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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 113 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 113/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शतप्रभेदनो वैरूपः देवता - इन्द्र: छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    तम॑स्य॒ द्यावा॑पृथि॒वी सचे॑तसा॒ विश्वे॑भिर्दे॒वैरनु॒ शुष्म॑मावताम् । यदैत्कृ॑ण्वा॒नो म॑हि॒मान॑मिन्द्रि॒यं पी॒त्वी सोम॑स्य॒ क्रतु॑माँ अवर्धत ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । अ॒स्य॒ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । सऽचे॑तसा । विश्वे॑भिः । दे॒वैः । अनु॑ । शुष्म॑म् । आ॒व॒ता॒म् । यत् । ऐत् । कृ॒ण्वा॒नः । म॒हि॒मान॑म् । इ॒न्द्रि॒यम् । पी॒त्वी । सोम॑स्य । क्रतु॑ऽमान् । अ॒व॒र्ध॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमस्य द्यावापृथिवी सचेतसा विश्वेभिर्देवैरनु शुष्ममावताम् । यदैत्कृण्वानो महिमानमिन्द्रियं पीत्वी सोमस्य क्रतुमाँ अवर्धत ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । अस्य । द्यावापृथिवी इति । सऽचेतसा । विश्वेभिः । देवैः । अनु । शुष्मम् । आवताम् । यत् । ऐत् । कृण्वानः । महिमानम् । इन्द्रियम् । पीत्वी । सोमस्य । क्रतुऽमान् । अवर्धत ॥ १०.११३.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 113; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में राजधर्म सङ्ग्रामजय के प्रकार कहे हैं, राष्ट्र में ज्ञान-प्रधानगण, श्रम-प्रधानगण सावधान हो राजा का सहयोग दें, शस्त्रास्त्रसमृद्धि करनी चाहिये, सङ्ग्राम में बलप्रदर्शन, प्रजारक्षा करनी चाहिये वर्णित हैं।

    पदार्थ

    (अस्य) इस राजा के (तम्) उस (शुष्मम्-अनु) बलशासन के अनुसार (सचेतसा) सावधान (द्यावापृथिवी) द्युलोक पृथिवीलोक के समान ज्ञानप्रधान-राजगण और श्रमप्रधान प्रजागण ये दोनों (विश्वेभिः-देवैः) सब अपने-अपने गुण कर्मों को प्रकाशित करते हुओं के साथ (आवताम्) राष्ट्र में भलीभाँति प्रगति करें-राष्ट्र को उन्नत करें (यत्) जब (इन्द्रियम्) इन्द्र-राजा के इस (महिमानम्) प्रभाव-पराक्रम को (कृण्वानः) करने के हेतु (ऐत्) राजा जावे या जाने को उद्यत होवे (क्रतुमान्) वह कर्मवान्-कर्मशील (सोमस्य) ऐश्वर्यरूप राष्ट्र को (पीत्वी) पालन करके (अवर्धत) बढ़ता है-समृद्धिमान् यशस्वी होता है ॥१॥

    भावार्थ

    राजा के शासन के अनुसार ज्ञानप्रधान राजगण और श्रमप्रधान प्रजागण चाहिये तथा राष्ट्र के नीतिनिष्णात विद्वानों के साथ राष्ट्र की समृद्धि के लिये प्रगति करें। राजा भी राष्ट्र का पालन करके ही समृद्ध और यशस्वी होता है ॥१॥

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    विषय

    सचेतसा द्यावापृथिवी

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस 'शतप्रभेदन' के [ = शतशः अशुभ वृत्तियों का भेदन करनेवाले के] (सचेतसा) = समानरूप से चेत जानेवाले, जाग जानेवाले, विकसित शक्ति होनेवाले, (द्यावापृथिवी) = मस्तिष्क व शरीर (विश्वेभिः देवैः) = सब दिव्यगुणों के साथ (तम्) = उस (शुष्मम्) = शत्रु-शोषक बल को (अनु आवताम्) = अनुकूलता से रक्षित करनेवाले होते हैं। इसका मस्तिष्क रूप द्युलोक ज्ञान के सूर्य के उदय से जाग-सा उठता है, शरीर भी शक्ति से चेतन हो जाता है, स्फूर्ति-सम्पन्न हो जाता है ऐसा होने पर इसके हृदय में भी दिव्य भावनाओं का जागरण होता है । द्युलोक व पृथिवीलोक के ठीक होने से इसका अन्तरिक्षलोक भी ठीक हो जाता है। [२] यह सब होता तब है (यद्) = जब कि यह (महिमानम्) = [मह पूजायाम्] परमेश्वर की पूजा को (कृण्वानः) = करता हुआ (ऐत्) = गति करता है। इस प्रभु-पूजन के द्वारा यह (इन्द्रियम्) = वीर्य व बल को सम्पादित करता हुआ गति करता है। इस प्रकार प्रभु-पूजन से वासनाओं को विनष्ट करके यह (सोमस्य पीत्वी) = सोम का पान करके वीर्य का रक्षण करके (क्रतुमान्) = शक्ति व प्रज्ञावाला होता हुआ (अवर्धत) = निरन्तर बढ़ता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सोम का रक्षण करते हुए क्रतुमान् बनें। हृदय में हमारे प्रभु-पूजन का भाव हो, शरीर शक्ति सम्पन्न होकर कर्मव्यापृत हो ।

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    विषय

    इन्द्र। सूर्यवत् प्रमुख शासक के कर्त्तव्यों का वर्णन।

    भावार्थ

    (यत्) सूर्य जिस प्रकार (क्रतुमान्) कर्म सामर्थ्य से सम्पन्न होकर (सोमस्य पीत्वी) सोम का पान कर, (महिमानं इन्द्रियं कृण्वानः) बड़े भारी ऐश्वर्य को उत्पन्न करता हुआ, (एैत्) प्राप्त होता है और (अस्य शुष्मम्) इसके सर्वशोषक तेज को (द्यावा पृथिवी अनु आवताम्) आकाश और भूमि दोनों प्राप्त करते हैं। उसी प्रकार (क्रतुमान्) कर्म सामर्थ्यवान् पुरुष (सोमस्य पीत्वी) ऐश्वर्य वा प्रजागण का पालन करके, (महिमानं इन्द्रियं कृण्वानः) महान् इन्द्रोचित ऐश्वर्य को प्रकट करता हुआ (यत् ऐत) जब प्राप्त होता है तब (स चेतसा) समान चित्त वाले, (द्यावा पृथिवी) शास्य और शासक वर्ग (विश्वेभिः देवैः) समस्त विद्वानों सहित (अस्य शुष्मम् अनु) इसके बल के पीछे (अनु आवताम्) अनुगमन करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिः शतप्रभदनो वैरूपः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्द:– १, ५ जगती। ३, ६, ९ विराड् जगती। ३ निचृज्जगती। ४ पादनिचृज्जगती। ७, ८ आर्चीस्वराड् जगती। १० पादनिचृत्त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अस्मिन् सूक्ते राजधर्माः सङ्ग्रामजयप्रकाराश्च वर्ण्यन्ते, राष्ट्रे ज्ञानप्रधानगणः श्रमप्रधानगणः सर्वदा सावधानतया सहयोगं राज्ञे दद्युः। शस्त्रास्त्रसमृद्धिश्च कार्या, राज्ञा सङ्ग्रामे बलप्रदर्शनं प्रजारक्षणं च कार्यम्।

    पदार्थः

    (अस्य) एतस्येन्द्रस्य राज्ञः (तं शुष्मम्-अनु) तं बलं शासनमनुसृत्य (सचेतसा) सावधानौ (द्यावापृथिवी) द्यावापृथिव्याविव ज्ञानप्रधानराजगणः, श्रमप्रधानराजगणश्च तावुभौ गणौ (विश्वेभिः-देवैः) सर्वैः स्वस्य गुणकर्मप्रकाशयद्भिः सह (आवताम्) राष्ट्रं समन्ताद् गच्छताम् “अव रक्षणगति…” [भ्वादि०] (यत्) यदा (इन्द्रियम्-महिमानं कृण्वानः-ऐत्) इन्द्रस्येदं राजसम्बन्धिनं महिमानं प्रभावं पराक्रमं कुर्वाणः कर्त्तुं हेतोः-गच्छति गन्तुमुद्यतो भवेत् (क्रतुमान् सोमस्य पीत्वी-अवर्धत) स कर्मवान्-ऐश्वर्यरूपराष्ट्रम् “व्यत्ययेन द्वितीयास्थाने षष्ठी” पालयित्वा वर्धते, समृद्धिमान् यशस्वी भवति ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May heaven and earth along with all the nobilities of nature and humanity, all of equal and agreeable mind, follow, protect and promote the might of Indra, this ruling power of the world, when he goes forward to display that power and grandeur of his mind and senses and, exalted by the happy and exhilarating glory of his dominion in action, rises in greatness and majesty.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाच्या शासनानुसार ज्ञानप्रधान राजगण व श्रमप्रधान राजगण असले पाहिजेत व राष्ट्राच्या नीतिनिपुण विद्वानांबरोबर राष्ट्राच्या समृद्धीसाठी प्रगतीयुक्त कार्य केले पाहिजे. राजाही राष्ट्राचे पालन करूनच समृद्ध व यशस्वी होतो. ॥१॥

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