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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 1/ मन्त्र 1
    ऋषिः - त्रितः देवता - अग्निः छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अग्रे॑ बृ॒हन्नु॒षसा॑मू॒र्ध्वो अ॑स्थान्निर्जग॒न्वान्तम॑सो॒ ज्योति॒षागा॑त् । अ॒ग्निर्भा॒नुना॒ रुश॑ता॒ स्वङ्ग॒ आ जा॒तो विश्वा॒ सद्मा॑न्यप्राः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । बृ॒हन् । उ॒षसा॑म् । ऊ॒र्ध्वः । अ॒स्था॒त् । निः॒ऽज॒ग॒न्वान् । तम॑सः । ज्योति॑षा । आ । अ॒गा॒त् । अ॒ग्निः । भा॒नुना॑ । रुश॑ता । सु॒ऽअङ्गः॑ । आ । जा॒तः । विश्वा॑ । सद्मा॑नि । अ॒प्राः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्रे बृहन्नुषसामूर्ध्वो अस्थान्निर्जगन्वान्तमसो ज्योतिषागात् । अग्निर्भानुना रुशता स्वङ्ग आ जातो विश्वा सद्मान्यप्राः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । बृहन् । उषसाम् । ऊर्ध्वः । अस्थात् । निःऽजगन्वान् । तमसः । ज्योतिषा । आ । अगात् । अग्निः । भानुना । रुशता । सुऽअङ्गः । आ । जातः । विश्वा । सद्मानि । अप्राः ॥ १०.१.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 1; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    तीनों लोकों में वर्त्तमान महान् अग्नि का विज्ञान उपदिष्ट किया जाता है।

    पदार्थ

    (उषसाम्-अग्रे) प्रतिदिन प्रभातवेलासम्बन्धी भासमान पीलिमाओं के उपरान्त (बृहन्-अग्निः) महान् अग्नि-सूर्य (ऊर्ध्वः-अस्थात्) ऊपर आकाश में उठता है (तमसः-निर्जगन्वान्) रात्रि या पृथिवीपृष्ठ से निकलता हुआ (ज्योतिषा-आगात्) निज ज्योति से सम्मुख प्रसिद्ध होता है (रुशता-भानुना स्वङ्गः-आजातः) जलते हुए-तपाते हुए प्रकाश से पूर्णाङ्ग हुआ भलीभाँति प्रसिद्ध हो जाता है (विश्वा सद्मानि-अप्राः) और सारे स्थानों-लोक-लोकान्तरों को पूर देता है-भर देता है ॥१॥

    भावार्थ

    प्रतिदिन प्रातर्वेलासम्बन्धी पीलिमाओं के उपरान्त महान् अग्नि सूर्य ऊपर आकाश में रात्रि या पृथिवी-पृष्ठ से निकलकर आता है; तब अपने तापक प्रकाश से सब स्थानों, लोक-लोकान्तरों को प्रकाशित कर देता है। ऐसे ही विद्यासूर्य विद्वान् अज्ञानान्धकार को नष्ट करता है-करे ॥१॥

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    विषय

    'त्रित आप्त्य'

    पदार्थ

    [१] प्रस्तुत मन्त्रों का ऋषि 'त्रित आप्त्य' है, जो 'त्रीन् तनोति' शरीर, मन व बुद्धि इन तीनों का विकास करता है अथवा 'त्रीन् तरति ' काम, क्रोध व लोभ तीनों को तैर जाता है और अतएव तीनों 'आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक' कष्टों से भी पार हो जाता है वह 'त्रित' सब अशिवों को इसी पार छोड़कर परले पार सब शिव वाजों [शक्तियों] को प्राप्त करने से ' आप्त्य' =प्राप्त करनेवाले उत्तम कहलाता है । [२] यह ऐसा इसलिए बन पाया कि यह (उषसाम्) = उष:कालों के (बृहत् अग्रे) = बड़ा आगे, अर्थात् बहुत ही सबेरे [earlyin the morning] (ऊर्ध्व: अस्थात्) = ऊपर उठ खड़ा होता है। यह समय 'ब्राह्ममुहूर्त' कहलाता है, यह ब्रह्म के मिलने का समय होता है । इस समय सोते रहना तो अपना बड़ा नुकसान करना है। 'अच्छानक्षि द्युमत्तमं रयिं दा: ' इन शब्दों में वेद कह रहा है कि इस समय प्रभु [अच्छः] तुम्हारी ओर [नक्षि] आते हैं और देदीप्यमान धन प्राप्त कराते हैं। हम सोये ही रह जाएँगे तो प्रभु का स्वागत करके उस द्युमत्तम रयि के प्राप्त करने से वञ्चित ही रह जाएँगे। सो त्रित बहुत ही सबेरे उठता है, वह प्रभु के स्वागत के लिये तैयार होता है। अब यह ('निर्जगन्वान्') = घर से बाहर लम्बे भ्रमण के लिये निकल खड़ा होता है । यह प्रातः भ्रमण के लाभ को समझता है । उस समय ही खुली शुद्ध वायु में ओजोष के अंश अधिक मात्रा में रहते हैं । इसीलिए देव ('प्रातर्यावाणः') = प्रातः भ्रमण के लिये जाने के स्वभाव वाले हैं। एक विद्वान् ने अपना अनुभव 'Long walk, long life' - ' लम्बा भ्रमण, लम्बा जीवन' इन शब्दों में व्यक्त किया है । [३] भ्रमण से लौटकर यह 'त्रित' (तमसः) = अन्धकार को छोड़कर (ज्योतिषा अगात्) = प्रकाश के साथ विचरण करता है । अर्थात् यह स्वाध्याय के द्वारा ज्ञान की दीप्ति को बढ़ाने का प्रयत्न करता है। [४] इस प्रकार यह प्रतिदिन (अग्निः) = आगे और आगे बढ़नेवाला होता है। इसके जीवन का सूत्र ही 'ऋषि' हो जाता है। आगे बढ़ना है 'अति समं क्राम' बराबर वालों से लाँघ जाना है यह इसका ध्येय होता है। (रुशता भानुना) = चमकती हुई ज्ञान की दीप्ति से युक्त होकर यह (स्वंगः) = [ सु-अगि गतौ] उत्तम गतिवाला होता है। एक-एक अंग से उत्तम क्रियाओं को यह करनेवाला होता है। ज्ञान पूर्वक कर्म करने से इसके सब कार्य बड़े पवित्र होते हैं। यह इन पवित्र कर्मों से (आजातः) = सब दृष्टिकोणों से विकास वाला होता है। 'शरीर, मन व बुद्धि' सभी में यह शक्तियों को विकसित करता है, और (विश्वा) = सब (सद्मानि) = घरों व कोशों का (अप्रा:) = पूरण करता है। 'युक्ताहार विहार' के द्वारा अन्नमय कोश की कमियों को नष्ट करता है, 'प्राणायाम' इसके प्राणमय कोश का पूरण करता है, 'सत्य' से यह मनोमय कोश को पवित्र करता है 'स्वाध्याय' के द्वारा विज्ञानमय कोश का विकास करता है और कारण शरीर में विचारता हुआ सब प्राणियों के साथ एकत्व के अनुभव से पूर्ण आनन्द में विचरता है। यह 'एकत्वदर्शन' ही आनन्दमय कोश का पूरण है। एवं सब कोशों का पूरण करनेवाला यह सचमुच 'आप्त्य' होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमें 'प्रातः उठना, भ्रमण के लिये जाना, स्वाध्याय, आगे बढ़ना, ज्ञानपूर्वक उत्तम क्रियाओं को करना, विकास व सब कोशों का पूरण' यही अपना कार्यक्रम बनाना चाहिये ।

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    विषय

    अग्नि। सूर्य के तुल्य तेजस्वी पुरुष के कर्त्तव्य, शत्रु विजय। विद्वान् का कर्त्तव्य ज्ञान-प्रसार।

    भावार्थ

    (अग्रे) सबसे पूर्व जिस प्रकार (बृहन् अग्निः) महान् अग्नि (रुशता भानुना) चमकते प्रकाश से और (उषसाम् ज्योतिषा) उषाओं की ज्योति से (निःजगन्वान्) निकलता हुआ (तमसः ऊर्ध्वः) अन्धकार के भी ऊपर (अस्थात्) विराजता और (ऊर्ध्वः आगात्) ऊपर उठता है और (सु-अङ्गः जातः) तेजस्वी होकर (विश्वा सद्मानि आ अप्राः) सब लोकों को अपने दीप्त प्रकाश से पूर्ण करता है। उसी प्रकार तेजस्वी पुरुष भी (बृहन्) महान् (उषसाम्) तेजस्वी पुरुषों के शत्रुनाशक बलों और कामनायुक्त प्रजाओं के ऊपर विराजे, (निर्जर्गन्वान्) निकलता हुआ, उदय को प्राप्त होकर शत्रु रूप तम को पराजय करे, (सु-अङ्गः) उत्तम तेजस्वी, सुदृढ़ अंग होकर (विश्वा सद्मानि आ अप्राः) सब गृहों, आश्रमों और पदों को अपने तेज से पूर्ण करता है। (२) इसी प्रकार बड़ा विद्वान् भी ज्ञान-ज्योति से उदय हो, ज्ञानेच्छुकों के ऊपर विराजे, सबको गृहों के समान ज्ञान-प्रकाशों से पूर्ण करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    त्रित ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:-१, ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। २, ३ विराट् त्रिष्टुप्। ४, ५ निचृत्त्रिष्टुप्। ७ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    लोकत्रये वर्तमानस्य बृहतोऽग्नेर्विज्ञानमुपदिश्यते।

    पदार्थः

    (उषसाम्-अग्रे) प्रतिदिनं प्रभातवेलोपलक्षितानां भासामनन्तरम् (बृहन्-अग्निः) सूर्यात्मको महान्-अग्निः (ऊर्ध्वः-अस्थात्) उपर्याकाशे स्थितो भवति-उत्तिष्ठति (तमसः-निर्जगन्वान्) यदा रात्रेः “तमः-रात्रिनाम” [निघ०१।७] यद्वा पृथिवीच्छायातः-पृथिवीपृष्ठादितियावत् “तमश्छाया” [ऐ० ७।१२] निर्गतः सन् (ज्योतिषा-आगात्) स्वज्योतिषा पूर्णः सम्मुखमायाति (रुशता-भानुना स्वङ्गः-आजातः) प्रज्वलता “रुशत्-रोचतेर्ज्वलतिकर्मणः” [निरु० ६।१३] प्रकाशेन पूर्णाङ्गः समन्तात् प्रसिद्धः सन् (विश्वा सद्मानि-अप्राः) सर्वाणि स्थानानि-लोकलोकान्तराणि पूरयति। “छन्दसि लुङ्लङ्लिटः” [अष्टा० ३।४।६] इति सामान्यकाले लङ् ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    There on the eastern horizon, with the first lights of the dawn emerging out of darkness, rises up the sun, mighty Agni, great and glorious with radiant light, and as it rises it covers and lights up all regions of the world.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रतिदिन प्रात:काळी भासमान पीतवर्णानंतर महान अग्नी सूर्य आकाशात रात्री किंवा पृथ्वी पृष्ठातून निघून येतो तेव्हा आपल्या तापक प्रकाशाने सर्व स्थान व लोकलोकान्तरांना प्रकाशित करतो. असाच विद्यासूर्य विद्वान अज्ञानांधकाराला नष्ट करतो किंवा त्याने नष्ट करावे. ॥१॥

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