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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 99 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कश्यपो मरीचिपुत्रः देवता - अग्निर्जातवेदाः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    जा॒तवे॑दसे सुनवाम॒ सोम॑मरातीय॒तो नि द॑हाति॒ वेद॑:। स न॑: पर्ष॒दति॑ दु॒र्गाणि॒ विश्वा॑ ना॒वेव॒ सिन्धुं॑ दुरि॒तात्य॒ग्निः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ज॒तऽवे॑दसे । सु॒न॒वा॒म॒ । सोम॑म् । अ॒रा॒ति॒ऽय॒तः । नि । द॒हा॒ति॒ । वेदः॑ । सः । नः॒ । प॒र्ष॒त् । अति॑ । दुः॒ऽगानि॑ । विश्वा॑ । ना॒वाऽइ॑व । सिन्धु॑म् । दुः॒ऽइ॒ता । अति॑ । अ॒ग्निः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो नि दहाति वेद:। स न: पर्षदति दुर्गाणि विश्वा नावेव सिन्धुं दुरितात्यग्निः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जतऽवेदसे। सुनवाम। सोमम्। अरातिऽयतः। नि। दहाति। वेदः। सः। नः। पर्षत्। अति। दुःऽगानि। विश्वा। नावाऽइव। सिन्धुम्। दुःऽइता। अति। अग्निः ॥ १.९९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 99; मन्त्र » 1
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    यस्मै जातवेदसे जगदीश्वराय वयं सोमं सुनवाम यश्चारातीयतो वेदो निदहाति सोऽग्निर्नावेव सिन्धुं नोऽतिदुर्गाण्यतिदुरिता विश्वा पर्षत्सोऽत्रान्वेषणीयः ॥ १ ॥

    पदार्थः

    (जातवेदसे) यो जातं सर्वं वेत्ति विन्दति जातेषु विद्यमानोऽस्ति तस्मै (सुनवाम) पूजयाम (सोमम्) सकलैश्वर्य्यमुत्पन्नं संसारस्थं पदार्थसमूहम् (अरातीयतः) शत्रोरिवाचरणशीलस्य (नि) निश्चयार्थे (दहाति) दहति (वेदः) धनम् (सः) (नः) अस्मान् (पर्षत्) संतारयति (अति) (दुर्गाणि) दुःखेन गन्तुं योग्यानि स्थानानि (विश्वा) सर्वाणि (नावेव) यथा नौका तथा (सिन्धुम्) समुद्रम् (दुरिता) दुःखेन नेतुं योग्यानि (अति) (अग्निः) विज्ञानस्वरूपो जगदीश्वरः। इमं मन्त्रं यास्काऽऽचार्य्य एवं समाचष्टे। जातवेदस इति जातमिदं सर्वं सचराचरं स्थित्युत्पत्तिप्रलयन्यायेनास्थाय सुनवाम सोममिति प्रसवेनाभिषवाय सोमं राजानममृतमराती यतो यज्ञार्थमिति स्मो निश्चये निदहाति दहति भस्मीकरोति सोमो दददित्यर्थः। स नः पर्षदति दुर्गाणि दुर्गमनानि स्थानानि नावेव सिन्धुं यथा कश्चित्कर्णधारो नावेव सिन्धोः स्यन्दनान्नदीं जलदुर्गां महाकूलां तारयति दुरितात्यग्निरिति दुरितानि तारयति । निरु० १४। ३३। ॥ १ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा कर्णधाराः कठिनमहासमुद्रेषु महानौकाभिर्मनुष्यादीन् सुखेन पारं नयन्ति तथैव सूपासितो जगदीश्वरो दुःखरूपे महासमुद्रे स्थितान्मनुष्यान् विज्ञानादिदानैस्तत्पारं नयति परमेश्वरोपासक एव मनुष्यः शत्रुपराभवं कृत्वा परमानन्दं प्राप्तुं शक्नोति किं सामर्थ्यमन्यस्य ॥ १ ॥।अत्रेश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥इत्येकोनशततमं सूक्तं सप्तमो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब एक ऋचावाले निन्नानवें सूक्त का आरम्भ है। उसमें ईश्वर कैसा है, यह वर्णन किया है ।

    पदार्थ

    जिस (जातवेदसे) उत्पन्न हुए चराचर जगत् को जानने और प्राप्त होनेवाले वा उत्पन्न हुए सर्व पदार्थों में विद्यमान जगदीश्वर के लिये हम लोग (सोमम्) समस्त ऐश्वर्य्ययुक्त सांसारिक पदार्थों का (सुनवाम) निचोड़ करते हैं अर्थात् यथायोग्य सबको वर्त्तते हैं और जो (अरातीयतः) अधर्मियों के समान वर्त्ताव रखनेवाले दुष्ट जन के (वेदः) धन को (नि, दहाति) निरन्तर नष्ट करता है (सः) वह (अग्निः) विज्ञानस्वरूप जगदीश्वर जैसे मल्लाह (नावेव) नौका से (सिन्धुम्) नदी वा समुद्र के पार पहुँचाता है वैसे (नः) हम लोगों को (अति) अत्यन्त (दुर्गाणि) दुर्गति और (अतिदुरिता) अतीव दुःख देनेवाले (विश्वा) समस्त पापाचरणों के (पर्षत्) पार करता है, वही इस जगत् में खोजने के योग्य है ॥ १ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे मल्लाह कठिन बड़े समुद्रों में अत्यन्त विस्तारवाली नावों से मनुष्यादिकों को सुख से पार पहुँचाते हैं, वैसे ही अच्छे प्रकार उपासना किया हुआ जगदीश्वर दुःखरूपी बड़े भारी समुद्र में स्थित मनुष्यों को विज्ञानादि दानों से उसके पार पहुँचाता है, इसलिये उसकी उपासना करनेहारा ही मनुष्य शत्रुओं को हरा के उत्तम वीरता के आनन्द को प्राप्त हो सकता है, और का क्या सामर्थ्य है ॥ १ ॥इस सूक्त में ईश्वर के गुणों के वर्णन से इस सूक्त के अर्थ की पिछले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानना चाहिये ॥यह ९९ निन्नानवाँ सूक्त और ७ सातवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे (जातवेदः)  परब्रह्मन् ! आप जातवेद हो, उत्पन्नमात्र सब जगत् को जाननेवाले हो, सर्वत्र प्राप्त हो । जो विद्वानों से ज्ञात सबमें विद्यमान [जात अर्थात् प्रादुर्भूत अनन्त धनवान् वा अनन्त ज्ञानवान् हो, इससे आपका नाम जातवेद है] उन आपके लिए (वयम्, सोमं सुनवाम) जितने सोम–प्रिय-गुणविशिष्टादि हमारे पदार्थ हैं, वे सब आपके ही लिये हैं, सो आप हे कृपालो ! (अरातीयतः)  दुष्ट शत्रु जो हम धर्मात्माओं का विरोधी उसके (वेदः) धनैश्वर्यादि का (निदहाति) नित्य दहन करो, जिससे वह दुष्टता को छोड़के श्रेष्ठता को स्वीकार करे तथा (नः) हमको (दुर्गाणि, विश्वा) सम्पूर्ण दुस्सह दुःखों से (पर्षदति) पार करके आप नित्य सुख को प्राप्त करो । (नावेव, सिन्धुम्) जैसे अति कठिन नदी वा समुद्र से पार होने के लिए नौका होती है (दुरितात्यग्निः) वैसे ही हमको अत्यन्त पापजनित सब पीड़ाओं से पृथक् [भिन्न] करके संसार में और मुक्ति में भी परमसुख को शीघ्र प्राप्त करो ॥ ३३ ॥ 11
     

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    विषय

    दुर्गों व दुरितों से दूर

    पदार्थ

    १. गतसूक्त के अन्तिम मन्त्र के अनुसार यज्ञों में धनों का विनियोग करनेवाला पुरुष कामादि शत्रुओं से हिंसित नहीं होता । यह ज्ञानी बनता है , अतः ‘पश्यकः’ होने से ‘कश्यपः’ कहलाता है [पश्यक एव कश्यपो वर्णविपर्ययात्] । यह ‘मारीच’ व मरीचिपुत्र कहलाता है , क्योंकि यह [मृ अञ्च] मृत्युपर्यन्त क्रियाशील होता है । यह अस्वस्थ होकर खाट नहीं पकड़ लेता - खाट पर मरने को यह ठीक नहीं समझता । कार्यक्षेत्र में ही प्राण त्यागने को यह पुण्य मानता है । 

    २. यह कहता है कि हम (जातवेदसे) = प्रत्येक पदार्थ में विद्यमान उस प्रभु के लिए (सोमम्) = सोम को (सुनवाम) = अभिषुत करें - शरीर में सोम - शक्ति का सम्पादन करें । इस सोम के रक्षण से ही तो बुद्धि की तीव्रता सिद्ध होती है और उस तीव्र बुद्धि से हम प्रभु - दर्शन की योग्यता प्राप्त करते हैं । 

    ३. जो व्यक्ति धनों का यज्ञों में विनियोग नहीं करता , उस (अरातीयतः) = समाज के प्रति शत्रु की भाँति आचरण करनेवाले पुरुष के (वेदः) = धन को (निदहाति) = प्रभु भस्म कर देते हैं । धन को क्या भस्म कर देते हैं , उस धन से उस (अराति) = का ही दहन हो जाता है । प्रभु इस धन को नष्ट करके उस व्यक्ति का वस्तुतः कल्याण ही करते हैं । 

    ४. (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (विश्वा) = सब (दुर्गाणि) = दुर्गों व दुखेन मोक्तुं योग्य कष्टों [unbearable miseries] के (अतिपर्षत्) = पार पहुंचाते हैं । इन कष्टों से पार ले - जाने के लिए ही (अग्निः) = वे प्रभु सब (दुरिता) = दुराचारों से हमें (अति) = पार ले - जाते हैं , उसी प्रकार (इव) = जैसे (नावा सिन्धुम्) = नाव से समुद्र के पार ले - जाते हैं । नाव समुद्र के पार जाने का साधन है । प्रभु पापों और कष्टों से पार होने का साधन हैं । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु - प्राप्ति के लिए हम सोम [वीर्य] का संयम करें । इसके लिए धनों का दान करते हुए विलास - वृत्ति से ऊपर उठे । प्रभु - स्मरण हमें पापों व कष्टों से पार करता है । 
     

    विशेष / सूचना

    विशेष - वस्तुतः ‘कश्यप’ = ज्ञानी का जीवन निष्पाप बनता ही है । यह ज्ञानी मृत्युपर्यन्त क्रियाशील बना रहता है ‘मारीच’ । यह कश्यप अब ‘ऋज्राश्व , अम्बरीष , सहदेव , भयमान व सुराधस्’ बनता है । इसके इन्द्रियाश्व ऋजु व सरल मार्ग से गति करनेवाले होते हैं [ऋज्राश्व] , यह सदा प्रभु नामों का जप करता है [अम्बरीष , अम्बि शब्दे] , दिव्य गुणों के साथ इनका निवास होता है [सहदेव] प्रभु के भय में यह सदा चलता है [भयमान] और उत्तम आराधनावाला या कार्यों की सफलतावाला होने से ‘सुराधस्’ कहाता है । सबसे बड़ी बात यह कि यह ‘वार्षागिरः’ बनता है - इसकी वाणी सदा माधुर्य की वृष्टि करनेवाली होती है । यह प्रार्थना करता है -

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    विषय

    आचार्य और परमेश्वर की आराधनार्थ ऐश्वर्य प्राप्ति ।

    भावार्थ

    हम लोग (जातवेदसे) ऐश्वर्य के स्वामी को पुष्ट करने और ज्ञान सम्पन्न आचार्य के प्रसन्न करने के लिये (सोमम्) ऐश्वर्य का ( सुनवाम ) लाभ करें । वह (अरातीयतः) शत्रुता का आचरण करने वाले के ( वेदः ) धन को ( निदहाति ) सर्वथा भस्म करदे । वह ( नः ) हमें ( दुर्गाणि ) दुर्गम से दुर्गम दुःखप्रद कष्टों और ( दुरिता ) दुर्गतियों से ( नावा सिन्धुम् इव ) नावसे नदी के समान (अति पर्वत्) पार करे । परमेश्वर पक्ष में—हम ( जातवेदसे ) ज्ञान के एक मात्र आश्रय परमेश्वर को प्राप्त करने के लिये ( सोमम् सुनवाम ) ज्ञानानन्द को प्राप्त करें । वह शत्रुता करने वाले द्वेषबुद्धि वाले पुरुष के ज्ञान को नष्ट कर देता है । परमेश्वर हमें सब कठिन दशा और दुर्गंतों से पार करे । इति सप्तमो वर्ग ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यपो मरीचिपुत्र ऋषिः॥ अग्निर्जातवेदा देवता ॥ निचृत् त्रिष्टुप् । एकर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (2)

    विषय

    या सूक्तात ईश्वराच्या गुणांच्या वर्णनाने या सूक्ताच्या अर्थाची मागच्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर संगती आहे, हे जाणले पाहिजे. ॥

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे नाविक मोठ्या गहन समुद्रात विस्तीर्ण नावांद्वारे माणसे इत्यादींना सुखाने पलीकडे पोहोचवितात, तसा चांगल्या प्रकारे उपासना केलेला जगदीश्वर दुःखरूपी गहन अशा मोठ्या समुद्रात स्थित माणसांना विज्ञान इत्यादी दानांनी त्याच्या पलीकडे पोहोचवितो. त्यासाठी त्याची उपासना करणाराच शत्रूंचा पराभव करून उत्तम वीरता दाखवून आनंद प्राप्त करू शकतो. इतर कुणाचे असे सामर्थ्य असू शकते काय?

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    हे (जातवेदः) परब्रह्मा! तू जातवेद आहेस. सर्व जगाचा जाणता आहेस. पण तू सर्वत्र प्राप्त होऊ शकतोस, जो विद्वानाकडून ज्ञात होतो व सर्वांमध्ये विद्यमान आहे [जात म्हणजे प्रार्दुभूत अनंत धनवान किंवा अनन्त विद्यमान आहेस म्हणून तुझे नाव जातवेद आहे.] (वयं सोमं सुनवाम) सोम इत्यादी प्रिय गुण विशिष्ट पदार्थ आहेत ते तुझ्यासाठी अर्पण केले आहेत म्हणून हे कृपाळू [देवा] (अरातीयतः) जे दुष्ट शत्रू आम्हा धर्मात्म्यांच्या विरुद्ध आहेत त्यांच्या (वेदः) धन ऐश्वर्य इत्यादींचा (नि दहाति) [नित्य दहन कर] [त्यांचा] नाश कर, जेणे करून त्यांनी दुष्टता सोडावी व श्रेष्ठतेचा स्वीकार करावा. (नः) आम्हाला (दुर्गाणि विश्वा) संपूर्ण दुःखातून (पर्षदति) पार पाडावेत, नित्य सुखाची प्राप्ती व्हावी. (नावेव सिंधुम्) अतिशय दुर्गम कठिण नदी किंवा समुद्र पार करण्यासाठी जशी नौका असते (दुरितात्यग्निः) तसेच आम्हाला सगळ्या पापांच्या त्रासातून मुक्त करून जगात आणि मुक्तिमध्ये परम सुख दे. ॥३३॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    For the sake of Jatavedas Agni, lord omnipresent and omniscient of creation, we love and respect the abundant things of the world and, in a spirit of thanks to Him, distil every drop of soma joy from it. Indeed, He bums off the easy wealth of those who are jealous, hateful, ungrateful and wasteful. Just as a boatman helps us cross the river by boat, so does the omnipresent lord help us cross all the evils and the most difficult problems of life.

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    Purport

    O Supreme Spirit! You are 'Jätaveda'. You are the knower of all creation in this universe. You are Omnipresent, but realised only by learned. [You dewell in all, you are owner of unlimited material wealth and possesser of infinite knowledge, hence your name is Jätaveda']. All the 'Soma'-our all objects which are of loving and special qualities, are only for you. O gracious God, scorch away [burn up, put to ashes], all the wealth and other possessions of the wicked foe, who is opponent of righteous men, so that giving up his wickedness he should become noble. Take us across from all the unbearable miseries-sorrows and pains and put us in immortal bliss. Just as there is a boat to cross a deep Si river or ocean, similarly take us us accross from all miseries arisen from our sins. Bestow on us soon, bliss not only in this world but in salvation [in other world] also.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is God is taught in the first Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let us place at the disposal of that God Almighty, the Knower of all born beings, whatever wealth we possess, whose Eternal Vedic Lore completely scorches him who acts otherwise-inimical to His Commands. He burns or destroys the wealth of a wicked person. Then will that Self effulgent God, overcoming all evil, take us beyond all difficulties to the Supreme Goal of our life, like conveniently crossing a river in boat or crossing the ocean in a steamer.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (जातवेदसे ) यो जातं सर्वं वेत्ति विन्दति जातेषु विद्यमानोऽस्ति तस्मै॥ = To God who is Omniscient and Omnipresent. (सोमम्) सकलैश्वर्यम्, उत्पन्नं संसारस्थं पदार्थसमूहम् ॥ = All wealth or all objects that exist in the world. (षू-प्रसवैश्वर्ययोः) (अग्नि:) विज्ञानस्वरूपो जगदीश्वरः = God who knows all.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As sailors take men across an ocean easily and conveniently in steamers, so God when well-meditated upon, takes men seated in the midst of the great ocean of the world, full of miseries across by giving them true Wisdom. It is only the true devotees of God that can enjoy supreme bliss by conquering all enemies (both external and internal in the form of lust, anger, greed etc.). Others can not command power to do so.

    Translator's Notes

    This hymn of only one Mantra has connection with the previous hymn, as there is mention of God as in that hymn. Here ends the commentary on the 99th hymn of the first Mandala of the Rigveda.

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    बंगाली (1)

    পদার্থ

    জাতবেদসে সুনবাম সোমমরাতী যতো নি দহাতি বেদঃ।

    স নঃ পর্ষদতি দূর্গাণি বিশ্বা নাবেব সিন্ধুং দুরিতাত্যগ্নিঃ।।৭৮।।

    (ঋগ্বেদ ১।৯৯।১)

    পদার্থঃ (জাতবেদসে) উৎপন্ন চরাচরকে জ্ঞাত জগদীশ্বরের জন্য আমরা (সোমম্) সমস্ত ঐশ্বর্যযুক্ত সাংসারিক পদার্থের (সুনবাম) নিষ্কর্ষণ করি। তিনি (অরাতী য়তঃ) অধার্মিক দুষ্টজনের (বেদঃ) ধনকে (নি দহাতি) নিরন্তর নষ্ট করেন। (সঃ) তিনি (অগ্নিঃ) বিজ্ঞানস্বরূপ জগদীশ্বর। মাঝি যেমন (নাবেব) নৌকা দ্বারা (সিন্ধুম্) নদী বা সমুদ্রের পার করেন, সেরূপ [পরমাত্মা] (নঃ) আমাদের (অতিঃ) অত্যন্ত (দূর্গাণি) দুর্গতি, দুর্গম স্থান ও (অতি দুরিতা) অতি দুঃখদানকারী (বিশ্বা) সমস্ত পাপাচরণ থেকে (পর্ষৎ) পার করেন।

     

    ভাবার্থ

    ভাবার্থঃ পরমেশ্বর এই সমগ্র বিশ্ব ব্রহ্মাণ্ডের সকল কিছুর জ্ঞাতা। তিনি জানেন, কোন ব্যক্তি ধর্মের পথে রয়েছেন আর কোন ব্যক্তি অধর্মের পথে রয়েছে। যে ব্যক্তি অধর্মের পথে অসৎ উপায়ে ধনার্জন করে, তার ধন কখনই নিত্য নয়। এই অসৎ উপায়ে অর্জিত ধন সম্পদ সেই পরমেশ্বর একদিন না একদিন ঠিকই নষ্ট করে দিবেন। অপর দিকে, যারা ঈশ্বরের নির্দেশিত তথা বেদোক্ত পথে যারা অগ্রসর হন, তাদের যে কোনো বিপদ থেকে ঈশ্বরই রক্ষা করেন। মাঝি যেমন নৌকায় করে মনুষ্যদের নদী পার করিয়ে দেয়, তেমনি ধার্মিকজনদের ঈশ্বর সকল প্রকার বিপদ আপদ থেকে রক্ষা করে নির্দিষ্ট লক্ষ্যে পৌঁছিয়ে দেন।।৭৮।।

     

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे जातवेदः = परब्रह्मन् ! तपाईं जातवेद हुनुहुन्छ, उत्पन्नमात्र समस्त जगत् लाई जान्ने हुनुहुन्छ, तपाईं सर्वत्र प्राप्त हुनुहुन्छ । जुन विद्वान हरु द्वारा ज्ञात हुने सबैमा विद्यमान [जात अर्थात् प्रादुर्भूत अनन्त धनवान् वा अनन्त ज्ञानवान् हुनुहुन्छ, एस कारण तपाईंको नाम 'जातवेद' हो ।] तेस्तो तपाईंका लागी वयं, सोम, सुनवाम = जति पनि सोम-प्रिय गुणविशिष्ठादि हाम्रा पदार्थ छन् ती सबै प्रभुकै लागी हुन् । अतः हे कृपालो ! तपाईं अरातीयतः = दुष्ट शत्रु जो हामी धर्मात्माजन को विरोधी छ, तेसको वेदः = धन ऐश्वर्यादि लाई निदहाति = नित्य सन्तापित गरि दिनुहोस् जसले गर्दा तेसले दुष्टता छोडेर श्रेष्ठता लाई स्वीकार गरोस् तथा नः= हामीलाई दुर्गाणि, विश्वा= सम्पूर्ण दुस्सह, दुःख हरु बाट पर्षदति= पारितारेर तपाईले नित्य सुख प्राप्ति गराउनुहोस् । नावेव, सिन्धुम् = जस्तै अति कठिन नदी वा समुद्र बाट पार हुनका लागी नौका हुन्छ, तेसरी नै हामीलाई दुरितात्यग्निः = अत्यन्त पाप जनित समस्त पीडा हरु बाट पृथक् गरेर संसार मा र मुक्ति मा पनि चाँडै नै परम सुख प्राप्त गराउनु होस् ॥३३॥

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