ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 97/ मन्त्र 1
ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः
देवता - अग्निः
छन्दः - पिपीलिकामध्यानिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अप॑ न॒: शोशु॑चद॒घमग्ने॑ शुशु॒ग्ध्या र॒यिम्। अप॑ न॒: शोशु॑चद॒घम् ॥
स्वर सहित पद पाठअप॑ । नः॒ । शोशु॑चत् । अ॒घम् । अग्ने॑ । शु॒शु॒ग्धि । आ । र॒यिम् । अप॑ । नः॒ । शोशु॑चत् । अ॒घम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अप न: शोशुचदघमग्ने शुशुग्ध्या रयिम्। अप न: शोशुचदघम् ॥
स्वर रहित पद पाठअप। नः। शोशुचत्। अघम्। अग्ने। शुशुग्धि। आ। रयिम्। अप। नः। शोशुचत्। अघम् ॥ १.९७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 97; मन्त्र » 1
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथायं सभाध्यक्षः कीदृश इत्युपदिश्यते ।
अन्वयः
हे अग्ने भवान् नोऽस्माकमघमपशोशुचत्पुनः पुनर्दूरीकुर्य्यात्। रयिमाशुशुग्धि। नोऽस्माकमघमपशोशुचत् ॥ १ ॥
पदार्थः
(अप) दूरीकरणे (नः) अस्माकम् (शोशुचत्) शोशुच्यात् (अघम्) रोगालस्यं पापम् (अग्ने) सभापते (शुशुग्धि) शोधय प्रकाशय। अत्र विकरणव्यत्ययेन श्लुः। (आ) समन्तात् (रयिम्) धनम् (अप) दूरीकरणे (नः) अस्माकम् (शोशुचत्) दूरीकुर्यात् (अघम्) मनोवाक्छरीरजन्यं पापम् ॥ १ ॥
भावार्थः
सभाध्यक्षेण सर्वमनुष्येभ्यो यद्यदहितकरं कर्म प्रमादोऽस्ति तं दूरीकृत्यानालस्येन श्रीः प्रापयितव्या ॥ १ ॥
हिन्दी (3)
विषय
अब आठ ऋचावाले सत्तानवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सभाध्यक्ष कैसा हो, यह उपदेश किया है ।
पदार्थ
हे (अग्ने) सभापते ! आप (नः) हम लोगों के (अघम्) रोग और आलस्यरूपी पाप का (अप, शोशुचत्) बार-बार निवारण कीजिये (रयिम्) धन को (आ) अच्छे प्रकार (शुशुग्धि) शुद्ध और प्रकाशित कराइये तथा (नः) हम लोगों के (अघम्) मन, वचन और शरीर से उत्पन्न हुए पाप की (अप, शोशुचत्) शुद्धि के अर्थ दण्ड दीजिये ॥ १ ॥
भावार्थ
सभाध्यक्ष को चाहिये कि सब मनुष्यों के लिये जो-जो उनका अहितकारक कर्म और प्रमाद है, उसको मेट के निरालस्यपन से धन की प्राप्ति करावे ॥ १ ॥
विषय
पवित्र धन
पदार्थ
१. इस सूक्त के ८ मन्त्रों में ९ बार “अप नः शोशुचदघम्” - यह वाक्य प्रयुक्त हुआ है । वाणी व रसना को एक मानकर नौ इन्द्रियों होती हैं । हमारी इन नौ की नौ इन्द्रियों से पाप न हो । अब तक जो पाप इनमें रहता था , वह अब इनसे दूर होकर , शोक - सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए । (नः) = हमसे होनेवाला (अघम्) = पाप (अप) = दूर होकर (शोशुचत्) = ठहरने का स्थान न रहने से शोक - सन्तत होकर नष्ट हो जाए ।
२. इसके लिए हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! आप (रयिम्) = हमारे धनों को (आशुशुग्धि) = सब प्रकार से शुद्ध कर दीजिए । हमारा धन सुपथ से कमाया जाकर प्रकाशमय ही हो । वस्तुतः शुद्ध मार्ग से ही धन कमाना है - इस वृत्ति के आते ही पाप समाप्त हो जाते हैं । अन्याय से धन कमाने की वृत्ति के मूल में लोभ है और यह लोभ ही सब पापों का कारण है ।
३. हे प्रभो ! आप हमारे इस लोभ को दूर करके धन को पवित्र कर दीजिए ताकि (नः) = हमारा यह सब (अघम्) = पाप (अप) = हमसे दूर होकर (शोशुचत्) = शोक - सन्तप्त होकर नष्ट हो जाए ।
भावार्थ
भावार्थ - हम पवित्र साधनों से ही धन कमाएँ ताकि पाप नष्ट हो जाएँ ।
विषय
परमेश्वर से पाप नाश कर देने की प्रार्थना।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) प्रकाशस्वरूप परमेश्वर ! ( नः ) हमारे (अघम्) पाप को ( अप शोशु चत् ) काष्ट को आग के समान भस्म कर के दूर कीजिये और ( नः रयिम् ) हमारे प्राण, देह और ऐश्वर्य को ( शुशुग्धि ) शुद्ध, प्रकाशित और उज्ज्वल कीजिये, पुनः प्रार्थना है कि ( नः पापम् ) हमारे पाप को ( अप शोशुचत् ) भस्म कर के दूर कीजिये । ( २ ) इसी प्रकार विद्वान् राजा और सभाध्यक्ष भी ( नः अघम् ) हमारे असत्य भाषण, रोग, आलस्य तथा अज्ञान आदि दोषों को तथा हमारे बीच में रहने वाले पापकारी पुरुष को दूर करें और दंडित करें । इसी प्रकार समस्त सूक्त में समझना चाहिये। इस सूक्त का ईश्वर परक अर्थ देखो अथर्ववेद आलोकभाष्य का० ४ । सू ० ३३ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः—१,७, ८ पिपिलिकामध्यनिचृद् गायत्री । २, ४, ५ गायत्री । ३, ६ निचृद्गायत्री ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात सभाध्यक्ष, अग्नी व ईश्वर यांच्या गुणांचे वर्णन असून, या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
सभाध्यक्षाने सर्व माणसांचे अहितकर कर्म व प्रमाद दूर करून आळस सोडून त्यांना धनाची प्राप्ती करवावी. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light, power and purity, pray shine on us, bum off our sins and purify us. Shine, purify and sanctify our wealth of body, mind and soul. O lord, burn off our sins and let us shine in purity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should Agni (President of the Assembly) be is taught in the first Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Agni-our leader-President of the Assembly ! Remove our sin, disease and laziness. Purify our riches of all kinds. Remove or cast aside all sin done with mind, speech and body.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अघम्) (१) रोगालस्यं पापम् = Sin, disease and laziness. (अघम्) मनोवाक् शरीरजन्यं पापम् = Sin done with mind, speech and body. (शुशुग्धि) शोधय प्रकाशय = Purify and manifest.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
It is the duty of the President of the Assembly to remove all acts that are harmful for men and having removed sloth, to enable them to attain prosperity by exertion or industriousness.
Translator's Notes
शुशुग्धि is from शुचिरतीभावे विकरणव्यत्ययेन श्लुः । शोचति ज्वलतिकर्मा (निघ० १.१६ ) | It is very wrong on the part of Wilson to translate अपनः शोशुचदघम् as may our sin be repented of.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal