ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 114/ मन्त्र 1
ऋषिः - सध्रिर्वैरुपो धर्मो वा तापसः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
घ॒र्मा सम॑न्ता त्रि॒वृतं॒ व्या॑पतु॒स्तयो॒र्जुष्टिं॑ मात॒रिश्वा॑ जगाम । दि॒वस्पयो॒ दिधि॑षाणा अवेषन्वि॒दुर्दे॒वाः स॒हसा॑मानम॒र्कम् ॥
स्वर सहित पद पाठघ॒र्मा । सम्ऽअ॑न्ता । त्रि॒ऽवृत॑म् । वि । आ॒प॒तुः॒ । तयोः॑ । जुष्टि॑म् । मा॒त॒रिश्वा॑ । ज॒गा॒म॒ । दि॒वः । पयः॑ । दिधि॑षाणाः । अ॒वे॒ष॒न् । वि॒दुः । दे॒वाः । स॒हऽसा॑मानम् । अ॒र्कम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
घर्मा समन्ता त्रिवृतं व्यापतुस्तयोर्जुष्टिं मातरिश्वा जगाम । दिवस्पयो दिधिषाणा अवेषन्विदुर्देवाः सहसामानमर्कम् ॥
स्वर रहित पद पाठघर्मा । सम्ऽअन्ता । त्रिऽवृतम् । वि । आपतुः । तयोः । जुष्टिम् । मातरिश्वा । जगाम । दिवः । पयः । दिधिषाणाः । अवेषन् । विदुः । देवाः । सहऽसामानम् । अर्कम् ॥ १०.११४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 114; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 16; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में विद्वानों के लक्षण व्यवहार तथा वेदज्ञान के लाभ उसके अध्ययन के प्रकार प्रचार कहे हैं, परमात्मा का संसार के ऊपर अधिष्ठाता होना कहा है।
पदार्थ
(घर्मा) अग्नि सूर्य की भाँति तपते हुए ब्रह्मचर्य से तेजस्वी अध्यापक और उपदेशक या स्त्री और पुरुष (समन्ता) सर्वतो दृढाङ्ग (त्रिवृतम्) ऋग्-यजुःसाम नामक वेदत्रय तथा उनमें वर्णित स्तुति प्रार्थना उपासना तीनों को (व्यापतुः) विशिष्टरूप से प्राप्त होते हैं (तयोः) उन दोनों की (जुष्टिम्) प्रीति के प्रति (मातरिश्वा) वायु के समान अध्यात्मजीवन का दाता परमात्मा (जगाम) प्राप्त होता है (देवाः) अन्य ज्ञान की कामना करनेवाले मनुष्य (दिवः-पयः) उन दोनों से द्योतमान वेद के साररूप रस को (दिधिषाणाः) धारण करना चाहते हुए (अवेषन्) सर्वमन्त्रभाग वेद को (विदुः) जानते हैं ॥१॥
भावार्थ
ब्रह्मचर्य के पालन से तेजस्वी बने अध्यापक और उपदेशक या स्त्री-पुरुष वेदत्रयी से युक्त तथा स्तुति प्रार्थना उपासना करनेवाले होने चाहिये, उनसे ज्ञान के इच्छुक श्रोता और विद्यार्थी जन सामसहित मन्त्रभाग को ज्ञानपूर्वक ग्रहण करें ॥१॥
विषय
त्रिवृत् जीवन
पदार्थ
[१] घर में पति-पत्नी ही दो मुख्य पात्र हैं। ये दोनों (घर्मा) = [घृ दीप्तौ] तेजस्विता से दीप्त होते हुए, शक्ति की उष्णतावाले होते हुए, (समन्ता) = [ अति बन्धने] सम्यक् व्रतों के बन्धनवाले होते हुए (त्रिवृते) = [त्रिषु वर्तते] 'धर्म, अर्थ व काम' अथवा 'भक्ति, कर्म व ज्ञान' तीनों में प्रवृत्त होनेवाले जीवन को (व्यापतुः) = व्याप्त करते हैं। 'धर्मार्थकामाः सममेव सेव्या: ' इस निर्देश के अनुसार इनके जीवन में धर्म, अर्थ व काम तीनों बड़ी सुन्दरता से समन्वित होते हैं। ये 'ज्ञान कर्म व भक्ति' तीनों का पोषण करने का प्रयत्न करते हैं, [२] (मातरिश्वा) = वायु, अर्थात् शरीरस्थ प्राण (तयोः) = इन पति-पत्नी की (जुष्टिम्) = प्रीतिपूर्वक सेवा को (जगाम) = प्राप्त होता है। ये प्रेम से प्राण की उपासना करते हैं । प्राणायाम के महत्त्व को समझते हुए ये प्राणसाधना को कभी उपेक्षित नहीं करते। [३] (दिवः पयः) = ज्ञान के दुग्ध को (दिधिषाणाः) = धारण करते हुए (अवेषत्) = साम व उपासना से युक्त (अर्कम्) = [ऋच्] विज्ञान को (विदुः) = जानते हैं। इनके जीवन में प्रकृति के विज्ञान व प्रभु के उपासन का मेल होता है । प्रकृति के विज्ञान से ये ऐश्वर्य को प्राप्त करते हैं तो प्रभु के उपासन से ये उस ऐश्वर्य से अभिभूत व पराजित नहीं हो जाते। यह ऐश्वर्य उनके विलास में फँसने का कारण नहीं बन जाता।
भावार्थ
भावार्थ - धर्मार्थ काम तीनों के समन्वयवाला जीवन ही जीवन है। इसके लिए प्राणसाधना आवश्यक है। ज्ञानपूर्वक हमारे कर्म हों । प्रकृति के विज्ञान व प्रभु के उपासन को हम अपने जीवन में जोड़ दें।
विषय
विश्वेदेव। अग्नि सूर्यवत् जीव प्रभु, प्रजा राजा, और स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(घर्मा) परस्पर स्नेह से युक्त और स्वतः प्रकाश, (समन्ता) परस्पर सुसंगत संमिलित होकर अग्नि और सूर्यवत् जीव और प्रभु, प्रजा और राजा, स्त्री और पुरुष, शिष्य और गुरु दोनों (त्रि-वृतं) त्रिगुण, प्रकृति तत्त्व वा तीन प्रकार से वर्त्तमान वेद को (वि आ पतुः) विशेष रूप से प्राप्त करें। (मातरिश्वा) वायु के तुल्य ज्ञानवान् गुरु के अधीन प्राप्त होने वाला शिष्यवत् बालक (तयोः) उन दोनों के (जुष्टिं) परस्पर स्नेह को (जगाम) प्राप्त करे। जिस प्रकार (देवाः) प्रकाशयुक्त किरणें (दिवः) आकाश वा भूमि के (पयः) जल को (दिधिषाणाः) धारण करते हुए (अवेषन्) व्यापते हैं और वे (सहसामानम्) एक साथ, सर्वत्र, एकसमान भाव से उत्पन्न होने वाले (अर्कम्) अन्न को (विदुः) प्राप्त कराते हैं उसी प्रकार (देवाः) विद्वान् वा विद्या के इच्छुक शिष्य (दिवः) तेजस्वी, ज्ञानी गुरु के (पयः) ज्ञान को (दिधिषाणाः) धारण करते हुए (अवेषन्) प्राप्त होते हैं और (सह-सामानम्) सामवेद सहित (अर्कम्) ऋग्वेद के ज्ञान को (विदुः) जान लेवें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः सर्वैरूपा घर्मो वा तापसः॥ विश्वेदेवा देवताः॥ छन्दः-१, ५, ७ त्रिष्टुप्। २, ३, ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ८, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। १० पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ४ जगती॥ दशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते विदुषां लक्षणव्यवहारौ तथा वेदज्ञानस्य लाभास्तदध्ययनप्रकाराः प्रचाराश्च वर्ण्यन्ते परमात्मनः सर्वसंसारस्योपरि खल्वधिष्ठानत्वं चोच्यते।
पदार्थः
(घर्मा समन्ता त्रिवृतं वि आपतुः) अग्निसूर्याविव तपन्तौ ब्रह्मचर्येण तेजस्विनौ “घृ क्षरणदीप्त्योः” [जुहोत्यादि०] ततो मक् प्रत्ययः “घर्मग्रीष्मौ” [उणादि० १।१४९] अध्यापकोपदेशकौ स्त्रीपुरुषौ वा सर्वतो दृढाङ्गौ “समन्तं सर्वतो दृढाङ्गम्” [ऋ० ५।१।११ दयानन्दः] ऋग्यजुःसामाख्यं वेदत्रयं तत्र वर्णितं स्तुतिप्रार्थनोपासनत्रयं वा विशेषेण प्राप्नुतः (तयोः-जुष्टिं मातरिश्वा जगाम) तयोः प्रीतिं प्रति मातरिश्वा वायुरिवाध्यात्मजीवनदाता-परमात्मा प्राप्नोति प्राप्तो भवति (देवाः) अन्ये ज्ञानकामा मनुष्याः (दिवः-पयः) ताभ्यां द्योतमानस्य वेदस्य सारं रसं (दिधिषाणाः) धारयितुमिच्छन्तः “धि धारणे” [तुदादि०] सनन्ताच्चानश् (अवेषन्) स्वात्मनि व्याप्तवन्तः (सहसामानम्-अर्कं विदुः) साम्ना सह सर्वं मन्त्रम् मन्त्रभागं वेदं ज्ञातवन्तो जानन्ति वा “अर्को मन्त्रो भवति” [निरु० ५।४] ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Bright heat and light in conjunction pervade the threefold universe of heaven, earth and the middle regions. Matarishva, basic cosmic energy and pranic vitality, joins these two in friendly alliance for love and service. From the heaven of light and divine awareness flow vibrations bearing the milk of life and the divine message of knowledge for human awareness, and divine souls receive the light of eternal illumination, the Vedic message with the music of Samans in ecstasy.
मराठी (1)
भावार्थ
ब्रह्मचर्य पालनाने तेजस्वी बनलेल्या अध्यापक व उपदेशक किंवा स्त्री-पुरुष वेदत्रयीने युक्त स्तुती प्रार्थना उपासना करणारे असावेत. ज्ञानाचे इच्छुक श्रोते व विद्यार्थी यांनी सामसहित मंत्र भागाला ज्ञानपूर्वक स्वीकारावे. ॥१॥
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