ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 124/ मन्त्र 1
ऋषिः - अग्निवरुणसोमानां निहवः
देवता - अग्निः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इ॒मं नो॑ अग्न॒ उप॑ य॒ज्ञमेहि॒ पञ्च॑यामं त्रि॒वृतं॑ स॒प्तत॑न्तुम् । असो॑ हव्य॒वाळु॒त न॑: पुरो॒गा ज्योगे॒व दी॒र्घं तम॒ आश॑यिष्ठाः ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒मम् । नः॒ । अ॒ग्ने॒ । उप॑ । य॒ज्ञम् । आ । इ॒हि॒ । पञ्च॑ऽयामम् । त्रि॒ऽवृत॑म् । स॒प्तऽत॑न्तुम् । असः॑ । ह॒व्य॒ऽवाट् । उ॒त । नः॒ । पु॒रः॒ऽगाः । ज्योक् । ए॒व । दी॒र्घम् । तमः॑ । आ । अ॒श॒यि॒ष्ठाः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इमं नो अग्न उप यज्ञमेहि पञ्चयामं त्रिवृतं सप्ततन्तुम् । असो हव्यवाळुत न: पुरोगा ज्योगेव दीर्घं तम आशयिष्ठाः ॥
स्वर रहित पद पाठइमम् । नः । अग्ने । उप । यज्ञम् । आ । इहि । पञ्चऽयामम् । त्रिऽवृतम् । सप्तऽतन्तुम् । असः । हव्यऽवाट् । उत । नः । पुरःऽगाः । ज्योक् । एव । दीर्घम् । तमः । आ । अशयिष्ठाः ॥ १०.१२४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 124; मन्त्र » 1
अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
विषय
इस सूक्त में शरीररूप अन्धकार में बहुकाल से वसता हुआ आत्मा मुक्ति की आकाङ्क्षा करता है, जहाँ स्वराज्य स्वतन्त्रता है, जहाँ इन्द्रियगण साङ्कल्पिक और शरीर साङ्कल्पिक हैं।
पदार्थ
(अग्ने) हे शरीर के अग्रणायक आत्मा ! (नः) हम जाठराग्नि प्राण इन्द्रियों को (पञ्चयामम्) पाँच पृथिवी जल अग्नि वायु आकाश भूतों से नियन्त्रित सङ्गृहीत हुए (त्रिवृत्) तीन-वात पित्त कफों में वर्तनेवाले (सप्ततन्तुम्) सात-रस रक्त मांस मेद अस्थि मज्जा वीर्य तन्तु ताननेवाले विस्तारक जिसके, ऐसे (यज्ञम्) शरीरयज्ञ को (उप आ इहि) उपागत हो-समीपरूप से प्रवेश कर (हव्यवाहः) तू उपयोज्य वस्तुवाहक (उत) तथा (पुरोगाः) पुरोगन्ता (असः) हो-है (ज्योक्-एव) चिरकाल तक (दीर्घं तमः) घने अन्धकार में (आ अशयिष्ठाः) भलीभाँति शयन कर-सुरक्षित रहे, कोई तुझे पीड़क देख न सके ॥१॥
भावार्थ
जाठर अग्नि प्राण इन्द्रियों में आधार पृथिवी आदि भूत से सङ्गृहीत तीन वात पित्त कफ में वर्तमान सात रस रक्त मांसादि धातुओं के घर-शरीर में आत्मा चालक स्वामी है, पर वह घने अन्धकार में है, उसे बाहिरी दृष्टि से कोई देख नहीं सकता है ॥१॥
विषय
पञ्चयाम जीवनयज्ञ
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले प्रभो! आप (नः) = हमारे (इमं यज्ञम्) = इस जीवनयज्ञ को (उप एहि) = समीपता से प्राप्त होइये। यह जीवनयज्ञ (पञ्चयामम्) = पाँच प्राणों, पाँच कर्मेन्द्रियों व पाँच ज्ञानेन्द्रियों के यमन [= संयम] वाला है। इस यज्ञ में इन पाँच का संयम करना होता है। त्रिवृतम्-यह जीवनयज्ञ 'ज्ञान कर्म उपासना' तीनों में प्रवृत्त है । अथवा 'धर्मार्थ काम' तीनों पुरुषार्थों का समरूप से सेवन करनेवाला है। 'वात, पित्त, कफ' के अवैषम्य पर इसका निर्भर है । (सप्ततन्तुम्) = सात छन्दोंवाली वेदवाणी से इस जीवन यज्ञ का विस्तार हो रहा है । अथवा 'रस, रुधिर, मांस, मेदस्, अस्थि, मज्जा, वीर्य' नामक सात धातुएँ इसको विस्तृत करती हैं। अथवा 'कर्णाविमौ नासिके चक्षणी मुखम्' ये सात ऋषि इस जीवनयज्ञ को चला रहे हैं 'येन यज्ञस्तायते सप्तहोता'। [२] हे प्रभो ! आप (हव्यवाड् असः) = हमारे लिए सब हव्य पदार्थों को प्राप्त करानेवाले होइये । (उत) = और (नः) = हमारे (पुरोगाः) = अग्रगामी मार्गदर्शक बनिये। आप (ज्योक् एव चिर) = काल से ही वर्तमान इस दीर्घ (तमः घने) = अन्धकार को (आशयिष्ठाः) = सुला दीजिए। अन्धकार को समाप्त करके हमें प्रकाश को प्राप्त कराइये ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से ही हमारा जीवनयज्ञ चलता है। प्रभु ही हव्य पदार्थों को प्राप्त कराते हैं। वे ही हमारे मार्गदर्शक हैं और हमारे अज्ञानान्धकार को समाप्त करते हैं ।
विषय
अग्नि, वरुण सोम। यज्ञ में आत्मा का चिन्तन।
भावार्थ
(अग्ने) ज्ञानवन् ! तेजस्विन् ! सर्वप्रकाशक आत्मन् ! (नः इमं यज्ञम् उप एहि) तू हमारे इस यज्ञ, उपासना, वा आत्मा को प्राप्त हो। वह (पञ्च-यामं) पांच यमों वाला, नियामक ऋत्विजों के तुल्य देह को नियम में रखने वाले प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इनसे युक्त और (त्रि-वृतं) तीन दशाओं-जाग्रत्, स्वप्न और सुषुप्ति में रहने वाला, और (सप्त-तन्तुम्) सात शीर्षण्य प्राणों वा देह धारक सात धातुओं में विस्तृत होने वाला है। तू (हव्यवाट् असः) यज्ञ में अग्नि के समान भोक्ता, अन्न को धारण करने वाला हो। (उत नः पुरः-गाः) और हमारा अग्रगामी नायक के समान हो। तू (ज्योक् एव) दीर्घ काल तक विद्यमान (दीर्घं तमः) इस महान् दुःखदायी अज्ञान वा ज्ञान रहित, अन्धेरी गुफ़ावत् इस देह को (आ अशयिष्ठाः) व्याप, इसे प्रकाशित कर, इसमें नाना कर्मफल का भोग कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः—१, ५–९ अग्निवरुणमोमानां निहवः । २—४ अग्निः। देवता—१—४ अग्निः। ५-८ यथानिपातम्। ९ इन्द्रः। छन्द:– १, ३, ८ त्रिष्टुप्। २, ४, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६ पादनिचृत्त्रिष्टुप्। ७ जगती। नवर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
विषयः
अत्र सूक्ते शरीररूपेऽन्धकारे बहुकालाद् वसन्नात्मा मुक्तिं काङ्क्षति तत्र सत्यकामाः प्रेरयन्ति यदितोऽन्यत्र गन्तव्यं यत्र स्वराज्यं स्वातन्त्र्यं भवेत् साङ्कल्पिकेन्द्रियवृन्दं शरीरमपि साङ्कल्पिकमिति मोक्षे प्रार्थ्यते।
पदार्थः
(अग्ने) हे शरीरस्याग्रणायक ! आत्मन् (नः) जाठराग्निप्राणेन्द्रिया-णामस्माकं (पञ्चयामम्) पञ्च यमयितारो नियमयितारो सङ्ग्रहीतारः पृथिव्यादयः पदार्था यस्य तथाभूतं (त्रिवृतम्) त्रिषु वातपित्तश्लेष्मसु दोषेषु वर्तते यस्तं (सप्त तन्तुम्) सप्त रसरक्तमांसमेदोऽस्थिमज्ज-शुक्राणि तन्तवो विस्तारका यस्य तं (यज्ञम्) देहयज्ञम् “पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य चतुर्विंशतिवर्षाणि प्रातःसवनम्” [छान्दो० प्र० ३ खं० १६ मं० १] (उप आ इहि) उपागच्छ-उपेत्य प्रविश (हव्यवाहः-उत पुरोगः-असः) त्वमस्माकं हव्यवाहनः उपयोज्यवस्तुवाहकः पुरोगन्ता च भव-भवति (ज्योक्-एव दीर्घं तमः) चिरं हि दीर्घे तमसि (आ अशयिष्ठाः) समन्ताच्छेस्व-सुरक्षितो भव न त्वां कश्चित् पश्येद् दृष्ट्वा पीडयेत् ॥१॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, yajnic light of life, come to this life yajna of ours: which has five divisions, i.e., Brahma-yajna, Deva-yajna, Pitr-yajna, Atithi-yajna, and Balivaishva- deva-yajna; conducted by five people, i.e, four socio economic classes of Brahmans, Kshatriyas, Vaishyas and Shudras and others like chance visitors from other groups there might be; which is threefold, i.e., paka yajna, haviryajna and somayajna; and which has seven extensions, i.e., Agnishtoma, Atyagnishtoma, Ukthya, Shodashi, Vajapeya, Atiratra and Aptoyami. You are our leader and pioneer, Agni, and you are the carrier of our yajna to the divinities as well as harbinger of the fruits of yajna to us. Pray come and be our all time dispeller of the cavern of deep darkness from life.$(Yajna is a creative process of development in life from the individual to the social, national, global and environmental level of life. The explanation above is related to the social level. Swami Brahmamuni explains the yajna at the individual level, and that is also suggested in Rgveda 10, 7, 6: ‘Svayam yajasva’, and yajurveda 4, 13: “Iyam te yajniya tanu”, which means: Develop yourself by yajna according to the seasons of your growth, and remember your life in body, mind and soul is worthy of yajnic service for your personal development, your body being the first instrument of your wider yajna of life. This personal yajna is fivefold, for the elemental balance of earth, water, heat, air and ether; threefold for the balance of vata, pitta and kaf, and also for balanced growth of body, mind and soul; sevenfold for the growth of rasa, rakta, mansa, meda, asthi, majja and virya. Thus yajna is the process of growth beginning with the individual, accomplished at the cosmic level.)
मराठी (1)
भावार्थ
जठराग्नी, प्राण, इंद्रियांसह पृथ्वी इत्यादी भूतांद्वारे नियंत्रित असलेला व वात, पित्त, कफ यामध्ये वर्तमान आणि सात रस रक्त, मांस इत्यादी धातूंचे घर अशा शरीरात आत्मा चालक स्वामी आहे; पण तो प्रगाढ अंधकारात आहे. त्याला बाह्य दृष्टीने कोणी पाहू शकत नाही. ॥१॥
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