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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 104 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 104/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अष्टको वैश्वामित्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    असा॑वि॒ सोम॑: पुरुहूत॒ तुभ्यं॒ हरि॑भ्यां य॒ज्ञमुप॑ याहि॒ तूय॑म् । तुभ्यं॒ गिरो॒ विप्र॑वीरा इया॒ना द॑धन्वि॒र इ॑न्द्र॒ पिबा॑ सु॒तस्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    असा॑वि । सोमः॑ । पु॒रु॒ऽहू॒त॒ । तुभ्य॑म् । हरि॑ऽभ्याम् । य॒ज्ञम् । उप॑ । या॒हि॒ । तूय॑म् । तुभ्य॑म् । गिरः॑ । विप्र॑ऽवीराः । इ॒या॒नाः । द॒ध॒न्वि॒रे । इ॒न्द्र॒ । पिब॑ । सु॒तस्य॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    असावि सोम: पुरुहूत तुभ्यं हरिभ्यां यज्ञमुप याहि तूयम् । तुभ्यं गिरो विप्रवीरा इयाना दधन्विर इन्द्र पिबा सुतस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    असावि । सोमः । पुरुऽहूत । तुभ्यम् । हरिऽभ्याम् । यज्ञम् । उप । याहि । तूयम् । तुभ्यम् । गिरः । विप्रऽवीराः । इयानाः । दधन्विरे । इन्द्र । पिब । सुतस्य ॥ १०.१०४.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 104; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 24; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में परमात्मा अपने उपासकों के दुःख दूर करता है, मृत्यु तक से पार करता है, उन्हें अपने आनन्द से तृप्त करता है, उसकी श्रद्धा से स्तुति प्रार्थना उपासना करनी चाहिये इत्यादि विषय वर्णित हैं।

    पदार्थ

    (पुरुहूत-इन्द्र) हे बहुत प्रकारों से बुलाने योग्य या बहुत बुलाने योग्य ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (तुभ्यम्) तेरे लिए (सोमः) हमारे द्वारा उपासनारस (असावि) सम्पादित किया है (यज्ञम्) हमारे अध्यात्मयज्ञ के प्रति (हरिभ्याम्) दुःख हरण करनेवाले कृपाप्रसाद के साथ (तूयम्) शीघ्र (उप याहि) प्राप्त हो (तुभ्यम्) तेरे लिये (विप्रवीराः) मेधावी प्रेरक (गिरः) स्तुतियों को (इयानाः) गमनशील (दधन्विरे) प्रेरित करते हैं (सुतस्य) निष्पादित उपासनारस को (पिब) स्वीकार कर ॥१॥    

    भावार्थ

    जो परमात्मा की उपासना करता है या परमात्मा के लिये उपासनारस समर्पित करता है, परमात्मा अपने कृपाप्रसाद के द्वारा उसका दुःख हरण करता हुआ प्राप्त होता है तथा उसके लिये जो स्तुति करते हैं, वह स्वीकार करता है ॥१॥

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    विषय

    सोम का उत्पादन व रक्षण

    पदार्थ

    [१] हे (पुरुहूत) = बहुतों से पुकारे जानेवाले प्रभो! (तुभ्यम्) = आपकी प्राप्ति के लिए (सोमः) = सोम (असावि) = उत्पन्न किया गया है। इस सोम के रक्षण से ज्ञानाग्नि की दीप्ति के द्वारा आपका दर्शन होता है। वस्तुतः सोमरक्षण का सब से बड़ा लाभ यही है कि यह प्रभु प्राप्ति का साधन बनता है । [२] हे प्रभो ! आप (हरिभ्याम्) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों के साथ (यज्ञम्) = हमारे जीवनयज्ञ को उपयाहि समीपता से प्राप्त होइये। हमें उत्तम ज्ञानेन्द्रियाँ व कर्मेन्द्रियाँ प्राप्त हों। इनके द्वारा ही तो हम इस जीवनयज्ञ को पूर्ण कर सकेंगे। [३] (तुभ्यम्) = आपके प्राप्ति के लिए ही (विप्रवीराः) = [विप्राः वीराः विशेषेण ईरयितारः या सा] ज्ञानी पुरुषों से विशेषरूप से प्रेरित की जानेवाली (इयानाः) = गमनशील क्रियाओं से युक्त (गिरः) = स्तुति वाणियाँ (दधन्विरे) = धारण की जाती हैं। ज्ञानी पुरुष प्रभु का स्तवन करते हैं, उन स्तुति वाणियों के अनुसार क्रियाशील होते हैं । यह क्रियामय स्तुति ही प्रभु प्राप्ति का साधन बनती है । [४] (इन्द्र) = हे परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (सुतस्य) = इस उत्पन्न हुए हुए सोम का (पिबा) = पान करिये। आपके स्तवन से ही वासनाओं का विनाश होता है और तभी सोम के रक्षण का सम्भव होता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में उत्पन्न सोमशक्ति के रक्षण से प्रभु प्राप्ति का सम्भव होता है। यह रक्षण भी प्रभु - स्तवन के द्वारा ही होता है। इसके रक्षण से इन्द्रियों की शक्ति का वर्धन होता है और जीवन-यज्ञ सुन्दरता से पूर्ण होता है ।

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    विषय

    इन्द्र। प्रभु के तुल्य राजा के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    हे (पुरुहूत) बहुतों से स्वीकृत (तुभ्यम्) तेरे लिये वा तेरा ही यह (सोमः) पुत्रवत् उत्पन्न जगत् (असावि) उत्पन्न होता है। तू (यज्ञम्) इस महान् जगत् रूप यज्ञ को (हरिभ्याम्) धारण, आकर्षण, अग्नि और जल, इन दोनों शक्तियों से (तूयम् उप याहि) शीघ्र ही प्राप्त होता है। (वि-प्र-वीराः) बुद्धिमान् उत्तम स्तुतियों को कहने वाले और वीर पुरुष (तुभ्यम्) तेरे ही लिये, तुझे ही लक्ष्य करने वाली, वा तेरी ही (गिरः दधन्विरे) वाणियों को धारण करते हैं। हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! शक्तिशालिन् ! अन्न जल के दाता प्रभो ! तू (सुतस्य पिब) इस समस्त उत्पन्न जगत् को पुत्रवत् पालन कर। (२) इसी प्रकार राजा के भी कर्त्तव्य हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्टको वैश्वामित्रः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:- १, २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप्। ३, ४ विराट् त्रिष्टुप्। ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्ते परमात्मा स्वोपासकानां दुःखानि दूरीकरोति मृत्युतश्च पारयति स्वानन्देन तान् तर्पयति तस्य श्रद्धया स्तुतिप्रार्थनोपासनाः कार्या इत्येवमादयो विषया वर्ण्यन्ते।

    पदार्थः

    (पुरुहूत-इन्द्र) हे बहुभिः प्रकारैः-ह्वातव्य, यद्वा बहुह्वातव्य ! ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (तुभ्यं सोमः-असावि) तुभ्यमस्माभि-रुपासनारसः “रसः सोमः” [श० ७।३।१।३] सम्पादितः (यज्ञं हरिभ्यां तूयम्-उप याहि) अस्माकमध्यात्मयज्ञं दुःखहरणाभ्यां कृपाप्रसादाभ्यां सह शीघ्रमुपागतो भव (तुभ्यं विप्रवीराः-गिरः-इयाना-दधन्विरे) तुभ्यं मेधावि प्रेरयितारः-त्वां प्रति स्तुतिः-गमनशीलाः “ईङ् गतौ” ताच्छीलिकः चानश् प्रत्ययः “ताच्छील्यवयोवचनशक्तिषु चानश्” [अष्टा० ३।२।१२९] त्वां प्रति गमयन्ति “धवि गत्यर्थः” [भ्वादि०] (सुतस्य पिब) सुतं निष्पादितमुपासनारसम् “ द्वितीयास्थाने षष्ठी व्यत्ययेन” स्वीकुरु “न घा त्वद्रिगप वेति मे मनस्त्वे इत्कामं पुरुहूत शिश्रय। राजेव दस्म निषदोऽधि बर्हिष्यस्मिन्त्सु सोमेऽवपानमस्तुते” [ऋ० १०।४३।२] यथाऽत्र सोमपानमिन्द्राय परमात्मने प्रस्तूयते तद्वत् प्रस्तुतमन्त्रेऽपि ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, omnipotent ruler of the world, lord invoked by all people, our soma of love and adoration is prepared and seasoned for you, come soon to our yajna by the radiations of your refulgent presence. Vibrant poets and sages have prepared songs of adoration for you. Pray come, accept and enjoy our homage, and protect and promote this world of your own creation for us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो परमात्म्याची उपासना करतो किंवा परमात्म्याला उपासना रस समर्पित करतो. परमात्मा आपल्या कृपाप्रसादाने त्याचे दु:ख हरण करतो. त्याची स्तुती करणाऱ्यांचा स्वीकार करतो. ॥१॥

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