ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 12/ मन्त्र 1
ऋषिः - हविर्धान आङ्गिः
देवता - अग्निः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
द्यावा॑ ह॒ क्षामा॑ प्रथ॒मे ऋ॒तेना॑भिश्रा॒वे भ॑वतः सत्य॒वाचा॑ । दे॒वो यन्मर्ता॑न्य॒जथा॑य कृ॒ण्वन्त्सीद॒द्धोता॑ प्र॒त्यङ्स्वमसुं॒ यन् ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑ । ह॒ । क्षामा॑ । प्र॒थ॒मे इति॑ । ऋ॒तेन॑ । अ॒भि॒ऽश्रा॒वे । भ॒व॒तः॒ । स॒त्य॒ऽवाचा॑ । दे॒वः । यत् । मर्ता॑न् । य॒जथा॑य । कृ॒ण्वन् । सीद॑त् । होता॑ । प्र॒त्यङ् । स्वम् । असु॑म् । यन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावा ह क्षामा प्रथमे ऋतेनाभिश्रावे भवतः सत्यवाचा । देवो यन्मर्तान्यजथाय कृण्वन्त्सीदद्धोता प्रत्यङ्स्वमसुं यन् ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावा । ह । क्षामा । प्रथमे इति । ऋतेन । अभिऽश्रावे । भवतः । सत्यऽवाचा । देवः । यत् । मर्तान् । यजथाय । कृण्वन् । सीदत् । होता । प्रत्यङ् । स्वम् । असुम् । यन् ॥ १०.१२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 12; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 6; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में अग्नि शब्द से परमात्मा विद्वान् पुरोहित और राजा कहे हैं, तथा मोक्ष तथा राजधर्म विषय प्रतिपादित हैं।
पदार्थ
(ऋतेन सत्यवाचा-अभिश्रावे) ज्ञान और सत्यवचन से सब पर प्रसिद्ध करने के निमित्त (प्रथमे ह द्यावाक्षामा भवतः) प्रारम्भ सृष्टि में प्रसिद्ध मातापिता या प्रकृष्ट राजा राणी है (देवः) परमात्मा या पुरोहित (मर्तान् यजथाय यत् कृण्वन्) मनुष्यों को, प्रजाजनों को यज्ञानुष्ठान के लिए या राजसूययज्ञ के लिए समुद्यत करता हुआ (प्रत्यङ् स्वम्-असुं यन्) साक्षात् अपना प्राण आत्मभाव प्राप्त करता हुआ (होता सीदत्) ज्ञानदाता परमात्मा प्रथमजनों ऋषियों के हदय में प्राप्त होता है या पुरोहित राजसूय वेदि पर बैठता है ॥१॥
भावार्थ
आरम्भसृष्टि के प्रकृष्ट माता-पिताओं को ज्ञान और सत्यवाणी द्वारा घोषित कराने के निमित्त परमात्मा उनके हृदय में बैठ अध्यात्म-यज्ञ कराता है तथा श्रेष्ठ राजा राणी को राजसूय कराने के निमित्त विद्वान् पुरोहित अपनाकर वेदि पर बैठता है ॥१॥
विषय
ऋत व सत्य
पदार्थ
[१] अध्यात्म में (द्यावा क्षामा) = 'द्युलोक व पृथिवीलोक' का अभिप्राय मस्तिष्क व शरीर ही है 'मूर्ध्नो द्यौः, पृथिवी शरीरम्' । जैसे द्युलोक, सूर्य व नक्षत्रों से चमकता है, उसी प्रकार हमारा मस्तिष्क ब्रह्मविद्या के सूर्य से और विज्ञान के नक्षत्रों से चमकता हुआ हो। जैसे पृथिवी दृढ़ है उसी प्रकार हमारा शरीर भी दृढ़ होना चाहिए। (ह) = निश्चय से (द्यावाक्षामा) = मस्तिष्क व शरीर (प्रथमे) = मनुष्य के सब से प्रथम स्थान में है। मनुष्य का मौलिक कर्तव्य यही है कि वह मस्तिष्क व शरीर को स्वस्थ रखने का प्रयत्न करे। यदि हमारी शक्ति रुपया कमाने में ही अथवा व्यर्थ की कीर्ति को पाने में ही व्ययित हो गई और हमने शरीर व मस्तिष्क की उपेक्षा की तो यह हमारे जीवन की सब से बड़ी गलती होगी। [२] ये शरीर व मस्तिष्क क्रमशः (ऋतेन) = ऋत से, प्रत्येक कार्य को ठीक समय पर करने से तथा (सत्यवाचा) = सत्यवाणी से अर्थात् असत्य को सदा अपने से दूर रखने से (अभिश्रावे भवतः) = सदा अन्दर बाहर प्रशंसनीय होते हैं। शरीर व मस्तिष्क के ठीक होने पर हम घर में भी और बाहर भी कीर्ति को पाते हैं। शरीर का ठीक कहना 'ऋत' पर निर्भर करता है। 'प्रत्येक भौतिक क्रिया ठीक समय पर हो', यही 'ऋत' है। विशेषतः खाना- पीना व सोना-जागना तो अवश्य समय पर होना चाहिए। मस्तिष्क की पवित्रता के लिये 'सत्यं पुनातु पुनः शिरसि' इस ब्राह्मण वाक्य के अनुसार सत्य वाणी परम सहायिका है। [३] इस प्रकार शरीर के दृढ़ तथा मस्तिष्क के उज्ज्वल होने पर हम प्रभु के प्रिय होते हैं एक स्वस्थ व योग्य सन्तान ही पिता को प्रिय होता है और वे (देवः) = सब दिव्यगुणों के पुञ्ज प्रकाशमय प्रभु (यद्) = जब (मर्तान्) = हम मनुष्यों को (यजथाय) = अपने साथ सम्पर्क के लिये (कृण्वन्) = करते हैं तो वे (प्रत्यड्) = हमारे अन्दर ही हृदयान्तरिक्ष में [inner, interior] (सीदत्) = विराजमान होते हुए (होता) = हमें सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले होते हुए (स्वम्) = अपनी (असुम्) = प्राणशक्ति को अथवा सब असुरों को दूर फेंकनेवाली शक्ति को (यन्) = प्राप्त कराते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हम ऋत व सत्य के द्वारा शरीर को दृढ़ व मस्तिष्क को उज्ज्वल बनायें। प्रभु के प्रिय बनकर, प्रभु सम्पर्क में आकर अन्तः स्थित प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न हों। यही हमारा मूल कर्तव्य है ।
विषय
अग्नि। प्रधानपद पर स्थित के कर्तव्य।
भावार्थ
(देवः) तेजस्वी, (होता) दानशील पुरुष (प्रत्यङ्) प्रत्यक् तत्व, आत्मा के समान सर्वप्रिय होकर (स्वम् असुं यन्) अपने प्राण-बल के समान शत्रु को उखाड़ देने वाले महान् सामर्थ्य को प्राप्त करता हुआ (मर्त्तान्) अधिकार के लिये मरने और शत्रुओं को मारने वाले मर्द, जवान वीर पुरुषों को (यजथाय) सुसंगत (कृण्वन्) करता हुआ (सीदत्) प्रधान पद पर विराजता है, उस समय ही (द्यावा क्षामा) सूर्य और भूमिवत् (प्रथमे) सर्वश्रेष्ठ, शास्य- शासक गण और अग्नि के समक्ष स्त्री पुरुषों के समान ही (ऋतेन अभिश्रावे) वेद-वचन द्वारा अपनी दृढ़ प्रतिज्ञा श्रवण कराते हुए (सत्यवाचा भवतः) सत्यवाणी से बद्ध होते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
हविर्धान आङ्गिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः— १, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ४,५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ९ त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्तेऽग्निशब्देन परमात्मा विद्वान् पुरोहितो राजा चोच्यन्ते मोक्षराजधर्मौ च विषयौ प्रतिपाद्येते।
पदार्थः
(ऋतेन-सत्यवाचा-अभिश्रावे) ज्ञानेन सत्यवचनेन च खल्वभितः श्रावयितुं यद् वा बोधयितुं (प्रथमे ह द्यावाक्षामा भवतः) अवश्यं प्रारम्भिकौ मातापितरौ प्रकृष्टतमौ राजराज्ञ्यौ वा स्तः (देवः) परमात्मदेवः-विद्वान् पुरोहिता वा (मर्तान् यजथाय यत् कृण्वन्) मनुष्यान् प्रजाजनान् यज्ञानुष्ठानाय सबोधान् कुर्वन्, राजसूययज्ञाय समुद्यतान् कुर्वन् (होता सीदत्) ज्ञानग्राहयिता परमात्मा प्रथमजनानां हृदये सीदति पुरोहितो वा वेद्यां तिष्ठति (प्रत्यङ् स्वम्-असुं यन्) साक्षात् स्वीयं प्राणमात्मभावं प्राप्नुवन् ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Heaven and earth are the first and closest divinities by virtue of the cosmic order to listen to the holy chant and proclaim their response with light and generosity, when Agni, refulgent spirit of life and light of the world, chief priest and inspirer of cosmic yajna, calling mortals to the altar, settles in the vedi itself upfront, generating and accelerating the radiation of its own energy in the yajnic process being enacted.
मराठी (1)
भावार्थ
सृष्टीच्या आरंभी प्रकृष्ट मातापिता यांना ज्ञान व सत्यवाणीद्वारे बोधित करविण्याच्या निमित्त परमात्मा त्यांच्या हृदयात अध्यात्म यज्ञ करवितो व श्रेष्ठ राजाराणीला राजसूय करविण्यानिमित्त विद्वान पुरोहिताला वेदीवर बसवितो. ॥१॥
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