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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 128 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 128/ मन्त्र 1
    ऋषिः - विहव्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ममा॑ग्ने॒ वर्चो॑ विह॒वेष्व॑स्तु व॒यं त्वेन्धा॑नास्त॒न्वं॑ पुषेम । मह्यं॑ नमन्तां प्र॒दिश॒श्चत॑स्र॒स्त्वयाध्य॑क्षेण॒ पृत॑ना जयेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मम॑ । अ॒ग्ने॒ । वर्चः॑ । वि॒ऽह॒वेषु॑ । अ॒स्तु॒ । व॒यम् । त्वा॒ । इन्धा॑नाः । त॒न्व॑म् । पु॒षे॒म॒ । मह्य॑म् । न॒म॒न्ता॒म् । प्र॒ऽदिशः॑ । चत॑स्रः । त्वया॑ । अधि॑ऽअक्षेण । पृत॑नाः । ज॒ये॒म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ममाग्ने वर्चो विहवेष्वस्तु वयं त्वेन्धानास्तन्वं पुषेम । मह्यं नमन्तां प्रदिशश्चतस्रस्त्वयाध्यक्षेण पृतना जयेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मम । अग्ने । वर्चः । विऽहवेषु । अस्तु । वयम् । त्वा । इन्धानाः । तन्वम् । पुषेम । मह्यम् । नमन्ताम् । प्रऽदिशः । चतस्रः । त्वया । अधिऽअक्षेण । पृतनाः । जयेम ॥ १०.१२८.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 128; मन्त्र » 1
    अष्टक » 8; अध्याय » 7; वर्ग » 15; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    विषय

    इस सूक्त में सेनाध्यक्ष शत्रुओं का नाशक राष्ट्र में भ्रमण करके शत्रुओं को प्राप्त कर दण्ड दे, विद्वान् जन राजा को प्रोत्साहित करें, सूर्यादि धारकों का धारक परमात्मा उपास्य है, आदि विषय हैं।

    पदार्थ

    (अग्ने) हे अग्रणी सेनानायक ! या ब्रह्मा ! (विहवेषु) विविध आह्वान-स्थान संग्रामों में या यज्ञों में (मम) मेरे में (वर्चः) तेज (अस्तु) हो (वयम्) हम (त्वा) तुझे (इन्धानाः) दीप्त करते हुए या प्रबल शब्दों से प्रोत्साहित करते हुए (तन्वम्) अपने आत्मा को (पुषेम) पुष्ट करें (प्रदिशः-चतस्रः) प्रमुख चार दिशाएँ-वहाँ स्थित मनुष्य-प्रजाजन या सामन्यजन (मह्यम्) मेरे लिए (नमन्ताम्) अपने आत्मा को समर्पित करें (त्वया-अध्यक्षेण) तुझ सेनाध्यक्ष के द्वारा या विद्याध्यक्ष के द्वारा (पृतनाः) संग्रामों को या मनुष्यों को (जयेम) जीतें या अभिभूत करें-स्वाधीन करें ॥१॥

    भावार्थ

    राजा का सेनाध्यक्ष तेजस्वी चारों दिशाओं में रहनेवाले शत्रु पर विजय पानेवाला हो एवं उसका पुरोहित महान् विद्वान् अपने शब्दों से प्रोत्साहित करनेवाला होना चाहिये ॥१॥

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    विषय

    चतुर्दिग्-विजय

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (विहवेषु) = इन जीवन-संग्रामों में (मम वर्चः अस्तु) = मेरे में वर्चस् शक्ति हो। इस वर्चस् के द्वारा मैं शत्रुओं को जीतनेवाला बनूँ । (वयम्) = हम (त्वा) = आपको (इन्धानाः) = दीप्त करते हुए अपने हृदयों में आपका प्रकाश करते हुए (तन्वं पुषेम) = इस शरीर का उचित पोषण करें। [२] मेरी शक्ति इतनी बढ़े कि (चतस्रः प्रदिशः) = चारों प्रकृष्ट दिशाएँ (मह्यं नमन्ताम्) = मेरे लिए नत हो जाएँ। चारों दिशाओं का मैं विजय करनेवाला बनूँ । प्राची दिशा का अधिपति 'इन्द्र' बनूँ । जितेन्द्रिय बनकर निरन्तर आगे बढ़नेवाला होऊँ । दक्षिणा दिक् का अधिपति 'यम' बनूँ । संयमी जीवनवाला बनकर सरल व उदार बनूँ [दक्षिणे सरलोदारौ] । प्रतीची दिक् का अधिपति 'वरुण' बनूँ। अपने को पाप आदि से निवृत्त करता हुआ [ पापात् निवारयति ] प्रत्याहार का पाठ पढूँ । इन्द्रियों को विषय व्यावृत्त करनेवाला होऊँ । उदीची दिक् का अधिपति कुबेर बनूँ । सब धनों को अध्यक्ष होता हुआ उन्नतिपथ पर बढ़ता चलूँ [उद् अञ्च्] । [३] हे प्रभो ! (त्वया अध्यक्षेण) = आप अध्यक्ष के द्वारा (पृतनाः) = हम सब संग्रामों को (जयेम) = जीतनेवाले हों । सब पृतनाओं को, शत्रु-सैन्यों को जीतकर हम संग्राम में विजयी हों । 'इन्द्र' बनकर काम को जीतूं। 'यम' बनकर क्रोध को पराजित करनेवाला बनूँ। 'वरुण' बनकर लोभ से ऊपर उठूं । तथा 'कुवेर' होकर मोह से ऊपर रहूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ-संग्रामों में मैं शक्तिशाली बनूँ, सब दिशाओं का, प्रभु की अध्यक्षता में विजय करूँ।

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    विषय

    विश्वेदेव। तेजस्वी पुरुष, अग्रनायक, सेनापति, और राजा के कर्त्तव्य। सेना, प्रजा आदि प्रधान व्यक्ति को चमकावें, उसका मान आदर, सत्कार और शक्ति-वर्धन करें।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) तेजस्विन् ! स्वयंप्रकाश ! अग्रणी ! सेनापते ! राजन् ! प्रभो ! (वि-हवेषु) संग्रामों और यज्ञों में (मम वर्चः अस्तु) मेरा तेज हो, (त्वा इन्धानाः) तुझे प्रदीप्त करते हुए, तुझे प्रकाशित करते हुए हम (तन्वं) अपने शरीर और विस्तृत राष्ट्र को (पुषेम) पुष्ट करें (मह्यं) मेरे लिये (चतस्रः प्रदिशः नमन्ताम्) चारों दिशाएं झुकें। (त्वया) तुझ (अध्यक्षेण) अध्यक्ष से हम (पृतनाः जयेम) समस्त सेनाओं का विजय करें वा तुझ सेनापति द्वारा हम समस्त सेनाएं वा शत्रुओं का विजय करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्विहव्यः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:—१, ३ विराट् त्रिष्टुप्। २, ५, ८ त्रिष्टुप्। ३, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ७ भुरिक् त्रिष्टुप्। ९ पादनिचृज्जगती॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अत्र सूक्ते सेनाध्यक्षः शत्रूणां नाशकः राष्ट्रे भ्रमणं कृत्वा दुष्टान् प्राप्य दण्डयेत्, विद्वांसो राजानं प्रोत्साहयेयुः, परमात्मा सर्वसूर्यादीनां धारकाणामपि धारकस्तस्योपासना कर्त्तव्येत्येवमादयो विषयाः सन्ति।

    पदार्थः

    (अग्ने) हे अग्रणी ! सेनानायक ! ब्रह्मन् ! वा (विहवेषु) विविधह्वानस्थानेषु सङ्ग्रामेषु यज्ञेषु वा (मम वर्चः-अस्तु) मयि ‘सप्तम्यर्थे षष्ठी’ वर्चस्तेजो भवतु (वयं त्वा-इन्धानाः-तन्वं पुषेम) वयं त्वां दीपयन्तो बलवच्छब्दैः प्रोत्साहयन्तः स्वात्मानं पुष्येम “आत्मा वै तनूः” [श० ६।७।२।६] (प्रदिशः-चतस्रः) प्रमुखदिशश्चतस्रस्तत्रस्थाः-मनुष्याः प्रजाजना यद्वा सामान्यजनाः (मह्यं नमन्ताम्) मह्यं स्वात्मानं समर्पयन्तु (त्वया-अध्यक्षेण) त्वया सेनाध्यक्षेण यद्वा विद्याध्यक्षेण (पृतनाः-जयेम) सङ्ग्रामान् “पृतनाः सङ्ग्रामनाम” [निघ० २।१७] जयेम यद्वा मनुष्यान् “पृतनाः मनुष्यनाम” [निघ० २।३] अभिभवेम ॥१॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light of life, leader and pioneer of men, let there be vigour and lustre in me in the battles of life. Let us shine and rise in body, mind and soul while we kindle you in the yajnic development of human society. Let the four directions of life and the people there be favourable to me in love and faith, and let us win the battles of life under your leadership and presiding power.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    राजाचा सेनाध्यक्ष तेजस्वी, चारही दिशांत राहणाऱ्या शत्रूवर विजय प्राप्त करणारा असावा व त्याचा पुरोहित महाविद्वान आपल्या शब्दांनी प्रोत्साहित करणारा असावा. ॥१॥

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