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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 98 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 98/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - अग्निर्वैश्वानरः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वै॒श्वा॒न॒रस्य॑ सुम॒तौ स्या॑म॒ राजा॒ हि कं॒ भुव॑नानामभि॒श्रीः। इ॒तो जा॒तो विश्व॑मि॒दं वि च॑ष्टे वैश्वान॒रो य॑तते॒ सूर्ये॑ण ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वै॒श्वा॒न॒रस्य॑ । सु॒ऽम॒तौ । स्या॒म॒ । राजा॑ । हि । क॒म् । भुव॑नानाम् । अ॒भि॒ऽश्रीः । इ॒तः । जा॒तः । विश्व॑म् । इ॒दम् । वि । च॒ष्टे॒ । वै॒श्वा॒न॒रः । य॒त॒ते॒ । सूर्ये॑ण ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वैश्वानरस्य सुमतौ स्याम राजा हि कं भुवनानामभिश्रीः। इतो जातो विश्वमिदं वि चष्टे वैश्वानरो यतते सूर्येण ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वैश्वानरस्य। सुऽमतौ। स्याम। राजा। हि। कम्। भुवनानाम्। अभिऽश्रीः। इतः। जातः। विश्वम्। इदम्। वि। चष्टे। वैश्वानरः। यतते। सूर्येण ॥ १.९८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 98; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 6; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथाऽग्नी कीदृशावित्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यो वैश्वानर इतो जात इदं कं विश्वं जगद्विचष्टे यः सूर्येण सह यतते यो भुवनानामभिश्री राजास्ति तस्य वैश्वानरस्य सुमतौ हि वयं स्याम ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (वैश्वानरस्य) विश्वेषु नरेषु जीवेषु भवस्य (सुमतौ) शोभना मतिः सुमतिः तस्याम् (स्याम) भवेम (राजा) न्यायाधीशः सर्वाऽधिपतिरीश्वरः। प्रकाशमानो विद्युदग्निर्वा (हि) खलु (कम्) सुखम् (भुवनानाम्) लोकानाम् (अभिश्रीः) अभितः श्रियो यस्माद्वा (इतः) कारणात् (जातः) प्रसिद्धः (विश्वम्) सकलं जगत् (इदम्) प्रत्यक्षम् (वि) (चष्टे) दर्शयति (वैश्वानरः) सर्वेषां जीवानां नेता (यतते) संयतो भवति (सूर्येण) प्राणेन वा मार्त्तण्डेन सह। अत्राहुर्नैरुक्ताः−इतो जातः सर्वमिदमभिविपश्यति, वैश्वानरः संयतते सूर्येण, राजा यः सर्वेषां भूतानामभिश्रयणीयस्तस्य वयं वैश्वानरस्य कल्याण्यां मतौ स्यामेति। तत्को वैश्वानरो मध्यम इत्याचार्या वर्षकर्मणा ह्येनं स्तौति । निरु० ७। २२। ॥ १ ॥

    भावार्थः

    (अत्र श्लेषालङ्कारः। ) हे मनुष्या योऽभिव्याप्य सर्वं जगत्प्रकाशयति तस्यैव सुगुणैः प्रसिद्धायां तदाज्ञायां नित्यं प्रवर्त्तध्वम्। यस्तथा सूर्य्यादिप्रकाशकोऽग्निरस्ति तस्य विद्यासिद्धौ च नैवं विना कस्यापि मनुष्यस्य पूर्णाः श्रियो भवितुं शक्यन्ते ॥ १ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब अट्ठानवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में ईश्वर और भौतिक अग्नि कैसे हैं, यह विषय कहा है ।

    पदार्थ

    जो (वैश्वानरः) समस्त जीवों को यथायोग्य व्यवहारों में वर्त्तानेवाला ईश्वर वा जाठराग्नि (इतः) कारण से (जातः) प्रसिद्ध हुए (इदम्) इस प्रत्यक्ष (कम्) सुख को (विश्वम्) वा समस्त जगत् को (विचष्टे) विशेष भाव से दिखलाता है और जो (सूर्येण) प्राण वा सूर्यलोक के साथ (यतते) यत्न करनेवाला होता है वा जो (भुवनानाम्) लोकों का (अभिश्रीः) सब प्रकार से धन है तथा जिस भौतिक अग्नि से सब प्रकार का धन होता है वा (राजा) जो न्यायाधीश सबका अधिपति है तथा प्रकाशमान बिजुलीरूप अग्नि है, उस (वैश्वानरस्य) समस्त पदार्थ को देनेवाले ईश्वर का भौतिक अग्नि की (सुमतौ) श्रेष्ठ मति में अर्थात् जो कि अत्यन्त उत्तम अनुपम ईश्वर की प्रसिद्ध की हुई मति वा भौतिक अग्नि से अतीव प्रसिद्ध हुई मति उसमें (हि) ही (वयम्) हम लोग (स्याम) स्थिर हों ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जो सबसे बड़ा व्याप्त होकर सब जगत् को प्रकाशित करता है, उसी के अति उत्तम गुणों से प्रसिद्ध उसकी आज्ञा में नित्य प्रवृत्त होओ तथा जो सूर्य्य आदि को प्रकाश करनेवाला अग्नि है, उसकी विद्या की सिद्धि में भी प्रवृत्त होओ, इसके विना किसी मनुष्य को पूर्ण धन नहीं हो सकते ॥ १ ॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे मनुष्यो ! जो हमारा तथा सब जगत् का (राजा) राजा (भुवनानाम्) सब भुवनों का स्वामी (कम्) सबका सुखदाता और (अभिश्रीः)  सबका निधि (शोभाकारक) है। (वैश्वानरो, यतते, सूर्येण) संसारस्थ सब नरों का नेता [नायक] और सूर्य के साथ वही प्रकाशक है, अर्थात् सब प्रकाशक पदार्थ उसके रचे हैं। (इतो जातो विश्वमिदं विचष्टे) इसी ईश्वर के सामर्थ्य से ही यह संसार उत्पन्न हुआ है, अर्थात् उसने रचा है। (वैश्वानरस्य सुमतौ, स्याम) उस वैश्वानर परमेश्वर की सुमति, अर्थात् सुशोभन (उत्कृष्ट) ज्ञान में हम निश्चित सुखस्वरूप और विज्ञानवाले हों । हे महाराजाधिराजेश्वर ! आप हमारी इस आशा को अपनी कृपा से पूरी करो ॥ ३१ ॥

    टिपण्णी

    १. सूर्य के साथ – सूर्य के द्वारा । -सं०

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    विषय

    वैश्वानर की सुमति में

    पदार्थ

    १. हम (वैश्वानरस्य) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले प्रभु की (सुमतौ) = कल्याणी मति में (स्याम) = सदा निवास करें । प्रभु ने सृष्टि के प्रारम्भ में ही वेदज्ञान के द्वारा हमें सुमति प्राप्त करा दी है । हम सदा उसके अनुसार ही कार्यों को करनेवाले बनें । यह वेदशास्त्र ही हमारे लिए प्रमाण हो - इसी के प्रमाण से हम कार्यों में व्यवस्थित हों । 

    २. वे वैश्वानर प्रभु ही (राजा) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का शासन करनेवाले हैं , (हि) = निश्चय से (कम्) = सुख देनेवाले हैं , (भुवनानाम् अभिश्रीः) = सब प्राणियों से आभिमुख्येन सेवनीय हैं । सभी को प्रभु की ही उपासना करनी योग्य है । 

    ३. (इतः जातः) = इस ब्रह्माण्ड से ही वे प्रकट व प्रादुर्भूत होते हैं । ब्रह्माण्ड के एक - एक लोक व पिण्ड में प्रभु की रचना का महत्त्व स्पष्ट दिखता है । एक - एक पदार्थ उस प्रभु की महिमा को प्रकट करता व प्रभु का प्रकाश करता है । इन पदार्थों में प्रकट हुए - हुए वे प्रभु (इदं विश्व विचष्टे) = इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देखते हैं , अर्थात् सब ब्रह्माण्ड का ध्यान [Look after] करते हैं । वे (वैश्वानरः) = सब मनुष्यों का हित करनेवाले प्रभु (सूर्येण) = सूर्य के द्वारा (यतते) = प्राणियों के हित का प्रयत्न करते हैं । सूर्यकिरणों के द्वारा सर्वत्र प्राणशक्ति की स्थापना करते हैं । प्रभु हमारे हित के लिए यत्नशील हैं , परन्तु हम अल्पज्ञता के कारण उस हितसाधन - क्रिया में पूर्ण अनुकूल नहीं बनते । हम सूर्यकिरणों से बचने का प्रयत्न करते हैं और रोगाक्रान्त हो जाते हैं । प्रभु तो इन सूर्यादि देवों से हमारे हितसाधन में लगे ही हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - हम सदा प्रभु की कल्याणी मति में स्थित हों । शास्त्रानुकूल प्रवृत्ति से हितसाधन करनेवाले हों । 
     

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    विषय

    सर्वहितकारी परमेश्वर की स्तुति ।

    भावार्थ

    हम लोग ( वैश्वानरस्य ) समस्त नरों के हितकारी विद्वान् राजा और परमेश्वर की ( सुमतौ ) शुभ मति, उत्तम ज्ञान और शासन में ( स्याम ) रहें । ( हि कम् ) क्योंकि वह (राजा) तेजस्वी, सबसे ऊपर सबका स्वामी होकर ( भुवनानाम् ) उत्पन्न हुए समस्त लोकों का ( अभिश्रीः ) आश्रय करने योग्य, आधार और भजन और सेवा करने योग्य है। जिस प्रकार ( इतः ) इस काष्ट से उत्पन्न होकर अग्नि और इधर पूर्व दिशा से उत्पन्न होकर सूर्य ( इदं सर्वं ) इस समस्त ( विश्वम् ) विश्व को ( विचष्टे ) प्रकाशित करता है उसी प्रकार वह सब का हितकारी राजा और विद्वान् पुरुष ( इतः जातः ) इस राष्ट्र से ही उत्पन्न होकर ( इदं विश्वं ) इस समस्त विश्व को ( विचष्टे ) विशेष रूप से देखता और समस्त ज्ञान को प्रकाशित करता है । इस प्रकार ( वैश्वानरः ) समस्त नरों का हितकारी पुरुष ( सूर्येण ) सूर्य के सदृश होकर ( यतते ) यत्नवान् होता है । (२) परमेश्वर (इतः) इस विश्व के द्वारा ही प्रसिद्ध होता हैं इस विश्व को साक्षी, नियन्ता रूप से देखता है । वह भी सूर्य के समान इसको प्रकाशित करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स ऋषिः ॥ अग्निवैश्वानरो देवता विराट् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ३ निचृत् त्रिष्टुम् । तृचं सूक्तम् ॥

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    मराठी (2)

    विषय

    या सूक्तात अग्नी व विद्वानांशी संबंध ठेवणाऱ्या कर्माच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्वीच्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. हे माणसांनो! जो सर्वात मोठा असून सर्व जगाला व्याप्त करून प्रकाशित करतो. त्याच्याच अतिउत्तम गुणांनी प्रसिद्ध होऊन त्याच्याच आज्ञेत प्रवृत्त व्हा व जो सूर्य इत्यादीला प्रकाशित करणारा अग्नी आहे ती विद्या सिद्ध करण्यास प्रवृत्त व्हा. त्याशिवाय कोणत्याही माणसाला पूर्ण धन प्राप्त होऊ शकत नाही. ॥ १ ॥

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    हे मनुष्यांनो ! जो आमचा व सर्व जगाचा राजा आहे. भवनांचा स्वामी आहे. (कम्) सर्वाना सुख देणारा आहे. (अभिश्रीः) सब निधी आहे. (वैश्वानरो यतते सूर्येण) जगातील सर्व लोकांचा नेता [नायक] असून सूर्याचा प्रकाशक आहे. सर्व प्रकाशित पदार्थ त्यानेच निर्माण के आहेत. (इतो जातो विश्वमिदं विचष्टे) याच ईश्वरी सामर्थ्याने हे विश्व उला झाले आहे. त्यानेच ते रचले आहे. (वैश्वानरस्य सुमतौ स्याम) (त्या वैश्वानर परमेश्वराच्या सुमती) सुशोभित अशा उत्कृष्ट ज्ञानामध्ये आम्ही निश्चित सुखस्वरूप बनून विज्ञान प्राप्त करू. हे महाराजाधिराज ईश्वरा !तु कृपया आमची ही आशा पूर्ण कर. ॥३१॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    May we abide in the pleasure and good will of Vaishvanara Agni, ruler of humanity and indeed the spirit and vitality of all life on earth. The ruling power, for sure, is the order, beauty and grace of the world, the real wealth and life of existence. Born of the original cause, Prakrti, and manifesting here, this Agni shows this world and acts in unison with the sun and prana.

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    Purport

    O men of the world! That Supreme Lord is the King not only of ours but also of the whole universe and planets. He is the bestower of happiness and prosperity to all. He is divine treasure of all glory and Imparter of glory to all the objects of the world. He is the leader of all the men in the world. He is shining through the sun i.e. all the luminous objects are created whole universe has come into existence by Him. The whole by His Might i.e. created by Him. We should remain in the brilliant wisdom of Omnipresent God, the leader of all and thus we should always be happy and possessor of true right knowledge. O King of kings! By your kind grace do fulfil our this desire.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What is the nature of two kinds of Agni is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    May we possess and subsist in the true knowledge of that Almighty God, who is the Sovereign Creator of all universes, who is the imparter of bliss to all, who is the store of glory and giver of beauty to all things beautiful, who is the Supreme Leader of all souls and by whose might the sun comes into being and by whose lustre he shines.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वैश्वानरस्य) विश्वेषु नरेषु जीवेषु भवस्य = Pervading all souls. (राजा) न्यायाधीश: सर्वाधिपतिः ईश्वर: प्रकाशमानो विद्युत् अग्निर्वा | = God the just lord of the world, radiant, electricity and fire. (वैश्वानरः) सर्वेषां जीवानांनेता = The leader of all souls.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men, you must always obey the commands of that God who is Omnipresent and who illuminates this whole world. You should also acquire the knowledge of Agni in the form of material fire and electricity. Without this, a man can not get worldly prosperity

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे मानिस हो ! जुन हाम्रो तथा समस्त जगत् को राजा= राजा, भुवनानाम् = समस्त भुवन हरु को स्वामी कम्= सबैको सुखदाता र अभि श्रीः = सबैको निधि अर्थात् शोभाकारक हो । वैश्वानरो, यतते, सूर्येण = संसारस्थ सबै नरहरु को नेता अर्थात् नायक र सूर्य द्वारा प्रकाशकर्त्ता पनि उही हो, अर्थात् सम्पूर्ण प्रकाशक पदार्थहरु उसैले रचेको हो । इतो जातो विश्वमिदं विचष्टे = एसै ईश्वर को सामर्थ्य बाटै यो संसार उत्पन्न भएको हो । वैश्वानस्य सुमतौ स्याम तेस वैश्वानर परमेश्वर को सुमति, अर्थात् सुशोभन वा उत्कृष्ट ज्ञान मा हामी निश्चित सुखस्वरूप र विज्ञानवान हौं । हे महाराजाधिराजेश्वर ! तपाईंले निजकृपा द्वारा हाम्रो एस आशा लाई पूर्ण गरिदिनुहुन विन्ति गर्दछौं ॥३१॥ 
     

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