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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 111 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 111/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अष्ट्रादंष्ट्रो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    मनी॑षिण॒: प्र भ॑रध्वं मनी॒षां यथा॑यथा म॒तय॒: सन्ति॑ नृ॒णाम् । इन्द्रं॑ स॒त्यैरेर॑यामा कृ॒तेभि॒: स हि वी॒रो गि॑र्वण॒स्युर्विदा॑नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मनी॑षिणः । प्र । भ॒र॒ध्व॒म् । म॒नी॒षाम् । यथा॑ऽयथा । म॒तयः॑ । सन्ति॑ । नृ॒णाम् । इन्द्र॑म् । स॒त्यैः । आ । ई॒र॒या॒म॒ । कृ॒तेभिः॑ । सः । हि । वी॒रः । गि॒र्व॒ण॒स्युः । विदा॑नः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मनीषिण: प्र भरध्वं मनीषां यथायथा मतय: सन्ति नृणाम् । इन्द्रं सत्यैरेरयामा कृतेभि: स हि वीरो गिर्वणस्युर्विदानः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मनीषिणः । प्र । भरध्वम् । मनीषाम् । यथाऽयथा । मतयः । सन्ति । नृणाम् । इन्द्रम् । सत्यैः । आ । ईरयाम । कृतेभिः । सः । हि । वीरः । गिर्वणस्युः । विदानः ॥ १०.१११.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 111; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 10; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में परमात्मा वेद और ब्रह्माण्ड का रचयिता सर्वत्र व्यापक अज्ञाननाशक स्तुति करनेवालों को मोक्ष में प्रेरक उनके दोषों का निवारक है इत्यादि विषय हैं।

    पदार्थ

    (मनीषिणः) हे मेधावी योगी स्तोताजनों ! तुम (मनीषाम्) स्तुति को (प्र भरध्वम्) ऐश्वर्यवान् परमात्मा के लिये प्रचरित करो-समर्पित करो (नृणाम्) तुम मनुष्यों की (यथा यथा) जैसी-जैसी (मतयः) कामनाएँ (सन्ति) हैं-हों (सत्यैः कृतेभिः) हम भी सत्यकर्मों से मन वाणी शरीर के द्वारा सद्विचार सत्यभाषण सदाचरणों से (इन्द्रम्-आ-ईरयाम) परमात्मा को अपने अन्दर लावें, यतः (सः-वीरः-हि) वह कमनीय वस्तुओं का दाता ही (गिर्वणस्युः) स्तुति करनेवाले को चाहता हुआ (विदानः) जानता हुआ सदा वर्त्तमान है ॥१॥

    भावार्थ

    मेधावी योगी स्तुति करनेवाले जनों की जो-जो कामनाएँ होती हैं, परमात्मा पूरी करता है, सद्विचारों, सत्यभाषणों व सदाचरणों से परमात्मा अपनाया हुआ मनुष्यों के हृदयों में वर्त्तमान रहता है ॥१॥

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    विषय

    मनीषा का प्रभरण

    पदार्थ

    [१] हे (मनीषिणः) = बुद्धिमान् पुरुषो! (मनीषां प्रभरध्वम्) = मन को वश में करनेवाली [मनसः ईशित्रीम् ] बुद्धि का (प्रभरध्वम्) = खूब ही भरण करो। इस प्रकार बुद्धि का भरण करो (यथा यथा) = जिससे कि उत्तरोत्तर (नृणम्) = मनुष्यों के (मतयः) = ज्ञान (सन्ति) = प्रादुर्भूत होते चलें । बुद्धि के बिना ज्ञानवृद्धि का सम्भव कहाँ ? [२] इस प्रकार बुद्धि को सूक्ष्म बनाकर ज्ञानवृद्धि को करते हुए हम (इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (सत्यैः कृतेभिः) = सत्य कर्मों के द्वारा (एरयाम) = अपने अन्दर प्रेरित करनेवाले हों । वस्तुतः उत्तमता से किये गये कर्मों के द्वारा ही प्रभु का उपासन होता है । (सः) = वे प्रभु (हि) = ही (वीरः) = विशिष्टरूप से हमारे काम-क्रोधादि सब शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाले हैं। (गिर्वणस्युः) = स्तोताओं को हित को चाहनेवाले हैं तथा (विदानः) = ज्ञानस्वरूप हैं, उपासकों के जीवन को ज्ञान ज्योति से दीप्त करनेवाले हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम बुद्धि को सूक्ष्म बनाते हुए ज्ञान का सम्पादन करें। सत्यकर्मों द्वारा प्रभु करें। प्रभु हमारे शत्रुओं को नष्ट करते हैं ।

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    विषय

    इन्द्र। इन्द्र प्रभु की स्तुति।

    भावार्थ

    हे (मनीषिणः) बुद्धिमान्, उत्तम स्तुति करने वाले जनो ! (यथा-यथा) जैसी जैसी (नृणां मतयः सन्ति) श्रेष्ठ मनुष्यों की बुद्धियां वा ज्ञान होते हैं वैसी-वैसी ही (मनीषाम् प्र भरध्वम्) स्तुति करो। हम (सत्यैः कृतेभिः) अपने सत्य आचरणों से (इन्द्रम् आ ईरयाम) उस प्रभु को अपनी ओर आकर्षित करें। (सः हि वीरः) वह विविध ज्ञानों का देने वाला, विविध लोकों को सञ्चालन करने वाला, बलशाली, प्रभु (विदानः) सब कुछ जानने हारा है। वह (गिर्वणस्युः) वाणी द्वारा उपासना करने वाले भक्त को चाहता और उसका स्वामी है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरष्ट्रादष्ट्रो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ त्रिष्टुप्। ३, ६, १० विराट त्रिष्टुप्। ५, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ८ पादानिचृत् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    सूक्तेऽस्मिन् परमात्मा वेदस्य ब्रह्माण्डस्य च रचयिता सर्वत्र व्यापकोऽज्ञाननाशकः स्तुतिकर्तॄन् मोक्षे प्रेरयिता तेषां दोषनिवारकश्चेत्येवमादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (मनीषिणः) हे मेधाविनो योगिनः स्तोतारः ! “मनीषी मेधाविनाम” [निघ. ३।१५] मनीषिणः-मनसः ईषिणो योगिनः [यजु. १७।२० दयानन्दः] यूयं (मनीषां प्र भरध्वम्) स्तुतिम् “मनीषया स्तुत्या” [निरु. २।२५] ऐश्वर्यवने परमात्मने समर्पयत (नृणां यथायथा मतयः सन्ति) युष्माकं मनुष्याणां यथा यथा कामाः सन्ति पूरयिष्यतीत्याशयः (सत्यैः कृतेभिः-इन्द्रम्-आ-ईरयाम) वयमपि सत्यैः, कर्मभिः-मनसा वाचा, शरीरेण च कृतैः सद्विचारैः सत्यभाषणैः सदाचरणैः-परमात्मानं स्वान्तरे-आनयाम यतः (सः-हि वीरः-गिर्वणस्युः-विदानः) स हि परमात्मा कमनीयानां वस्तूनां दाता तथा ये गीर्भिः स्तुतिभिर्वनन्ति तान् गीर्वणसः कामयमानः ‘गी गिः, ह्रस्वत्वं छान्दसम्’ ‘सुप आत्मनः क्यच्’ पुनः ‘क्यचि च’ [अष्टा० ३।२।१७०] उः प्रत्ययः सर्वेषामपीष्टान् जानन् वर्त्तते ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O men of thought and wisdom, judgement and reflection, bear your thoughts and offer your songs and prayers to Indra according to whatever are the thoughts and faith of the people. With our sincere thoughts, words and actions, we praise and pray to Indra. He alone is the lord omnipotent and generous, he alone knows all that is, and he knows and accepts the thoughtful celebrant.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मेधावी, योगी, स्तुती करणाऱ्या जनांच्या ज्या ज्या कामना असतात, त्या परमात्मा पूर्ण करतो. सद्विचार, सत्यभाषण व सदाचरणाने परमात्म्याला अंगीकारणाऱ्या माणसांच्या हृदयात तो राहतो. ॥१॥

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