ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 117/ मन्त्र 1
न वा उ॑ दे॒वाः क्षुध॒मिद्व॒धं द॑दुरु॒ताशि॑त॒मुप॑ गच्छन्ति मृ॒त्यव॑: । उ॒तो र॒यिः पृ॑ण॒तो नोप॑ दस्यत्यु॒तापृ॑णन्मर्डि॒तारं॒ न वि॑न्दते ॥
स्वर सहित पद पाठन । वै । ऊँ॒ इति॑ । दे॒वाः । क्षुध॑म् । इत् । व॒धम् । द॒दुः॒ । उ॒त । आशि॑तम् । उप॑ । ग॒च्छ॒न्ति॒ । मृ॒त्यवः॑ । उ॒तो इति॑ । र॒यिः । पृ॒ण॒तः । न । उप॑ । द॒स्य॒ति॒ । उ॒त । अपृ॑णन् । म॒र्डि॒तार॑म् । न । वि॒न्द॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
न वा उ देवाः क्षुधमिद्वधं ददुरुताशितमुप गच्छन्ति मृत्यव: । उतो रयिः पृणतो नोप दस्यत्युतापृणन्मर्डितारं न विन्दते ॥
स्वर रहित पद पाठन । वै । ऊँ इति । देवाः । क्षुधम् । इत् । वधम् । ददुः । उत । आशितम् । उप । गच्छन्ति । मृत्यवः । उतो इति । रयिः । पृणतः । न । उप । दस्यति । उत । अपृणन् । मर्डितारम् । न । विन्दते ॥ १०.११७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 117; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 6; वर्ग » 22; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में दान का महत्त्व बताया है, दान लेने के अधिकारी या पात्र तथा दान अवश्य देना चाहिये, दान से धन क्षीण नहीं होता अपितु परमात्मा की प्राप्ति कही है।
पदार्थ
(देवाः) विद्वान् जन (क्षुधम्-इत्) केवल भूख-अन्न की अप्राप्ति को ही (वधं न-उ) मृत्यु नहीं (ददुः) धारण करते हैं-मानते हैं (आशितम्-उत) भोजन खाये हुए भरे पेट को भी (मृत्यवः-उप गच्छन्ति) मृत्युवें प्राप्त होती हैं अर्थात् अनेक प्रकार से, भूखे की तो एक ही प्रकार की मृत्यु होती है, अन्न के अभाव से (उत पृणतः) और दूसरे को तृप्त करते हुए का (रयिः-न-उप दस्यति) धन क्षीण नहीं होता है (अपृणन्) अन्य को तृप्त न करता हुआ (मर्डितारम्) सुख देनेवाले परमात्मा को (न-विन्दते) प्राप्त नहीं करता है ॥१॥
भावार्थ
भूखा ही मरता है अन्न के अभाव से, ऐसी बात नहीं, किन्तु भरे पेट बहुत अन्न धन सम्पत्ति रखते हुए के पास मृत्युवें अनेक प्रकार से जाती हैं अर्थात् मृत्युवें होती हैं, अन्न के अधिक खाने से रोगी होकर, अध्यशन-खाने पर खाना खाने से, विषमिश्रित, अन्न के अधिक खाने से और चोरादि के द्वारा हो जाती हैं, दूसरे को तृप्त करने से अन्नधन क्षीण नहीं होता है, अवसर पर फिर प्राप्त हो जाता है और जो दूसरों को तृप्त नहीं करता है, वह सुख देनेवाले परमात्मा को नहीं प्राप्त कर सकता है ॥१॥
विषय
क्षुधार्त व अतियुक्त
पदार्थ
[१] (देवा:) = सूर्य-चन्द्र आदि सब देव (क्षुधं इत्) = भूखे को ही [underfed को ही] (वधम्) = वध (न वा उ) = नहीं (ददुः) = देते हैं, (उत) = अपितु (आशितम्) = [overfed] खूब तृप्तिपूर्वक खानेवाले को भी (मृत्यवः) = रोग व मृत्यु (उपगच्छन्ति) = प्राप्त होते ही हैं। इसलिए 'आशित ' होने की अपेक्षा यही अच्छा है कि कुछ भोजन क्षुधार्त को दे दिया जाए जिससे क्षुधार्त भूखा मरने से बच जाए और आशित अतिभोजन से बचकर मृत्यु से बच जाए। [२] (उत) = और (उ) = निश्चय से (पृणतः) = दान देनेवाले का (रयिः) = धन (न उपदस्यति) = नष्ट नहीं होता है । सो 'दान देने से धन में कमी आ जाएगी' ऐसा न समझना चाहिए। [३] (उत) = और (अपृणन्) = दान न देनेवाला (मर्डितारम्) = उस सुख देनेवाले प्रभु को (न विन्दते) = नहीं प्राप्त करता। धन का लोभ प्रभु प्राप्ति में बाधक बन जाता है। धन मनुष्य को इस संसार से बद्ध कर देता है और इस प्रकार प्रभु से दूर रखता है ।
भावार्थ
भावार्थ- दान देने से - [क] क्षुधार्त का मृत्यु से बचाव होता है और अतियुक्त भी मरने से बच जाता है, [ख] दान देने से धन बढ़ता ही है, [ग] धनासक्ति न रहने से प्रभु की प्राप्ति होती है।
विषय
इन्द्र धन और अन्नदान की प्रशंसा। भूखा मारने के दण्ड का निषेध। दान दिये का नाश नहीं होता।
भावार्थ
(देवाः) विद्वान् लोग (क्षुधम् न ददुः) भूख का दण्ड नहीं देवें, प्रत्युत (वधं ददुः) पीड़ादायक दण्ड ही देवें। अथवा ते (क्षुधम् इत् वधं न ददुः) भूख के कारण दूसरे को नाश करने का दण्ड न देवें। (उत) क्योंकि (आशितम्) खानेवाले को भी (मृत्यवः) मरणकारी अवसर (उप गच्छन्ति) प्राप्त होते हैं। (उतो) और (पृणतः रयिः) अन्यों को पालने वाले का धन (न उप दस्यति) कभी नाश को प्राप्त नहीं होता। (उत) और (अपृणन्) दूसरों को न पालने वाला (मर्डितारं न विन्दते) अपने प्रति सुख देने और दया करने वाले को नहीं पाता।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्भिक्षुः॥ इन्द्रो देवता—घनान्नदान प्रशंसा॥ छन्दः—१ निचृज्जगती—२ पादनिचृज्जगती। ३, ७, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ४, ६ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ८ भुरिक् त्रिष्टुप्। नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते दानस्य महत्त्वं वर्ण्यते, दानमवश्यं कर्तव्यम्, दानस्याधिकारिणः के सन्तीत्यपि वर्ण्यते। दानेन धनं न क्षीयतेऽपि तु तेन परमात्मप्राप्तिर्भवतीति वर्ण्यते।
पदार्थः
(देवाः क्षुधम्-इत् वधं न-उ ददुः) विद्वांसः खलु क्षुधं बुभुक्षामन्नाप्राप्तिमेव वधं मृत्युं न धारयन्ति “अत्र दा धातुर्धारणेऽर्थे दण्डो ददतेर्धारयतिकर्मणः-अक्रूरो ददते मणिम्” [निरु० २।२] (आशितम्-उत मृत्यवः-उप गच्छन्ति) भोजनमाशितवन्तं भुक्तवन्तम् “आशितः कर्त्ता” [अष्टा० ६।१।२०] अपि विविधप्रकारेण बहुविधा मृत्यवः-प्राप्नुवन्ति ‘क्षुधार्तस्य तु मृत्युरेकप्रकारकोऽन्नाभावः’ बहुभक्षकस्य-प्रचुरान्नरक्षकस्य तु बहुविधा मृत्यवो भवन्ति-अधिकभोजनम्, अध्यशनम्, अन्यद्वारापहरणं राजभयम्, इत्येवमादयः (उत-पृणतः-रयिः-न-उप दस्यति) धनेनान्यान् तर्पयतो जनस्य धनं न क्षीयते (अपृणन् मर्डितारं न विन्दते) अपि च-अन्यं न पृणन् सुखयितारं सुखदातारं परमात्मानं न प्राप्नुवन्ति ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
The devas have ordained death for mortals, but not for reasons of hunger alone, because death overtakes the rich and well provided too. The wealth of the generous giver of charity does not diminish while the uncharitable finds no grace, none to comfort him.
मराठी (1)
भावार्थ
अन्नाच्या अभावामुळे मृत्यू येतो असे नव्हे तर भरलेल्या पोटाने पुष्कळ अन्न धनसंपत्ती असूनही मृत्यू येतो. मृत्यू अनेक प्रकारे होतात. अन्न अधिक खाण्याने रोगी होऊन किंवा उपवास घडूनही मृत्यू येतो. विषमिश्रित अन्न खाण्याने व चोराद्वारेही मृत्यू येतो. दुसऱ्यांना तृप्त करण्याने अन्न धन क्षीण होत नाही. वेळेवर पुन्हा प्राप्त होते व जो इतरांना तृप्त करत नाही तो सुख देणाऱ्या परमात्म्याला प्राप्त करू शकत नाही. ॥१॥
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