्नि का स्थान अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । हमें इनके सम्पर्क से नीरोग व पवित्र बनना है ।
विषय
दो स्त्रियों के दृष्टान्त से दिन रात्रि का, आकाश पृथिवी का, और ब्राह्मण, क्षत्र वर्ग का वर्णन ।
भावार्थ
( द्वे विरूपे स्वर्थे चरतः ) जैसे दो स्त्रियें भिन्न २ रूप रंग वाली अपने शुभ प्रयोजन के निमित्त विचरती हैं और ( अन्यान्या वत्सम् उपधापयेते) वे दोनों एक दूसरे के बच्चे को दूध पिलाती, पालती पोसती हैं । ( अन्यस्यां ) एक की गोद में (हरिः भवति) मनोहर श्याम रंग का बालक हो और (अन्यस्यां सुवर्चाः शुक्रः ददृशे) दूसरी की गोद में शुक्र, शुद्ध उज्ज्वल वर्ण का बालक हो। उसी प्रकार (द्वे) दोनों (विरूपे) प्रकाश और अन्धकार से भिन्न २ रूप के दिन और रात्रि (सु-अर्थे) अपने उत्तम जगत् के कल्याण करने के प्रयोजन से ( चरतः ) मानो दो स्त्रियों के समान विचरते हैं । वे दोनों (अन्या-अन्या) एक दूसरे के या पृथक् २ अपने २ ( वत्सम् उपाधापयेते) अग्नि और सूर्य या चन्द्र और सूर्य दोनों को बालक के समान ही अपना रस प्रदान करके पुष्ट करते हैं । अर्थात् रात्रि के गर्भ से उत्पन्न सूर्य का पोषण दिन करता है और दिन से उत्पन्न अग्नि का पोषण रात्रि करती है । सूर्य और अग्नि उन दोनों को अधिक उज्ज्वल रूप में प्रकट करना उनका पोषण करना है । ( अन्यस्याम् ) एक में या अपनी जननी दिन वेला में ( हरिः ) जलों और रसों का हरण करने वाला सूर्य (स्वधावान् भवति) अपनी रश्मियों से जरु को धारण करने वाला होता है। ( अन्यस्याम् ) और दूसरी रात्रि में ( शुक्रः ) शुद्ध कान्तिमान् अग्नि या जल ही ( सुवर्चाः ) उत्तम तेजस्वी होकर (ददृशे) दिखाई देता है । (२) अथवा—( द्वे ) दोनों रात्रि और दिन, भिन्न २ रूप के होकर उत्तम प्रजा पालन के कार्य में परस्पर मिलकर ( वत्सं ) बसे हुए संसार को बालक के समान पालते हैं। ( अन्यन्यां ) दिन से भिन्न रात्रिकाल में (हरिः) उष्णता को दूर करने वाला चन्द्र ( स्वधावान् ) अपने से धारण करने योग्य ओषधि रस से युक्त होता है और ( अन्यस्यां ) दूसरी, रात्रिकाल से भिन्न दिन वेला में (शुक्रः) कान्तिमान सूर्य उज्ज्वल रूप में दिखाई देता है ॥ अथवा—आकाश और पृथिवी दोनों संसार रूप बालक को या सूर्य और अग्नि या मेघ और अग्नि को पालते हैं, सूर्य और मेघ दोनों जल लेने और लाने से ‘हरि’ और ‘स्वधावान्’ हैं। अग्नि तेजस्वी होने से ‘शुक्र’ है। अध्यात्म में-विरूप अर्थात् भिन्न रूप के प्राण और अपान दो प्राण गुण की गति हैं । वे देह में बसे आत्मा को पुष्ट करती हैं। एक देह को धारण करने और अन्न को पचाने और भूख लगाने वाला होने से प्राण ‘हरि’ है दूसरा अपान अर्थात् नाभि से नीचे के अधश्चारी प्राणशक्ति में शुक्र, वीर्य जो देह में कान्तिजनक होता है वह आश्रित है । (४) इसी प्रकार ब्राह्मण वर्ग और क्षत्र वर्ग, ये दोनों शान्त और उग्र स्वभाव से भिन्न २ होकर भी परस्पर मिलकर प्रमुख विद्वान् और नेता को, तथा बसते प्रजाजन को पालते हैं, एक में ज्ञानवान् विद्वान् है दूसरे में तेजस्वी नायक है । ( ५ ) आकाश और पृथिवी दोनों दो भिन्न २ रूप वाली होकर वत्सरूप वायु या मेघ को पुष्ट करते है अर्थात् जल से पूर्ण करते हैं, या बसे प्राणि संसार को पालते हैं एक की गोद में हरि सूर्य है दूसरे की गोद में ‘शुक्र’ अर्थात् जल है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ औषसगुणविशिष्टः सत्यगुणविशिष्टः, शुद्धोऽग्निर्वा देवता ॥ छन्द:-१, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूकम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात काल व अग्नीच्या गुणांच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्वसूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे.
भावार्थ
दिवस व रात्र कधी निवृत्त होत नाहीत तर ते सदैव असतात. अर्थात एका देशात (स्थानी) नसेल तर दुसऱ्या देशात (स्थानी) असतात. जे काम रात्री व दिवसा करण्यायोग्य असेल ते सर्व काम आळशी न बनता सिद्ध करावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Night and day, two different forms of nature, two divisions of time, two different states of Agni, one direct, the other reflected, move on with their priest like task. Both, co-existent and continuous but separately, like two women, feed and nurse each other’s child as their own. In one, the night, the moon grows on with its inherent character of beauty, peace and bliss, while the sun in the other, the day, blazes with light and fire, pure, immaculate, glorious. The sun sleeps at night and the moon sleeps in the day.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How are day and night is taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
Two sisters of different shapes owing to light and darkness wander along, pursuing a good aim. Both of them suckle the calf born in the form of the world. In one of them (at night) there is the moon that dispels heat and is endowed with nectar-like sap of herbs. In the other, (at day) is seen the sun clear and full of fine splendour. They should be utilised properly, having acquired their knowledge with Algebra and other Sciences.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(वत्सम्) जातं संसारम् = Calf born in the form of the world. (हरिः) हरति उष्णताम् इति हरिश्चन्द्रः = Moon that dispels heat. (स्वधावान्) स्वेन स्वकीयेन गुरणेन धार्यत इति स्वधा अमृत रूप ओषधिरसः तद्वान् = Endowed with the nectar-like sap of the herbs.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should know that day and night do not cease but they exist in different parts of the Universe. They should accomplish all their works that are to be done at night and that are to be done in day time without laziness.
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