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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 116 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 116/ मन्त्र 1
    ऋषिः - अग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    पिबा॒ सोमं॑ मह॒त इ॑न्द्रि॒याय॒ पिबा॑ वृ॒त्राय॒ हन्त॑वे शविष्ठ । पिब॑ रा॒ये शव॑से हू॒यमा॑न॒: पिब॒ मध्व॑स्तृ॒पदि॒न्द्रा वृ॑षस्व ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पिब॑ । सोम॑म् । म॒ह॒ते । इ॒न्द्रि॒याय॑ । पिब॑ । वृ॒त्राय॑ । हन्त॑वे । श॒वि॒ष्ठ॒ । पिब॑ । रा॒ये । शव॑से । हू॒यमा॑नः । पिब॑ । मध्वः॑ । तृ॒पत् । इ॒न्द्र॒ । आ । वृ॒ष॒स्व॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पिबा सोमं महत इन्द्रियाय पिबा वृत्राय हन्तवे शविष्ठ । पिब राये शवसे हूयमान: पिब मध्वस्तृपदिन्द्रा वृषस्व ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पिब । सोमम् । महते । इन्द्रियाय । पिब । वृत्राय । हन्तवे । शविष्ठ । पिब । राये । शवसे । हूयमानः । पिब । मध्वः । तृपत् । इन्द्र । आ । वृषस्व ॥ १०.११६.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 116; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में विशेषतः राजधर्म, संग्रामजय के कारण कहे गए हैं, राष्ट्र में अन्न का संग्रह प्रजाहित साधन, चार प्रकार के सोमों का सेवन आदि विषय हैं।

    पदार्थ

    (शविष्ठ इन्द्र) हे बलिष्ठ राजन् ! या आत्मन् ! (महते) महान् (इन्द्रियाय) ऐश्वर्य के लिये (सोमम्) सोम ओषधिरस को राजसूययज्ञ में (पिब) पी या सुसम्पन्न राष्ट्र को ग्रहण कर (वृत्राय) आक्रमणकारी शत्रु को या पाप कामभाव को (हन्तवे) हनन करने के लिये-मारने के लिये (पिब) पी-या ग्रहण कर (हूयमानः) आमन्त्रित किया हुआ (राये) रमणीय (शवसे) बल के लिये (पिब) पी या ग्रहण कर (मध्वः) मधुर रस को (पिब) पी, (तृपत्) तृप्त हुआ (आ वृषस्व) भलीभाँति सुख की वर्षा कर ॥१॥

    भावार्थ

    बलवान् राजा राजसूय यज्ञ में सोमरस का पान करके या निष्पन्न राष्ट्र को ग्रहण करके शत्रु को नष्ट करने में समर्थ होता है और प्रजा के लिये सुख की वृष्टि करता है-एवं आत्मा सोम ओषधी रस को पीकर आत्मबल को प्राप्त होकर पाप एवं कामभावना को जीतता है-नष्ट करता है और अपने जीवन में सुख को आपूर भरपूर करता है ॥१॥

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    विषय

    सोमपान व महतीशक्ति

    पदार्थ

    [१] (महते इन्द्रियाय) = महान् बल के लिए (सोमं पिबा) = तू सोम का पान कर। सोम के शरीर में रक्षण से तेरी एक-एक इन्द्रिय की शक्ति बड़ी ठीक रहेगी। हे (शविष्ठ) = अतिशयेन शक्तिशालिन् ! तू (वृत्राय हन्तवे) = इस ज्ञान की आवरणभूत वासना के विनाश के लिए (पिबा) = इस सोम का पान कर। इसके पान से शक्तिशाली बनकर ही तू वासना का विनाश कर पाएगा। निर्बल पुरुष वासनाओं से अधिक प्रतारित होता है। [२] (हूयमानः) = [ कर्मखाः प्रयोगः कर्तरि ] प्रभु को पुकारता हुआ तू (राये) = ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए तथा (शवसे) = बल के लिए (पिब) = इस सोम का पान कर । (मध्वः) = इस जीवन को मधुर बनानेवाले सोम का (तृपत्) = तृप्ति को अनुभव करता हुआ (पिब) = पान कर। और हे इन्द्रजितेन्द्रिय पुरुष ! तू (आवृषस्व) = खूब शक्तिशाली बन ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का उपासन करें, सोम का रक्षण करें। यही मार्ग है 'शक्तिशाली बनने का' । यह सोम ही हमें ऐश्वर्य प्राप्ति के व शक्ति-सम्पादन के योग्य करता है ।

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    विषय

    इन्द्र। राजा के कर्तव्य। वह प्रजा को पिता के समान पाले।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! तू (महते इन्द्रियाय) बड़े भारी ऐश्वर्य के सम्पादन के लिये (सोमं पिब) ऐश्वर्य से युक्त प्रजाजन को पुत्र के समान पालन कर। हे (शविष्ठ) बलशालिन् ! तू (वृत्राय हन्तवे) मेघ को छिन्न भिन्न करने, या मेघ के लिये सूर्य के समान (वृत्राय हन्तवे) बढ़ते शत्रु का नाश करने के लिये भी (पिब) प्रजा का पालन कर। तू (हूयमानः) प्रजा द्वारा प्रार्थित होकर (शवसे राये) बल और ऐश्वर्य के सम्पादन के लिये, (पिब) प्रजा का पालन कर। तृप्त होकर (मध्वः पिब) मधुर जल और अन्न का भोग कर और (नृपत्) तृप्त, क्षुधा से रहित हो। (आ वृषस्व) सब ओर मेघ के समान सुखों की वर्षा कर। जिस प्रकार जलों का पान कर सूर्य तृप्त होकर फिर समस्त जगत् को जल बरसा कर जल और अन्न से तृप्त करता है वैसे ही राजा भी स्वयं ऐश्वर्य-पूर्ण होकर अन्यों को अन्न, जल, धन से तृप्त करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिरग्नियुतः स्थौरोऽग्नियूपो वा स्थौरः। इन्द्रो देवता। छन्दः— १, ८, ९ त्रिष्टुप्। २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३, ४ निचृत् त्रिष्टुप्। ५, ७ विराट् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते विशेषतो राजधर्माः सङ्ग्रामजयकारणानि वर्ण्यन्ते राष्ट्रेऽन्नसङ्ग्रहः, प्रजाहितकार्याणि सेव्यानि चतुर्विधसोमस्य सेवनमित्येवमादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (शविष्ठ इन्द्र) हे बलिष्ठ इन्द्र ! राजन् ! आत्मन् ! वा (महते-इन्द्रियाय सोमं पिब) महते ऐश्वर्याय सोममोषधिरसं राजसूययज्ञे पिब यद्वा सुनिष्पन्नं राष्ट्रं गृहाण (वृत्राय हन्तवे पिब) आवरकमाक्रमण-कारिणं शत्रुं यद्वा पापं कामभावम् “द्वितीयार्थे चतुर्थी व्यत्ययेन छान्दसी” “पाप्मा वै वृत्रः” [श० ११।१।५।७] हन्तुम् “तुमर्थे से…तवेन्” [अष्टा० ३।४।९] इति तवेन् प्रत्ययः (हूयमानः-राये शवसे पिब) आहूयमानः सन् रमणीयाय “राये रमणीयाय” [निरु० १३।१४।३०।४३] बलाय “शवः-बलनाम” [निघ० २।९] पिब-गृहाण वा (मध्वः-पिब तृपत्-आ वृषस्व) मधुररसं पिब, पीत्वा तृप्तः सन् समन्ताद् सुखं वर्षय ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord omnipotent, light of life, ruler of the world, harbinger of the showers of prosperity, drink of the soma of our homage, and protect and promote the honour of your own creation for the power and glory of humanity on earth. Mightiest lord, take over and rule the world for the elimination of evil and the promotion of the positive values of life. Invoked and exalted, inspire your own people for the sake of strength, high morale and prosperity, honour and excellence. Promote the sweetness and culture of life and, happy and satisfied, bring us showers of all round progress and prosperity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    बलवान राजा राजसूय यज्ञात सोमरसाचे पान करून किंवा सुसंपन्न राष्ट्राला ग्रहण करून शत्रूला नष्ट करण्यात समर्थ होतो व प्रजेवर सुखाची वृष्टी करतो. आत्मा सोम औषधी रसपान करून आत्मबल प्राप्त करतो व पाप आणि कामभावनेला जिंकतो - नष्ट करतो. आपले जीवन सुखाने परिपूर्ण करतो. ॥१॥

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