ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 123/ मन्त्र 1
अ॒यं वे॒नश्चो॑दय॒त्पृश्नि॑गर्भा॒ ज्योति॑र्जरायू॒ रज॑सो वि॒माने॑ । इ॒मम॒पां सं॑ग॒मे सूर्य॑स्य॒ शिशुं॒ न विप्रा॑ म॒तिभी॑ रिहन्ति ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । वे॒नः । चो॒द॒य॒त् । पृश्नि॑ऽगर्भाः । ज्योतिः॑ऽजरायुः । रज॑सः । वि॒ऽमाने॑ । इ॒मम् । अ॒पाम् । स॒म्ऽग॒मे । सूर्य॑स्य । शिशु॑म् । न । विप्राः॑ । म॒तिऽभिः॑ । रि॒ह॒न्ति॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं वेनश्चोदयत्पृश्निगर्भा ज्योतिर्जरायू रजसो विमाने । इममपां संगमे सूर्यस्य शिशुं न विप्रा मतिभी रिहन्ति ॥
स्वर रहित पद पाठअयम् । वेनः । चोदयत् । पृश्निऽगर्भाः । ज्योतिःऽजरायुः । रजसः । विऽमाने । इमम् । अपाम् । सम्ऽगमे । सूर्यस्य । शिशुम् । न । विप्राः । मतिऽभिः । रिहन्ति ॥ १०.१२३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 123; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में परमात्मा ब्रह्माण्ड का रक्षक, लोगों का चालक, वेद का रचयिता, वेद शाश्वत है, परमात्मा जीवात्मा के हृदयघर में मित्र की भाँति प्रवेश करता है इत्यादि विषय हैं।
पदार्थ
(अयं वेनः) यह कमनीय परमात्मा या विद्युत् देव (ज्योतिर्जरायुः) ज्योति इसकी जरायु है, ऐसे गर्भरूप सब जगत् को रखता है परमात्मा या मेघ को रखता है, विद्युद्देव (रजसः-विमाने) लोकसमूह ब्रह्माण्ड के निर्माणस्थान महाकाश में उदक-जल के निर्माणस्थान अन्तरिक्ष में (पृश्निगर्भाः) उज्ज्वल वर्णवाली रश्मियाँ गर्भ जिनकी हैं, ऐसे ‘आपः’ अप्तत्त्व प्रारम्भिक सूक्ष्म परमाणु-प्रवाहों को (चोदयत्) प्रेरित करता है (अपां सूर्यस्य सङ्गमे) उन सूक्ष्म अपों को सूर्य के सङ्गमन-वर्षाकाल होने पर (विप्राः) विद्वान् जन (मतिभिः) वाणियों द्वारा (इमम्) इस परमात्मा को (शिशुं न) कुमार जैसे को (रिहन्ति) स्तुत करते हैं या प्रशंसित करते हैं ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा ब्रह्माण्ड का रक्षक है, लोकनिर्माणस्थान महाकाश में परमाणुओं को प्रेरित करता है, सूक्ष्म के सङ्गमन-समागम समय-प्रातरेव विद्वान् स्तुति करते हैं एवं विद्युद्देव मेघ का रक्षक है, वर्षा समय उसकी प्रशंसा करते हैं ॥१॥
विषय
आपः - सूर्य
पदार्थ
[१] (अयं वेनः) = यह मेधावी पुरुष (रजसः) = रजोगुण के (विमाने) = विशिष्ट मानपूर्वक धारण करने पर (पृश्निगर्भा:) = सात उज्ज्वल वर्णवाली ज्ञानरश्मियाँ जिसके गर्भ में है उन वेद-ज्ञानों को (चोदयत्) = अपने में प्रेरित करता है वेदवाणियाँ सात छन्दोंवाले मन्त्रों में हैं। सूर्य की किरणें भी सात रंगों की हैं। वेद-ज्ञान सूर्य है, तो सात छन्दोंवाले मन्त्र उसकी सात उज्ज्वल किरणें हैं । वेन इन्हें अपने में धारण करता है । इन्हें धारण करने के लिए ही वह रजोगुण को विशिष्ट मानपूर्वक अपने में धारण करता है। रजोगुण के नितान्त अभाव में तो किसी भी क्रिया का सम्भव ही नहीं रहता । इस प्रकार इन पृश्निगर्भा वेदवाणियों को अपने में प्रेरित करता हुआ यह (ज्योतिर्जरायुः) = ज्योतिर्मय वेष्टनवाला होता है, अपने को ज्ञान से आच्छादित करता है। [२] (अपाम्) - रेतः कणों के तथा (सूर्यस्य) = ज्ञान के सूर्य के (संगमे) = मेल के होने पर, अर्थात् जिस समय रेतः कणों का रक्षण होता है और ज्ञान के सूर्य का उदय होता है तो उस समय (विप्राः) = ज्ञानी पुरुष (मतिभिः) = इन मननशील बुद्धियों के द्वारा (इयम्) = इस प्रभु का (रिहन्ति) = आस्वाद लेते हैं। प्रभु का मनन करते हुए ये लोग अपने हृदयों में आनन्द का अनुभव करते हैं । उसी प्रकार इसके मनन में आस्वाद को अनुभव करते हैं (न) = जैसे कि गौवें (शिशुम्) = अपने बछड़े को चाटती हुई आनन्द का अनुभव करती हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- संयत रजोगुण के द्वारा वेन ज्ञान को प्राप्त करता है। रेतः कणों का रक्षण करता हुआ तथा ज्ञान के सूर्य के उदय को करता हुआ यह मनन के द्वारा प्रभु प्राप्ति के आनन्द का अनुभव करता है ।
विषय
वेन। प्रकाशस्वरूप जगत्स्रष्टा का वर्णन।
भावार्थ
(अयं वेनः) यह ज्ञानवान्, अर्चनीय, तेजोमय, प्रकाशवान्, (ज्योतिः जरायुः) सूर्यादि ज्योतियों के गर्भ को लपेटने वाली झिल्ली [ जेर ] के समान अपने भीतर रखने वाला है। वह (पृश्नि-गर्भाः) नाना सूर्यों को अपने गर्भों में लेने वाली जगद्व्यापक ‘आपः’ को (चोदयत्) प्रेरित करता है। और (रजसः) इन समस्त लोकों के (विमाने) निर्माण करने और (अपां सूर्यस्य) प्रकृति के सूक्ष्म परमाणुओं, तथा (सूर्यस्य) उनके प्रेरक सूर्य के (सं-गमे) अच्छी प्रकार चलाने के निमित्त ही (इमम्) इसको (विप्राः) विद्वान् जन (मतिभिः) अपनी ज्ञान-विवेकशाली मतियों और स्तुतियों से, (शिशुम् न) बच्चे को गौ के तुल्य, (रिहन्ति) आस्वाद लेते हैं, उसी तक पहुंचते, उसी का वर्णन कर प्रसन्न होते हैं।
टिप्पणी
वेन इति मेघावि नाम, यज्ञनाम, पदनामच। वेनतिः कान्तिकर्मा गतिकर्मा, अर्चतिकर्मा च। वेणु गति-ज्ञान-चिन्ता-निशामनवादित्रग्रहणेषु। वेनृ इत्येके। भ्वादिः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिर्वेनः॥ वेनो देवता॥ छन्दः—१, ५, ७ निचृत् त्रिष्टुप्। २— ४, ६, ८ त्रिष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अस्मिन् सूक्ते परमात्मा ब्रह्माण्डस्य रक्षको लोकानां चालकः वेदज्ञानस्य दाता यश्च वेदः शाश्वतिकः, परमेश्वरो जीवात्मनो हृदयगृहे मित्रवत् प्रवेशं करोतीत्येवमादयो विषयाः सन्ति।
पदार्थः
(अयं वेनः) एष कमनीयः परमात्मा “वेनो वेनतेः कान्तिकर्मणः” [निरु० १०।३९] “वेनात् कमनीयात् परमात्मनः” [ऋ० ४।५८।४ दयानन्दः] यद्वा इन्द्रो विद्युद्देवः “इन्द्रो वै वेनः” [कौ० ८।४] “यदशनिरिन्द्रः” [कौ० ६।९] (ज्योतिर्जरायुः) ज्योतिरस्य जरायुस्थानीयं यस्मिन् सर्वं जगद् गर्भरूपं रक्षति, मेघं रक्षति वा (रजसः-विमाने) रञ्जनात्मकस्य लोकसमूहस्य ब्रह्माण्डस्य निर्माणस्थाने महाकाशे उदकस्य निर्माणस्थानेऽन्तरिक्षे वा (पृश्निगर्भाः-चोदयत्) पृश्निः उज्ज्वलः शुभ्रो वर्णो येषां ते रश्मयो गर्भो गर्भभूता यासां ताः पृश्निगर्भाः-आपः प्रारम्भिक्यः सूक्ष्मास्ताः प्रेरयति (अपां सूर्यस्य सङ्गमे) तासां सूक्ष्माणां सूर्यस्य सङ्गमने वर्षणकाले सति (विप्राः) विद्वांसः (मतिभिः) वाग्भिः “वाग् वै मतिः” “वाचा हीदं सर्वं मनुते” [श० ८।१।२।७] (इमं शिशुं न रिहन्ति) इमं परमात्मानं विद्युद्देवं वा शंसनीयं कुमारमिव स्तुवन्ति प्रशंसन्ति वा “रिहन्ति अर्चतिकर्मा” [निघं० ३।१४] ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
This loving and lovely light, glorious sun, womb of light, shines in varied light and beauty in the ocean of particles of mist in middle space, moves and energises the clouds of vapour, and in the meeting of the sun rays and the vapours sages celebrate and adore the sun with songs of prayer and love with gratitude as a child of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा ब्रह्मांडाचा रक्षक आहे. लोक (गोल) निर्माण स्थानी परमाणूंना महाकाशात प्रेरित करतो. सूक्ष्माच्या समागम समयी प्रात:काळी विद्वान स्तुती करतात, तसेच विद्युत देव मेघांचा रक्षक असतो. वर्षाकाळीही विद्वान त्याची प्रशंसा करतात. ॥१॥
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